अभिव्यक्ति की आजादी की स्वतंत्रता पर जिसमें मीडिया की स्वतंत्रता भी शामिल है जब भी राज्य की तरफ से हमला हुआ है तो यही कहा गया है कि इससे राष्ट्र की संप्रभुता, सुरक्षा और लोक व्यवस्था को क्षति पहुंचती है। ऎसा लगता है कि मीडिया की स्वतंत्रता को बाधित करने के लिए एक चौतरफा कोशिश चल रही है। कार्यपालिका ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट के माध्यम से मीडया के हाथ बंाधने का प्रयास करती है। विधायिका विशेषाधिकार कानून से मीडिया को रोकती है। न्यायपालिक के पास अदालत की अवमानना का चाबुक है, तो सामान्य आदमी की जुबान पर लगाम लगाने के लिए मानहानि कानून है। मीडिया को बांधने के प्रयास सभी ओर से हो रहे हैं। तमाम सरकारी संस्थाओं ने अपने प्रतिवेदन और साथ ही सुप्रीम कोर्ट के फैसले में बार-बार यह कहा गया है कि गोपनीयता कानून की उपादेयता खत्म हो गई है। 12 जून 2006 को दो घटनाएं हुई। मोइली की अध्यक्षता वाले द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने अपनी रिपोर्ट जारी की जिसमें गोपनीयता कानून, 1923 को खत्म करने की अनुशंसा की गई। अनुशंसा का आधार था सूचना का अधिकार, 2005 का प्रभाव में आना। हालांकि उसी दिन किसी के जन्मदिन की पार्टी में मीका ने राखी सावंत का चुंबन किया और न्यूज चैनल दिन भर इस खबर को दिखाते रहे, पर यह खबर दबा दी गई। शायद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को यह जानकारी नहीं है कि गोपनीयता कानून तकनीकी रूप से अब वजूद मे नहीं है। यह कानून अब अस्त्तिवहीन हो चुका है। मीडिया विरोधी अतीतयह कानून सबसे पहले ब्रिटेन में 1889 में मीडिया को दबाने के लिए वजूद में आया था। उसी समय यह भारत में भी लागू कर दिया गया था। हुआ यह था कि 11 साल पहले 1878 में ब्रिटिश फॉरेन सर्विस के एक कर्मी ने मारविन ने रूस और ब्रिटेन के बीच हुए एक करार को लीक कर दिया था, जो कि उस समय ग्लोग मैग्जीन में छपा। पूरी संसद में हंगामा हो गया। पूरे देश में सरकार के खिलाफ चर्चा होने लगी। चूंकि इस समय ऎसा कोई कानून नहीं था इसलिए मारविन को जेल नहीं भेजा जा सका। नया कानून भारत में भी लागू हो गया था, पर इस कानून में कड़े प्रावधान नहीं थे, लिहाजा आजादी के आंदोलन में सक्रिय देशभक्त पत्रकारों पर कार्रवाई नहीं हो पा रही थी। 1911 में ब्रिटिश संसद ने इसे नया प्रारूप दिया जो कि 1920 में पूरी तरह से लागू किया गया। भारत में इसी कानून को 1923 में ऑफिशियल सीके्रट एक्ट के नाम से लागू किया गया। यह तब से भारत में लागू चला आ रहा है। इसका प्रयोग पंडित नेहरू के कार्यकाल में खासकर 1951-52 के कार्यकाल में बार-बार हुआ। आज सूचना का अधिकार कानून आने के बाद इसका औचित्य नहीं रहा और यह निष्प्रभ हो गया है। भारत के संविधान में पहला संशोधन भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने के लिए ही था जो कि नेहरू के कार्यकाल के दौरान ही लाया गया था। इस संशोधन के अंतर्गत अभिव्यक्ति को स्वतंत्रता को बाधित करने के लिए तीन निर्बंध शामिल किए गए, जो कि मूल संविधान में नहीं थे। ये संशोधन थे कि लोक व्यवस्था , विदेशी राज्यों के साथ दोस्ताना संबंध और किसी को अपराध के लिए उकसाने पर राज्य मीडिया को अथवा किसी व्यक्ति को अभिव्यक्ति से रोक सकता है। दंडित कर सकता है। इस संविधान संशोधन की भी एक कहानी है। थापर बनाम स्टेट ऑफ मद्रास मामले में सरकार को सुप्रीम कोर्ट में उस समय मंुह की खानी पड़ी जब "क्रॉसरोड" अखबार का प्रसार रोकने के लिए राज्य ने एक सर्कुलर जारी किया कि इन जगहों पर इस अखबार का प्रसार नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने इस सर्कुलर को गलत ठहरा दिया। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को प्रभावहीन करने के लिए नेहरू संविधान के इस प्रथम संशोधन को लाए थे, जिसमें अभिव्यक्ति की, मीडिया की स्वतंत्रता को बाधित करने के लिए लोक-व्यवस्था के निबंüध को शामिल किया गया। इस दौरान 195 अखबारों के खिलाफ कार्रवाई की गई।
rajsthan patrika
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