Monday 26 June 2017

राष्ट्रपति की संस्था: कुछ खट्टे –मीठे अनुभव


भारत ६७ साल के गणतंत्र में आगामी १७ जुलाई को राष्ट्रपति के रूप में १४वें व्यक्ति को चुनेगा. सत्ताधारी गठबंधन (एन डी ए ) ने जहाँ रामनाथ कोविंद को प्रत्याशी बनाया है वहीं विपक्षी गठबंधन (यू पी ए) ने मीरा कुमार को. दोनों दलित नेता हैं. कोविंद एक सप्ताह पहले तक बिहार के राज्यपाल थे तो मीरा कुमार बिहार की रहने वाली हैं. दोनों अति-मृदुभाषी लिहाज़ा अजातशत्रु हैं. मीरा कुमार लोक सभा की स्पीकर के रूप में सुचारूरूप से सदन चलाने के लिए जानी गयी तो कोविंद उस राज्य में जिसमें नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सत्ताधरी गठबंधन और प्रमुख विपक्षी दल –भारतीय जनता पार्टी—के बीच हर रोज़ तलवारें खिची रहती है विवाद से परे रहे. और शायद उनकी यही क्षमता उन्हें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का प्रिय बनाती हैं. देश को अप्केशा रहती है कि राष्ट्रपति राग-द्वेष , लोभ –मोह से परे हो कर अपना कार्य करे.

भारतीय संविधान में राष्ट्रपति की स्थिति संविधान के दो अनुच्छेदों के बीच की रस्साकशी में डालती है. एक तरफ संविधान के अनुच्छेद ६० के तहत केवल दो हीं पद हैं जो संविधान के अभिरक्षण, परिरक्षण और संरक्षण की शपथ लेते हैं जबकि अन्य सभी पदाधिकारी यहाँ तक कि प्रधानमंत्री और भारत के मुख्य न्यायाधीश भी संविधान में निष्ठा की शपथ लेते हैं. वे पद है-- राष्ट्रपति और राज्यपाल के।  वहीं दूसरी ओर राष्ट्रपति के लिए अनुच्छेद ७४ के तहत मंत्रिमंडल की राय के अनुरूप कार्य करना बाध्यकारी बनाया गया है. लिहाज़ा संकट यह रहता है कि राष्ट्रपति अपनी शपथ के अनुसार संविधान की रक्षा करे या बाध्यकारी प्रावधानों के तहत “रबर स्टेम्प” बना रहे. ऐसे अवसर आये जब पूर्व राष्ट्रपतियों ने अपने विवेक को तरजीह दी और यह प्रजातन्त्र की खूबसूरती रही कि कार्यपालिका ने उसका सम्मान किया.      

भारत के गणतंत्र बनने के बाद राष्ट्रपति पद के प्रथम पांच साल में दो ऐसे तनाव की घटनाएँ हुई जिन्होंने राष्ट्रपति-कार्यपालिका के संबंधों को प्रभावित किया. पहली थी राजेंद्र प्रसाद का नेहरु के स्पष्टरूप से मना करने के बावजूद सोमनाथ मंदिर जाना और दूसरा हिन्दू कोड बिल पर अपनी मुहर न लगाना. पहले मामले में नेहरु कैबिनेट के मंत्री के एम् मुन्सी जो कि सोमनाथ मंदिर जीर्णोद्धार समिति के अध्यक्ष भी थे, मंदिर के कायाकल्प के बाद राष्ट्रपति से उद्घाटन करने का आग्रह करने गए जिसे राजेंद्र प्रसाद ने तत्काल स्वीकार कर लिया. नेहरु आग बबूला हो गए क्योंकि उन्हें यह राज्य के “धर्मनिरपेक्ष” स्वरुप से बिलकुल अलग लगा. नेहरु ने पहले तो मुन्सी के पत्र लिख कर लताड़ा जिसका उतना हीं सख्त जवाब मुन्सी ने भी दिया. फिर राजेंद्र प्रसाद से न जाने की बात कही. बहरहाल राष्ट्रपति गये।

हिन्दू कोड बिल पर तो संवैधानिक प्रश्न उठ खडा हुआ. राष्ट्रपति का कहना था कि एक तो उस समय का संसद प्रतिनिधि स्वरुप नहीं रखता क्योंकि संविधान सभा हीं संसद के रूप में काम कर रही थी. दूसरा प्रसाद का मानना था राष्ट्रपति कार्यपालिका की हर सलाह मानने को बाध्य नहीं है. उन्होंने नेहरु को पत्र लिखा : इस मामले में मंत्रिमंडल की राय मानने को बाध्य नहीं हूँ. फिर वर्तमान संसद अस्थायी है और चुन कर नहीं आयी है लिहाज़ा मैं इस संसद की राय मानने को बाध्य नहीं हूँ”.  इस पर नेहरु ने प्रसाद को लिखा “हमारी राय में राष्ट्रपति के पास इस विधेयक के मामले में संसद की इच्छा के विरुद्ध जाने की कोई शक्ति नहीं है. संवैधानिक सरकार की अवधारणा के मूल में हीं यह बात विहित है कि राष्ट्रपति उसकी राय के खिलाफ नहीं जा सकता. जहाँ तक इस संसद (अस्थायी) की शक्तियों का सवाल है इस मुद्दे पर स्पीकर ने अपनी व्यवस्था पहले हीं दे दी है और यह संसद पूरी तरह विधायक बनाने के लिए सक्षम है”.        
            
इसके बाद के राष्ट्रपतियों का कार्यकाल बगैर विवाद के चलता रहा. और राजनीतिक नैतिकता में गिरावट आती रही. ४२ वें संविधान संशोधन के तहत राष्ट्रपति को बाध्य किया गया कि वह संसद में पारित किसी भी विधेयक पर आँख मुड़कर हस्ताक्षर करने को बाध्य है. दो साल बाद जब मोरारजी के नेतृत्व में जनता सरकार आयी तो उसने इस संशोधन में इतना हीं बदलाव किया कि अब राष्ट्रपति किसी भी विधेयक पर हस्ताक्षर करने को मजबूर होगा लेकिन एक बार वह उस विधेयक को पुनर्विचार के लिए संसद के पास भेज सकता है. भारत के अब तक के इतिहास में सबसे ज्यादा विवाद राष्ट्रपति जैल सिंह और प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के बीच रहा जो गली-कूचों तक सुना गया. लेकिन इसके पहले की इंदिरागांधी की नीति पर कुछ प्रकाश डालना जरूरी है. १९६९ में इंदिरागांधी ने निजलिंगप्पा से झगडे के बाद पहली बार पार्टी में दो फाड़ के मार्ग प्रशस्त किया. नीलम संजीव रेड्डी औपचारिकरूप से  कांग्रेस प्रत्याशी घोषित किये गए लेकिन इंदिरागांधी उन्हें हरा कर विरोधी पक्ष को सन्देश देना चाहती थी. वी वी गिरी को स्वतंत्र रूप से खड़ा किया गया और इंदिरा गाँधी ने देश भर के सभी कांग्रेस सांसदों और विधायकों को “अंतरात्मा की आवाज पर वोट देने को कहा”. गिरी जीत गए. इंदिरागांधी का वर्चस्व कायम रहा. ज्ञानी जैल सिंह तब आलोचना के पात्र बन गए जब श्रीमती गाँधी द्वारा उन्हें राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाये जाने पर इस सिख नेता ने कहा “अगर श्रीमती गाँधी कहें तो मैं झाडू-पोंछा भी करूंगा”. बहरहाल इंदिरागांधी की हत्या के समय राष्ट्रपति जैल सिंह विदेशी में थे और तत्काल वापस लौटे. रास्ते में अफसरों से उन्होंने कहा कि वह राजीव गाँधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ के लिए आमत्रित करेंगे. इस पर कुछ अफसरों ने सलाह दी कि कांग्रेस संसदीय पार्टी की राय ले ली जाये तो बेहतर रहेगा. सिंह इतने आतुर थे कि उन्होंने ने अफसरों से कहा “संसदीय पार्टी कुछ भी कहे मैं तो राजीव् को हीं शपथ दिलवाऊंगा क्योंकि मेरे राष्ट्रपति पद पर चुने जाने में उनका बहुत बड़ा योगदान है”. और हुआ भी वही. राजीव गाँधी प्रधानमंत्री बने.

लेकिन डेढ़ साल के भीतर हीं दोनों के बीच सम्बन्ध इतने खराब हो गए कि राजीव के नज़दीक़ी के पी तिवारी सरीखे लोग संसद में आरोप लगने लगे कि राष्ट्रपति भवन में खालिस्तानी आतंकवादी शरण ले रहे हैं. सरकार ने जैल सिंह की विदेश यात्रा की अनुमति देना बंद कर दिया. परम्परा है कि प्रधानमंत्री विदेश यात्रा से लौटने के बाद राष्ट्रपति को ब्रीफ करता है पर राजीव् गाँधी दो साल तक राष्ट्रपति भवन नहीं गए. कैबिनेट के मंत्री भी राष्ट्रपति के बुलाने पर नही जाते थे. प्रतिक्रिया में राष्ट्रपति भवन विपक्ष के नेताओं का अड्डा बना. इसी बीच सरकार डाक विधेयक ले कर आयी. इसके प्रावधान का आशय सरकार को किसी की भी चिट्ठी खोल कर पढने के अधिकार देने का था. जैल सिंह ने इस विधेयक को न तो लौटाया ना हीं  दस्तखत किया. दरअसल संविधान में राष्ट्रपति दोबारा हस्ताक्षर करने को बाध्य तो है पर संविधान यह नहीं बताता कि राष्ट्रपति किसी विधेयक पर कितने दिन के भीतर हस्ताक्षर करे.

स्वर्गीय डॉ अब्दुल कलाम ने अपनी राष्ट्रपति काल में पहली बार एक गलती की जब उनसे उनकी मास्को यात्रा के दौरान आधी रात को बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू करने के आदेश पर हस्ताक्षर करवाए गए. लेकिन तत्काल बाद उन्हें यह अहसास हुआ कि राष्ट्रपति को अपने विवेक से सही –गलत देखने और तदनुसार निर्णय लेने की क्षमता है. लिहाज़ा जब कांग्रेस सरकार ने ऑफिस ऑफ़ प्रॉफिट विधेयक सदन से पास करवा कर राष्ट्रपति के पास भेजा तो कलाम ने संविधान के तमाम जानकार जैसे वी एन खरे (भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश) से सलाह ली और बिल कुछ सलाह के साथ वापस कर दिया. वास्तव में अगर कलाम उस बिल पर संस्तुति कर देता तो वह एक गलत कदम होता क्योंकि उसमें कुछ लोगों को जो पड़ पर रहते हुए अन्य पदों पर काबिज़ थे संविधान के प्रावधानों से बचाया जा रहा था जबकि अन्य लोगों की सदस्यता पर आंच आ रही थी.

फिर भी कुल मिला कर राष्ट्रपति की संस्था भारत में पिछले ६७ सालों से एक वाचडॉग का कम कर रही है और प्रजातन्त्र को मजबूती की और ले जाने में मददगार है.

lokmat