Wednesday 10 July 2013

इशरत एनकाउंटर: राज्य अभिकरणों का गैर-कानूनी रास्ते का औचित्य



इशरत जहाँ एनकाउंटर से दो सवाल उभरते हैं. क्या वह पाकिस्तान के आतंकवादी गुट की सदस्य के रूप में काम कर रही थी? और अगर कर भी रही थी तो क्या पुलिस को आई बी के अधिकारियों से मिल कर उसे फर्जी एनकाउंटर में मारना उचित  था? बौद्धिक स्तर पर सोचने पर स्पष्ट लगता है कि राज्य के अभिकरणों को इस तरह का अधिकार देने का मतलब संविधान , न्यायालय और कानून की व्यवस्था को नष्ट कर एक अधिनायकवादी व्यवस्था को जन्म देना है. अच्छा लगता है दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में बैठ कर प्रजातंत्र  या संविधान के मौलिक स्वरुप को अक्षुण्ण बनाये रखने का भाव और वह भी तब जब बुद्धिजीवी स्वयं कभी भी अपने जीवन में आतंकवाद की विभीषिका न झेला हो.

पर जरा गौर करें. अपराध न्याय व्यवस्था गवाह व तथ्यों पर चलती है. गवाह या साक्ष्य जुटाने वाला किसी का बाप, किसी का बेटा है, जिसे नौकरी के बाद घर आना है. आतंकवादी के लिए कोई “रूल ऑफ़ गेम” नहीं है. झारखण्ड के पाकुर जिले का एस पी व पांच पुलिस जवान १०० माओवादियों की गोली का निशाना बनते हैं. हकीकत यह है कि जनता का एक भी गवाह यह नहीं कहने जा रहा है कि उसने अमुक माओवादी को गोली चलाते देखा है. न्यायपालिका का यह हाल है कि बिहार के बथानी टोला में २३ दलितों को सवर्णों ने हत्या कर दी  लेकिन सेशंस कोर्ट के फैसले को उलटते हुए हाई कोर्ट ने “साक्ष्य के अभाव” में सभी आरोपियों को छोड़ दिया.    

आतंकवादी बदला लेगा , यह डर सभी को होता है , जनता से लेकर सत्ता में बैठे लोगों तक जिनके परिवार हैं , भविष्य में रिटायरमेंट है और वर्तमान में उन्हीं क्षेत्रों में रहना है. राज्य अभिकरण बदला ले नहीं सकता. न्यायपालिका संविधान के अनुच्छेद २१ के तहत “विधि सम्मत प्रक्रिया” से और अनुच्छेद १४ के बराबरी के अधिकार से बंधी हुई है. कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में इस तरह के आतंकवाद सम्बंधित गतिविधियों पर लगाम लगने की अंतर्निष्ठ व्यवस्था संभव हीं नहीं है?

रॉ और आई बी में एक व्यवस्था है जिसके तहत वे अपने इन्फोर्मेर्स को अपने एस एस फण्ड से पैसे देकर गुप्त सूचना हासिल करते है. कई बार इन इन्फोर्मेरों के लिए गैरकानूनी मदद भी की जाती है. नैतिकतावादियों के लिए यह भी गलत होगा. लेकिन राज्य का कार्य एक दिन भी नहीं चलेगा अगर इस व्यवस्था को ख़त्म कर दिया जाये.

इशरत के केस पर गौर करें. पाकिस्तान के इनफॉर्मर से इंटेलिजेंस रिपोर्ट आती है कि मोदी को मारने के लिए लश्कर या कोई और संगठन कुछ फिदायीन तैयार कर रहा है. बमुश्किल तमाम दो ऐसे लोग शक के घेरे में आते हैं जिनका पाकिस्तान-लिंक स्थापित होता है. अगर इन्हें न्याय की प्रक्रिया से गुजरा जाये तो ज़रूरी नहीं कि लश्कर अगला दस्ता तैयार ना कर ले. और यह भी ज़रूरी नहीं कि अगले दस्ते के बारे में भी इतनी हीं सटीक खुफिया जानकारी मिल सके. लिहाज़ा दूसरे देश से संचालित आतंकवाद के प्रति इन एजेंसियों का रवैया मिलिट्री भाव से प्रभावित होता है और आमतौर पर समाज भी इसे स्वीकार करता है.

एक ताज़ा उदाहरण लें. पंजाब पुलिस के एक सब-इंस्पेक्टर सुरजीत सिंह ने एक टीवी चैनल को दिए गए इंटरव्यू में कबूल किया ही कि अधिकारियों के कहने पर उसने ८८ फर्जी एनकाउंटर किये. यह बात उसने पश्चाताप के भाव में कही और साथ हीं यह भी बताया कि कई बार उसे अपने कुकृत्य के प्रायश्चित के लिए आत्महत्या तक की बात सोची. अभी दो दन पहले सुरजीत न पंजाब हाई कोर्ट से गुहार के है कि उसे सुरक्षा प्रदान की जाये क्योंकि उसके इस बयान के बाद से कई अधिकारी उसके जान के दुश्मन हो गए हैं. इस पुलिस दरोगा ने यह भी बताया कि १९८९ (सिख आतंकवाद के चरम काल में जिसकी वजह से के पी एस गिल को पंजाब पुलिस का मुखिया बनाया गया था) में नौकरी में आने के बाद से कैसे –कैसे फर्जी एनकाउंटर के पहले हथियार जुटाए जाते थे जिन्हें मृतकों के शव के पास रख दया जाता था. फर्जी एनकाउंटरों में मारे गए इन लोगों में कुछ तो आतंकवादी थे लेकिन कुछ अज्ञात. हाई कोर्ट में अपनी याचिका में सुरजीत ने १६ ऐसे फर्जी एनकाउंटर का व्योरा दिया है जिनमें करीब तीन दर्ज़न लोगों को उसने गोली का निशाना बनाया. इनमें से कुछ के बारे में वह कुछ भी नहीं जानता था. 

उस दौरान गिल का कहना था कि आतंकवादी सरगनाओं को अगर सिर्फ इतना भय रहे कि उनका नाम पुलिस की “अ” सूची में आ गया है और अब उनकी जिंदगी ज्यादा से ज्यादा छह महीने बची है, सिख आतंकवाद ख़त्म हो जाएगा. गिल ने किया भी ऐसे हीं आतंकवाद को ख़त्म अपने मशहूर “कैट” एक्शन (काउंटर-एंटी-टेररिस्ट एक्शन) से. जब खूंखार आतंकी गुरुचरण सिंह मनोचहल ने एक पुलिस अधीक्षक के पीता का अपहरण कर लिया तो गिल ने सिर्फ एक ऑपरेशन किया. वह था मनोचहल के बेटे का अपहरण. पंजाब पुलिस का आतंकियों को सन्देश स्पष्ट था “कप्तान के पिता को तुम मार दो, अगले दिन हीं पुलिस तुम्हारे बेटे को मार देगी”. मनोचहल या अन्य सिख आतंकवादियों को पंजाब पुलिस का यह आपराधिक रूप समझ में हीं नहीं आया. सिख आतंकवाद अपनी मौत मरने लगा. कहना ना होगा कि इस तरह  के कैट ऑपरेशन के दौरान पुलिस अपनी वर्दी , बिल्ले सब उतार कर काम करती थी. दरअसल एस आई बी (आई बी की राज्य इकाई) के लोग पूरी निष्ठां एवं समर्पण के भाव से इस कार्य में पंजाब पुलिस की मदद करते थे.

गिल की सफलता की वजह से उन्हें दो बार पंजाब पुलिस का मुखिया बनाया गया और भारत सरकार ने इस पद पर आने के साल भर बाद हीं उन्हें चौथे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मश्री से नवाज़ा. आज भी देश का एक बड़ा वर्ग गिल को सम्मान की नज़रों से देखता है. हालांकि कुछ मानवाधिकार संस्थाओं से जुड़े लोग उनपर आरोप लगते रहे हैं.

अब मान लीजिये पाठकों के पास दो तथ्य अलग –अलग आये. सब-इंस्पेक्टर सुरजीत का कहना कि कप्तान के कहने पर उसने फर्जी एनकाउंटर किया , लेकिन साथ में यह भी बताया जाये कि एनकाउंटर में मारे गए आतंकवादी ने कुछ हीं दिन पहले हेमकुंड गुरुद्वारा का दर्शन कर लौट रहे ४० से अधिक तीर्थयात्रियों, जिनमें बच्चे भी थे, को पीलीभीत में बस रोक कर मौत के घाट उतार दिया था. ऐसे में पाठकों की प्रतिक्रया मानवाधिकार के अगुवाओं से बिलकुल अलग होगी. अगर उन लोगों से पूछा जाये जिनके बेटे, बाप, बहन आतंकवादियों के हाथ मारे गए थे, कि गिल का “कैट” एक्शन कैसा था तो शायद  वे गिल को भगवान् का दूत बताएं.

अमेरिका में भी सी आई ए को राष्ट्रपति की ओर से खुली छूट मिलती है इस तरह के ऑपरेशन करने की. ऍफ़ बी आई को यहाँ तक अधिकार हैं कि वह अपने गवाह की जीवन को सुरक्षित करने के लिए उसकी पूरी पहचान बदल कर नया नाम व धन देकर नए शहर में बसा सकता है.

 इशरत के मामले में आई बी के अधिकारी पर आरोप लगने का शुद्ध मतलब यह होगा कि कल से आई बी ऐसा कोई भी काम नहीं करेगी जिस में रंच मात्र भी अनैतिकता का आभास हो. वह दिन देश के लिए संकटों का अम्बार लायेगा.

बेहतर तो यह होता कि इन सस्थाओं को पूरी छूट देते हुए इनकी मोनिटरिंग के लिए शीर्ष स्तर पर व्यवस्था हो ताकि इशरत जहाँ के मामले में इनकी भूमिका पर नज़र रखी जाये और दूसरी ओर इस तरह के अपराधों पर न्याय-व्यवस्था को और सख्त तथा चुस्त-दुरुस्त रखा जाये ताकि जज केवल क्रिकेट के अम्पायर की भूमिका में ना रह कर सत्य की तह तक जाये. बौद्धिक सोच से यह कहीं से न्यायोचित नहीं लगता परन्तु इस बात को देखते हुए कि विदेश से चलाये जा रहे आतंकवाद के मद्दे नज़र मानवाधिकार को पुनर्परिभाषित करने की ज़रुरत होगी और तब राज्य अभिकरणों को संवेदनशील परन्तु निष्ठुर बनाना पडेगा.   

 jagran 

इशरत एनकाउंटर: राज्य अभिकरणों का गैर-कानूनी रास्ते का औचित्य



इशरत जहाँ एनकाउंटर से दो सवाल उभरते हैं. क्या वह पाकिस्तान के आतंकवादी गुट की सदस्य के रूप में काम कर रही थी? और अगर कर भी रही थी तो क्या पुलिस को आई बी के अधिकारियों से मिल कर उसे फर्जी एनकाउंटर में मारना उचित  था? बौद्धिक स्तर पर सोचने पर स्पष्ट लगता है कि राज्य के अभिकरणों को इस तरह का अधिकार देने का मतलब संविधान , न्यायालय और कानून की व्यवस्था को नष्ट कर एक अधिनायकवादी व्यवस्था को जन्म देना है. अच्छा लगता है दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में बैठ कर प्रजातंत्र  या संविधान के मौलिक स्वरुप को अक्षुण्ण बनाये रखने का भाव और वह भी तब जब बुद्धिजीवी स्वयं कभी भी अपने जीवन में आतंकवाद की विभीषिका न झेला हो.

पर जरा गौर करें. अपराध न्याय व्यवस्था गवाह व तथ्यों पर चलती है. गवाह या साक्ष्य जुटाने वाला किसी का बाप, किसी का बेटा है, जिसे नौकरी के बाद घर आना है. आतंकवादी के लिए कोई “रूल ऑफ़ गेम” नहीं है. झारखण्ड के पाकुर जिले का एस पी व पांच पुलिस जवान १०० माओवादियों की गोली का निशाना बनते हैं. हकीकत यह है कि जनता का एक भी गवाह यह नहीं कहने जा रहा है कि उसने अमुक माओवादी को गोली चलाते देखा है. न्यायपालिका का यह हाल है कि बिहार के बथानी टोला में २३ दलितों को सवर्णों ने हत्या कर दी  लेकिन सेशंस कोर्ट के फैसले को उलटते हुए हाई कोर्ट ने “साक्ष्य के अभाव” में सभी आरोपियों को छोड़ दिया.    

आतंकवादी बदला लेगा , यह डर सभी को होता है , जनता से लेकर सत्ता में बैठे लोगों तक जिनके परिवार हैं , भविष्य में रिटायरमेंट है और वर्तमान में उन्हीं क्षेत्रों में रहना है. राज्य अभिकरण बदला ले नहीं सकता. न्यायपालिका संविधान के अनुच्छेद २१ के तहत “विधि सम्मत प्रक्रिया” से और अनुच्छेद १४ के बराबरी के अधिकार से बंधी हुई है. कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में इस तरह के आतंकवाद सम्बंधित गतिविधियों पर लगाम लगने की अंतर्निष्ठ व्यवस्था संभव हीं नहीं है?

रॉ और आई बी में एक व्यवस्था है जिसके तहत वे अपने इन्फोर्मेर्स को अपने एस एस फण्ड से पैसे देकर गुप्त सूचना हासिल करते है. कई बार इन इन्फोर्मेरों के लिए गैरकानूनी मदद भी की जाती है. नैतिकतावादियों के लिए यह भी गलत होगा. लेकिन राज्य का कार्य एक दिन भी नहीं चलेगा अगर इस व्यवस्था को ख़त्म कर दिया जाये.

इशरत के केस पर गौर करें. पाकिस्तान के इनफॉर्मर से इंटेलिजेंस रिपोर्ट आती है कि मोदी को मारने के लिए लश्कर या कोई और संगठन कुछ फिदायीन तैयार कर रहा है. बमुश्किल तमाम दो ऐसे लोग शक के घेरे में आते हैं जिनका पाकिस्तान-लिंक स्थापित होता है. अगर इन्हें न्याय की प्रक्रिया से गुजरा जाये तो ज़रूरी नहीं कि लश्कर अगला दस्ता तैयार ना कर ले. और यह भी ज़रूरी नहीं कि अगले दस्ते के बारे में भी इतनी हीं सटीक खुफिया जानकारी मिल सके. लिहाज़ा दूसरे देश से संचालित आतंकवाद के प्रति इन एजेंसियों का रवैया मिलिट्री भाव से प्रभावित होता है और आमतौर पर समाज भी इसे स्वीकार करता है.

एक ताज़ा उदाहरण लें. पंजाब पुलिस के एक सब-इंस्पेक्टर सुरजीत सिंह ने एक टीवी चैनल को दिए गए इंटरव्यू में कबूल किया ही कि अधिकारियों के कहने पर उसने ८८ फर्जी एनकाउंटर किये. यह बात उसने पश्चाताप के भाव में कही और साथ हीं यह भी बताया कि कई बार उसे अपने कुकृत्य के प्रायश्चित के लिए आत्महत्या तक की बात सोची. अभी दो दन पहले सुरजीत न पंजाब हाई कोर्ट से गुहार के है कि उसे सुरक्षा प्रदान की जाये क्योंकि उसके इस बयान के बाद से कई अधिकारी उसके जान के दुश्मन हो गए हैं. इस पुलिस दरोगा ने यह भी बताया कि १९८९ (सिख आतंकवाद के चरम काल में जिसकी वजह से के पी एस गिल को पंजाब पुलिस का मुखिया बनाया गया था) में नौकरी में आने के बाद से कैसे –कैसे फर्जी एनकाउंटर के पहले हथियार जुटाए जाते थे जिन्हें मृतकों के शव के पास रख दया जाता था. फर्जी एनकाउंटरों में मारे गए इन लोगों में कुछ तो आतंकवादी थे लेकिन कुछ अज्ञात. हाई कोर्ट में अपनी याचिका में सुरजीत ने १६ ऐसे फर्जी एनकाउंटर का व्योरा दिया है जिनमें करीब तीन दर्ज़न लोगों को उसने गोली का निशाना बनाया. इनमें से कुछ के बारे में वह कुछ भी नहीं जानता था. 

उस दौरान गिल का कहना था कि आतंकवादी सरगनाओं को अगर सिर्फ इतना भय रहे कि उनका नाम पुलिस की “अ” सूची में आ गया है और अब उनकी जिंदगी ज्यादा से ज्यादा छह महीने बची है, सिख आतंकवाद ख़त्म हो जाएगा. गिल ने किया भी ऐसे हीं आतंकवाद को ख़त्म अपने मशहूर “कैट” एक्शन (काउंटर-एंटी-टेररिस्ट एक्शन) से. जब खूंखार आतंकी गुरुचरण सिंह मनोचहल ने एक पुलिस अधीक्षक के पीता का अपहरण कर लिया तो गिल ने सिर्फ एक ऑपरेशन किया. वह था मनोचहल के बेटे का अपहरण. पंजाब पुलिस का आतंकियों को सन्देश स्पष्ट था “कप्तान के पिता को तुम मार दो, अगले दिन हीं पुलिस तुम्हारे बेटे को मार देगी”. मनोचहल या अन्य सिख आतंकवादियों को पंजाब पुलिस का यह आपराधिक रूप समझ में हीं नहीं आया. सिख आतंकवाद अपनी मौत मरने लगा. कहना ना होगा कि इस तरह  के कैट ऑपरेशन के दौरान पुलिस अपनी वर्दी , बिल्ले सब उतार कर काम करती थी. दरअसल एस आई बी (आई बी की राज्य इकाई) के लोग पूरी निष्ठां एवं समर्पण के भाव से इस कार्य में पंजाब पुलिस की मदद करते थे.

गिल की सफलता की वजह से उन्हें दो बार पंजाब पुलिस का मुखिया बनाया गया और भारत सरकार ने इस पद पर आने के साल भर बाद हीं उन्हें चौथे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मश्री से नवाज़ा. आज भी देश का एक बड़ा वर्ग गिल को सम्मान की नज़रों से देखता है. हालांकि कुछ मानवाधिकार संस्थाओं से जुड़े लोग उनपर आरोप लगते रहे हैं.

अब मान लीजिये पाठकों के पास दो तथ्य अलग –अलग आये. सब-इंस्पेक्टर सुरजीत का कहना कि कप्तान के कहने पर उसने फर्जी एनकाउंटर किया , लेकिन साथ में यह भी बताया जाये कि एनकाउंटर में मारे गए आतंकवादी ने कुछ हीं दिन पहले हेमकुंड गुरुद्वारा का दर्शन कर लौट रहे ४० से अधिक तीर्थयात्रियों, जिनमें बच्चे भी थे, को पीलीभीत में बस रोक कर मौत के घाट उतार दिया था. ऐसे में पाठकों की प्रतिक्रया मानवाधिकार के अगुवाओं से बिलकुल अलग होगी. अगर उन लोगों से पूछा जाये जिनके बेटे, बाप, बहन आतंकवादियों के हाथ मारे गए थे, कि गिल का “कैट” एक्शन कैसा था तो शायद  वे गिल को भगवान् का दूत बताएं.

अमेरिका में भी सी आई ए को राष्ट्रपति की ओर से खुली छूट मिलती है इस तरह के ऑपरेशन करने की. ऍफ़ बी आई को यहाँ तक अधिकार हैं कि वह अपने गवाह की जीवन को सुरक्षित करने के लिए उसकी पूरी पहचान बदल कर नया नाम व धन देकर नए शहर में बसा सकता है.

 इशरत के मामले में आई बी के अधिकारी पर आरोप लगने का शुद्ध मतलब यह होगा कि कल से आई बी ऐसा कोई भी काम नहीं करेगी जिस में रंच मात्र भी अनैतिकता का आभास हो. वह दिन देश के लिए संकटों का अम्बार लायेगा.

बेहतर तो यह होता कि इन सस्थाओं को पूरी छूट देते हुए इनकी मोनिटरिंग के लिए शीर्ष स्तर पर व्यवस्था हो ताकि इशरत जहाँ के मामले में इनकी भूमिका पर नज़र रखी जाये और दूसरी ओर इस तरह के अपराधों पर न्याय-व्यवस्था को और सख्त तथा चुस्त-दुरुस्त रखा जाये ताकि जज केवल क्रिकेट के अम्पायर की भूमिका में ना रह कर सत्य की तह तक जाये. बौद्धिक सोच से यह कहीं से न्यायोचित नहीं लगता परन्तु इस बात को देखते हुए कि विदेश से चलाये जा रहे आतंकवाद के मद्दे नज़र मानवाधिकार को पुनर्परिभाषित करने की ज़रुरत होगी और तब राज्य अभिकरणों को संवेदनशील परन्तु निष्ठुर बनाना पडेगा.   

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मंदिर मुद्दा बना तो मोदी को ख़ारिज कर देगा बहुसंख्यक


 उग्र हिंदुत्व से बचना मोदी की सफलता की पहली शर्त

आक्रामक हिंदुत्व के तेवर दिखा कर नरेंद्र मोदी शायद अपने पैर पर हीं नहीं भारतीय जनता पार्टी (भजपा) के भविष्य पर भी कुल्हाड़ी मारने जा रहे हैं. आंकड़े गवाह है कि राम मंदिर चुनाव की मुद्दा बना रहा और बहुसंख्यक भाजपा से दूर होता चला गया. मोदी ऐसे जोड़-घटाना करने वाले नेता से यह उम्मीद नहीं थी कि इस स्पष्ट सत्य को ना देख पाएंगे. आज गलत या सही माध्यम वर्ग में मोदी की छवि चार प्रकार की है ---- सक्षम प्रशासक, योग्य विकासकर्ता, भ्रष्टाचार के खिलाफ शून्य-सहिष्णुता वाला और पाक-प्रायोजित आतंकवाद का शत्रु.  अगर मोदी इन चारों से हट कर अपनी पुरानी आदत और संघ के दबाव में आक्रामक हिंदुत्व की ओर बढे (जिसके संकेत उनके अपने आदमी और पार्टी महामंत्री अमित शाह की अयोध्या में मंदिर मुद्दे पर वापस लौटने की घोषणा से मिलने लगे हैं) तो उदारवादी हिन्दुओं का एक बड़ा वर्ग जो आज पहले से अधिक तार्किक और तथ्यात्मक है, मोदी और भाजपा को नकार देगा. 

कुछ तर्क-वाक्यों और तत्संबंधित तथ्यों पर गौर करें. भाजपा या उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर एस एस) का मानना है कि हिन्दुओं के आराध्य देव राम उनके दिल में बसते हैं लिहाज़ा हर हिन्दू की दिली इच्छा है कि अयोध्या में राम मंदिर बने. इनका दूसरा तर्क वाक्य है कि सभी यह चाहते हैं बगैर वैमनस्य के संसद में अगर जरूरत हो तो संविधान संशोधन कर अन्यथा कानून बनाकर राम मंदिर बनाया जाये. तीसरा तर्क वाक्य है भाजपा हिन्दुओं की एक मात्र रहनुमा है. इन तीनो तर्क वाक्यों को एक साथ पढ़ें तो मतलब होगा कि देश के कुल हिन्दुओं (जिन की संख्या ८० प्रतिशत से ज्यादा है) को अपने दिल के सबसे करीब के मुद्दे पर बेहद प्रजातान्त्रिक तरीके से अपनी रहनुमा पार्टी को दो-तिहाई बहुमत से जीता कर अयोध्या में भव्य राम मंदिर का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए.

लेकिन मदिर आन्दोलन के २९ साल बीतने और ढांचा गिरने के २१ साल बाद भी मताधिकार प्राप्त हर सात हिन्दुओं में से छः ने भाजपा को रिजेक्ट किया है केवल एक ने हीं वोट दिया है. साथ हीं सन १९९८ से आज तक हर तीसरे वोटर ने पार्टी को वोट देना बंद कर दिया है.   

विवादित ढांचा गिरने से आज तक भारतीय जनता पार्टी बहुसंख्यक हिन्दुओं ने भारतीय जनता पार्टी को ख़ारिज हीं किया है. ८० प्रतिशत हिन्दुओं की रहनुमाई का दावा करनेवाली भाजपा को पार्टी के जन्म (१९८०) से आज तक आम चुनावों में कभी भी कांग्रेस से ज्यादा वोट नहीं मिले. जिस चुनाव में सबसे ज्यादा  मत प्रतिशत भाजपा का रहा वह था १९९८ जिसमें इसे २५.५८ प्रतिशत वोट मिले जो  कांग्रेस के मत प्रतिशत से तीन प्रतिशत कम थे. सन २००९ तक आते –आते इसका मत प्रतिशत लगातार घटते हुए १८.६ प्रतिशत पर पहुँच गया जबकि कांग्रेस का २८.६ प्रतिशत था. यानि कांग्रेस और भाजपा के वोट में डेढ़ गुने का अंतर. कांग्रेस को करीब १२ करोड़ मत मिले जब कि हिन्दुओं की “रहनुमा”, मंदिरनिर्माण का वादा और शुचिता की बात करने वाली इस पार्टी को आठ करोड़ से कम.

तथ्यों को एक अन्य कोण से देखिये. सन २००९ में देश में कुल ७१.४० करोड़ लोग थे जिन्हें मतदान का अधिकार था. इन मताधिकार-प्राप्त लोगों में लगभग ५८ करोड़ हिन्दू थे. देश में इन मताधिकार प्राप्त लोगों में मात्र ३९.५० करोड़ (५४.६ प्रतिशत) ने मतदान किया. इनमें से ३२ करोड़ हिन्दू थे. लेकिन हिन्दुओं की तथाकथित रहनुमा भजपा को वोट पड़े आठ करोड़ से भी कम. अगर हिन्दुओं के दिल के करीब राम हैं और हसरत है मंदिर बने तो ५८ करोड़ मताधिकार प्राप्त हिन्दुओं में क्यों मात्र आठ करोड़ हीं भाजपा को वोट देता है. इसका सीधा मतलब है कि हर सात मताधिकार प्राप्त या चार मतदान करने वाले हिन्दुओं में केवल एक ने हीं भाजपा को वोट दिया. इसका सीधा मतलब यह भी था हिन्दुओं का एक बड़ा वर्ग उदारवादी है. और जैसे हीं भाजपा या संघ आक्रामक हिंदुत्व का भाव लेन की कोशिश करते हैं वह उनसे विमुख हो जाता है.

प्रकारांतर से इसका मतलब यह भी हुआ कि ना तो भाजपा हिन्दुओं की राजनीतिक रहनुमा है, ना हीं मंदिर उसका प्रमुख मुद्दा है और ना हीं वह संसद का इस्तेमाल रोजी-रोटी छोड़ कर मंदिर –मस्जिद ऐसे भावनात्मक मुद्दों पर करना चाहता है. राजनीति-शास्त्र का सिद्धांत है अर्ध- या अल्प-शिक्षित समाज में भावनात्मक मुद्दे संवैधानिक और तर्क-सम्मत असली मुद्दों को आच्छादित कर लेते है और पूरी संवैधानिक व्यवस्था को तोड़-मरोड़ कर कुछ काल तक अपनी ओर कर लेते हैं. भाजपा दो से १८२ सीटों तक इसी की वजह आई  थी. लेकिन भारत की जनता ने हकीकत को समझ लिया  कि रोटी, भ्रष्टाचार –मुक्त व्यवस्था, रोजगार के आभाव में मंदिर का कोई औचित्य नहीं हैं. “मंदिर वहीं बनायेंगे” के अल्पकालिक उत्साह से हट कर जनता पूछने लगी “रोटी कब खिलाएंगे” और “कलमाड़ी, राजा व येद्दियुरप्पा से कब बचायेंगे”.  पिछले २९ सालों में समाज में प्रति-व्यक्ति आय बढ़ी, तर्क शक्ति बढ़ी और शिक्षा बढ़ी. लिहाज़ा अमित शाह, भाजपा या संघ को अपनी पुरानी सोच से हट कर स्थितियों को आंकना पडेगा.

दरअसल समस्या मोदी के लिए और भी है, आडवाणी इस हकीकत को समझ गए थे और भाजपा का चेहरा उदारवादी करने के प्रयास में लगे लेकिन संघ को अपने मूल से हटना रास नहीं आया. आडवाणी को किनारे होना पड़ा. भाजपा को सत्ता दिलाने के लिए संघ अपने मूल उद्देश्यों और तज्ज़नित प्रतिबद्धताओं से विमुख हो नहीं सकता क्योंकि ऐसा करने पर उसके सामने अपने अस्तित्व का प्रश्न आ जायेगा. भाजपा का समस्या यह है कि बगैर उदारवादी चेहरा जो वाजपेयी के बाद विलुप्त हो गया, दिखाए चुनाव वैतरणी पार नहीं कर सकता. यानि भजपा को यह वैतरणी पार करनी है तो या तो संघ से अलग रास्ता अपनाना होगा या संघ को अपने मूल से हटना होगा और वह भी अपने अस्तित्व की कीमत पर.

सन २०१४ के आम चुनाव में लगभग आठ करोड़ नए युवा जिनकी उम्र १८ से २३ साल होगी जुड़ने जा रहे हैं. ध्यान रहे कि यह संख्या उतनी हीं है जितनी भाजपा का पिछला कुल वोट. सन २००४ के मुकाबले सन २००९ के चुनाव में मतदाताओं की संख्या में ६.४ प्रतिशत या चार करोड़ की वृद्धि हुई थी लेकिन चुस्त एवं तकनीकी रूप से सक्षम चुनाव तंत्र ज्यादा लोगों को वोटर कार्ड बांटने की स्थिति में है. साथ हीं युवकों में मताधिकार को लेकर उत्साह है.
ये युवक अपने नेता से रोजगार चाहते हैं, अनाज चाहते हैं , विकास की भाषा चाहते हैं, भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐलाने –जंग चाहते हैं ना कि मंदिर. और मोदी इस फॉर्मेट में फिट बैठते हैं लेकिन उनकी सफलता की शर्त हीं यही हैं कि संघ और उग्र हिंदुत्व उनके आस-पास न फटकें वरना उनकी २००२ की गुजरात दंगों वाली तस्वीर सामने आ जाएगी और उदारवादी हिन्दू पहले की तरह दूर हट जाएगा

nai duniya