इशरत जहाँ एनकाउंटर से दो
सवाल उभरते हैं. क्या वह पाकिस्तान के आतंकवादी गुट की सदस्य के रूप में काम कर
रही थी? और अगर कर भी रही थी तो क्या पुलिस को आई बी के अधिकारियों से मिल कर उसे
फर्जी एनकाउंटर में मारना उचित था? बौद्धिक
स्तर पर सोचने पर स्पष्ट लगता है कि राज्य के अभिकरणों को इस तरह का अधिकार देने
का मतलब संविधान , न्यायालय और कानून की व्यवस्था को नष्ट कर एक अधिनायकवादी
व्यवस्था को जन्म देना है. अच्छा लगता है दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में
बैठ कर प्रजातंत्र या संविधान के मौलिक
स्वरुप को अक्षुण्ण बनाये रखने का भाव और वह भी तब जब बुद्धिजीवी स्वयं कभी भी
अपने जीवन में आतंकवाद की विभीषिका न झेला हो.
पर जरा गौर करें. अपराध
न्याय व्यवस्था गवाह व तथ्यों पर चलती है. गवाह या साक्ष्य जुटाने वाला किसी का
बाप, किसी का बेटा है, जिसे नौकरी के बाद घर आना है. आतंकवादी के लिए कोई “रूल ऑफ़
गेम” नहीं है. झारखण्ड के पाकुर जिले का एस पी व पांच पुलिस जवान १०० माओवादियों
की गोली का निशाना बनते हैं. हकीकत यह है कि जनता का एक भी गवाह यह नहीं कहने जा
रहा है कि उसने अमुक माओवादी को गोली चलाते देखा है. न्यायपालिका का यह हाल है कि बिहार
के बथानी टोला में २३ दलितों को सवर्णों ने हत्या कर दी लेकिन सेशंस कोर्ट के फैसले को उलटते हुए हाई
कोर्ट ने “साक्ष्य के अभाव” में सभी आरोपियों को छोड़ दिया.
आतंकवादी बदला लेगा , यह डर
सभी को होता है , जनता से लेकर सत्ता में बैठे लोगों तक जिनके परिवार हैं , भविष्य
में रिटायरमेंट है और वर्तमान में उन्हीं क्षेत्रों में रहना है. राज्य अभिकरण
बदला ले नहीं सकता. न्यायपालिका संविधान के अनुच्छेद २१ के तहत “विधि सम्मत
प्रक्रिया” से और अनुच्छेद १४ के बराबरी के अधिकार से बंधी हुई है. कहीं ऐसा तो
नहीं कि प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में इस तरह के आतंकवाद सम्बंधित गतिविधियों पर
लगाम लगने की अंतर्निष्ठ व्यवस्था संभव हीं नहीं है?
रॉ और आई बी में एक
व्यवस्था है जिसके तहत वे अपने इन्फोर्मेर्स को अपने एस एस फण्ड से पैसे देकर
गुप्त सूचना हासिल करते है. कई बार इन इन्फोर्मेरों के लिए गैरकानूनी मदद भी की
जाती है. नैतिकतावादियों के लिए यह भी गलत होगा. लेकिन राज्य का कार्य एक दिन भी
नहीं चलेगा अगर इस व्यवस्था को ख़त्म कर दिया जाये.
इशरत के केस पर गौर करें.
पाकिस्तान के इनफॉर्मर से इंटेलिजेंस रिपोर्ट आती है कि मोदी को मारने के लिए
लश्कर या कोई और संगठन कुछ फिदायीन तैयार कर रहा है. बमुश्किल तमाम दो ऐसे लोग शक
के घेरे में आते हैं जिनका पाकिस्तान-लिंक स्थापित होता है. अगर इन्हें न्याय की
प्रक्रिया से गुजरा जाये तो ज़रूरी नहीं कि लश्कर अगला दस्ता तैयार ना कर ले. और यह
भी ज़रूरी नहीं कि अगले दस्ते के बारे में भी इतनी हीं सटीक खुफिया जानकारी मिल
सके. लिहाज़ा दूसरे देश से संचालित आतंकवाद के प्रति इन एजेंसियों का रवैया
मिलिट्री भाव से प्रभावित होता है और आमतौर पर समाज भी इसे स्वीकार करता है.
एक ताज़ा उदाहरण लें. पंजाब
पुलिस के एक सब-इंस्पेक्टर सुरजीत सिंह ने एक टीवी चैनल को दिए गए इंटरव्यू में
कबूल किया ही कि अधिकारियों के कहने पर उसने ८८ फर्जी एनकाउंटर किये. यह बात उसने
पश्चाताप के भाव में कही और साथ हीं यह भी बताया कि कई बार उसे अपने कुकृत्य के
प्रायश्चित के लिए आत्महत्या तक की बात सोची. अभी दो दन पहले सुरजीत न पंजाब हाई
कोर्ट से गुहार के है कि उसे सुरक्षा प्रदान की जाये क्योंकि उसके इस बयान के बाद
से कई अधिकारी उसके जान के दुश्मन हो गए हैं. इस पुलिस दरोगा ने यह भी बताया कि
१९८९ (सिख आतंकवाद के चरम काल में जिसकी वजह से के पी एस गिल को पंजाब पुलिस का
मुखिया बनाया गया था) में नौकरी में आने के बाद से कैसे –कैसे फर्जी एनकाउंटर के
पहले हथियार जुटाए जाते थे जिन्हें मृतकों के शव के पास रख दया जाता था. फर्जी
एनकाउंटरों में मारे गए इन लोगों में कुछ तो आतंकवादी थे लेकिन कुछ अज्ञात. हाई
कोर्ट में अपनी याचिका में सुरजीत ने १६ ऐसे फर्जी एनकाउंटर का व्योरा दिया है
जिनमें करीब तीन दर्ज़न लोगों को उसने गोली का निशाना बनाया. इनमें से कुछ के बारे
में वह कुछ भी नहीं जानता था.
उस दौरान गिल का कहना था कि
आतंकवादी सरगनाओं को अगर सिर्फ इतना भय रहे कि उनका नाम पुलिस की “अ” सूची में आ
गया है और अब उनकी जिंदगी ज्यादा से ज्यादा छह महीने बची है, सिख आतंकवाद ख़त्म हो
जाएगा. गिल ने किया भी ऐसे हीं आतंकवाद को ख़त्म अपने मशहूर “कैट” एक्शन
(काउंटर-एंटी-टेररिस्ट एक्शन) से. जब खूंखार आतंकी गुरुचरण सिंह मनोचहल ने एक
पुलिस अधीक्षक के पीता का अपहरण कर लिया तो गिल ने सिर्फ एक ऑपरेशन किया. वह था
मनोचहल के बेटे का अपहरण. पंजाब पुलिस का आतंकियों को सन्देश स्पष्ट था “कप्तान के
पिता को तुम मार दो, अगले दिन हीं पुलिस तुम्हारे बेटे को मार देगी”. मनोचहल या
अन्य सिख आतंकवादियों को पंजाब पुलिस का यह आपराधिक रूप समझ में हीं नहीं आया. सिख
आतंकवाद अपनी मौत मरने लगा. कहना ना होगा कि इस तरह के कैट ऑपरेशन के दौरान पुलिस अपनी वर्दी ,
बिल्ले सब उतार कर काम करती थी. दरअसल एस आई बी (आई बी की राज्य इकाई) के लोग पूरी
निष्ठां एवं समर्पण के भाव से इस कार्य में पंजाब पुलिस की मदद करते थे.
गिल की सफलता की वजह से
उन्हें दो बार पंजाब पुलिस का मुखिया बनाया गया और भारत सरकार ने इस पद पर आने के
साल भर बाद हीं उन्हें चौथे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मश्री से नवाज़ा. आज भी देश
का एक बड़ा वर्ग गिल को सम्मान की नज़रों से देखता है. हालांकि कुछ मानवाधिकार
संस्थाओं से जुड़े लोग उनपर आरोप लगते रहे हैं.
अब मान लीजिये पाठकों के
पास दो तथ्य अलग –अलग आये. सब-इंस्पेक्टर सुरजीत का कहना कि कप्तान के कहने पर
उसने फर्जी एनकाउंटर किया , लेकिन साथ में यह भी बताया जाये कि एनकाउंटर में मारे
गए आतंकवादी ने कुछ हीं दिन पहले हेमकुंड गुरुद्वारा का दर्शन कर लौट रहे ४० से
अधिक तीर्थयात्रियों, जिनमें बच्चे भी थे, को पीलीभीत में बस रोक कर मौत के घाट
उतार दिया था. ऐसे में पाठकों की प्रतिक्रया मानवाधिकार के अगुवाओं से बिलकुल अलग
होगी. अगर उन लोगों से पूछा जाये जिनके बेटे, बाप, बहन आतंकवादियों के हाथ मारे गए
थे, कि गिल का “कैट” एक्शन कैसा था तो शायद
वे गिल को भगवान् का दूत बताएं.
अमेरिका में भी सी आई ए को
राष्ट्रपति की ओर से खुली छूट मिलती है इस तरह के ऑपरेशन करने की. ऍफ़ बी आई को
यहाँ तक अधिकार हैं कि वह अपने गवाह की जीवन को सुरक्षित करने के लिए उसकी पूरी
पहचान बदल कर नया नाम व धन देकर नए शहर में बसा सकता है.
इशरत के मामले में आई बी के
अधिकारी पर आरोप लगने का शुद्ध मतलब यह होगा कि कल से आई बी ऐसा कोई भी काम नहीं
करेगी जिस में रंच मात्र भी अनैतिकता का आभास हो. वह दिन देश के लिए संकटों का
अम्बार लायेगा.
बेहतर तो यह होता कि इन
सस्थाओं को पूरी छूट देते हुए इनकी मोनिटरिंग के लिए शीर्ष स्तर पर व्यवस्था हो
ताकि इशरत जहाँ के मामले में इनकी भूमिका पर नज़र रखी जाये और दूसरी ओर इस तरह के
अपराधों पर न्याय-व्यवस्था को और सख्त तथा चुस्त-दुरुस्त रखा जाये ताकि जज केवल
क्रिकेट के अम्पायर की भूमिका में ना रह कर सत्य की तह तक जाये. बौद्धिक सोच से यह
कहीं से न्यायोचित नहीं लगता परन्तु इस बात को देखते हुए कि विदेश से चलाये जा रहे
आतंकवाद के मद्दे नज़र मानवाधिकार को पुनर्परिभाषित करने की ज़रुरत होगी और तब राज्य
अभिकरणों को संवेदनशील परन्तु निष्ठुर बनाना पडेगा.
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