Friday 29 January 2016

एकल नेतृत्व की मोदी-नीति पार्टी के भविष्य के लिए चुनौती


भक्तिवाद ठीक लेकिन वंशवाद गलत ?
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने फिर “अपने मन की बात” की. न कोई चुनाव, न पार्टी में कोई आतंरिक प्रजातंत्र का छलावा। कार्यकर्ता से लेकर भारतीय जनता पार्टी के “मार्गदर्शक मंडल” के लालकृष्ण आडवाणी को अमित शाह को फिर से अगले तीन साल के लिए अपना नेता मानना होगा. शाह के नेतृत्व में हीं सन २०१७ तक पार्टी एक दर्ज़न राज्यों के विधान सभा चुनाव लड़ेगी और २०१९ का आम चुनाव भी. अगर राज्यों के चुनाव में दिल्ली –बिहार के पुनरावृत्ति हुई तो पार्टी में एक बार फिर आक्रोश बढेगा. शायद पार्टी के वरिष्ठतम नेतागण उसे निर्णायक मकाम तक पहुंचाएं. लेकिन अगर पार्टी जीत गयी तो पार्टी अध्यक्ष का अर्थात मोदी का एकल-नेतृत्व का सिद्धांत सर चढ़ कर बोलेगा. नेतृत्व का अहंकार नेता-कार्यकर्त्ता और सरकार-जनता, सत्ता-मीडिया संबंधों को पुनर्परिभाषित करेगा. आडवाणी, जोशी और संघ का एक वर्ग परित्यक्त खोखे की तरह बाज़ार में किनारे लुढ़के दिखाई देंगे. दोनों स्थितियों में नुकसान देश की जनता का होगा. मोदी जैसी नेतृत्व की क्षमता, विकास की समझ और उसे अंजाम देने की योग्यता देशवासियों को कभी-कभी मिलती है लेकिन मोदी के व्यक्तित्व जैसा अधिनायकवाद भी कम हीं देखने को मिलता है।  

एक किस्सा कुछ दशकों पहले तक मशहूर हुआ करता था. रोल्स रॉयस (आर आर ) कार प्रतिष्ठा होती थी. कहा जाता है २० वीं सदी के पूर्वार्ध तक इस कार –निर्माता कंपनी की नीति थी कि कार केवल राष्ट्राध्यक्षों, राजा-महाराजाओं, बड़े औधोगिक घरानों को हीं बेंची जाये। भारत के एक रियासत के राजा कार खरीदने लन्दन के एक शो-रूम पहुंचे. साथ में उनका ए डी सी भी था. शोरूम मैनेजर ने तपाक से हाथ मिलाया और आगंतुक के बारे में ए डी सी से पूछा. मुतमईन होने के बाद उसने कार की विशेषताएं बताना शुरू किया. “योर हाइनेस, इसका इंजन इतने अश्व-शक्ति का है. इसका शाकर इतनी ताकत का है. इसका स्टीयरिंग ऐसा है... बगैरह वगैरह. अंत में उसने कहा “मान लीजिये योर हाइनेस लॉन्ग ड्राइव (कार से लम्बी यात्रा) पर जा रहे हैं और रास्ते में पेट्रोल ख़त्म हो गया, तो कोई चिंता करने की ज़रुरत नहीं. कोइ  ३५-४० किलोमीटर तक यह कार तब भी चली जायेगी” . राजा साहेब चौंके और बोले “भाई सब विशेषताएं तो समझ में आ गयी लेकिन यह नहीं समझ सका कि पेट्रोल ख़त्म होने पर भी गाडी इतनी दूर कैसे चलेगी ?” मैनेजर ने तपाक से कहा “योर हाइनेस, इतनी दूर तो यह गाड़ी अपनी “रेपुटेशन” की वजह से चल जायेगी”।

लेकिन रोल्स रायस के इस किस्से में एक बात और भी है. रेपुटेशन की भी मियाद या सीमा होती है. इस कार के मामले में यह ३५-४० किलोमीटर थी. भाजपा का नेतृत्व आज लगभग पौने दो साल से “रेपुटेशन” पर चल रहा है. यह रेपुटेशन सन २०१४ में लोक सभा में जीत से बना था. अर्ध-शिक्षित समाज में विजेता के साथ कुछ विशेषताएं जनता स्वतः चस्पा कर देती है वैसे हीं जैसे नेहरु के साथ उनकी सम्पन्नता को लेकर लोगों में कहानी थी कि उनके कपडे पेरिस में धुलने जाते थे. चूंकि जनता यू पी ए -२ के भ्रष्टाचार से त्रस्त थी, निजात पाना चाहती थी लिहाज़ा भाजपा के नरेन्द्र मोदी में उसे कुशल प्रशासक, सक्षम विकासकर्ता, भ्रष्टाचार का समूल नाश करने वाला और आतंकवाद की दुश्मन दिखा. पार्टी जीती. लेकिन नेहरु के कपडे पेरिस में धुलने के किस्से की तरह अमित शाह में जनता “चाणक्य” देखने लगी. उसे ऐसा नेता मानने लगी जो अपनी माइक्रो-मैनेजमेंट के स्किल के तहत जीते को हरा सकता है हारे को जीता सकता है. उत्तर प्रदेश में ७२ लोक सभा सीटें जीत सकता है... आदि आदि. पर सवा साल में हीं हकीकत पता चल गयी जब दिल्ली और बिहार में बुरी हार हुई. “चाणक्य” का शायद यह सबसे भौंडा, गैर-बुद्दिमात्तापूर्ण और बचकाना प्रदर्शन था. तो फिर अमित शाह को दूसरा कार्य-काल क्यों? क्यों भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का नेतृत्व एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के निकटतम सहयोगी गुजरात के अमित शाह के हाथों रह गया और वह भी  अगले तीन साल के लिए? न कोई आतंरिक चुनाव, न कोई आम सहमति ना हीं कोई विचार-विमर्श. दरअसल प्रधान मंत्री ने अपनी रेपुटेशन का इस्तेमाल किया. अब भाजपा की गाड़ी अगले तीन साल के लिए बिना पेट्रोल मात्र मोदी के पार्टी में दबदबे (रेपुटेशन) के कारण चलेगी. अमित शाह चूंकि मोदी के आदमी हैं लिहाज़ा विरोध के स्वर गले में हीं घुट के रह गए. तो फिर राहुल या गाँधी परिवार का कोई कांग्रेस अध्यक्ष बनाता है तो क्यों उसे वंशवाद कहा जाता है. भक्तिवाद ठीक लेकिन वंशवाद गलत।

अमित शाह की गलतियाँ क्या हैं जिनकी वजह से “रेपुटेशन” एक साल में हीं ढहने लगी. पहले के पार्टी अध्यक्षों और अमित शाह के नेतृत्व में अंतर क्या है? इस पार्टी का नेतृत्व डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी , पंडित दीन दयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी के पास रहा हो उसके वर्तमान नेतृत्व से जनता की अपेक्षाएं कम से कम नैतिक और गरिमा के स्तर पर बढ़ जाती हैं. अपेक्षाकृत कम लोकप्रिय जना कृष्णमूर्ति और कुशाभाऊ ठाकरे के व्यक्तित्व से भी सौम्यता और नैतिकता झलकती रहती थी. वेंकैया नायडू और राजनाथ सिंह इन पैमानों पर उतने सर्वस्वीकार्य तो नहीं रहे परन्तु चूंकि वाजपेयी और आडवाणी के नियंत्रण बना रहा लिहाज़ा ये दोनों नेता भी नज़रों में खटकते नहीं थे और पार्टी कार्यकर्ता इन्हें नेता मानते थे. दलित चेहरे के रूप में बंगारू लक्ष्मण को बैठाने का फैसला शायद सबसे गलत था. बंगारू में न तो वह सौम्य छवि थी न हीं नैतिकता को लेकर तनने की जिद।

अमित शाह को लेकर मन में न तो जन-नेता की छवि उभरती हैं न हीं सौम्य व्यक्तित्व की. नैतिकता पर जिद की  हद तक खड़े रहने का तो प्रश्न हीं नही पैदा होता. प्रेस कांफ्रेंस में अमित शाह को मीडिया के सवालों पर “चढ़ कर” “दबंगई से” और “हिकारत के भाव से” जवाब देना शाह को मोदी की नज़रों में तो भले हीं उठा ले लेकिन जनता की नज़रों में एक अलग तस्वीर पेश करता है. एक टीवी के खुले कार्यक्रम में एडिटर को एंकरिंग से इसलिए हटना पड़ा क्योंकि वह शाह को पसंद नहीं था. सन्देश गया “उसे बदल दो”. उस प्रेस कांफ्रेंस के दौरान शाह के जवाब में भी आक्रामकता थी, नीचा दिखने की कोशिश भी साफ़ झलक रही थी. बिहार चुनाव में चुनाव विज्ञान का अदना विद्यार्थी भी जो गलतियाँ न करता वह शाह ने की. जिस तरह राज्य के वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार कर कर्नाटक के अनंत कुमार और अन्य बाहरी नेताओं को लाया गया, वह अहंकार की पराकाष्ठ थी. शाह का यही अहंकार पिछले कुछ महीनों में पार्टी के प्रवक्ताओं में भी दिखाई देने लगा. टीवी चैनलों पर विनम्रता छोड़ कर हिकारत से बात करना, बदतमीजी करना इन प्रवक्ताओं का शौक होने  लगा. उन्हें लगा पार्टी अध्यक्ष इसी अहंकारपूर्ण जवाब से खुश होंगे, शायद मोदी जी भी।    

अमित शाह पार्टी के अध्यक्ष भले हीं मोदी के दबाव के कारण अगले तीन साल के लिए चुने गए लेकिन क्या वह इस अहंकार को बदल पाएंगे. अहंकार व्यक्तित्व का भाव होता है और वह आसानी से जाता नहीं है. आज भाजपा में नेतृत्व और मध्य स्तर के नेताओं के बीच जबरदस्त दूरी है. दिल्ली हार के बाद भाजपा मुख्यालय में बैठने वाले एक नेता ने दबी जबान में कहा “बहुत अच्छा हुआ. घमंड बढ़ गया था. मुख्यालय में कार्यकर्ताओं का तो छोडिये, राज्य के नेताओं का आना-जाना बंद कर दिया गया था”. बिहार की हार के बाद पार्टी के एक बड़े वर्ग ने हीं नहीं तमाम वरिष्ठ नेताओं ने ख़ुशी महसूस किया और उनकी जुबान पर एक हीं बात थी “अच्छा हुआ. अहंकार की यही परिणति होती है”।

अगर अमित शाह को पार्टी के कार्यकर्त्ता व नेता अहंकारी मान रहे हैं और अगर वे यह भी जानते हैं कि शाह मोदी को जिद की हद तक  पसंद हैं तो उससे मोदी की अपनी छवि पर भी असर पड़ता है. एकल नेतृत्व व्यवस्था तब तक कारगर रहती है जब तक सफलता उसका पैर चूमे. लेकिन अगर असफलता आने लगे तो यह अपने हीं लोग दूनी तेजी से हमला करते है. अभी तक जो जनता मोदी के अधिनायक प्रवृति को “कुशल प्रशासक” का आभूषण मानती थी और उसे कुशल प्रशासन के लिए अपरिहार्य समझती थी, दिल्ली और बिहार की हार बाद मोदी में भी शाह के अहंकार का विस्तार मानने लगी. “रेपुटेशन” ढहने की शुरूआत हो गयी. मियाद ख़त्म।

नए कार्यकाल में भाजपा अध्यक्ष शाह की चुनौती क्या होगी? पार्टी कैडर को हीं नहीं, पार्टी के मध्यम स्तर के नेताओं को भी फैसलों में शामिल करना, मोदी सरकार की अच्छी योजनाओं को जनमानस तक पहुँचाना, गिरिराज सिंह, महंत आदित्य नाथ, साध्वी निरंजन ज्योति –टाइप नेताओं के मुह पर लगाम लगाना. देश में विकास और सामाजिक तनाव साथ-साथ नहीं चल सकते. भारत की अर्थ-व्यवस्था वैश्विक अर्थ-व्यवस्था में समेकित है और अख़लाक़ मरता है तो उसकी अनुगूंज कैलिफ़ोर्निया के उद्यमी के कानों को प्रभावित करती है. क्रिसिल या ऐसी तमाम रेटिंग एजेंसियां छत पर खड़े हो कर चिल्लाने लगती हैं “भारत में निवेश का माहौल नहीं”. यही कारण है कि भारत में पूंजी-निवेश अपेक्षित दर से नहीं हो सका. यही कारण है कि मोदी के एक पैर विदेश में रहने और वहां के एन आर आई लोगों के पागलपन के हद तक मोदी आगमन में डांस करने के बावजूद देश के इतिहास में पहली बार निर्यात लगातार पिछले ११ महीनों से गिरता जा रहा है।

पार्टी के अति-सम्मानित नेता आडवाणी का रेलवे की “परित्यक्त लाइन” की तरह पार्टी में हाशिये पर रखा जाना न तो कार्यकर्ता ने अच्छा माना न जनता ने. आडवानी-जोशी-यशवंत का पत्र लिखना, सांसद आर के सिंह, कीर्ति आज़ाद और शत्रुघ्न सिन्हा का नेतृत्व के खिलाफ बेबाकी से बोलना अमित शाह नज़रंदाज़ तो कर सकते हैं पर तब उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है।       

मोदी की क्षमता को कम आंकना अपराध होगा. फसल बीमा योजना, स्किल इंडिया, मृदा (खेत) स्वास्थ्य योजना, यूरिया पर नीम की परत प्रधानमंत्री की बेहतरीन समझ का परिचायक है. लेकिन वहीं भूमि अधिग्रहण विधेयक उस अहंकार का परिचायक है जिससे एक अच्छी योजना जो किसानों के बीच मोदी-सरकार को हमेशा के लिए स्वीकार कराती, आज सरकार को किसानों के बीच अप्रिय कर चुकी है. मिनिस्टर रोज सबेरे डरते रहते हैं कि परफॉरमेंस को लेकर पी एम् ओ से सन्देश न आ जाए।

अगर एक तरफ मोदी इतने सबल और अधिनायक व्यक्तित्व के हैं कि अपने मन का अध्यक्ष “निर्विरोध” नियुक्त करवा सकते हैं तो देश का माहौल खराब करने वाले बाबाओं, महंतों, स्वामियों, साध्वियों पर अंकुश क्यों नहीं? अगर देश का विकास फंसा है तो उसका बड़ा कारण इनके माहौल खराब करने वाले वकतव्य हैं।

अगले तीन सालों में मोदी-शाह जोड़ी को इसका जवाब देने होगा अन्यथा “रेपुटेशन” ख़त्म हो जायेगी और भाजपा की गाड़ी बंद हो जायेगी।
 
 
शुक्लपक्ष