Friday 18 September 2015

इन्द्राणी, मर्डर और मीडिया ट्रायल

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यह आरोप अक्सर लगता है कि किसी अपराध को सनसनीखेज बना कर मीडिया खुद हीं जांचकर्ता, वकील और जज बन जाता है जब कि पुलिस अभी दूर-दूर तक मामले की सच्चाई के आस –पास भी नहीं पहुँचती. इस मीडिया ट्रायल का नतीजा यह होता है कि पुलिस याने जांचकर्ता हीं नहीं जज भी दबाव में आ जाते हैं और हकीकत और फैसला सब कुछ उलटा-पुल्टा हो जाता है. सवाल यह है कि अगर मीडिया का दबाव जजों को भी प्रभावित करता है तो फिर क्यों यह दावा कि “जजों का फैसला “ट्रेंड माइंड” से होता है? फिर आम आदमी और जज में अंतर क्या? क्या पूरी जांच इस बात से नहीं प्रभावित होती कि महाराष्ट्र सरकार अपनी सनक में जाँच जब परिणति पर पहुँचने को होता है तो शीर्ष अधिकारी राकेश मारिया को बदल देती है? क्या इससे जाँच की गुणवत्ता प्रभावित नहीं होगी और क्या यह भी मीडिया के दबाव में किया गया है?

अगर सरकार ने मारिया को इसलिए हटाया कि केस से जुड़े किसी एक ताकतवर पीटर मुखर्जी से सम्बन्ध है और जाँच की विश्वसनीयता प्रभावित हो सकती थी तो प्रश्न यह उठता है कि अगर मीडिया के इतने जबरदस्त कवरेज के बाद भी अगर कोई अधिकारी जाँच प्रभावित कर सकता है तो समझा जा सकता है कि सत्ता में बैठे लोग के खिलाफ मीडिया की कितनी जरूरत इस देश में है. अगर मारिया सही जांच कर रहे थे और सरकार ने जांच को किसी अन्य दिशा में ले जाने के लिए हटाया तो भी देश में मीडिया जरूरी है यह समझा जा सकता है.    

हम यहाँ कुछ अन्य उदाहरण लेते हैं. आसाराम बलात्कार केस, यादव सिंह भ्रष्टाचार केस और हाल में उभरा शीना हत्या केस. इन तीनों मामलों में दो में एक तथ्य कॉमन है और वह यह कि इनमें स्थापित सामाजिक या नैतिक मूल्य टूटे हैं जबकि एक शुद्ध भ्रष्टाचार का केस है. और तीनों अभिजात्य वर्ग या ताकतवर व्यक्ति या परिवार से जुड़े हैं. पूरे विश्व में न्यूज की परिभाषा है –वह घटना या तथ्य या घटनाओं या तथ्यों के आधार पर इंगित होता सच जो समाज को प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से प्रभावित करता हो या संवेदनाओं को झकझोरता हो. यही कारण है कि सिख आतंकवाद की घटनाएँ दस साल के अन्दर पेज १ से खिसकते हुए अंतिम पेज तक पहुँच गयीं. लेकिन आज अगर फिर कोई ऐसे घटना हो वह चैनलों के लिए कई दिन की व्यस्तता होगी और अखबारों में फिर पेज १ पर आ जायेगी. इसे “स्टनिग वैल्यू” (चौंकाने वाला महत्व) कहते हैं. इस देश में नैतिक मूल्यों के पश्चिमीकरण को लेकर एक जंग चल रही है और ये तीनों घटनाएँ हर दृष्टिकोण से इन मूल्यों को लेकर हमारी संवेदनाएं झकझोरती हैं. आसाराम को एक वर्ग भगवान् के रूप में देखता था उसे अगर ये तथ्य बुलंद आवाज में न बताये जाते तो न जाने कितने नए आसाराम पैदा होते रहते और कितने भगवत-प्रेम भाव से आँखे और दिमाग बंद किये श्रद्धालु अपने बच्चों का भविष्य खराब करते रहते. मीडिया का यह कवरेज उसी अनुपात में होता है जिस अनुपात में घटना का या उसके अपरिहार्य प्रभाव का महत्व होता है. यह अनुपात इस बात पर भी निर्भर करता है कि आरोपी व्यवस्था को दबाने की कितनी क्षमता रखता है याने जितनी क्षमता उतनी हीं तेज़  मीडिया की आवाज. 

मीडिया का स्वर ऊँचा होने के कुछ मूल और सार्थक कारण होते हैं. शीना हत्या कांड देखें. इस घटना को परिप्रेक्ष्य में देखें तो आने वाला भारत किस नैतिक मूल्य का होने जा रहा है इस खतरे का संकेत हैं. इस मामले में कन्फ्यूजन यह है कि किसी लिव-इन रिलेशन को भी धोखा देते हुए किस भावी लिव –इन पार्टनर के साथ “ट्रायल के दौरान” कोई संतान दुनिया में आयी यह माँ को भी नहीं पता है. लिहाज़ा आज भारत वहां पहुँच रहा है जहाँ संतान किसकी  है इसका निर्धारण डी एन ए  से होगा. मॉडर्न मांएं नहीं चाहेंगी कि अगले १८ साल के लिए वे ढोए यह जिम्मेदारी और अपना “करियर” खराब करे. उधर पहला और दूसरा लिव-इन पार्टनर अपने को मुक्त कर सकते हैं यह कहते हुए कि पहले पता करो कि “किसका है”. लिहाज़ा अब डी एन ए से पता चलेगा बच्चा किस की जिम्मेदारी है. आज जेल में बंद इन्द्रानी पहले कई शादियाँ”  “बना” चुकी है. रोटी जीत चुका एक वर्ग  किस संस्कृति का है और किस तरह उसके लिए शाश्वत मूल्य भी कोई मायने नहीं रखते. साथ हीं चूंकि  समाज का निचला वर्ग उसी ऊपरी वर्ग की नक़ल करता है लिहाज़ा ऊपर क्या हो रहा है और इसका ख़तरा कहाँ तक बढ़ गया है यह बताना जरूरी हो जाता है.   

हिन्दू रीति के मुताबिक “जन्म-जन्म” का रिश्ता अव्वल तो टूट हीं नहीं सकता फिर भी आज़ाद भारत में इसे कोई तोड़ना चाहे तो उसे तोड़ने के लिए अदालत में “तलाक” (हिंदी में इसके लिए कोई एक शब्द नहीं है समासन के जरिये हम “विवाह विच्छेद” गढ़ते हैं) की दुरूह प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है. नए समाज ने इसकी काट निकाली. आज “लिव-इन-रिलेशन” विवाह के मामले में सभी धार्मिक रीतियों से ज्यादा “पोपुलर” हो रहा है. इसके तहत “मॉडर्न” महिला बच्चे पैदा कर सकती है और फिर अगर “मूड” बदला तो फिर किसी संपन्न खन्ना की तलाश में बच्चों को कुत्ते का जीवन व्यतीत करने के लिए सड़क पर (या हर महीने कुछ  पैसे दे कर आर्थिक रूप से कमज़ोर रिश्तेदार के घर) छोड़ सकती है. बच्चे का “बैगेज” साथ नहीं होगा तो उम्र मेक-अप से छिपा सकते है किसी खन्ना को फंसाने के लिए. खन्ना भी जानता है कि मेक-उप उतरने की बाद का चेहरा कैसा है. लेकिन वह भी जितनी नई –नई महिलाओं से “शादी बनाता” है उतनी हीं उसकी मार्किट वैल्यू होती है.

यहाँ यह बताना जरूरी है कि पश्चिम और भारत के बीच  अपराध न्यायशास्त्र और मीडिया व्यवहार की तुलना असंगत इसलिए है कि पश्चिम में यह सोचा भी नहीं जा सकता कि कोई पैसे वाला शराब पी कर गाड़ी चलाये और पांच लोगों को कुचल दे और सालों चलने वाली न्यायप्रक्रिया के दौरान एक दिन पता चले कि सारे गवाह पलट गए और अदालत में कहने लगे कि उन्होंने घटना के दौरान इस प्रभावशाली व्यक्ति को गाड़ी चलाते  हुए नहीं देखा. शराब पी कर चलना तो दूर की बात है. न्यायप्रक्रिया में बैठा जज अपने की पंगु मानने लगता है. ब्रिटेन में तीन साल पहले एक मंत्री डेविड ब्लंकेट को इस बात पर इस्तीफ़ा देना पड़ा क्योंकि उसके पी ए ने मंत्री के पूर्व -पत्नी की आया को वीसा देने के लिए आस्ट्रेलिया के उच्चायोग पर दबाव डाला था हालाँकि उच्चायोग ने भी इसका खंडन किया. भारत में मीडिया की आवाज इसलिए बढ़ जाती है कि कोई मंत्री या कोई धनपशु थाने को दबाव में लेकर या पैसे दे कर अपनी जगह किसी निर्दोष को मुजरिम न बनवा दे.

मीडिया का दबाव न होने का एक अंतर देखें. नॉएडा के चीफ इंजीनियर यादव सिंह के घर के सामने खडी अपनी कार में करोड़ों रुपये कैश के रूप में आयकर अधिकारी छापे के दौरान बरामद करते हैं और आगे की जाँच में करोड़ों रुपये की संपत्ति का पता चलता है लेकिन राज्य की सरकार जांच को किसी निष्पक्ष एजेंसी को देना तो दूर इस अधिकारी को ससपेंड भी नहीं करती. मीडिया इसे हाई पिच पर नहीं ले जाती क्योंकि तथ्य के लिए ज़रूरी जाँच राज्य की सरकार की सोची समझी ढिलाई के कारण नहीं हो पाती. अंत में हाई कोर्ट को निर्देश देना पड़ता है कि इस मामले की सी बी आई जाँच करवाई जाये. लेकिन अखिलेश सरकार  नैतिकता की उस झीनी चादर को उस दिन तार-तार कर देती है जब हाई कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ वह सुप्रीम कोर्ट जाती है यह कहते हुए कि सी बी आई के मार्फ़त केंद्र सरकार उसे ब्लैकमेल करेगी. विश्व में शासन की प्रत्यक्ष अनैतिकता का शायद इससे बड़ा कोई अन्य उदाहरण न हो. अगर सी बी आई के जरिये राज्य की सरकार केंद्र द्वारा ब्लैकमेल होती है तो क्या केंद्र सरकारों को समर्थन देना (यू पी ए १ में परमाणु मामले को लेकर लोक सभा में मतदान के दौरान) इसी ब्लैकमेल का नतीजा था और फिर अगर आय से अधिक धन मामले में किसी नेता को राहत मिली है तो क्या सी बी आई ने मामला कमज़ोर किया था? एक भ्रष्टाचार के आरोपी इंजीनियर को बचाने की इतनी शिद्दत से कोशिश !
 jagran