संस्थाओं और प्रक्रियाओं
में जन-विश्वास बदलता रहता है. अपराध होता है या भ्रष्टाचार, तो मांग उठाती है –सी
बी आई से जांच कराई जाये, मजिस्ट्रेट से जांच हो या न्यायिक जांच हो. जिस तरह
संस्थाओं में गिरावट आयी है और प्रक्रियाएं राजनीतिक दबाव में दूषित की जा रही हैं
वह दिन दूर नहीं जब “दूध का ढूढ़ और पानी का पानी” मात्र जुमला रह जाये और जनता को
किसी भी संस्था पर भरोसा न रह जाये और पानी को दूध समझ लार पीना पड़े. मुज़फ्फरनगर
दंगों में जस्टिस विष्णु सहाय आयोग की लगभग ढाई साल बाद आयी रिपोर्ट देखने के बाद
उत्तर प्रदेश की जनता का न्यायिक जांच से भरोसा हमेशा के लिए उठ गया है. आयोग ने
आधा दर्ज़न बार अपना कार्य-काल बढाने के बाद भी या यूं कहें कि १५ गुना समय लेने के
बाद भी जांच के उन आधारभूत सिद्धांतों की अनदेखी की जिसे एक अदना दरोगा भी नहीं
करता. दो समुदायों के ६२ लोग मरते हैं, १०० के करीब घायल होते हैं, ५०,००० लोग
गाँव छोड़ कर ठिठुरती सर्दी में शिविरों में शरण लेते हैं पर यह नहीं पता लगता कि
वे कौन लोग हैं जिन्होंने मंत्री बन कर या भविष्य में बनने की चाह में पूरे प्रदेश
को दंगे की चपेट में झोंक दिया. सैकड़ों ऍफ़ आई आर, तमाम बलात्कार और लूट समूचे रबी
के फसल की बर्बादी और इस एक-सदस्यीय आयोग की रिपोर्ट मात्र एक जिला पुलिस कप्तान
और एक स्थानीय इंटेलिजेंस यूनिट (एल आई यू) के इंस्पेक्टर को दोषी बता कर अपने
कर्तव्य की इतिश्री मान लेती हैं.
और वह भी किस आधार पर ?
“..... इस इंस्पेक्टर ने नगला मन्दौर महापंचायत में शरीक भीड़ की अनुमानित संख्या २०,०००
बताई थी जबकि वह ४५,००० थी”. याने अगर वह इंस्पेक्टर सही अनुमान ४५,००० बाते देता
तो दंगे रूक जाते या फिर अगर भीड़ २०,००० रहती तो भी दंगे न होते. शायद औसत मानसिक
शक्ति और बुद्धि का भी व्यक्ति जानता है कि दंगे के लिए १०० की संख्या भी काफी हो
सकती है. फिर पूरे विश्व में किसी भी लोक-प्रशासन संस्था या सिद्धांत में यह नहीं
बताया गया है कि “सचल भीड़” का अनुमान कैसे लगाया जाये. यह और भी मुश्किल होता है
जब भावनात्मक पक्ष भीड़ को घर से निकालने का मुख्य कारण हो और भीड़ क्षेत्र विशेष से
न निकल कर बड़े इलाके से एक जगह जत्थों में एकत्रित हो रही हो. भारतीय इंटेलिजेंस
ब्यूरो (आई बी) में एक व्यावहारिक नियम है कि भीड़ का अनुमान (अगर वह एक जगह
एकत्रित हो) इस आधार पर लगाया जाता है कि एक वर्ग मीटर में तीन आदमी खड़े होते है.
पूरे सभा स्थल का क्षेत्रफल निकल कर भीड़ का आंकलन किया जाता है. आयोग के अध्यक्ष
को मालूम होगा कि भाषण सुनने वाली भीड़ और भावनात्मक रूप से आवेशित भीड़ में जमीन –आसमान
का अंतर होता है.
जांच का पहला सिद्धांत है
प्रशासन में लगे सभी शीर्ष अधिकारियों से लिखित रिपोर्ट तलब की जाये. पाठकों को
ताज्जुब होगा कि आयोग आज तक कभी भी राज्य अभिसूचना (इंटेलिजेंस) के एडिशनल
डायरेक्टर जनरल से नहीं मिला ना हीं कोई रिपोर्ट तलब की जबकि हकीकत यह है कि विभाग
पूरी फाइल लिए तैयार बैठा था हकीकत बताने के लिए.
फिर जज साहेब के टर्म्स ऑफ़ रिफरेन्स
में दंगे का कारण और भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न होने के उपाय भी बताने को कहा
गया था. अगर थोडा भी सार्थक मेहनत आयोग करता तो वह देख पाता कि कम से कम २०
इंटेलिजेंस रिपोर्ट्स जिले से राज्य मुख्यालय होती हुई मुख्य सचिव तक याने
मुख्यमंत्री तक गयी जिनमें स्पष्टरूप से दंगे की आशंका का ज़िक्र था. अगस्त २७,२०१३ की कवाल की घटना जिसमें एक
मुसलमान और दो हिन्दू युवा मारे गए, के पहले २१ अगस्त को भी शहर में हीं नहीं
शामली में भी सांप्रदायिक झड़पें हुईं जिनमें १५० लोगों के खिलाफ ऍफ़ आई आर दर्ज
हुए. सरकार को अभिसूचना विभाग ने तब भी आगाह किया.
राज्य में इंटेलिजेंस
नेटवर्क का स्वरुप
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आयोग के अध्यक्ष को यह भी
समझना होगा कि अभिसूचना का ढांचा कैसा है , उनकी प्रोफेशनल क्षमता क्या है और किस
अधिकारी से किस किस्म की अभिसूचना अपेक्षित है. भारत में अभिसूचना के तीन स्तर है.
केंद्र का विभाग – आई बी जो राज्यों में एस आई बी शाखाओं के रूप में रहता है और
इसमें दो ग्रेड के ए सी आई ओ (सब-इंस्पेक्टर), डी सी आई ओ (डिप्टी एस पी) ,
असिस्टेंट डायरेक्टर (एस पी स्तर) से जी
डी (संयुक्त निदेशक तक होते हैं). राज्य सरकार के पास अपनी दो इकाइयाँ होती है जो
मूल रूप से पुलिस महकमें से हीं उत्सर्ग होती हैं. एक स्थनीय अभिसूचना इकाई जो जिला
मजिस्ट्रेट और एस पी के अधीन होती है और दूसरी राज्य अभिसूचना की स्पेशल इकाई जिसमें
कुल मात्र २००० फील्ड स्टाफ होते हैं जिन्हें २० करोड़ आबादी वाले राज्य में अपराध
से लेकर तस्करी, नेताओं की गतिविधि (राजनीतिक अभिसूचना), जातीय और सांप्रदायिक
स्थितियों पर नज़र रखनी होती है. अपने सोर्स को देने के लिए इनका पास कुल फण्ड
मात्र एक करोड़ सालाना होता है जिसमें से आधे से ज्यादा पुलिस महकमा और डी जी
कार्यालय अनौपचारिक रूप से कप्तानों को आकस्मिक खर्च के लिए ले लेता है. याने एल
लाख की आबादी पर एक व्यक्ति जो पीर, बाबर्ची, भिस्ती और खर सब का काम मात्र ६५
पैसे प्रतिदिन खर्च कर अपने “सूत्रों” द्वारा सैकड़ों गाँव की नब्ज़ टटोले.
क्या मानव तो छोडिये मशीन
से भी संभव है? इसके अलावा इंस्पेक्टर के ऊपर क्षेत्रीय अभिसूचना अधिकारी (जेड ओ)
होता है जिससे व्यापक दृष्टि रखने की अपेक्षा होती है और उसके उपर मेरठ में एस पी
(आर) बैठता है जिसके पास दोनों प्रशासनिक मंडल सहारनपुर और मेरठ मंडल के सभी जिलों
का प्रभार है. क्या उस दिन भीड़ का आंकलन उन्हें नहीं करना था?
इस पर अगर किसी आदर्शवादी
इंस्पेक्टर ने दंगे की सही स्थिति मुख्यालय को भेज दी तो डी एम् और एस पी उसकी खाट
खडी कर देता है क्योंकि इन दोनों अफसरों को
डी जी पी या गृह मंत्रालय से डांट पड़ती है या कभी कभी मुख्यमंत्री पूछ
बैठता है. अब चूंकि इस आदर्शवादी इंस्पेक्टर को भी मालूम है कि कल यही कप्तान उसका
अफसर बनेगा लिहाज़ा मगर से बैर कौन मोल ले.
तीसरा, कौन सत्ता का नेता
या मंत्री कैसे सिफारिश करके एक समुदाय के लोगों को छुडवा देता है जिससे दूसरा
समुदाय आक्रोश में आ जाता है इसका हिसाब –किताब भी आयोग की रिपोर्ट का भाग होना चाहिए
लेकिन वह नदारत है. क्या आयोग को आइंस्टीन के दिमाग की जरूरत थी यह जानने के लिए
कि अगर एक समुदाय के दो युवा मारे गए हैं और दूसरे का एक तो दोनों के सम्बन्धियों
को तत्काल गिरफ्तार किया जाये और प्रशासन अपनी विश्वशनीयता जनता के दोनों समुदायों
में बरकरार रखे न कि सत्ता में बैठे ताकतवर मंत्रियों के प्रति? क्यों जब एक
समुदाय के लोगों को गिरफ्तार किया गया तो कप्तान का रातों-रात तबादला किया गया ?
कौन था इसके पीछे? क्यों एक हीं समुदाय के मामा-चाचा, नाना-नानी को पुलिस ने नामजद
किया जबकि दूसरे समुदाय के हत्यारे “अनाम” करार दिए गए? किसने यह अविश्वास प्रशासन
और सरकार में पैदा किया.
जाहिर है कि अगर आयोग जांच
की आधारभूत प्रक्रिया को हीं नज़रंदाज़ करेगा तो निष्कर्ष गलत होगा. ७५५ पेज की
रिपोर्ट और यह नहीं पता कि किस नेता ने आग लगाई समुदायों को बांटने के लिए. अगर आई
बी की उस काल की रिपोर्ट देख लें और राज्य अभिसूचना की उन रिपोर्टों पर जो सरकार
को भेजे गए हैं पर नज़र डालें तो आयोग को सब कुछ पता लग जाएगा. लेकिन तब कुछ
मंत्री, कुछ राजनीतिक दलों के नेता कटघरे में होंगे. शायद आयोग के टर्म्स ऑफ़
रिफरेन्स में उस तरफ जाना वर्जित था.