Sunday 24 August 2014

जजों की नियुक्ति: इस बदलाव के मूल कारणों पर जाएँ



है साहेब-ए-इंसाफ खुद इंसाफ का तालिब
मुहर उसकी है मीजान बदस्ते दीगरां है.

(आज न्याय का मालिक खुद न्याय चाह रहा है क्योंकि मुहर तो उसकी है लेकिन तराजू दूसरे के हाथ में है)
          ----------- फैज़ अहमद फैज़

न्यायिक नियुक्ति बिल संसद की दोनों सदनों से पारित हो चुका है. राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद अधिसूचना जरी कर जल्द हीं कानून बना दिया जाएगा. और उसके बाद फिर एक बार साहेब इंसाफ (न्याय का मालिक) के हाथ से न्याय की तराजू निकल जायेगी. प्रश्न मात्र बदलाव का नहीं है. उसके कारणों पर जाये तो पता चलेगा कि कैंसर कहीं ज्यादा गहरे चला गया है और मेटा- एस्टासिस के स्टेज पर पहुँच चुका है जिससे अन्य अंग भी प्रभावित होने लगे हैं.
यहाँ यह कहना गलत होगा कि न्यायपालिका में सब कुछ सही था और विधायिका और कार्यपालिका ने मिलकर इसके अधिकारों को हासिल करना चाहा. जिस देश की सर्वोच्च अदलत के तीन-तीन मुख्य न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहें हो वह संस्था सही कार्य कर रही है यह कहना गलत होगा. आज़ादी के कोई ५० सालों में कम से कम सर्वोच्च न्यायलय की विश्वसनीयता पर आंच नहीं आयी थी. यह  सब गिरावट पिछले १५ सालों में सुनने को मिला. अगर किसी दो साल में सर्वोच्च न्यायलय के जो २३ जज रिटायर होते हैं उनमें २१ को अवकाश- प्राप्ति के तत्काल बाद कोई न कोई पद दे कर सारी सुविधाएँ और पगार सरकारों द्वारा बहाल कर दी जाती हैं तो सब न्यायपालिका में सब कुछ अच्छा नहीं है.
अगर गुजरात हाई कोर्ट का का एक मुख्य न्यायाधीश भास्कर भट्टाचार्य सार्वजानिक रूप से भारत के एक मुख्य न्यायाधीश पर आरोप लगता है कि चूंकि उनकी बहन को कलकत्ता हाई कोर्ट में हमने जज बनाने का विरोध किया इसलिए मुझे सर्वोच्च न्यायलय में जज नहीं बनने दिया गया, तो न्यायपालिका की छवि को चार चंद नहीं लगते. अगर कोई सुप्रीम कोर्ट का हीं रिटायर्ड जज जस्टिस काटजू कहता है कि अमुक मुख्य न्यायाधीश को हमने इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक जज के बारे में बताया और जांच में उसके एक दलाल से सम्बन्ध और भ्रष्टाचार के बारे में आई बी ने टेप भी दिए फिर भी वह जज बना रहा, तो न्यायपालिका किसी अन्य अवमानना की ज़रुरत नहीं है. जनता में भरोसा उठा इसके लिए “साजिशकर्ता” ढूँढने की ज़रुरत नहीं है. देश के सर्वोच्च न्यायलय की गरिमा गिरी है जो अदालत की अवमानना कानून के अनुसार अपराध है फिर भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश का यह रुदन क्यों? गलत है तो जस्टिस भट्टाचार्य और जस्टिस काटजू पर मुकदमा क्यों नहीं ? दरअसल ये आरोप सहीं हैं और न्यायाधीशों में नैतिकता का लोप जबरदस्त ढंग से पिछले कुछ सालों में हुआ है.
यह सही है कि एडवोकेट्स ऑन रिकार्ड्स एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के क्रांतिकारी फैसले के पहले जजों की नियुक्ति सरकार के हाथ में थी और न्यायपालिका की भूमिका नगण्य थी. नतीजा यह होता था मुख्यमंत्री और मुख्य न्यायाधीश अगर पांच पद  खाली है तो “दो-मेरे, दो -आपके” का समझौता कर लेते थे और एक केंद्र की सरकार का आदमी जज हो जाता था. उत्तर प्रदेश में एक मुख्य मंत्री ने अपने जिले के एक वकील को जिसकी जिले में हीं साख बेहद खराब थी हाई कोर्ट का जज बना दिया.
लेकिन पिछले २१ सालों से यह काम न्यायपालिका के हाथों में है और वहां भी इसी तरह के आरोप देखने को मिल रहे हैं. तो फिर फर्क क्या है बदनाम राजनीतिक वर्ग में और अवमानना के अधिकार से सुसज्जित “मी लार्डों” में?
फिर अगर कोई संस्था नैतिक रूप से इतनी कमज़ोर हो जायेगी तो अन्य संस्थाएं चाहे खुद कितनी भी बुरी हों , भारी तो पड़ेंगी हीं. विधायिका या यूं कहिये कि राजनीतिक वर्ग को एक अच्छा मौका मिला, काटजू के खुलासे से. फिर क्या था. कांग्रेस, मायावती, मुलायम सिंह, लालू यादव , जयललिता की पार्टी से और क्या उम्मीद कर सकते हैं. इनमें से अधिकांश अदालतों में अपने कर्मों से अपने भाग्य को गिरवी रख आये हैं.      
न्यायपालिका पर नकेल कसने की ललक आज की नहीं है. संविधान निर्माताओं से लेकर ६५ साल तक राजनीतिक वर्ग इसको नियंत्रित करने की जुगत लगता रहा है. संविधान के अनुच्छेद १२४ की व्याख्या करते हुए डॉक्टर अम्बेदकर ने कहा था “जजों के अन्दर भी मानवोचित दुर्गुण हो सकते हैं लिहाज़ा नियुक्ति की पूरी जिम्मेदारी इन पर नहीं छोड़ी जा सकती है. कितनी विडम्बना है. जिस सर्वोच्च न्यायालय के जज की बुद्दिमत्ता पर पूरा देश, संविधान और व्यवस्था पूरा भरोसा रखते हुए उसके  फैसले पर व्यक्ति को अंतिम रूप से फंसी पर लटका देते है और जिन पांच-सदस्यीय जजों की संविधान पीठ के फैसले में कानून की ताकत होती है उन्हीं में से पांच सबसे सीनियर जजों में इतनी समझ नहीं है कि वे जजों की नियुक्ति कर सकें ? अगर ये जज अपने को भाई –भातीजावाद से ऊपर नहीं ले जा सकते, भ्रष्टाचारी जज को हटाना तो दूर उन्हें सत्ता के किसी  दबाव में प्रोन्नत कर देते हैं तो ६५ साल से जो लोग सजा पा चुके हैं या छूट गए है उनको लेकर समाज क्या सोचेगा?
१६ मई, १९५१ को (संविधान अंगीकार करने के मात्र १७ माह बाद पहले संविधान संशोधन पर बोलते हुए प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु ने कहा था “हमने एक भव्य संविधान बनाया लेकिन वकीलों ने उसे अगवा कर लिया” .......  और “हम सर्वोच्च न्यायालय को संसद का तीसरा सदन नहीं बनने देंगे”. (पार्लियामेंट डिबेट , वॉल्यूम १२, भाग २, कॉलम ८८३२).
कम से कम उस समय तो जजों पर कदाचार के आरोप नहीं थे ना हीं वे जजों की नियुक्ति करते थे फिर यह दुराव क्यों?
एक अध्ययन में पाया गया कि १९६०वेन दशक के मध्य तक पाया गया कि सर्वोच्च न्यायलय में लगभग ७० प्रतिशत ऐसे मामले थे जिन में सरकार एक पक्ष होता था और व्यक्ति या निजी पार्टी दूसरा पक्ष. यह भी पाया गया कि इन मामलों में लगभग ४० प्रतिशत फैसलों में सरकारी को हारना पड़ा. उस दौरान जो ३२७२ फैसले देश की सबसे बड़ी अदलत में हुए उनमें ४८७ में किसी ना किसी कानून को चुनौती दी गयी थी और उनमें १२८ फैसलों में सर्वोच्च न्यायलय ने कानून को असंवैधानिक ठहराया.
शोधकर्ता जॉर्ज गड्बोईस के अनुसार दुनिया के किसी भी अन्य मुल्क में देश की सबसे बड़ी अदालत में सरकार को अपनी हीं जनता की मुखालफत वाले मामलों में देश की सबसे बड़ी अदालत में इतनी शिकस्त नहीं मिली.  
और फिर अगर यह बुद्दिमता या नैतिकता इन जजों में नहीं तो बंद कीजिये न्यायपालिका की दूकान और प्रजातंत्र का ड्रामा. छोड़ दीजिये पूरी न्याय-व्यवस्था ताकतवर के हाथों में. कम से कम यह तो पता चलेगा कि जो जीता वह किसी ताकतवर का आदमी था और उससे पंगा नहीं लेना चाहिए.
जूलियस सीज़र में एक कैसियस ब्रूटस से कहता है “ गलती हमारे भाग्य में नहीं है ब्रूटस, हमारे अपने अन्दर है क्योंकि हम सब बौने (अनैतिक) हैं”. आज शायद पूरा आंवा का आवां हीं ख़राब हो चुका है जिससे जज, मंत्री , संतरी और हमारे रहनुमा पैदा होता हैं.

rajsthan patrika