उप-चुनाव के नतीजे साफ़
दिखाते है देश की राजनीति किधर जाएगी. मोदी की बगैर चुनाव प्रचार किये दो लोक- सभा
और चार विधान सभा सीटों पर जीत और नीतीश के तीन दिन कैंप करने का बाद भी महाराजगंज
लोक सभा चुनाव में हार २०१४ के चुनाव पूर्व- और चुनावोपरांत के गठबंधन के परिदृश्य
को निर्धारित करेगा. साथ हीं यह भी पता चलेगा कि भाजपा में आडवानी की स्थिति,
गठबंधन में नीतीश का दबदबा और ममता और जयललिता का रूख क्या रहेगा. लेकिन क्या संघ –आडवाणी
द्वन्द भी इन स्थिति के सापेक्ष कम होगा?
कुछ हीं साल पहले एक वरिष्ठ
पत्रकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक शीर्ष अधिकारी से अनौपचारिक बातचीत में
कहा “क्या यह सच नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को इस उंचाई तक लाने में
आडवाणी का बड़ा हाथ है”? अधिकारी का जवाब था “और आडवाणी को यहाँ तक लाने में किसका
हाथ है?”
भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ
नेता लाल कृष्ण आडवाणी और संघ के बीच संबंधों को अगर इस पेर्शेप्श्नल पैराडॉक्स
(दृष्टिकोणों का विरोधाभास) के फॉर्मेट में देखा जाये तो कई भ्रम दूर हो जायेंगे.
एक नेता है जो दरअसल संघ का उत्पाद था और
जो संघ की अनुशंसा पर हीं राजनीतिक धरातल पर उतरा था लेकिन चूंकि राजनीति में
सत्ता के खेल के कारण व्यक्ति का कद तेजी से घटता –बढ़ता है, बड़े कद का स्वामी हो
गया. उधर संघ चूंकि सत्ता की चमक से दूर रहा, और चूंकि इस बीच संघ के शीर्ष नेता
उम्र व अनुभव में इस नेता से छोटे हैं, दोनों के बीच संबंधों के गुणवत्ता बदलती
गयी. आडवाणी-संघ संबंधों को इस परिप्रेक्ष्य में देखने पर स्थिति साफ़ हो जाती है
कि क्यों आडवाणी अक्सर विवादों के घेरे में आ जाते हैं. संघ को यह गुस्सा है कि
आडवाणी कोई भी हों, नागपुर के साथ नाभि-नाल संबंधों की नजाकत और समर्पण का भाव
क्यों नहीं रखते और आडवाणी को यह अहसास है कि बदलते भारत समाज को पहचानने की
क्षमता के लिए अपेक्षित गत्यात्मकता (डायनेमिज्म) हार्डकोर (कट्टर) विचारधारा वाले
संघ में नहीं हो सकती.
आडवाणी यूं हीं कुछ नहीं
बोलते. संघ के कई शीर्ष नेताओं के उम्र के बराबर उनका तजुर्बा है. ग्वालियर में
दिया गया वक्तव्य स्पष्टरूप एक सन्देश है--- मोदी के लिए, संघ के लिए पार्टी में
उन लोगों के लिए जो संघ के आगे नतमस्तक हैं. और हो भी क्यों नहीं. संघ ने पिछले
कुछ वर्षों में या यूं कहें कि पार्टी द्वारा सत्ता खोने के बाद से (और साथ हीं
वाजपेयी के सीन से हटने का बाद से ) पार्टी की कमान परोक्ष रूप से अपने हाथ में ले
ली. कुछ हीं वर्षों में एक अध्यक्ष थोपा जो कहीं से भी भाजपा जैसी राष्ट्रीय
पार्टी का नेतृत्व करने में सक्षम नहीं था. उसका गुण नागपुर का और वैचारिक रूप से
छोटे कद का होना था. पार्टी की छवि गिरती गयी.
यहाँ एक बात बताना जरूरी
है. आडवाणी में पार्टी को प्रशासनिक रूप से लीड करने की नैसर्गिक क्षमता कभी नहीं
रही है. ना हीं वह कुशल प्रशासक रहे हैं. लिहाजा वाजपेयी-आडवाणी के काल में १९९८
की सरकार के बाद से पार्टी का जनाधार लगातार गिरता रहा. सन १९९८ में जहाँ पार्टी
को सर्वाधिक २५.५८ प्रतिशत वोट मिले थे वहीं अगले तीन चुनावों (१९९९, २००४ और २००९
) में लगातार इसका वोट प्रतिशत गिरता रहा. २००९ तक आते -आते पार्टी के पास महज
१८.६ प्रतिशत वोट रह गए. यानी इन ११ सालों में हर तीसरे मतदाता ने भाजपा का साथ
छोड़ दिया. स्पष्ट है कि अगर इसका दोष २००४ तक वाजपेयी –आडवाणी के नेतृत्व पर जाता है तो बाद के पांच साल के क्षरण के लिए
राजनाथ सिंह का नेतृत्व जो संघ से निर्देशित था जिम्मेदार रहा.
एक और विरोधाभास देखिये. जब
२००२ की गुजरात सांप्रदायिक हिंसा जो नरेन्द्र मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल में हुई
को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राजधर्म निभाने की वकालत
करते हुए मोदी को पड़ छोड़ने का इशारा किया तो आडवाणी ने एक ढाल बन कर मोदी को
बचाया. उस समय मोदी और आडवाणी के बीच शिष्य-गुरु वाले सम्बन्ध थे जबकि संघ को मोदी
अपने तौर-तरीकों की वजह से फूटी-आँख नहीं सुहाते थे.
स्थितियां बदली. आज जब संघ
मोदी को चुनाव वैतरणी पार करने का नाव समझ रहा है तो आडवाणी को ऐतराज है और उन्हें
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान में वाजपेयी के व्यक्तित्व वाली खूबियाँ नज़र आ रही हैं. आडवाणी को उनमें विकास
का मसीहा और विनम्रता की प्रतिमूर्ति दिखाई दे रही है. कहना न होगा कि मोदी में
आखिरी गुण का नितांत अभाव भाजपा के प्रथम व द्वितीय श्रेणी के नेता हीं नहीं, संघ
भी मानता है.
जो बात संघ के समझ में नहीं
आ रही है और जो आडवाणी बखूबी जानते है वह यह आक्रामक हिंदुत्व के राजनीति भारतीय
समाज में खासकर हिन्दुओं के बीच घटे का सौदा है. एक उदाहारण. सन २००९ के चुनाव में
६७.१४ करोड़ चुनावकर्ता (एलेस्टर जिनको मतदान का अधिकार था) थे. इनमें करीब ५६ करोड़
हिन्दू चुनावकर्ता थे. उस चुनाव में ३८.९९
करोड़ वोटरों ने मतदान किया. इनमें लगभग ३२ करोड़ हिन्दू थे. लेकिन भारतीय जनता
पार्टी को वोट मिले आठ करोड़ से कम. यानि हर सात हिन्दू मतदातों में से केवल एक ने
हीं भाजपा को वोट दिया. स्पष्ट है कि हिन्दू मतदातों (जिसकी नुमाइंदगी का दावा
पार्टी करती है को मंदिर, राष्ट्रवाद से ज्यादा विकास, भ्रष्टाचार, महंगाई सरीखे
मुद्दे भाते हैं.
मोदी इन सभी के प्रतीक हैं
और इस लिहाज से संघ का निर्णय बिलकुल ठीक है. लेकिन मोदी की एक और छवि है २००२ के
दंगों के बाद की. अगर संघ मोदी को हर तीसरे दिन “अपना हीं आदमी है” कह कर मंच साझा करने लगेगा
तो मोदी की बाद वाली छवि कांग्रेस आसानी से जनमानस पर चस्पा कर सकेगी.
ऐसे समय में आडवाणी सरीखे
बड़े नेता स्वच्छ , बेदाग, निहायत शालीन, बौद्धिक रूप से परिपूर्ण छवि ना केवल
भाजपा को बचाएगी बल्कि नीतीश सरीखे बिगडैल दोस्तों को भी वापस लेन में कामयाब
होगी. लेकिन क्या संघ अपना संस्था-जनित अहंकार और आडवाणी क्या व्यक्तिगत अहंकार को
छोड़ पाएंगे?
साथ हीं क्या अकेले मोदी “एकला चलो रे” के भाव में १८.६ प्रतिशत के
जनाधार को डेढ़ गुना यानि कम से कम १९९८ के स्तर पर पहुंचा पाएंगे जिसके लिए मोदी
खुली छूट चाहते हैं. इस छूट के प्रतिफल यह
होगा कि कांग्रेस को अल्पसंख्यक वोट एकीकृत करने में आसानी होगी. यह बात पार्टी एक
अन्य नेता अरुण जेटली ने हाल हीं में एक बैठक में कही भी थी. मोदी में अगर युवाओं
के लिए अपील है तो आडवाणी से पार्टी को गरिमा, एक राष्ट्रीय स्वरुप और एक
ओम्बड्समैन मिलता है. मोदी की सफलता के एक और शर्त यह है कि या तो वह ऐसा
जन-स्वीकार्यता जगाये कि १७५ से अधिक सीटें आयें और नीतीश सरीखे “बिगडैल साथी”
घुटने टेकने को मजबूर हों अन्यथा चुनाव के बाद आडवाणी पर हीं गठबंधन का ध्रुवीकरण
संभव हो सकेगा. ऐसे में संघ को आडवानी को ख़ारिज करना अदूरदर्शिता होगी.
ऐसे वक़्त जब कि २०१४ के आम
चुनाव में १८ वर्ष से २३ वर्ष का दस करोड़ युवा युवा जुड़ने जा रहा हो मोदी वह जादू पैदा करने में सक्षम हैं. लिहाज़ा आडवाणी
को भी गीता का श्लोक “गतासूनगतासूंच नानुशोचन्ति पंडिताः” (जो चला गया उसके लिए
विलाप विद्वान् नहीं करते) अमल में लाना बेहतर होगा.
nayi duniya