Friday 5 December 2014

सत्य की खोज में खड़ा सिस्टम यादव सिंह के “सत्य” में समाहित हो चुका है


सड़ते सिस्टम में फलते-फूलते यादव सिंह, आखिर निदान क्या है ?

सत्य की खोज पुलिस से शुरू होती हुई मीडिया के रास्ते चलती हुई जांच कमीशनों की दहलीज़ पार कर न्याय की तराजू पकडे अदालत की अंतिम मंजिल तक जाती है. यहाँ भी कई सीढ़ियों पर सत्य की खोज होती है. अगर यह खोज आगे बड़ी भी तो सर्वोच्च न्यायलय की अंतिम चौखट पर जा कर ख़त्म हो जाती है. 
इनकम टैक्स के छापे में उत्तर प्रदेश के नॉएडा प्राधिकरण सहित दो अन्य प्राधिकरणों के इंजिनियर-इन-चीफ यादव सिंह के यहाँ छापे में १००० करोड़ रुपये की अघोषित सम्पति मिलती है (कार में रखे १० करोड़ के कैश सहित) . करीब २० साल से यह व्यक्ति इन सत्य खोजने वाली संस्थाओं को ठेंगा दिखाता हुआ, आउट-ऑफ़-टर्न प्रमोशन पाता हुआ देश की छाती पर मूंग दलता रहा. भारत का संविधान, प्रजातंत्र, कानून की व्यवस्था, सरकार और न्यायपालिका सत्य की खोज में लगे रहे. चुनाव होते रहे , नेता मंत्री बन कर “संविधान औए विधि के शासन” में निष्ठा” दिखाते रहे. देश के यादव सिंह विकास का पैसा लूटते रहे. 
यादव सिंह व्यक्ति नहीं है. एक व्याधि है. मध्य प्रदेश में एक भ्रष्ट और जेल में बंद आई ए एस दंपत्ति उसी व्याधि का मवाद हैं. आखिर हम इसे दूर क्यों नहीं कर पा रहे हैं? यादव सिंह दिक्- काल सापेक्ष नहीं है. एक सरकार इस जूनियर इंजिनियर की  “क्षमता” देख कर इतनी प्रभावित होती है कि उसे यह कहते हुए २० असिस्टेंट इंजिनियरों के ऊपर प्रमोट करती है कि अगले तीन सालों में ये इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल कर लेंगे. प्रतिस्पर्धी मुलायम सिंह यादव या उनके बेटे अखिलेश यादव की सरकारें भी उन्ही “क्षमता” से प्रभावित हो कर उसे व्यापक प्रभार दे डालती हैं. इस बीच सत्य की खोज में भटकता सिस्टम अगर कभी यादव सिंह के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला सी बी , सी आई डी (राज्य सरकार के अपनी पुलिस से हीं निकली जांच संस्था) को सौपता भी है तो वह जांच में या तो बेहद देरी करती है या आरोपी को पाक साफ़ बता देती है. यादव फिर बड़ी व्याधि के रूप में समाज के शरीर को खाने में लग जाता है. ऐसा वह अकेले हीं नहीं करता. सत्य की खोज में लगी उन सभी संस्थाओं के लोगों को भी बन्दर-बाँट का हिस्सा बनाता है. इनकम टैक्स विभाग को उसकी डायरी में नेताओं और अफसरों के नाम मिलते हैं. 
सत्य की खोज के लिए हीं हमने संविधान प्रदत्त अधिकारों वाली संसद में कानून पास करके दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टाब्लिश्मेंट एक्ट के तहत सी बी आई बनाई गयी . पर ताज्जुब हुआ कि इसी सत्य की खोज के लिए रखा गया सी बी आई डायरेक्टर स्वयं कटघरे में दिखा. 
सत्य की खोज में मीडिया की भूमिका वहीं ख़त्म हो जाती है जब अदालत सरकारी संस्थाओं द्वारा लाये “सत्य” का संज्ञान ले लेता है. याने मामला सब -जुडिस (अदालत के जेरे नज़र) हो जाता है. इसके लिए अदालत की अवमानना कानून भी बनाया गया है. अब मान लीजिये नीचे की अदलत ने इस सत्य पर अपना फैसला दिया याने सही या गलत ठहराया तो वह उस काल का अंतिम सत्य होगा. लेकिन अगर दोनों में से किसी पक्ष ने –क्योंकि सरकारी अभियोजन पक्ष भी उतना हीं सत्य की खोज में लगा है जितना आरोपी उसे गलत ठहराने में— ऊपर की अदालत में अपील की तो अब सत्य जानने के लिए फिर रुकना पडेगा. ऐसे तमाम मामले होते हैं जिनमें नीचे की अदालत की सत्य उपर की अदालत न केवल ख़ारिज करे बल्कि उसे उल्टा करते हुए कि नीचे की अदालत “सत्य की बारीकियों को समझ नहीं पाई” ऐसी टिपण्णी करता है. चित्रलेखा बनाम मैसूर , १९६४ में सर्वोच्च अदालत हाई कोर्ट के सत्य को पलट देती है तो वहीं एक अन्य बलात्कार व ह्त्या के मामले में सेशन कोर्ट के सत्य को, जिसमें उसने आरोपी  को कठोर सजा दी थी , इलाहाबाद हाई कोर्ट अपने वाले सत्य से पलट देती है और आरोपी बरी हो जाता है. पर राज्य पुलिस सत्य की तह पहुँचना चाहती है लिहाज़ा अपील में सुप्रीम कोर्ट जाती है. देश की सर्वोच्च अदालत हाई कोर्ट के सत्य को उल्टा करते हुए अपराधी की सजा बहाल करती है याने निचली अदालत का सत्य “अंतिम सत्य” या “परम सत्य”  हो जाता है. याने परम सत्य इस बात पर निर्भर करता है कि आरोपी या पुलिस में उस सत्य के खोज के प्रति सीढी दर सीढी जाने की “कितनी लगन है”. 
ऐसे से में “यादव सिंहों” को पूरा मौका रहता हैं कि अपने “सत्य” की बदौलत अन्य सत्यों को ना केवल जमीन के दस गज नीचे दफना दें बल्कि उनकी कोशिश भी रहती है कि अगर अन्य सत्यों के खोजकर्ताओं को अपने सत्य के साथ जोड़ लें ताकि सत्य एक हो कर अपनी रोशनी से देश का सर्वनाश करता रहे.  मायावती का सत्य , मुलायम सिंह का सत्य और अखिलेश यादव का सत्य , उन तमाम अफसरों व ठेकेदारों का सत्य इसीलिये यादव सिंह के सत्य के साथ “यकसां” हो जाते हैं. यह तो बेडा गर्क हो इनकम टैक्स वालों का कि इनका सत्य यादव के सत्य से अलग हो गया वरना “अपने सत्य” की खातिर यादव सिंह सौ-पचास करोड़ तो ऐसे हीं लुटा देता था. यादव सिंह ने हजारों करोड़ रुपये की लागत से (जनता के पैसे जो प्राधिकरणों में आये थे ) स्कूल, अस्पताल और सड़कें बनवाने के ठेका दिया. यादव सिंह का “सत्य” विस्तृत होता गया और किसी की हिम्मत नहीं होती थे कि उसके सत्य के आगे अपना सत्य खड़ा कर सके. बड़े –बड़े आई ए एस उसके पास अपनी पोस्टिंग के लिए आने लगे क्योंकि सत्ता के शीर्ष बैठे लोगों का सत्य यादव सिंह के सत्य के साथ था.   
श्रद्धा चिट फण्ड केस में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के सांसदों का सत्य और चिट फण्ड मालिक का सत्य मिल जाते है लेकिन मुख्यमंत्री इसे बदले की कारवाई कह कर जांच एजेंसियों को केंद्र सरकार के इशारे पर काम करने का आरोप लगाती हैं. 
सत्य की खोज का अंतिम पड़ाव सुप्रीम कोर्ट है. इसके तीन मुख्य न्यायाधीशों पर और अनेकों न्यायाधीशों पर आरोप लगते रहे हैं. याने सत्य यहाँ भी आकर अंतिम सत्य नहीं रह पाता. फिर ऐसे में हमें यह भी नहीं पता कि “सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है, सारी हीं की नारी है कि नारी हीं की सारी है” के भाव में ये सिस्टम यादव सिंहों से हीं बना है या यादव सिंह सिस्टम से बने हैं. ये  कहाँ कहाँ बैठे है. अगर एक यादव सिंह के पास १००० करोड़ रुपये की संपत्ति निकलती है तो सारे यादवों जो पूरे सिस्टम में, सिस्टम से बाहर या सिस्टम को दबाते हुए बैठे हैं, के पास कितना “सत्य” है. अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार के आंकलन के अनुसार अगर देश में ब्लैक मनी ने होता तो हनारी प्रति व्यक्ति आय यूरोप के कई समृद्ध देशों के बराबर होती. लेकिन क्या किया जाये संविधान कहता है “हम भारत के लोग” और हमारे कानून , हमारी संस्थाएं और उनमें लगे लोग सभी “सत्य” की खोज में लगे है. यादव सिंह का सत्य सभी अन्य सत्यों को अपने में समाहित करता जा रहा है कई स्तर पर. 

jagran, lokmat