Wednesday 22 February 2017

यू पी चुनाव: जाति-धर्म की राजनीति कम होने के संकेत



जन-संख्या के आधार पर देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का विधान सभा चुनाव लगभग आधा रास्ता पार कर चुका है. भारत के इतिहास में यह एक अलग किस्म के परिवर्तन का संवाहक बनाने जा रहा है, बशर्ते राजनीतिक वर्ग बाकि के अगले चार चरणों  में फिर इसे जाति, उप-जाति या धर्म की ओर न मोड़ दे. जब समाजवादी पार्टी के अगुवा पिछड़े वर्ग के नाम पर वोट न मांगे बल्कि सड़कें बनवाने और मेट्रो चलवाने की दुहाई दें, जब बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती तिलक-तराजू से बहुजन और फिर बहुजन से सर्व-जन तक की बात करने लगें और जब कोई भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष राम मंदिर छोड़ कर प्रदेश की सरकार पर केंद्र के कार्यक्रमों को अमल में न लाने का आरोप लगाये तो यह  भारत में जन विमर्श बदलने की दस्तक है. पिछले 65 साल के चुनावों के इतिहास में पहली बार यह देखने में आ रहा है कि प्रदेश का युवा यादव, जाट, कुर्मी या अन्य जाति समूह में नहीं बंटा है. साथ हीं यह वर्ग हिन्दू-मुसलमान में न बंट कर बेरोजगार के वर्ग में शामिल हो गया है, आम मतदाता जाति और धर्म के ओछे संदेशों की हकीकत जान कर शासन के अपेक्षित या भोगी हुई गुणवता पर वोट दे रहा है.                              

यही वजह है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने एक करिश्मा किया है. छः माह पहले जो सत्ताधारी पार्टी –समाजवादी पार्टी— खराब कानून व्यवस्था, बढ़ते अपराध और सत्ताधारी दल के अपराधीकरण और लम्पटवाद के चलते भयंकर सत्ता-विरोधी लहर के भंवर में फंसी थी, अचानक अच्छी दीखने लगी. जनता की उदारता देखिये कि साढ़े चार साल के कुशासन के बाद भी जब मुख्यमंत्री अखिलेश ने इस लम्पवाद, भ्रष्टाचार और अपराधीकरण के खिलाफ अपने चाचा शिवपाल और पिता मुलायम सिंह यादव को चुनौती दी तो जनता में उसमें वही छवि देखनी शुरू की जो वह चाहती थी ---- एक बेदाग़ चेहरा, कुछ करने का जज्बा और न करने की बेचारगी. जनता ने क्षमा हीं नहीं किया बल्कि व्यापक स्वीकार्यता भी दिखाई. यही स्वीकार्यता सन २०१४ में नरेन्द्र मोदी के प्रति भी थी.

सन २०१४ और उसके बाद बिहार और उत्तर प्रदेश के राज्य विधान सभा चुनाव देश भर में मोदी की छवि और उनकी नीतियों को लेकर प्रतिनिधि चुनाव माने जा रहे हैं. इसका कारण यह है कि ये दोनों राज्य भारत की २६ प्रतिशत जनसँख्या लेकिन मात्र ११ प्रतिशत भूभाग रखते हैं. जाहिर है गरीब हैं और मानव विकास के किसी भी पैमाने पर सबसे नीचे के पायदान पर ज़माने से अपनी जगह बनाये हैं. ऐसे में जब देश के जनसँख्या के हिसाब से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में चुनाव हो और इसमें न कहीं बाल मृत्यु दर , मातृ मृत्यु दर, स्कूल- और सड़क-आबादी अनुपात, साक्षरता या प्रति व्यक्ति आय, रोजगार की स्थिति के बारे में चर्चा न होकर भावनात्मक “नेता-प्रजा” संबंधों के बचकाने  रिश्तों की बात होने लगे तो राजनीतिक वर्ग की जड़ता पर चिंता होने लगती है.  

ऐसे में जब देश के प्रधानमंत्री भी उसी सांचे में ढल जाएँ और अपने भाषणों में “मैं इस प्रदेश की गोद लिए बेटा हूँ” कह कर सभा में ताली बजवाएं, या अगले दिन मुख्या मंत्री अखिलेश यादव अपनी पत्नी डिंपल यादव को प्रदेश की जनता की भाभी बताएं, मायावती शाश्वत “बहेन जी” बनी रहें और कांग्रेस की प्रियंका गाँधी अपने को उस प्रदेश की बेटी करार दें यह कहते हुए कि उत्तर प्रदेश को किसी को बाहर से गोद लेने की जरूरत नहीं है तो यह सोचना पड़ता है एक गरीब राज्य में कब तक हम मुद्दों पर चुनाव लड़ने के बजाय जनता को तथ्यों से अलग रखेंगे.

लेकिन जैसा शुरू में बताया गया जन विमर्श को सकारात्मक, विकासपरक  , वैज्ञानिक सोच वाला और दकियानूसी मुद्दों से दूर करने का जिम्मा राजनीतिक वर्ग का और साथ हीं मीडिया का होता है. आज प्रदेश के चुनाव में यह राजनीतिक वर्ग जाति और धर्म से ऊपर तो उठा है (वह भी इसलिए कि स्वयं जनता ने इन मुद्दों को  ख़ारिज करना शुरू किया है) लेकिन उसे स्वयं विकास के पैरामीटर की जानकारी नहीं है. अगर किसी बड़े नेता या मंत्री से पूछें कि मानव विकास सूचकांक पर प्रदेश की स्थिति क्या है या बाल मृत्यू दर क्यों कम नहीं हो रहा है तो अधिकांस बगलें झांकने लगेंगे. दरअसल उनकी ट्रेनिंग में विकास कभी भी जनमत हासिल करने का मन्त्र रहा हीं नहीं है. इसका दो उदाहरण हैं --- प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी में संगीत सोम (मुज़फ्फरनगर दंगों में चर्चित) टाइप उम्मीदवारों को टिकट मिलना या मुख़्तार अंसारी को अखिलेश की पार्टी में जगह न मिलने पर मायावती द्वारा हाथों हाथ लेना. मुख़्तार जैसे कुख्यात अपराधी को टिकट हीं नहीं दिया गया बल्कि मायावती ने उसके परिवार को “बहुत हीं सम्मानित” परिवार बताया. यह सब कुछ करने के पीछे एक हीं सोच थी पूर्वी उत्तर प्रदेश के कम से कम दस विधान सभा क्षेत्रों में मुसलमान मतों की चाहत. बसपा सुप्रीमो की सोच अगर इससे ऊपर जाती तो वह यह जान पातीं कि युवाओं का एक बड़ा वर्ग जो संप्रदाय की सोच से ऊपर उठ चुका है उनकी पार्टी को इसलिए भी वोट देता कि उनके शासन काल में लम्पटों का सत्ता में इतना बोलबाला नहीं था जितना अखिलेश के साढ़े चार साल के शासन काल में.

इधर मीडिया को भी अपना ज्ञान , अपनी समझ और अपने विश्लेषण के तरीके को बदलना होगा. जितना राजनीतिक वर्ग विकास की समझ से अछूता है उतना हीं भारतीय मीडिया भी. रिपोर्ट शुरू हीं होती है किस चुनाव क्षेत्र में कितने मुसलमान , कितने दलित और कितने पिछड़े जाति के लोग हैं और किस प्रत्याशी को कौन जाति वोट नहीं दे रही है.

भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों राष्ट्रीय पार्टियों पर यह जिम्मेदारी ज्यादा है क्योंकि इनमें जन-विमर्श बदलने की क्षमता है , नेटवर्क है और यह इनके फायदे में भी है. जाति और सांप्रदायिक अपील धीरे-धीरे अपनी ताकत खो रहे हैं क्योंकि जनता की प्रति व्यक्ति आय , साक्षरता , तर्क-शक्ति और स्थिति को आंकने का तरीका बदल रहा है. दलित भी अब पूछ रहा है कि ज़िले मे एस पी और थानेदार तो दलित वर्ग से मिला पर सड़क और रोजगार क्यों नहीं ? सशक्तिकरण की झूठी चेतना जगा कर जातिवादी दलों ने १९९० से उत्तर भारत में समाज को जाति और संप्रदाय में तो बांटा लेकिन अब जो सवाल कांग्रेस और मोदी से पूछे जा रहे हैं वही मायावती और अखिलेश से भी. हाँ एक बात अभी भी बदस्तूर कायम है और वह है मुसलमानों में अपनी सुरक्षा को लेकर चिंता. भारतीय जनता पार्टी और खासकर उसके अगुवा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को यह देखना होगा कि जब देश की सोच बदल रही है तो अल्प-संख्यकों में यह डर भी ख़त्म करना उनका काम है. “सबका साथ और सबका विकास” किसी वर्ग में डर रहेगा तो संभव नहीं होगा.  


patrika