Tuesday 28 June 2016

मोदी साक्षात्कार के निहितार्थ


कोई बड़ा नेता यू हीं इंटरव्यू नहीं दे देता, खासकर देश का प्रधानमंत्री और वह भी नरेन्द्र मोदी जैसा. इसके पीछे कोई उद्देश्य होता है जो काल, स्थिति और मैसेज को ध्यान में रख कर किया जाता है. फिर इसी के अनुरूप  माध्यम और संस्था और भाषा का चुनाव होता है.

देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्र को संबोधित भी कर सकते थे. प्रेस कांफ्रेंस भी कर सकते थे या किसी ज्यादा प्रसार वाले अखबार या ज्यादा टी आर पी वाले हिंदी चैनल को भी यह इंटरव्यू भी दे सकते थे. पर उन्होंने एक अंग्रेज़ी का टी वी चैनल हीं क्यों चुना और फिर खुद हिंदी में हीं क्यों बोला, यह जानना जरूरी है.

राष्ट्र को संबोधित करना एकल संवाद होता है जैसे “मन की बात”. इसमें यह आभास नहीं मिलता कि जनता के सवालों का जबाव मिल रहा है. प्रेस कांफ्रेंस बेलगाम होता है और कई बार मूल आयाचित सन्देश प्रश्नों के अम्बार में खो जाता है. भारतीय जनमानस में औपनिवेशिक मानसिकता की वजह से आज भी अंग्रेज़ी को बौद्धिकता का पर्याय माना जाता है और साथ हीं कुछ हद तक बौद्धिक ईमानदारी का भी. लेकिन साथ हीं अंग्रेज़ी सवालों का हिंदी में जवाब ८० करोड़ से ज्यादा हिंदी बोलने और समझने वालों को अपने नेता की बात बोधगम्य बनाती है. दो साल से ज्यादा के शासन काल में निरपेक्ष विश्लेषकों के मन में हीं नहीं, जनता का मन में भी कुछ शंकाएं जन्म लेती हैं और उन शंकाओं का समाधान मात्र इसी तरीके से किया जा सकता था.

इस ८८ मिनट के इंटरव्यू में चार प्रमुख अन्तर्निहित सन्देश जो  प्रश्नों के उत्तर के रूप मे  थे प्रधानमंती देना चाहते थे. एक यह कि अगर देश का विकास सर्वोपरि है तो हर तीसरे दिन कोई सत्ता –पक्ष का नेता या मंत्री या भगवाधारी  भावनात्मक मुद्दे उठा क्यों उठा रहा है? क्यों कोई मंत्री “भारत माता की जय “ न कहने वालों को पाकिस्तान जाने की सलाह दे देता है और क्यों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी अनुषांगिक संगठन का पदाधिकारी “मुसलमान –मुक्त भारत” की बांग दे देता है? शंका यह होती है कि मोदी ऐसे कद्दावर नेता के शीर्ष पर रहते हुए यह विरोधाभास क्यों. क्या इन गैर-विकास मुद्दों से माहौल खराब करने वालों को कोई मौन सहमति तो नहीं है?

प्रधानमंत्री ने बेहद खूबसूरती से इस इंटरव्यू के सवालों के जरिये यह साफ़ किया कि वह इस “ब्रांड की राजनीति” से अपने को अलग हीं नहीं रखते बल्कि एक चेतावनी भी थी कि एक सीमा के आगे इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. साक्षात्कार में सवाल आया ---पार्टी के लोग इस तरह के मुद्दे उठाते हैं” और मोदी का जवाब था-- पार्टी हीं नहीं किसी के द्वारा भी अगर इस तरह की बात होती है तो वह गलत है और यह वे लोग करते हैं जो मीडिया में अपने प्रचार को आतुर रहते हैं. इसका सन्दर्भ ध्यान देने लायक है. तीन दिन पहले, हाल हीं में भारतीय जनता पार्टी द्वारा राज्य सभा भेज गए सुब्रह्मनियम स्वामी का रिज़र्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन पर अनर्गल आरोप लगाना और इस प्रक्रिया में मोदी सरकार के दूसरे कद्दावर नेता और वित्त मंत्री अरुण जेटली परोक्ष रूप से हमला करना. सन्देश यह जा रहा था कि यह हमला इतना सामान्य नहीं जितना दिखाई देता है और यह भी कि स्वामी पर संघ का वरदहस्त है. जेटली चीन यात्रा बीच में हीं रोक कर भारत वापस लौटना अनायास हीं नहीं है.

प्रधानमंत्री का सन्देश साफ़ था कि भविष्य में ऐसी स्थितियां पैदा करने वालों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. शायद इससे सन्देश का विस्तार करते हुए मोदी ने यह भी कहा कि टीवी चैनलों के डिबेट में वह देखते हैं कोई प्रवक्ता कुछ कह रहा है. वह इनमें से कइयों को पहचानते भी नहीं हैं लेकिन मीडिया इन्हें ऐसे प्रोजेक्ट करता है जिससे वह अपने कद से बड़े हो जाते हैं. आशय यह था कि ये प्रवक्ता क्या कहते हैं पार्टी या सरकार की नीतियों के बारे में इससे सरकार के काम-काज की विश्लेषण नहीं किया जाना चाहिए. मोदी का यह सन्देश इसलिए भी सामयिक था क्योंकि पिछले कुछ दिनों से यह सोच उभरी है कि ये प्रवक्ता अहंकारी और असहिष्णु होते जा रहे हैं.

विदेश यात्राओं को लेकर मोदी ने यह बताना चाहा कि वह इसलिए व्यक्तिगत रूप से विश्व के तमाम नेताओं से मिल रहे हैं क्योंकि जमीनी पृष्ठभूमि से होने की वजह से उनके बारे में अन्य देशों में उनके बारे में अपरिपक्व जानकारी है जिससे कई बार देश का नुकसान हो सकता है. शायद उनका आशय गुजरात दंगों के बाद कुछ देशों द्वारा बनाई गयी उनकी छवि के सन्दर्भ में था. उनका यह याद दिलाना कि अमरीकी अख़बारों में उनकी हाल की यात्रा के दौरान यह बताया  कि बराक ओबामा की भारत के साथ मैत्री का वर्तमान मकाम अमरीकी राष्ट्रपति की कूटनीतिक सफलता का ध्योतक है मोदी के सन्देश का
सार था.

मंहगाई को यह कह कर कि दो सालों में जिस तरह का सूखा रहा और जिस तरह किसानों ने घबरा कर दलहन की जगह गन्ना बोने शुरू किया जिससे दाल  की कीमतों में वृद्धि हुई, कोशिश की कि जनता को आश्वस्त किया जाये कि स्थिति नियंत्रण में लाई जा सकेगी. हालांकि दलहन की पैदावार लगातार पिछले कई वर्षों से कम हुई है जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य यो पी ए सरकार ने भी बेतहाशा बढाया.

एक राजनीतिक सन्देश भी था जिसमें यह प्रयास था कि विपक्ष और कांग्रेस को अलग किया जाये. एक प्रशन के उत्तर में उन्होंने संसद में गतिरोध का आरोप विपक्ष पर लगाना गलत है और बगैर नाम लिए उन्होंने कांग्रेस को इसका दोषी बताया. गरीब राज्यों के लोगों के कल्याण से जी एस टी बिल को जोड़ते हुए उन्होंने यह कोशिश की कि जनता कांग्रेस के रवैये के प्रति नाराज हो और गैर -कांग्रेस विपक्षी दल  बिल के साथ हों.

महंगाई को छोड़ कर बाकि संदेश अपेक्षाकृत तार्किक और ग्राह्य कहे जा सकते हैं पर आगे जनता यह भी देखेगी कि क्या कोई मंत्री गिरिराज या कोई महंत या कोई सुब्रह्मनियम स्वामी फिर तो नहीं पुराना राग अलापने लगा. अगर ऐसा होता है जनता की शंका बनी रहेगी.  

nai duniya/ lokmat

Sunday 26 June 2016

एन एस जी की हकीकत बनाम मोदी के प्रयास


हम भारतीय आदतन उत्सव-धर्मी हैं. देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यह बात जानते हैं. लिहाज़ा वह हर काम जो मोदी की जानिब से होता है वह उत्सव का स्वरुप ले लेता है. “स्वच्छ भारत अभियान” , “अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस” , “विदेश यात्रा”, “राष्ट्रवाद” “ओबामा का भारत आना” और ताज़ा “एन एस जी की सदस्यता” आदि कुछ उदाहरण हैं. ऐसा नहीं कि विकास के काम कुछ कम हुए हैं. नयी “फसल बीमा योजना”, “मृदा परीक्षण”, “यूरिया पर नीम की परत” “गरीबों का बैंक खाता” ये कुछ सार्थक प्रयास हैं लेकिन शायद भारतीय जनता पार्टी के स्वभाव में हीं “भावनात्मक अतिरेक से अपने औचित्य को सही ठहराना” है नतीजतन जिन योजनाओं को जन –अभियान बनाना चाहिए वह हाशिये पर रहे. और यह आभास दिया जाने लगा कि मोदी जी की हर विदेश यात्रा सिकंदर की तरह “विश्व विजय अभियान” है.

यहाँ अगर हम ओबामा से “दोस्ती” , “अमरीका की भारत के पक्ष में पैरोकारी” , मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम (एम् टी सी आर) की सदस्यता को मोदी डोक्ट्रिन की सफलता माने तो चीन सहित एक नहीं दस-दस देशों द्वारा भारत का एन एस जी की सदस्यता के खिलाफ खड़ा होना क्या विफलता नहीं कही जायेगी ? इनमें वे भी देश थे जिन्होंने ने हाल में “मोदी विश्व फहत” अभियान में एन एस जी की सदस्यता पर समर्थन का स्वयं मोदी को आश्वासन दिया था.    

हर राजनीतिक दल का राजनीति करने का अपना तरीका होता है. शायद कांग्रेस की अपनी रणनीति में  अपने सफल प्रयासों को उत्सव में बदलने की कला नहीं रही. इसके दो उदाहरण लें. सन २००८ में अमेरिका का १२३ समझौता और एन एस जी का भारत के लिए “वेवर” जिसके तहत वह तमाम सदस्य देशों से यूरेनियम खरीद सकता हो, अपने आप में ऐतिहासिक उपलब्धि थी. वही चीन था और वही भारत था जिसने परमाणु प्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं किया था लेकिन हम सफल रहे. लेकिन तत्कालीन कांग्रेस के नेतृत्व वाली यू पी ए -१ की सरकार को संसद में लगभग हार की कगार पर खड़ा होने की स्थिति आ गयी थी. दूसरा उदाहरण है १९६६-६७ का. देश हीं नहीं दुनिया के इतिहास में शायद पहली बार प्रमुख अनाज -गेहूँ -- का उत्पादन एक साल के भीतर डेढ़ हुना गुआ था याने १२ मिलियन टन से १७ मिलियन टन. लेकिन किसी को पता भी नहीं चला कि हरित क्रांति ने किसानों का कितना बड़ा हित किया. उस साल याने १९६७ में कांग्रेस १० राज्यों में चुनाव हार गयी. आज भारत की कुल अनाज पैदावार २६५ मिलियन टन है और इन ५० सालों के दौरान कांग्रेस ४० साल शासन में रही. लेकिन आभास यह रहा कि पार्टी ने देश के विकास के लिए कुछ भी नहीं किया. और देश रसातल में पहुँच गया. आज सन्देश यह जा रहा है कि सिर्फ भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी हीं देश को बचा सकते हैं.

अब जरा गौर करें एन एस जी की सदस्यता के मुद्दे पर. अमेरिका में मोदी और ओबामा के संयुक्त वक्तव्य में कहा गया कि भारत उस देश से छः परमाणु रिएक्टर खरीदेगा. कंपनी का नाम है –वेस्टिंगहाउस और टेक्नोलॉजी डिज़ाइन का नाम ए पी-१०००. यह टेक्नोलॉजी अभी पूरी तरह मान्यता नहीं हासिल कर पाई है. अमेरिका की हीं कई राज्यों के अभिकरणों ने --- फ्लोरिडा पॉवर एंड लाइट तथा टेनेसी घाटी प्राधिकरण -- इसके साथ हुए सौदे रद्द कर दिए हैं या रियेक्टरों की संख्या घटा दी है. इन अभिकरणों को जिस दर पर ये रियेक्टर सप्लाई किये गए हैं अगर उसी  दर पर भारत को भी किया जाएगा तो इसकी स्थापना कीमत ७० करोड़ प्रति मेगा वाट होगी जो भारत में अब तक उपलब्ध दर से सात गुनी ज्यादा  होगी. लिहाज़ा इस दर पर प्रारंभिक स्तर पर बिजली २५ रुपये प्रति यूनिट पड़ेगी. क्या देश इस स्थिति में है कि इतनी लगत पर रियेक्टर लगाये और इतनी महंगी बिजली ले? क्या इसके लिए वैश्विक टेंडर अपेक्षित नहीं था और क्या खरीदने के प्रस्ताव के पहले हर पहलू की जांच कर ली गयी थी?
जब प्रधानमंत्री हाल की अमरीका यात्रा (अभियान?) पर थे तो अचानक देश के अख़बारों और टी वी चैनलों पर खबर आयी एक “बड़े फतह” की. भारत “मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम” (एम् टी सी आर) का सदस्य बन गया. देश का शायद हीं कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति और देश के अधिकांश पत्रकार इसके बारे में पहले से जानते थे लेकिन जैसे हीं विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने भारत से मोदी की विदेश यात्रा को कवर करने गए रिपोर्टरों को इसे  “ऐतिहासिक सफलता” के रूप में बताया तो लगा जैसे मोदी डोक्ट्रिन का भूचाल आ गया. देश में इस “सफलता” का उत्सव शुरू हो गया. इसमें कोई दो राय नहीं कि इसकी सदस्यता मिलने से हमें वैश्विक मिसाइल टेक्नोलॉजी तक पहुँच मिली और यह एक कूटनीतिक उपलब्धि है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि २.३ ट्रिलियन डॉलर की भारतीय अर्थ-व्यवस्था पर हर देश पलक पावडे बिछाए बैठा है क्योंकि हम बड़े आयातक है. अमेरिका से दोस्ती इसलिए भी है कि हम लगभग चार लाख करोड़ रुपये के रियेक्टर खरीद रहे हैं. रक्षा उपकरणों की खरीद अलग.

शायद हर कदम को राष्ट्रव्यापी उत्सव में बदलने की मोदी के रणनीतिकारों की आदत ने एन एस जी को लेकर होमवर्क नहीं किया था. दरअसल अगर किया होता तो जान जाते कि सदस्यता के लिए जितनी राजनीतिक पूंजी खर्च की गयी है वह बेमानी थी और रंचमात्र भी लाभ नहीं था. इन रणनीतिकारों को एन एस जी की गाइडलाइन्स में सन २०११ में पैरा ६ और ७ में किये गए संशोधन को पढ़ लेना चाहिए था. ये पैरा किसी भी सदस्य देश को किसी भी ऐसे सदस्य देश को जो परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर न किया हो, संवर्धित यूरेनियम और री-प्रोसेसिंग सम्बंधित टेक्नोलॉजी नहीं देंगे. लिहाज़ा अगर भारत सदस्य बन भी जाता है तो उसे यह लाभ नहीं मिलेगा और अगर इसमें संशोधन करना भी हो तो चीन नहीं होने देगा. लिहाज़ा यह पूरा प्रयास “बाँझ सफलता” के अलावा कुछ नहीं था.

दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों का एक वर्ग है जो आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन से पुष्पित –पल्लवित होता है. मोदी सरकार के किसी प्रयास पर यह बौद्धिक पालिश चढाता है. इस दौरान यह बताया जाने लगा कि नेहरु ने अगर अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी की परमाणु रियेक्टर देने की पेशकश स्वीकार कर ली होती तो न तो चीन १९६२ में हमला करने की जुर्रत करता न पाकिस्तान १९६५ में, ना हीं आज एन एस जी की सदस्यता के हम मोहताज़ होते. वे शायद भूल रहे हैं कि तब कश्मीर भी हाथ से लिकल गया होता क्योंकि सुरक्षा परिषद् में सोवियत संघ हमारे पक्ष में खड़ा न होता. वे यह भी भूल रहे है कि विश्व शांति में नेहरु का क्या योगदान रहा. उन्हें तात्कालिक परिस्थिति का भान होता तो जानते कि पर्यावरण  उस समय मुद्दा नहीं था और बिजली पैदा करने के लिए हमारे पास कोयले का विशाल भंडार था जिससे कम लागत और कम पूंजी निवेश में हम बिजली की दिक्कत दूर कर सकते थे. उस समय हमारी हैसियत अनाज के लिए कटोरा लेकर घूमने वाली थी, परमाणु रियेक्टर लगाने की नहीं ?      

lokmat