Sunday 17 April 2016

अजीत डोभाल की सर्वोच्च अदालत के जजों को ब्रीफिंग एक अच्छा प्रयास

सुरक्षा सलाहकार का देश की सबसे बड़ी अदालत के जजों को दी गयी इस सलाह और सपष्टीकरण को गहराई से समझना होगा
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पिछले हफ्ते भोपाल में एक अनौपचारिक लेकिन तयशुदा अवसर पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने भारत के मुख्य-न्यायाधीश सहित सुप्रीम कोर्ट के एक दर्ज़न से अधिक जजों को देश के आतंरिक एवं बाहरी सुरक्षा खतरों से अवगत कराया. अपनी इस ब्रीफिंग में उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर सरकार के कदमों को पक्ष-विहीन प्रयास माना जाना चाहिए. यह अलग बात है कि तत्काल जाने माने वकील प्रशांत भूषण ने इस ब्रीफिंग को यह कहते हुए गलत बताया कि इसमें जजों के सामने मानवाधिकार पक्ष से कोई बोलने वाला नहीं था. प्रशांत भूषण इसमें भी अदालती प्रक्रिया की अपेक्षा करने लगे. शायद यही भाव देश के सुरक्षा एजेंसियों को आतंकवाद से लड़ने में दिक्कत कर रहा है. वकील महोदय शायद यह नही समझ सके कि खुली अदालत में देश के सुरक्षा खतरों पर जजों को ब्रीफ करना संभव नहीं था.   
सुरक्षा सलाहकार का देश की सबसे बड़ी अदालत के जजों को दी गयी इस सलाह और सपष्टीकरण को गहराई से समझना होगा.--- खासकर के इस बात को कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में सरकार के प्रयासों को पक्ष-विहीन समझा जाना चाहिए. राष्ट्रीय सुरक्षा को ख़तरा किससे है? आतंकवाद से. यह आतंकवाद आमतौर पर कौन करा रहा है ? पाकिस्तान का आई एस आई और मध्य-पूर्व का इस्लामिक स्टेट. कौन कर रहा है ? देश के हीं कुछ गुमराह लोग जो एक धर्म-विशेष से सम्बन्ध रखते हैं. यह सही है कि उस धर्म-विशेष का आतंकवाद से कुछ लेना –देना नहीं है और वह धर्म अमन का सन्देश देता है लेकिन आतंकवादी तो इस धर्म-विशेष का हीं सहारा ले रहे हैं अपने कुकृत्य के औचित्य को ठहराने के लिए. ऐसे में जब सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा दायित्वों का निर्वहन करने के लिए उन्हें पकडती है तो सरकार को पक्षीय मान लिया जाता है. दुर्भाग्यवश वर्तमान सरकार जिस पार्टी की है उसकी पैठ एक अन्य धर्म-विशेष के लोगों में है. चूंकि देश की अदालतों के यह जिम्मेदारी होती है कि वे सुनिश्चित करें कि राज्य अभिकरण मानव अधिकारों का हनन न कर सकें लिहाज़ा कई बार फैसले करने में यह भाव प्रबल हो जाता है.
 
दरअसल यह दिक्कत तब से शुरू हुई जब से पाकिस्तान के आई एस आई ने दस साल पहले अपनी रणनीति बदली. भारत में पाकिस्तान-संयोजित आतंकवाद के चार चरण हैं. १९८० से १९९० तक पी टी पी  एम (पाक- ट्रेंड पाक मिलिटेंट) चरण था. इसमें आई एस आई अपने युवाओं को धर्म के नाम पर गुमराह करके उन्हें आतंकवाद की ट्रेनिंग देता था और फिर उन्हें हथियार और पैसे दे कर भारत में आतंकवादी घटम को अंजाम देने के लिए भेज देता था. इस मॉडल की दिक्कत यह थी कि अगर आतंकवादी पकड़ा जाता था तो भारतीय सुरक्षा एजेंसी उनका पाकिस्तानी चेहरा दुनिया में दिखा देती थी उनका गाँव, उनकी ट्रेनिंग के बारे में उन्हीं की जुबानी सुनाकर. अमरीका और विश्व के अन्य देश समझ जाते थे कि आतंकी  कौन सा देश है. पाकिस्तान की दुनिया में किरिकिरी होती थी. आई एस आई ने इसे बदला. और पी टी आई एम् चरण १९९० से शुरू हुआ. इसमें भारत के हीं धर्म के नाम पर गुमराह युवकों को पाकिस्तान में ट्रेनिंग , हथियार और पैसे दिए जाते थे और उनका भारत में आतंकी घटनाओं के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा. अगर कभी ये आतंकवादी पकडे गए तो पाकिस्तान यह कह कर बचने की कोशिश करता था कि “आतंकवादी भारत का है, मुझसे क्या मतलब”. लेकिन इसमें भी दिक्कत आयी क्योंकि वह भारतीय आतंकवादी ट्रेनिंग की जगह और हथियार किसने दिया यह सब खुलासा कर देता था. पाकिस्तान को सन २००० तक आते -आते यह रणनीति भी बदलनी पडी. उसने भारत के हीं कुछ आतंकवादी संगठनो के जरिये “होम –ग्रोन “ (घर में पैदा हुआ) आतंकवाद शुरू किया और इन गुमराह युवाओं की ट्रेनिंग भी बांगलादेश और नेपाल में की जाने लगी. पर इसमें भी भारतीय इंटेलिजेंस एजेंसी की चौकसी के कारण ज्यादा सफलता नहीं मिली. लेकिन आई एस आई ने अपना आधार बना लिया था. चौथे चरण में आई एस आई द्वारा मोड्यूल सिस्टम और स्लीपर सेल की रणनीति को समेकित किया गया. हथियार कोई केरल का मोड्यूल लाता था. आतंकवादी बंगाल से आते थे और घटना आन्ध्र प्रदेश या उत्तर प्रदेश के शहर में होती थी. उदाहरण के तौर पर : केरल के मोड्यूल को आदेश होता था कि मेरठ के फलां दूकान में छः बम और तीन पिस्टल रख दे. उसका काम यही ख़त्म हो जाता था. बंगाल वाले सेल को आदेश था कि वह फलां धार्मिक स्थल के पास टाइमर लगे इन बमों को रख दे. अपना काम करने की बाद वह भी वापस चला जाता था. यूपी के सेल से यह कहा जाता था कि बम फटने के कुछ समय पहले वह इस या उस धर्म-विरोधी पर्चे बिहार में बाँट दे. याने कोई भी मोड्यूल या सेल दूसरे मोड्यूल या सेल के लोगों ने क्या किया या कौन हैं नहीं जान पाता था. लेकिन देश में माहौल तनावपूर्ण बना रहता था.
 
अपराध-न्याय शास्त्र में “मेंस रिया “ (अपराध करने के पीछे का उदेश्य) बेहद महत्वपूर्ण होता है. पुलिस की समस्या यह थी कि उसे सारी कड़ी मिल नहीं पाती थी और अगर केरल मोड्यूल तक पहुँच भी गयी तो यह नहीं समझ में आता था कि अगला काम बंगाल के व्यक्ति ने क्यों किया. फ़र्ज़ कीजिये कि उसने अपने इंटेलिजेंस सामर्थ्य के तहत इस देश-व्यापी छापों में इन्हें पकड़ा भी तो अदालत में मुश्किल होती थी. अदालत को मेंस रिया के सिद्धांत की कसौटी पर यह नहीं समझ में आता था कि केरल के व्यक्ति ने बम क्यों रखा क्योंकि दूकानदार तो मेरठ का था. जज को यह भी नहीं औचित्यपूर्ण लगता था परचा बांटने के लिए कोई बैंगलोर से बिहार या बंगाल क्यों जाएगा. फिर चूंकि हर जिले का अपराध वहां की पुलिस देखती है लिहाज़ा मेरठ(यू पी) , नवादा (बिहार), मेदनीपुर (पश्चिम बंगाल)  और कोट्टायम (केरल) का क्या रिश्ता है यह भी अदालतों की समझ में नहीं आता था. लिहाज़ा आतंक के आरोपी छूट जाते थे. और आतंक के मामलों में सजा की दर बेहद कम होने लगी.
एन आई ए के गठन के पीछे केंद्र का यही तर्क था. राज्यों द्वारा एन.सी.टी.सी का विरोध भी “हमारे इलाके में तुम कैसे” के रूप में देखा जाना चाहिए। अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हुए ९/११/२००१ के हमले के बाद अगले कुछ हफ़्तों में देश में दो कानून आये—यू एस पेट्रियट एक्ट , २००१ और यू एस होमलैंड सिक्यूरिटी एक्ट, २००२. इन दो कानूनों के तहत सिक्यूरिटी एजेंसी किसी की बात सुनाने के उपकरण लगा सकती है , किसी भी संदिग्ध व्यक्ति की संपत्ति की बगैर बताये जांच कर सकती है और देश के किसी भी भाग में किसी की भी जाँच व गिरफ्तारी कर सकती है. अमेरिका संविधान में राज्यों को भारत से कहीं अधिक शक्तियां हैं लेकिन एक भी राज्य ने “अपने अधिकारों के हनन” का मामला उठा कर इस कानून को नहीं रोका. ब्रिटेन में आतंक निरोधक कानून , १९७६ के तहत किसी भी संदिग्ध व्यक्ति को बगैर कारण बताये ४५ दिनों तक हिरासत में रखा जा सकता है. यह कानून हाउस ऑफ़ कॉमन्स में महज दो घंटे की चर्चा के बाद पारित हो गया. सन १८८४ में वहां  की पुलिस को आतंक रोकने के लिए और ज्यादा शक्तियां दी गयीं.
इसके ठीक उलट भारत में अनेक राज्यों के इस विरोध के कारण कि केन्द्रीय एजेंसी को इतनी शक्ति का मतलब राज्य की शक्तियों का अतिक्रमण होगा, अदालतों को भी आतंकवाद के नए खतरे के तहत अपराध-न्याय शास्त्र का चश्मा बदलना होगा देश की सुरक्षा के लिए. मानवाधिकार उनका भी होता है जो आतंकवाद के शिकार होते हैं.  

jagran