युवा यासीन भटकल और कुछ हीं
दिन पहले ७१ वर्षीय टुंडा की गिरफतारी में एक मौलिक अंतर है. टुंडा अब रोज-रोज
भारत में होने वाली पाक-प्रायोजित आतंकवादी घटनाओं में शामिल नहीं है. उससे मिली
जानकारी विश्व समुदाय में पाकिस्तान का आतंकवादी चेहरा बेनकाब करने में भारत को
मदद मिलेगी जबकि यासीन आज भी इन आतंकवादी का प्रमुख नियोक्ता रहा है और अधिकांश
“माड्यूल्स” और “स्लीपर सेल्स” की जानकारी रखता है. साथ हीं बहुत सारे अनसुलझे
मामले भी पुलिस सुलझा सकती है.
हम अक्सर अमेरिका से तुलना
करते हैं यह कहते हुए कि अगर वह ९/११ की आतंकी घटना के बाद यह सुनिश्चित कर सकता
है कि अगले १२ सालों में फिर कोई इस तरह की हिम्मत न कर सके तो भारत क्यों नहीं?
या अगर हमले का बाद वहां का राष्ट्रपति दुनिया को सख्त सन्देश दे सकता है कि “इस
घटना के लिए जिम्मेंदार जो कोई भी हो, जहाँ कहीं भी हों उन्हें बिल से चूहे की तरह
निकाल लाओ” या “इस मामले में दुनिया के लोग या तो हमारे साथ हैं या आतंकियों के
साथ हैं”. और वाकई आतंक के पर्याय ओसामा बिन लादेन को बिल से हीं निकाला.
प्रश्न है कि हम क्यों नहीं
आतंकवादी घटनाओं को ख़त्म कर पाते या दाऊद के साथ वही कर पाते जो अमेरिका ने ओसामा
के साथ किया? इस प्रश्न को ड्राइंग रूम आउटरेज (टीवी के सामने बैठे गुस्से) से
देखना गलत होगा. यह सही है कि जहाँ अमरीका में इस घटना के बाद सख्त कानून बने –होम
लैंड सिक्यूरिटी एक्ट बनाया जिसके तहत खुफिया एजेंसियों को निर्बाध शक्तियां मिलीं
और किसी भी अमरीकी राज्य ने इसका विरोध नहीं किया जबकि वहां के संविधान में भारत
के संघीय ढांचे के मुकाबले राज्यों के पास अधिक शक्तियां है. भारत में एक राष्ट्रीय
आतंक-निरोधी केंद्र को लेकर सारे राज्य तन कर खड़े हो गए यह कह कर कि इससे राज्य की
शक्तियों का केंद्र द्वारा अतिक्रमण होगा. भारत में सत्ता पक्ष, वह राज्य में हों
या केंद्र में वैसी इच्छा-शक्ति राजनीतिक अवसरवाद की चौखट पर दम तोड़ देती है. हम
इस तरह के प्रयास को सीधे वोट की राजनीति से जोड़ लेने की जबरदस्त कला में माहिर
हैं. आतंकवाद इसीलिए जिन्दा है.
दूसरा अमेरिका में नस्ली
वैविध्य के कारण गैर-श्वेत और श्वेत के बीच रंग का फर्क है लिहाज़ा सुरक्षा
एजेंसियों को गैर –अमरीकी को पहचानने में दिक्कत नहीं होती. भारत में किये जाने
वाले आतंक में इस तरह के पहचान की सहूलियत नहीं है. वह पाकिस्तानी हो या भारतीय ,
बोली-खान-पान . चेहरे से फर्क करना मुश्किल होता है. पाकिस्तान का से भेजे गए
उपद्रवी या भारत में हीं जन्मे पाक –प्रशिक्षित
आतंकवादी सहज भाव से देश के उन जगहों पर जहाँ अफ्रीकी “घेटो” की तरह आबादी का एक
भाग जबरदस्त घनत्व में वाले मुहल्लों में रहते है. ये आतंक घटना करने के पहले या
बाद में अपने को व्यापक समाज में विलोपित कर लेते हैं. इंटेलिजेंस एजेंसियों के
लिए अन्दर तक जा कर अपने इनफॉर्मर पैदा करना बेहद मुश्किल काम होता है.
तीसरा पाक-प्रायोजित
आतंकवाद के पिछले तीस सालों में तीन चरण रहे हैं. १९८० के दशक से शुरू हुआ यह
सिलसिला प्रथम चरण में पाकिस्तान में हीं प्रशिक्षित पाकिस्तानी नागरिकों “पाक-ट्रेंड
पाक मिलिटेंट्स” (पी टी पी एम) का था. हमारी इंटेलिजेंस एजेंसियों का कमाल हीं था
कि जब भी इनको पकडती थी तो दुनिया में हम पाकिस्तान का यह विद्रूप चेहरा दिखा लेते
थे. पाकिस्तान को जवाब देते नहीं बनता था. पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई एस आई ने
पैंतरा बदला और पाकिस्तान में हीं भारत के गुमराह युवाओं की ट्रेनिंग करने लगी.
भारतीय इंटेलिजेंस की भाषा में इसे पाक-ट्रेंड इंडियन मिलिटेंट (पी टी आई एम) कहा
गया. इसमें में पाकिस्तान की सरकार को मुश्किल आई जब हमने उन्हें पकड़ कर दुनिया को
बताया कि सचाई क्या है और कैसे कराची में ना केवल ट्रेनिंग दे कर, हथियार सप्लाई
का और धन मुहैया करा कर भारत के इन युवकों का इस्तेमाल किया गया. इन पकडे गए
युवकों के बयान का रिकॉर्ड जब अमेरिका को दिया गया तो पाकिस्तानी शासकों के पास
कोई जवाब नहीं था.
आई एस आई ने फिर पैंतरा
बदला और “माड्यूल” सिस्टम पर आ गया. औसतन एक मादुले में तीन से चार आदमी होते हैं
और एक माड्यूल को यह नहीं मालूम होता कि दूसरा माड्यूल क्या कर रहा है. चूंकि ये
टास्क “असाइनमेंट”-बेस्ड (एक कार्य –विशेष पर आधारित) होते हैं लिहाज़ा पुलिस को यह
नहीं पता चल पाता कि बारूद कौन लाया, बम किसने बनाया, जगह पर प्लांट किसने किया और
मास्टरमाइंड कौन है. कड़ियाँ मिला कर
दोष-सिद्ध करना मुश्किल होता है. हमारा अपराध न्याय-शास्त्र भी गवाह व साक्ष्य पर
आधारित है लिहाज़ा जब डर के मारे ना गवाह मिलते हैं न साक्ष्य पुख्ता तो जज साहेबान
पुराने चश्में से देखते हरोपी को दोष-मुक्त कर देते हैं.
वर्तमान में ना केवल भारत
में हीं इस तरह के आतंकवादी संगठनों को आर्थिक मदद दे कर पैसा किया बल्कि उनकी
ट्रेनिंग भी पाकिस्तान में न करा कर नेपाल और बांग्लादेश में करने लगी. ऐसे युवाओं
को जो गरीबी व अज्ञानता की गर्त से राष्ट्रीय मुख्यधारा में नहीं आ सके हैं धर्म
के नाम पर, कुछ पैसे देकर या महिमामंडन के सब्जबाग़ दिखाकर गुमराह करना आई एस आई –समर्थित
भारतीय प्रतिबंधित संस्थाओं के लिए मुश्किल काम नहीं है.
ऐसे में आज ज़रुरत है कि
इंटेलिजेंस एजेंसियों की इस सफलता के मद्दे नज़र राजनीतिक वर्ग, खासकर सत्ता पक्ष
इन्हें प्रोत्साहित करे , एक स्पष्ट सन्देश दे कि “आतंकवाद को लेकर देश में शून्य
सहिष्णुता है और उनके प्रयास में सरकार उनके साथ है”. इसके साथ हीं गुमराह युवकों
को मुख्यधारा में लाने के लिए उनकी शिक्षा व रोजगार की सार्थक व्यवस्था करे ना कि
उन्हें बरगला कर ठीक आई एस आई की तर्ज पर छद्म रूप से अपने को भी उनका “संरक्षक”
बताये. जैसा कुछ राजनीतिक दल कर रहे हैं.
यासीन भटकल से मिली जानकारी
के आधार पर सुरक्षा एजेंसियां देश में आतंकवाद की कमर तोड़ने में कामयाब हो सकती
हैं बशर्ते राजनीतिक वर्ग इस पर वोट की गिद्ध-दृष्टि ना डाले.
rajsthan patrika