Thursday 16 July 2015

लोहिया के सपनों को तोड़ता मुलायम का नव-समाजवाद


अजीब व्यवस्था है जिसमें कोई गायत्री प्रजापति  या कोई राममूर्ति वर्मा अवैध खनन के आरोप के बावजूद हमारा रहनुमा बना रहता है पर इनके गैर-कानूनी हरकतों के खिलाफ आवाज उठाने वाला आई आई टी से पढ़ा भारतीय पुलिस सेवा का अधिकारी अमिताभ ठाकुर बलात्कार का आरोप झेलता इस बात पर निलंबित हो जाता है कि राज्य छोड़ने के लिए राज्य के पुलिस प्रमुख से इजाजत नहीं ली थी. उत्तर प्रदेश के समाजवादी शासन में लगभग हर दूसरे मंत्री पर हत्या से लेकर बलात्कार, भ्रष्टाचार या अवैध खनन के मुकदमें हैं. पर यादव सिंह फलता –फूलता है और दुर्गा शक्ति नागपाल या अमिताभ ठाकुर सजा के हकदार होते हैं.     
हमने एक संविधान बनाया था. जिसके तहत “एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथ-निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य ..... आत्मार्पित किया” था. अपने लगभग ३८ साल की पत्रकारिता के प्रथम १४ सालों तक मुलायम सिंह यादव को एक जिद्द की हद तक नैतिक और जुझारू समाजवादी नेता के रूप में देखा था. लेकिन बाद के २४ सालों में देखने की बाद आज समझ में नहीं आ रहा है कि समाजवाद के मूल सिद्धांत बदल गए या हमारी समझ दकियानूसी हो गयी और हमने प्रजापतियों, राजा भैय्याओं या अन्ना शुक्लाओं में महान डा. राम मनोहर लोहिया का अंश देखना बंद कर दिया. इन २४ सालों में ७५ वर्षीय मुलायम सिंह यादव का समाजवाद यहाँ तक पहुँच गया कि “नेताजी” को अमिताभ ठाकुर को रास्ते पर लाने के लिए प्रजापतियों वाले स्टाइल में “प्यार” से समझाना (जिसे अमिताभ ठाकुर समाजवाद की जानकारी न होने के कारण धमकाना मान रहे हैं) पडा. लोहिया के असफल होने और मुलायम के सफल होने में शायद यही मूल कारण है. समाजवाद को नए प्रयोगों से गुजरने की कला डॉ साहेब नहीं सीख पाए थे. लोहिया के ज़माने में संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी और पंथ-निरपेक्ष शब्द नहीं जोड़े गए थे और इन शब्दों को आपातकाल के दौरान इंदिरा गाँधी ने ४२वें संशोधन के तहत जोड़ा. अगर लोहिया नौ साल और जिंदा रह गए होते तो जान पाते कि सेक्युलर (पंथ –निरपेक्ष) का नया मतलब क्या होता है. आरोपी किसी भी सम्प्रदाय का हो भेद –भाव न करते हुए उसे अगर “समर्थ” है तो मंत्री बनाया जा सकता है और समाजवाद का नया मतलब होता है किसी अनुसूचित जाति के यादव सिंह या किसी राममूर्ति वर्मा को मात्र आरोपों के आधार पर हटाना समाजवाद के नए सिद्धांतों के खिलाफ है. बल्कि नव-समाजवाद का मानना है कि अगर इसे परिपुष्ट करना है तो एक-दो  साल की नौकरी वाली आई ए एस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल जैसे समाजवाद विरोधी अफसरों को जो बालू  माफियाओं के खिलाफ जिहाद छेड़ती हो, रास्ते से हटाओ , जो अमिताभ ठाकुर फिरोजाबाद का पुलिस अधीक्षक के रूप में पिटाई करने वाले समाजवादी पार्टी के विधायक और “नेताजी” के निकट रिश्तेदार के खिलाफ मात्र ऍफ़ आई आर करने की जुर्रत करता हो और  जिसकी एक्टिविस्ट पत्नी किसी मंत्री प्रजापति के खिलाफ अवैध खनन का केस लिखवाती हो उस अधिकारी को  “प्यार” से उस पिटाई की याद दिलाओ ताकि यह बेलगाम अफसर नए समाजवाद की ‘मुख्य-धारा” में लौट आये. आखिर भटकों को वापस लाना भी तो “नेताजी” के नव-समाजवादी वात्सल्य का हीं तो हिस्सा है.       
लोहिया ने अपनी पुस्तक “इंटरवल ड्यूरिंग पॉलिटिक्स” में व्यक्ति की प्रतिष्ठा को सर्वोपरि रखा है उसे हीं समाजवाद का स्रोत माना. फिर उनके खांटी अनुयायी के रूप में “नेताजी” ने मात्र एक उद्दंड अधिकारी को “प्यार” से डांटा हीं तो. आखिर पत्रकार को जला कर कर मारने के आरोपी मंत्री राममूर्ति वर्मा की भी तो कोई प्रतिष्ठा है! क्यूं डाला इस अफसर अमिताभ ठाकुर ने उस पत्रकार का मृत्यु-पुर्व बयान सोशल मीडिया पर ? क्या लोहिया की आत्मा दुखी नहीं होगी कि बगैर अंतिम अदालत के द्वारा दोषी कहे किसी मंत्री का मान-मर्दन किया जाये. यही समाजवाद तो लाया जा रहा है जिसमें सत्ता में बैठे हर मंत्री या सन्तरी का हर कुकर्म पहले “दूध का दूध , पानी का पानी “ के शाश्वत भाव वाली “एक जांच” की अग्नि परीक्षा से गुजरे और तब तक कोई अमिताभ या कोई मीडिया इस बात को न उठाये वर्ना नव समाजवाद के सिद्धांत के तहत जलाया भी जा सकता है और सेवा से निलंबित भी किया जा सकता है. और जब “नेताजी” का नव-उदारवाद के प्रति रुझान इतना दृढ है तो राज्य के पुलिस प्रमुख को भी बगैर बताये एक आई जी का राज्य छोड़ दिल्ली जा कर केन्द्रीय गृह मंत्रालय में अपनी रक्षा की गुहार लगना भी तो मर्यादा का उल्लंघन है. ऐसे हीं अफसरों की तो ज़रुरत है जो मर्यादा को नव-समाजवादी पैमाने के आधार पर समझें. यादव सिंह पर करोड़ों हडपने का आरोप पर निलंबन महीनों तक नहीं. लेकिन अमिताभ ठाकुर का दिल्ली जाना अक्षम्य अपराध. यहीं है नव-समाजवाद.
 गाडी पर समाजवादी पार्टी का झंडा लगाये लोकल नेता कहीं बलात्कार कर रहे हैं तो कहीं पुलिस को मार रहे हैं, कहीं पुलिस थाने में बलात्कार कर रही है और कहीं बलात्कार का आरोप न लगे तो जला कर मार दे रही है. बलात्कार के बाद जला कर मारना आसन है क्योंकि मरने के बाद उसे पुलिस द्वारा ढूढ़ पानी अलग किया जाएगा और बलात्कारी पुलिस वाला बाख जाएगा. आज से २५ साल पहले तक समाजवाद का लम्पटीकरण या लम्पटों का समाजीकरण इस हद तक नहीं था बल्कि रिपोर्टर के रूप में हम लोग मुलायम सिंह में उभरता लोहिया देखते थे. आज का नव –समाजवाद यह तस्दीक करता है कि जन-धरातल पर अपने ज़माने के बेहद क्रांतिकारी सिद्धांत भी किस तरह घिनौनी राजनीति के बोझ तले  दम तोड़ते हैं और अपने ज़माने के युवा क्रांतिकारी नेता किस तरह अपने में धीरे –धीरे बदलाव कर सिद्धांत को अवनति की ओर ले जाता है.
पुलिस अधिकारी अमिताभ को भी समझाना होगा कि एक सड़ गए सिस्टम से सिस्टम में रह कर लड़ना संभव नहीं है. ऐसा सिस्टम अपने बचाव के लिए प्रोटोकॉल या कंडक्ट रूल से उन सबको बांध देता है जो सिस्टम के अन्दर है. अमिताभ पत्रकार जागेन्द्र सिंह का मृत्यु –पूर्व बयान तो ले सकते है पर उसे सोशल मीडिया पर नहीं डाल सकते जब तक उनके कन्धों पर संप्रभुता का प्रतीक अशोक का  लाट रहता है. संवैधानिक व्यवस्था के तहत सरकार विधायिका के प्रति जवाबदेह है लेकिन अफसरशाही नहीं. लिहाज़ा दिन में तीन बार ट्वीट करके सरकार की बखिया उधेड़ना संवैधानिक रूप से गलत है. जब तक जनता प्रजापतियों को बहुमत देती रहेगी यह सिस्टम सड़ता रहेगा. अगर सुधार करना है तो जनता की उस समझ को जो अपराधियों में अपने राबिनहुड देखती है.    

अगर समाज बदलने का जज्बा है, अगर इस सड़े सिस्टम को बदलने के लिए कुछ भी करने की जिद है तो इस सिस्टम के बाहर आ कर हीं लड़ सकते हैं अन्दर रह कर नहीं. 

स्वस्थ प्रजातंत्र की पौध को आज भी खोखला करती जाति की राजनीति

जनता के बीच की कथनी और कमरे के अन्दर की करनी में व्यापक अंतर भारतीय राजनीति के मूल में है. जो पार्टी “जनता” के नाम पर अपने को कुर्बान करने का दावा करती है वह अपनी कोर समिति की मीटिंग में टिकट इस आधार पर बांटती है कि किस जाति का किस क्षेत्र में बाहुल्य है और हमारा प्रत्याशी इस जाति समीकरण में कैसे फिट बैठता है. आखिर राजनीति में इस क्षरण का कारण क्या है और क्यों इस व्याधि को हम ६५ सलून में कम करने के बजाय नासूर बना चुके हैं. 
इसका ताज़ा उदाहरण बिहार में नितीश और लालू --जनता दल-यू –राष्ट्रीय जनता दल) का अवसरवादी मिलन है. क्या किसी सभ्य और तार्किक समाज में यह विश्वास किया जा सकता है कि एक पार्टी जिसके पिछले दस साल के सत्ता में बने रहने का कारण हीं दूसरी पार्टी के शासन से त्रस्त जनता को नया शासन देना था वह दूसरी पार्टी और उसके नेता से गले मिले. कोई राम बिलास पासवान साल-दर-साल जिस पार्टी (भाजपा) की आलोचना में दिन रात कसीदे काढता हो वह अचानक उसी के साथ मिलकर अपने पहले मित्र दल (कांग्रेस) को पानी पी –पी कर बुरा भला कहे. कोई राम कृपाल यादव लालू को भगवान और अपने को हनुमान मानता हुआ किसी भाजपा की गोद में बैठ कर अचानक अपने पहले “भगवान्” को दैत्य के रूप में प्रोजेक्ट करे? यह सब भारत में संभव है क्योंकि जनता को जाति-धर्म के ऐसे खांचे में बांध दिया गया है कि उसके ऊपर जनता सोच भी नहीं पा रही है.    
हमने फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम(एफ.पी.टी.पी यानि जो पहले खंभा छुए वही विजेता या यूं कहें कि जो सबसे ज्यादा वोट पाए वो विजेता) चुनाव पद्धति अपनायी है। जब हम संविधान बना रहे थे तब हमारे सामने कुछ अन्य पद्धतियां भी थीं लेकिन हमने ब्रिटेन के मॉडल को अंगीकार करते हुए इस पद्धति को सर्वश्रेष्ट समझा। नजीज़ा यह हुआ कि चौधरी के कहने पर वोट देने वाला बारम्बार ठगा हुआ किसान हो या प्रजातंत्र की बारीकियां समझने वाला व्यक्ति, दोनों का वोट समान माना गया। 
लेकिन चूंकि भावनात्मक मुद्दे अतार्किक सोच व पहचान समूह के आधार पर ही होते हैं इसलिए दूसरा राजनैतिक दल फौरन ही कोई अन्य भावनात्मक मुद्दा और इसी बड़े पहचान समूह में से एक छोटा पहचान समूह पकड़ता है। 1984 के राममंदिर-जनित हिंदू एकता की प्रतिक्रिया के रूप में मण्डल कमीशन सामने आता है और हिंदुओं में ही एक नए पहचान समूह(हालांकि यह पहचान समूह पहले से ही सुसुप्त लेकिन अस्तित्व में था) को राजनीतिक पार्टियां उभारना शुरू करती हैं लिहाज़ा 1990 तक आते-आते देश बैकवर्ड और फॉरवर्ड में बंट जाता है। बात यहीं नहीं रुकती। इसी के साथ शुरू होता है जातिगत राजनीति का जबर्दस्त तांडव और तब होता है काशीराम, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव की राजनीति का अभ्युदय जिसे नाम दिया जाता है- सामाजिक न्याय वाली पार्टियां। सिलसिला यहीं नहीं रुकता। आन्ध्रप्रदेश में कम्मा और कापू पूरी तरह से तलवार तान लेते हैं। कर्नाटक में लिंगायत और वोक्कलिगा अलग हो जाते हैं, उत्तर भारत में यादव-कुर्मी बंट जाते हैं, ब्राह्मण-ठाकुर बंट जाते हैं। सिलसिला इतने से भी नहीं रुकता। पसमांदा मुसलमान और अशरफ मुसलमानों को अलग करने की कोशिश की जाती है, पिछड़ों और अति-पिछड़ों के बीच एक नया पहचान समूह बनाने का उपक्रम होता है और यहां तक कि दलितों में भी एक महादलित पहचान समूह खड़ा करने की कोशिश की जाती है। चमार को पासी से अलग करने का प्रयास होता है।
 भारतीय समाज में गरीबी, अशिक्षा व सामंतवादी अवशेषों की वजह से इस पूरी अवधारणा को पटरी से उतार दिया गया। एफ.पी.टी.पी पद्धति की जो सबसे बड़ी खराबी अब तक देखने में आयी वह यह कि, यह पद्धति समाज को विभाजित करती है और यह विखण्डन की प्रक्रिया तब तक नहीं रुकती जब तक कि सबसे छोटा पहचान समूह भी विखण्डित नहीं हो जाता।
 उदाहरण के तौर पर एक विधानसभा क्षेत्र में मान लीजिए नौ प्रत्याशी हैं जिनमें से आठ को 9000 के आस-पास वोट मिले हैं लेकिन नौवें प्रत्याशी को 9005 हज़ार वोट मिले हैं, नौवां प्रत्याशी विजयी घोषित होगा। हालांकि 88 प्रतिशत मतदाताओं ने उसे खारिज किया है। अगले चुनाव में यह सभी आठों प्रत्याशी इस बात की कोशिश में लग जाएंगे कि किसी तरह से छोटे-छोटे पहचान समूहों की भावनाओं को उभारा जाए और कोशिश की जाए कि किस तरह महज छ: प्रतिशत वोट और बढ़ाए जाएं ताकि अगले चुनाव में जीत हासिल हो।
   चूंकि यह पहचान समूह धार्मिक, जातिगत, क्षेत्रीय, उपजातीय व भावनात्मक आधार पर परंपरागत रूप से ही पहले से बने होते हैं इसलिए राजनीतिक दलों के लिए आसान पड़ता है कि उन्हीं में से किसी एक को अपने साथ जोड़े। एक दूसरी दुश्वारी यह भी है कि नए और तार्किक आधार पर पहचान समूह बनाना मसलन प्रोफेश्नल्स का ग्रुप, विकास के मुद्दों के आधार बनाया गया व्यक्ति समूह एक मशक्कत का कार्य होता है इसलिए राजनीतिक पार्टियां पहले विकल्प को चुनती हैं।
   राजनीतिशास्त्र के सर्वमान्य विश्लेषणों के मुताबिक अशिक्षित व अतार्किक समाज में भावनात्मक मुद्दे अचानक ही तेजी से उभरते हैं और कई बार इतने प्रबल हो जाते हैं कि मूल मुद्दों से भारी पड़ते हैं और पूरी विधिमान्य और तार्किक व्यवस्था को या संवैधानिक संस्थाओं को अपने अनुरूप ढ़ालना शुरू कर देते हैं। 1984 में शुरू हुआ राममंदिर का उबाल इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
   राजनीति शास्त्र के अवधारणाओं का एक अन्य पहलू होता है जिसके तहत प्रजातंत्र में राजनीतिक दल के स्वीकार्यता की एक शर्त होती है कि उसका अपना एक कैडर हो जो नीचे तक जाकर जनता से अपनी बात कहे लेकिन भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में कुछ राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को छोड़ कर किसी क्षेत्रीय दल ने यह जहमत उठाना गंवारा नहीं किया। उसका कारण यह था कि कैडर खड़ा करने के लिए सैद्धान्तिक संबल की ज़रूरत होती है, जिसका क्षेत्रीय दलों में सर्वथा अभाव रहा। इस अभाव को पूरा करना बहुत आसान था, जब इन पार्टियों के नेताओं ने पहचान समूह के साथ अपने को जोड़ा और उनमें सशक्तिकरण की एक झूठी चेतना जगायी। अगर मंदिर वहीं बनाएंगेके नारे से भाजपा ने अपनी दुकान खड़ी की तो मुलायम ने अपने आदमियों सेपरिंदा भी पर नहीं मार पाएगाकहलवाकर अपना धंधा रातों-रात चमकाया।तिलक-तराजूका नारा इसी दौर में आता है।  मुलायम सिंह ने अपने शासन-काल में पी.ए.सी की भर्ती में यादवों को भरना शुरू किया, बसपा सुप्रीमो मायावती ने मंच से कहना शुरू किया- देखो आज जिले के इतने कलक्टर और इतने कप्तान दलित वर्ग के हैं। लालू यादव ने भरे दरबार में सवर्ण चीफ सेक्रेटरी को जब बड़े-बाबू कहते हुए उपहास के लहजे में बोला तब उनका एक बड़ा वर्ग जो सदियों से दबा-कुचला था, अचानक से अपने को सशक्त समझने लगा। हेलीकॉप्टर से उतरकर लालू यादव ने चुनाव के दौरान यादव बाहुल्य राघोपुर में एक जनसभा में सिर्फ तीन मिनट का भाषण दिया। अब यहां पेड़ से ताड़ी उतारते हो तब कोई टैक्स तो नहीं मांगता ?’ उत्साहित भीड़ का जवाब था- ना साहिब। लालू ने दूसरा सवाल दागा-  नदी से मछली मारते हो तब कोई सरकारी आदमी कुछ कहता तो नहीं ?’ जनता से जवाब आया- जी, ना। लालू यादव की अगली सलाह थी- खूब ताड़ी पियो, मछली खाओ, मस्त रहो। हेलीकॉप्टर का रॉटर नाचा और लालू यादव उड़ गए। उस विधानसभा से उनको जबर्दस्त जीत हासिल हुयी।
   सशक्तिकरण की झूठी चेतना के लिए सामाजिक न्याय के इन पुरोधाओं ने राज्य के संवैधानिक व कानूनी संस्थाओं को तोड़ना-मरोड़ना शुरू किया, नतीज़ा यह हुआ कि कप्तान व एस.पी अपमान से बचने के लिए सजदे के भाव में आ गए। कलक्टर और एस.पी ने बहनजी का चप्पल उठाना शुरू किया, सार्वजनिक अवसरों पर मंत्री मुख्यमंत्री के सामने हांथ बांधे खड़े रहने लगे और लगा कि पूरा शासन और कानूनी व्यवस्था इन तथाकथित सामाजिक न्याय के पुरोधाओं के चेरी हो गयी है।
   इसी बीच दो राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस और भाजपा ने अपना राजनीतिक धरातल छोड़ना शुरू किया। स्थिति यहां तक आ गयी कि उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के वोट महज सात से आठ प्रतिशत रह गए तो बीजेपी को 14 से 16 प्रतिशत। अगर देश भर में देखें तो जहां कांग्रेस 2009 के चुनाव में 27 प्रतिशत वोट हासिल कर सकी वही बीजेपी सिर्फ 18 प्रतिशत। उधर दूसरी तरफ क्षेत्रीय दलों को लगभग 40 प्रतिशत वोट मिले। दरअसल समाज को बांटने वाले खेल की शुरूआत करने के बाद भाजपा और कांग्रेस खुद ही बाहर हो गए। यह अलग बात है कि २०१४ के आम चुनाव में ३० साल बाद एक बार फिर दोनों राष्ट्रीय दलों के मत प्रतिशत का योग लगभग ५० प्रतिशत हो गया है याने क्षेत्रीय दलों के कुल योग के बराबर. साथ हीं आज भाजपा देश की  कुल ५२ प्रतिशत आबादी पर राज्यों के मार्फ़त शासन कर रहीं है जबकि कांग्रेस मात्र १० प्रतिशत आबादी पर.  
   लेकिन समाजशास्त्रीय अवधारणाओं के हिसाब से भावनात्मक मुद्दों की राजनीति की एक मियाद होती है। अगर किसी पहचान समूह की तर्कशक्ति व शिक्षा का स्तर शुरू से ही अपेक्षाकृत बेहतर रहा है तब वह जल्दी ही समझ जाता है कि सशक्तिकरण झूठा था, भावनाएं सिर्फ अपनी रोटी सेंकने के लिए जगायी गयी थी और तब उसका मोहभंग होता है। बिहार में यही हुआ। उत्तरप्रदेश में भी जिन-जिन जिलों में दलित शिक्षा बेहतर हुयी है वहां बहुजन समाज पार्टी को अपेक्षाकृत कम मत मिले हैं।

   आज उत्तरप्रदेश या बिहार में ही नहीं बल्कि उत्तरभारत में मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग है जो पहचान समूह की राजनीति से हटकर सभी दलों से पूछ रहा है मुझे अपनी जाति का कप्तान और कलक्टर देने के बजाय घर के सामने सड़क दो। प्रजातंत्र के लिए यह एक नया संकेत माना जा सकता है। हाल के बिहार विधान परिषद् में लालू-नितीश की हार का सीधा मतलब है लालू यादव वोट के अकेले सौदागर नहीं रह गए हैं. यानि विकास को तरजीह देने की एक नयी शुरूआत हुयी है।
Rajsthan patrika