आइन्स्टीन ने कहा था “उन
महत्वपूर्ण समस्याओं का जिन्हें हम झेल रहे हों, समाधान कभी नहीं निकल सकता हम अगर
अपनी सोच का स्तर वही रखते हैं जिस स्तर पर हमने उन समस्याओं को पैदा किया
था”. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लाहौर
यात्रा को इस परिप्रेक्ष्य में देखेंगे तो एक रास्ता दिखाई देता है –--न केवल एक
ऐसी भारत-पाकिस्तान तनाव समस्या का जिसका समाधान ७० साल में अब असम्भव सा लगता है,
बल्कि दुनिया में दौत्य सबंधों को औपचारिकता के बाँझ चंगुल से निकालने का.
निष्पक्ष विश्लेषकों के लिए
एक बड़ी समस्या तब खडी होती है जब कोई रानीतिक दल या कोई नेता सत्ता सञ्चालन में परंपरागत
फॉर्मेट से हट कर अपना आचरण करने लगता है. यह विवेचना और मुश्किल होती है जब
विवेचना काल अल्प हो और नेता का परफॉरमेंस इसी अल्पावधि में तय करना हो. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राजनीति के कई
पैरामीटर्स बदल डाले. इनमें से कुछ विरोधाभासी हैं. ट्विटर पर अति-सक्रिय लेकिन कई
तात्कालिक मुद्दों पर चुप्पी, आक्रामक हिंदुत्व के अलंबरदारों पर लगाम नहीं लेकिन
मंत्रियों पर काम करने का दबाव. काबुल में पाकिस्तान के रवैये पर अफ़सोस पर कुछ हीं
मिनटों में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के जन्म-दिन पर लाहौर आ कर बधाई देना.
बिरले नेता होते हैं जो लीक
से हट कर समस्याओं का निदान सोचते हैं. स्वतंत्र भारत में शायद नरेन्द्र मोदी पहले
नेता हैं जो फॉर्मेट से हट कर सोच रहे हैं. गौर कीजिए. टेलीफोन पर बातचीत में मोदी
द्वारा जन्म दिन की बधाई देने पर नवाज़ साहेब का उन्हें घर आने का न्योता देना वह
भी कुछ इस तरह “जी मैं तो लाहौर आ गया हूँ “. मोदी: “अरे, वहां क्या कर रहे हैं?”
“जी मेरे बेटी की बेटी की कल शादी है, तैयारी में लगा हूँ. आप तो दिल्ली लाहौर के
उपर से हीं जायेंगे, क्यों न कुछ देर के लिए यहाँ हो कर जाएँ.”. मोदी, “अरे आप को
दिक्कत होगी”. नवाज़ “नहीं जनाब, मुझे तो बहुत खुशी होगी”. मोदी : ठीक है में आता
हूँ”.
जरा सोचिये. कोई दूसरा नेता
होता तो दस बार सोचता कि अगर हम जायेंगे तो भारत में इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी. वह
अफसरों को बुलाता. वे अफसर प्रोटोकॉल की दुनिया भर की समस्याएं बताते, राजनीति में
यह कदम कैसा होगा इस पर “लाल बुझक्कड़ बैकरूम बॉयज घंटों सोचते और फिर न जाने की
सलाह देते. सुरक्षा से जुड़े लोग तो साफ़ हीं मना करते यह कह कर फलां फलां आतंकी गुट
वहां सक्रिय है और उनके पास राकेट लांचर हैं. आगे कहते “दोनों हीं परमाणु बम समर्थ
देश हैं लिहाज़ा इस तरह के “एड्वेंचरिस्म” से बचना चाहिए. और यही पिछले ७० साल से
होता रहा है. कुछ लोग प्रथम विश्व युद्ध
होने के मूल कारण तक याद दिलाते. कुल मिलाकर भारत के प्रधानमंत्री यह नहीं कर पाते
जो उन्होंने किया.
बहरहाल अब इस यात्रा का
विश्लेषण. पिछले ७० साल में हम तथाकथित “प्रोटोकॉल-निष्ठ” डिप्लोमेसी करते रहे और
हमें चार युद्ध झेलने पड़े. दोनों देशों की बीच तनाव बढ़ता हीं रहा. कभी हमने सी बी
एम --“कान्फिडेंस बिल्डिंग मेजर” (विश्वास संवर्धन उपक्रम)—के नाम पर राजनयिक चारागाह
में हरी घास चरी तो कभी बेक-चैनल डिप्लोमेसी (पिछवाड़े से दौत्य सम्बन्ध का प्रयास)
के नाम पर कुछ नॉन-स्टेट एक्टर्स (गैर-राजकीय लोग) को धंधे से लगाये रखा. लेकिन
रिजल्ट वही “ढाक के तीन पात”.
भारत-पाकिस्तान संबंधों को
लेकर आज हम दो बातें साफ़-साफ़ कह सकते हैं. पहला : फॉर्मल (औपचारिक) और फार्मेटेड (
तयशुदालीक पर चलने वाली) राजनयिक प्रक्रिया असफल रही और दूसरा : पाकिस्तान चूंकि
एक प्राकृतिक राज्य का चरित्र नहीं रखता और इस देश में कई सस्थाएं --- सैन्य
प्रतिष्ठान, आई एस आई, कट्टरवादी तत्व और राजनीतिक प्रशासन-- एक दूसरे के खिलाफ
काम करती हैं, लिहाज़ा हमें दोनों तरफ जन -दबाव बना पडेगा ताकि गैर –राजनितिक
संस्थाओं की सदर्भिता हीं ख़त्म हो सके. जो भारतीय पाकिस्तान जाते रहे हैं उन्हें
मालूम होगा कि जहाँ तक पाकिस्तान की जनता का सवाल है वे भारत के लोगों से बेपनाह
मुहब्बत करती है. मैं कई बार यह आजमा चुका हूँ (कराची और लाहौर में रेस्त्रां
मालिक खाने का पैसा लेने से मना कर देता है और टेक्सी वाला भाडा, इस्लामाबाद में
किसी के घर जाइये तो पड़ोसी तक आकर कुछ भेट नज़र करते हैं अगर पता चल जाये कि हम
हिंदुस्तान से है. अगर कुछ नाराजगी है तो वह उन अफवाहों के आधार पर जो आई एस आई ने
अपने देश की जनता के बीच भारत के खिलाफ गलत-वीडियो बाँट कर दिखाई है.
मोदी ने लाहौर जा कर जो किया
उसे न केवल पाकिस्तान के विपक्षी दलों ने सराहा बल्कि वहाँ की आम जनता में
“भारतीयों के प्रति मुहब्बत” की एक लहर दौड़ गयी. नवाज शरीफ अपने देश में मजबूत
हुए. भारत की आम जनता ने भी इसे अच्छा, उदार और स्टेट्समैन की तरह का व्यवहार
माना. कांग्रेस से भी अपेक्षा थी कि गरिमा दिखाते हुए इस यात्रा की आलोचना सकारात्मक ढंग से करे.
इस यात्रा के खिलाफ बोलने
वालों को कुछ तथ्य समझने होंगे. पाकिस्तान भौगोलिक पडोसी है और भूगोल बदला नहीं जा
सकता. युद्ध रास्ता नहीं है और युद्ध विकास के मद्देनज़र भारत को ज्यादा नुक्सान
करेगा पाकिस्तान तो अभी विकास के रास्ते पर भी नहीं है. पाकिस्तानी सेना,
कट्टरपंथियों और आई एस आई को सन्दर्भ-विहीन करने के लिए पाकिस्तानी जनमत का दबाव
बनाना ज़रूरी है.
दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है
कि भारत में मीडिया का एक प्रमुख वर्ग भी “हाकिश” (बाजनुमा) तेवर अपना लेता है यह
बगैर जाने हुए कि भारतीय सैनिकों का सर काटने में नवाज़ शरीफ की कितनी भूमिका है.
पाकिस्तान के राज्य के चरित्र को न जानने के कारण भारत की मीडिया का एक वर्ग “हम
पाकिस्तानियों को रौंद देंगे” के भाव मे स्टूडियो में हीं ऐठने लगता है.
बहरहाल भारत के
प्रधानमंत्री ने “भावनात्मक परराष्ट्र नीति” (इमोशनल डिप्लोमेसी) की नयी शुरूआत की
है क्योंकि अन्य सभी औपचारिक परराष्ट्र नीति पाकिस्तान के सन्दर्भ में असफल रही
है. एक अच्छा प्रयास है. लेकिन एक सतर्कता बरतनी जरूरी है. इसे असफल बनाने के लिए
पाकिस्तान के कट्टरपंथी और आतंकवादी समूह जल्द हीं कोई हमला करके हमारे कुछ
सैनिकों को मार सकते हैं. इससे भारत में
मोदी के इस डिप्लोमेसी की एक ओर निंदा शुरू हो जायेगी. लेकिन इससे भी बड़ा
दूसरा ख़तरा यह है कि चूंकि इस नए किस्म के डिप्लोमेसी में भावना का अतिरेक है
लिहाज़ा अगर कभी भारतीय लोगों को किसी हमले से जन हानि हो भी तो प्रतिक्रिया
भावनात्मक याने “दो के बदले दस” की नहीं होनी चाहिए बल्कि बेहद “मेजर्ड” (नाप-जोख
कर) सरकार की या सेना की प्रतिक्रिया होनी चाहिए. अगर हमने भी दो के बदले दस “ का
भाव अख्तियार किया तो आतंकवादी पाकिस्तान में सफल हो जायेंगे और “बाजनुमा” लोग
भारत में. और तब नवाज़ शरीफ भी हार जायेंगे और मोदी का “नया प्रयोग भी”.
patrika