Wednesday 30 December 2015

मोदी की लाहौर यात्रा: समाधान की अनूठी पहल


  
आइन्स्टीन ने कहा था “उन महत्वपूर्ण समस्याओं का जिन्हें हम झेल रहे हों, समाधान कभी नहीं निकल सकता हम अगर अपनी सोच का स्तर वही रखते हैं जिस स्तर पर हमने उन समस्याओं को पैदा किया था”.  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लाहौर यात्रा को इस परिप्रेक्ष्य में देखेंगे तो एक रास्ता दिखाई देता है –--न केवल एक ऐसी भारत-पाकिस्तान तनाव समस्या का जिसका समाधान ७० साल में अब असम्भव सा लगता है, बल्कि दुनिया में दौत्य सबंधों को औपचारिकता के बाँझ चंगुल से निकालने का.    

निष्पक्ष विश्लेषकों के लिए एक बड़ी समस्या तब खडी होती है जब कोई रानीतिक दल या कोई नेता सत्ता सञ्चालन में परंपरागत फॉर्मेट से हट कर अपना आचरण करने लगता है. यह विवेचना और मुश्किल होती है जब विवेचना काल अल्प हो और नेता का परफॉरमेंस इसी अल्पावधि में तय करना हो.  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राजनीति के कई पैरामीटर्स बदल डाले. इनमें से कुछ विरोधाभासी हैं. ट्विटर पर अति-सक्रिय लेकिन कई तात्कालिक मुद्दों पर चुप्पी, आक्रामक हिंदुत्व के अलंबरदारों पर लगाम नहीं लेकिन मंत्रियों पर काम करने का दबाव. काबुल में पाकिस्तान के रवैये पर अफ़सोस पर कुछ हीं मिनटों में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के जन्म-दिन पर लाहौर आ कर बधाई देना. 

बिरले नेता होते हैं जो लीक से हट कर समस्याओं का निदान सोचते हैं. स्वतंत्र भारत में शायद नरेन्द्र मोदी पहले नेता हैं जो फॉर्मेट से हट कर सोच रहे हैं. गौर कीजिए. टेलीफोन पर बातचीत में मोदी द्वारा जन्म दिन की बधाई देने पर नवाज़ साहेब का उन्हें घर आने का न्योता देना वह भी कुछ इस तरह “जी मैं तो लाहौर आ गया हूँ “. मोदी: “अरे, वहां क्या कर रहे हैं?” “जी मेरे बेटी की बेटी की कल शादी है, तैयारी में लगा हूँ. आप तो दिल्ली लाहौर के उपर से हीं जायेंगे, क्यों न कुछ देर के लिए यहाँ हो कर जाएँ.”. मोदी, “अरे आप को दिक्कत होगी”. नवाज़ “नहीं जनाब, मुझे तो बहुत खुशी होगी”. मोदी : ठीक है में आता हूँ”.         

जरा सोचिये. कोई दूसरा नेता होता तो दस बार सोचता कि अगर हम जायेंगे तो भारत में इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी. वह अफसरों को बुलाता. वे अफसर प्रोटोकॉल की दुनिया भर की समस्याएं बताते, राजनीति में यह कदम कैसा होगा इस पर “लाल बुझक्कड़ बैकरूम बॉयज घंटों सोचते और फिर न जाने की सलाह देते. सुरक्षा से जुड़े लोग तो साफ़ हीं मना करते यह कह कर फलां फलां आतंकी गुट वहां सक्रिय है और उनके पास राकेट लांचर हैं. आगे कहते “दोनों हीं परमाणु बम समर्थ देश हैं लिहाज़ा इस तरह के “एड्वेंचरिस्म” से बचना चाहिए. और यही पिछले ७० साल से होता रहा है. कुछ लोग प्रथम  विश्व युद्ध होने के मूल कारण तक याद दिलाते. कुल मिलाकर भारत के प्रधानमंत्री यह नहीं कर पाते जो उन्होंने किया.

बहरहाल अब इस यात्रा का विश्लेषण. पिछले ७० साल में हम तथाकथित “प्रोटोकॉल-निष्ठ” डिप्लोमेसी करते रहे और हमें चार युद्ध झेलने पड़े. दोनों देशों की बीच तनाव बढ़ता हीं रहा. कभी हमने सी बी एम --“कान्फिडेंस बिल्डिंग मेजर” (विश्वास संवर्धन उपक्रम)—के नाम पर राजनयिक चारागाह में हरी घास चरी तो कभी बेक-चैनल डिप्लोमेसी (पिछवाड़े से दौत्य सम्बन्ध का प्रयास) के नाम पर कुछ नॉन-स्टेट एक्टर्स (गैर-राजकीय लोग) को धंधे से लगाये रखा. लेकिन रिजल्ट वही “ढाक  के तीन पात”.

भारत-पाकिस्तान संबंधों को लेकर आज हम दो बातें साफ़-साफ़ कह सकते हैं. पहला : फॉर्मल (औपचारिक) और फार्मेटेड ( तयशुदालीक पर चलने वाली) राजनयिक प्रक्रिया असफल रही और दूसरा : पाकिस्तान चूंकि एक प्राकृतिक राज्य का चरित्र नहीं रखता और इस देश में कई सस्थाएं --- सैन्य प्रतिष्ठान, आई एस आई, कट्टरवादी तत्व और राजनीतिक प्रशासन-- एक दूसरे के खिलाफ काम करती हैं, लिहाज़ा हमें दोनों तरफ जन -दबाव बना पडेगा ताकि गैर –राजनितिक संस्थाओं की सदर्भिता हीं ख़त्म हो सके. जो भारतीय पाकिस्तान जाते रहे हैं उन्हें मालूम होगा कि जहाँ तक पाकिस्तान की जनता का सवाल है वे भारत के लोगों से बेपनाह मुहब्बत करती है. मैं कई बार यह आजमा चुका हूँ (कराची और लाहौर में रेस्त्रां मालिक खाने का पैसा लेने से मना कर देता है और टेक्सी वाला भाडा, इस्लामाबाद में किसी के घर जाइये तो पड़ोसी तक आकर कुछ भेट नज़र करते हैं अगर पता चल जाये कि हम हिंदुस्तान से है. अगर कुछ नाराजगी है तो वह उन अफवाहों के आधार पर जो आई एस आई ने अपने देश की जनता के बीच भारत के खिलाफ गलत-वीडियो बाँट कर दिखाई है.  

मोदी ने लाहौर जा कर जो किया उसे न केवल पाकिस्तान के विपक्षी दलों ने सराहा बल्कि वहाँ की आम जनता में “भारतीयों के प्रति मुहब्बत” की एक लहर दौड़ गयी. नवाज शरीफ अपने देश में मजबूत हुए. भारत की आम जनता ने भी इसे अच्छा, उदार और स्टेट्समैन की तरह का व्यवहार माना. कांग्रेस से भी अपेक्षा थी कि गरिमा दिखाते हुए इस यात्रा की  आलोचना सकारात्मक ढंग से करे.

इस यात्रा के खिलाफ बोलने वालों को कुछ तथ्य समझने होंगे. पाकिस्तान भौगोलिक पडोसी है और भूगोल बदला नहीं जा सकता. युद्ध रास्ता नहीं है और युद्ध विकास के मद्देनज़र भारत को ज्यादा नुक्सान करेगा पाकिस्तान तो अभी विकास के रास्ते पर भी नहीं है. पाकिस्तानी सेना, कट्टरपंथियों और आई एस आई को सन्दर्भ-विहीन करने के लिए पाकिस्तानी जनमत का दबाव बनाना ज़रूरी है.

दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि भारत में मीडिया का एक प्रमुख वर्ग भी “हाकिश” (बाजनुमा) तेवर अपना लेता है यह बगैर जाने हुए कि भारतीय सैनिकों का सर काटने में नवाज़ शरीफ की कितनी भूमिका है. पाकिस्तान के राज्य के चरित्र को न जानने के कारण भारत की मीडिया का एक वर्ग “हम पाकिस्तानियों को रौंद देंगे” के भाव मे स्टूडियो में हीं ऐठने लगता है.


बहरहाल भारत के प्रधानमंत्री ने “भावनात्मक परराष्ट्र नीति” (इमोशनल डिप्लोमेसी) की नयी शुरूआत की है क्योंकि अन्य सभी औपचारिक परराष्ट्र नीति पाकिस्तान के सन्दर्भ में असफल रही है. एक अच्छा प्रयास है. लेकिन एक सतर्कता बरतनी जरूरी है. इसे असफल बनाने के लिए पाकिस्तान के कट्टरपंथी और आतंकवादी समूह जल्द हीं कोई हमला करके हमारे कुछ सैनिकों को मार सकते हैं. इससे भारत में  मोदी के इस डिप्लोमेसी की एक ओर निंदा शुरू हो जायेगी. लेकिन इससे भी बड़ा दूसरा ख़तरा यह है कि चूंकि इस नए किस्म के डिप्लोमेसी में भावना का अतिरेक है लिहाज़ा अगर कभी भारतीय लोगों को किसी हमले से जन हानि हो भी तो प्रतिक्रिया भावनात्मक याने “दो के बदले दस” की नहीं होनी चाहिए बल्कि बेहद “मेजर्ड” (नाप-जोख कर) सरकार की या सेना की प्रतिक्रिया होनी चाहिए. अगर हमने भी दो के बदले दस “ का भाव अख्तियार किया तो आतंकवादी पाकिस्तान में सफल हो जायेंगे और “बाजनुमा” लोग भारत में. और तब नवाज़ शरीफ भी हार जायेंगे और मोदी का “नया प्रयोग भी”.
patrika 

Friday 18 December 2015

भारत: २४ साल में विकास की हकीकत



जरा गौर करें ! कैसा लगता है यह जानकार कि बांग्लादेश तो छोडिये पाकिस्तान और इराक भी लिंग-भेद (याने नारी-सशक्तिकरण) के स्तर पर हमसे काफी बेहतर हैं ! जरा सोचिये ! अगर हमें बताया जाये कि ७० साल के स्व-शासन के बाद भी गरीब-अमीर के बीच बढ़ती असमानता में हम दुनिया के १८८ देशों में १५० नंबर पर हैं और यह खाई लगातार बढ़ती जा रही है तो क्या हमारे पुरखों द्वारा खून बहा कर दिलाई गयी आज़ादी बेमानी नहीं लगेगी ?

गलती किसकी है ? हम हर पांच साल पर सरकार चुनते हैं पर हमें अपनी समस्याएँ भी नहीं समझ पाते. पिछले सात दशकों में या जब से (१९९० से) संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू एन डी पी) मानव विकास सूचकांक बनाने लगा है एक बार भी यह मुद्दा जन-धरातल पर नहीं आया कि अगर हमारा आर्थिक विकास हो रहा तो अमीर और अमीर क्यों और गरीब और गरीब क्यों? हमने कभी भी इस बात पर जन-मत तैयार कर इस बात पर मतदान नहीं किया कि जब सकल घरेलू उत्पाद बढ़ रहा था तो मानव विकास क्यों ठहरा रहा? कहना न होगा कि अगर जी डी पी बढ़ रहा है तो उसका लाभ जन-जन तक पहुँचाना सत्ता-पक्ष की नीति और शासन के अभिकरणों का काम है.  

यू एन डी पी द्वारा सोमवार (१४ दिसम्बर, २०१५) को जारी ताज़ा रिपोर्ट ने एक बार फिर मायूस किया. पिछले २४ साल में हम मानव विकास के मामले में वहीं के वहीं है. करेले पर नीम की तरह जहाँ सन २००० में देश के एक प्रतिशत धनाढ्य लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का ३७ प्रतिशत होता था वह २०१४ में ७० प्रतिशत हो गया है. याने अगर विकास हुआ है तो केवल एक प्रतिशत अभिजात्य वर्ग का हीं हालांकि हमने सन १९७६ में अपने संविधान की प्रस्तावना में ४२ वें संशोधन के तहत “समाजवादी” शब्द भी डाला था. फिर क्यों आज ९९ प्रतिशत के पास मात्र ३० प्रतिशत संपत्ति. और यह संपत्ति भी साल-दर-साल धनाढ्यों के पास एकत्रित होती जा रही है. इससे भी बड़ी चिंता की बात है वह यह कि देश के जन-धरातल पर इन वर्षों में जो मुद्दे रहे या चुनावों में जिन बातों पर मतदान हुआ उनमें कहीं भी यह मुद्दा नहीं था कि क्यों देश में अगर हम सकल घरेलू उत्पाद में दुनिया के शिखर के दस राष्टों में हैं तो मानव विकास में १८५ देशों में पिछले २४ सालों में १३०वें  या १३५वें  स्थान पर क्यों? अगर तीन साल पहले शुरू लिया गया नया पैमाना –असमानता-संयोजित मानव विकास सूचकांक – देखा जाये तो हम और फिसल कर १५१वें स्थान पर चले जाते हैं. भारत के इस मानक पर नीचे गिरने का एक और कारण है शिक्षा को लेकर भयानक विभेद. वर्तमान शिक्षा इतनी महंगी हो गयी है कि अन्य देशों के मुकाबले भारत में औसत व्यस्क शिक्षा ५.४ साल की है जो तमाम माध्यम आय वर्ग के देशों से काफी कम है. लेकिन आज तक शिक्षा को लेकर कोई आन्दोलन नहीं हुआ क्योंकि मंत्री से लेकर सरकारी कर्मचारी तक अपने बच्चों को शहरों के स्कूल में भेजने में सक्षम है जब कि किसान का बेटा ५ वीं तक पढ़ने के बाद खेती में या मजदूरी की दुनिया में रोटी कमाने में लग जाता है.

उपरोक्त आंकड़ों से साफ़ है कि १९९० से जब से आर्थिक उदारीकरण शुरू हुआ देश में आर्थिक विकास तो हुआ परन्तु उसका लाभ मात्र कुछ हाथों में सिमट कर रहा गया. लोक-प्रशासन के विद्वानों का मानना है कि अगर किसी देशी में आर्थिक विकास और मानव विकास का सीधा रिश्ता है और इस रिश्ते को बरकरार रखने में मात्र राजनीतिक वर्ग की सोच, सत्ताधारी दलों के प्रयास और जनोन्मुखी शासकीय अभिकरणों की भूमिका होती है. और इन प्रजातंत्र में इस सबको सही रास्ते पर रखने का काम करता है “सचेत और तार्किक जनमत”.    

असमानता-संयोजित मानव विकास सूचकांक में  संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू एन डी पी) की वर्ष २०१४ की मानव विकास सूचकांक (एच डी आई) रिपोर्ट, में कई और तथ्य चौकाने वाले हैं. वैसे तो पिछले ७० साल से देश का शासक वर्ग जनता को छलता आ रहा है “गरीबी हटाने, समाजवाद लाने, ऊँच-नीच, गरीब-अमीर के बीच की शाश्वत खाई पाटने के नाम पर पिछले २४ साल से हमें इस धोखे का अहसास होना लगा जब १९९० में इस विश्व संगठन ने हर साल दुनिया किए तमाम मुल्कों के बारे में यह तथ्य बताना शुरू किया कि मानव विकास के पैमाने पर अमुक देश कहाँ है. यह पैमाना तीन तत्वों पर आधारित होता है –देश की प्रति-व्यक्ति आय, जीवन प्रत्याशा और साक्षरता. चूंकि इस पैमाने से यह नहीं पता चलता था किसी अम्बानी और किसी घुरहू के बीच कितना अंतर है इसलिए पिछले कुछ वर्षों से असमानता-संयोजित सूचकांक बनाया जाने लगा (हालांकि जिनी-कोएफिसेंट पैमाना अर्थ-शास्त्र में मौजूद था) तब पता चला कि जहाँ सन २००० में उपरी वर्ग के एक प्रतिशत की कुल संपत्ति नीचे के ९९ प्रतिशत लोगों की कुल संपत्ति का ५८ गुना थी जो कि २००५ में ७५ गुना, २०१० में ९४ गुना और २०१४ में ९५ गुना हो गयी. औसत प्रति-व्यक्ति आय जो १९८० में १२५५ डालर थी ३४ साल में मात्र ३.४ गुना बढ़ी.      

आज देश में चर्चा जिन मुद्दों को लेकर हो रही है उनका दरअसल जन-सरोकार से दूर-दूर तक कोई लेना –देना नहीं. राजनीतिक वर्ग, मीडिया और बाजारी ताकतों ने यह सुनिश्चित करने का षड्यंत्र रचा कि लोगों को सतही मुद्दों में उलझाये रखो ताकि उसकी सोचने की शक्ति जडवत हो जाये. अगर बाजारी ताकतों को सीजन में पांच रुपये किलो आलू खरीद कर उसे चिप्स के नाम पर २५० रुपये किली बेंचना है तो समाज की सोचने की शक्ति ख़त्म करना जरूरी है. राजनीतिक वर्ग को भी इससे लाभ है कि जनता सड़क-पानी या बेटे की नौकरी के बारे में नहीं पूछेगी. यही वजह है कि देश के एक छोर पर “ताज महल के नीचे शिवालय” है कि नहीं, इस पर जबरदस्त चर्चा होती है दूसरे छोर पर “टीपू का जन्म दिन” कर्नाटक सरकार मानती है और उससे उभरा गुस्सा दो प्रदर्शनकारियों की बलि ले लेता है. लेकिन पिछले २० सालों में हर दिन २०५७ किसान क्यों खेती छोड़ कर मजदूरी करने लगता है और क्यों इसी काल में हर ३५ मिनट पर एक किसान आत्म-हत्या कर रहा है यह न तो किसी पार्टी का मुद्दा बनता है न हीं जनमत का.

समाजशास्त्रीय अवधारणाओं के अनुसार जन-विमर्श में सही मुद्दे आये और इन पर जन-मत तैयार हो ताकि सत्ता वर्ग इन मुद्दों पर नीति बना कर कार्रवाई करे इसके लिए जनता में शिक्षा, तर्क-शक्ति और सार्थक सामूहिक सोच की ज़रुरत होती है. हमने पिछले ६५ सालों में इतनी तरक्की तो की है कि आज चुनाव में ६५ फीसदी तक मतदान करते हैं पर हमें अपने मुद्दे हीं नहीं मालूम.

मिर्ज़ा ग़ालिब को १९ सदी में भी हम लोगों की पहचान थी तभी तो उनका रेखता है ,““इस सादगी पर कौन न मर जाये ऐ खुदा, लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं”.


jagran

Saturday 12 December 2015

मीडिया को मुद्दों को लेकर अपनी समझ बदलनी होगी




पिछले हफ्ते जिस दिन देश का अनेक राष्ट्रीय चैनल इस बात पर स्टूडियो डिस्कशन करा रहे थे कि क्या पंजाब के एक मंदिर में पासपोर्ट ले कर जाने और “मन्नत” माँगने से “वीसा” लग जाता है या यह मात्र “भ्रान्ति” है, उसी दिन ब्रिटेन की एक संस्था ---इप्सोस मूरी ---ने अपने अध्ययन में पाया कि भारतीय जनता में सही मुद्दों की समझ काफी कम है और अधिकतर लोग इस बात से चिंतित नहीं कि देश में पिछले कई दशकों से गरीब-अमीर की खाई लगातार बढ़ती जा रही है याने गरीब ज्यादा गरीब होता जा रहा है. एक साल पहले अमरीकी संस्था मेकेंजी ने भी इस बढ़ती खाई का जिक्र करते हुए कहा था कि भारत के चुनावों में भी “और गरीब होता गरीब एवं और अमीर होता अमीर” कोई मुद्दा हीं नहीं बन पाता. ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार भारत में इस समय एक प्रतिशत अमीरों के पास देश की ७० प्रतिशत संपत्ति है जो कि मात्र १५ साल पहले ३७ प्रतिशत थी. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा बैंक के अनुसार भारत के इन अरबपतियों की संपत्ति पिछले १५ सालों में १२ गुना बड़ी है. ऐसा नहीं है कि हमें अपने आर्थिक मॉडल पर एक बार फिर गौर करने की ज़रुरत है. ज़रुरत इस बात की है कि इस बढ़ती गरीबी को रोकने के लिए सरकारें सामाजिक सुरक्षा में वर्तमान व्यय जो सकल घरेलू उत्पाद का मात्र १ प्रतिशत है (ऊंट के मुंह में जीरा है)     
को कम से कम दूना करें. कई देशों में यह २० प्रतिशत तक है.

सही मुद्दे उठाना, उन पर जन-चेतना विकसित करना और उन पर जनमत बना कर सरकारों और बृहत समाज पर नीति और व्यवहार बदलने के लिए दबाव डालना किसी भी प्रजातंत्र में दो संस्थाएं करती हैं--पहला प्रतिस्पर्धी राजनीति करने वाले राजनीतिक दल और दूसरा मीडिया. हालांकि इन दोनों संस्थाओं के पास असली मुद्दे न उठाने के अलग-अलग कारण है. राजनीतिक दलों को इस तरह के मुद्दे उठाने के लिए गांवों में जाना पडेगा, सोच बदलनी पड़ेगी और सडकों की धूल फांकनी पड़ेगी. लिहाज़ा सुविधाभोगी राजनीतिक दल भावनात्मक मुद्दे का कोई एक पक्ष पकड़ लेते हैं. अगर एक मंदिर बनवाता है तो दूसरा “हिम्मत हो तो मंदिर बनवा के दिखाओ” की बांग देता है. तीसरा “परिंदा भी पर नहीं मार सकता” अलापता है. फिर चूंकि राजनीतिक हिस्से का एक बड़ा भाग अभिजात्य वर्ग से आता है तो उसे इस तरह के “खतरनाक जनमत” के उभार से डर भी लगता है. नतीजा यह कि इस देश में पिछले ७० साल से “सेक्यूलरिज्म”  की परिभाषा पर संसद से सड़क तक और स्कूल से सुप्रीम कोर्ट तक बहस चल रही है.

लेकिन भारतीय मीडिया क्यूं असली मुद्दे छोड़ कर इन मुद्दों के बारे में “जनमत” पैदा करता. क्या मुद्दों को लेकर उसकी समझ कम है? क्या उसे भी “पुडिया-टाइप” मुद्दे जैसे “पाकिस्तानियों के सिर के बदले सिर”, “क्या मंदिर बन सकता है?” , “क्या विधायक और सांसदों का वेतन बढना चाहिए?” या फिर “गांधी या पटेल किसके” इस लिए भाते हैं कि गरीबी, कल्याणकारी योजनाओं बनाने और उनका लाभ गरीबों तक पहुँचाने में राज्य की भूमिका विषय उसे समझ में नहीं आते? विधायकों और सांसदों के लिए भी शैक्षणिक योग्यता होनी चाहिए मीडिया की कई दिनों की खुराक बन जाती है पर गाँव में कंप्यूटर कैसे सुशासन और विकास में मदद कर सकेंगे या यूरिया कितनी मात्र में डाली जाये यह चेतना जगाना मीडिया अपना कर्तव्य नहीं समझता. और इस पर कोई अंग्रेज़ी चैनल का एंकर गला फाड़ कर सिस्टम की लानत –मलानत नहीं करता. देश में गेहूं, धान या गन्ने को लेकर कभी भी स्टूडियो डिस्कशन या ब्रेकिंग न्यूज़ नहीं चलती, लेकिन सलमान खान फैसला सुन कर कितना रोये या किस मजार पर या मंदिर में मन्नत माँगी, कपडे क्या पहने थे इस पर एंकर से लेकर रिपोर्टरों की फौज हांफ-हांफ कर दिन भर बोलती है. सलमान की दयालुता के किस्से के मुकाबले ढाई लाख किसानों की पिछले २० सालों में  आत्महत्या ( हर ३५ मिनट में एक के दर से हो रही हैं) खबर नहीं बन पाती.       

समस्या शायद समझ की है. मीडिया में भी एक बड़ा वर्ग है जो समाज, उसकी बहबूदी का जल-कल्याण नीति से रिश्ता, आर्थिक नीतियों की मौलिक खामियां, या समाज में अभाव को लेकर संजीदगी कम रखता है. आसाराम बापू का अपराध उसे महीनों तक स्टूडियो डिस्कशन करने का औचित्य लगता है लेकिन पूरे उत्तर भारत में लगातार सूखे की स्थिति और तज्जनित किसानों के बदहाली उसे जनमत का मुद्दा नहीं लगते. भ्रष्टाचार पर उसकी समझ की सीमा मंत्री के खर्चे या उस मंत्री की बीवी द्वारा सरकारी  गाड़ी इस्तेमाल करने से ज्यादा नहीं बढ़ पाती.

साथ हीं एक और समस्या है देश में स्वतंत्र विश्लेषकों की, जिसमें मीडिया भी आता है, कमी है. अक्सर वे शाश्वत भाव से या तो “इस” पक्ष की सोच के हिमायती होते हैं या उस पक्ष की. ये विश्लेषक हर घटना पर चुनिन्दा तथ्य लेते हैं और उनकी बुनियाद पर तार्किक इमारत खडी करते हैं. और आपस में “तेरी कमीज़ से मेरी कमीज़ साफ़” के भाव में द्वन्द करते हैं. सत्य कहीं दूर खडा रहता है, समाधान की गुंजाइश हीं नहीं रहती. ऐसे में जब राष्ट्रपति असहिष्णुता की बात करते है तो एक पक्ष विजयी भाव से देखता है लेकिन वहीं जब सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश (सी जे आई) कहते हैं कि “असहिष्णुता” के पीछे राजनीति है तो दूसरा पक्ष इसे अपने पक्ष का सर्टिफिकेट मानने लगता है. दोनों पक्ष अपने को सही सिद्ध करने में भूल जाते हैं कि हर बात की संदर्भिता और संभाषण का उद्देश्य होता है. राष्ट्रपति ने देश की सांस्कृतिक सह-अस्तित्व की विरासत की बात भी कही थी और प्रधान न्यायाधीश ने यह भी कहा था कि स्वतंत्र न्यायपालिका के रहते जन-हित को क्षति नहीं होगी.

 तब सोचना पड़ता है कि कहीं हम गलत तो नहीं हैं. कहीं हमने गलती से अखलाक की हत्या का मूल कारण “असहिष्णु सोच-जनित आपराधिक कृत्य ” मान लिया जब कि वह मूल रूप से आपराधिक कृत्य था जिसे हम “असहिष्णु सोच” की उपज मान बैठे. दरअसल अपराध को असहिष्णु सोच-जनित सामूहिक क्रिया (कलेक्टिव एक्शन) बनाना ज्यादा मुश्किल नहीं होता अगर समाज में ऐसी सोच के कुछ तत्व पहले से मौजूद हों. और ऐसे सोच एक विविधतापूर्ण समाज में हमेशा होते हैं. जरूरत सिर्फ यह होती है कि तर्क-शक्ति और सत्य के प्रति निरपेक्ष आग्रह का सहारा लेते हुए उन वैविध्य के प्रतीकों के खिलाफ कलेक्टिव एक्शन न बनने देने की. पहचान समूह में हमेशा एक वर्ग इन प्रतीकों को उभारना चाहता है लेकिन उसी समूह का एक बड़ा वर्ग इसके खिलाफ होता है या उदासीन होता है. इसी मकाम पर सशक्त मीडिया द्वारा पैदा किया गया जन-संवाद एक बड़ी भूमिका में आता है.  


क्या भारतीय मीडिया इस अतिरेक का दोषी है? क्या उसे समझ में नहीं आ रहा है कि जन कल्याण के सही मुद्दे जो सत्ता पक्ष को गरीब-अमीर की खाई पाटने को मजबूर करें पहचानने में भूल कर रही है. और अगर यह भूल जरी रही तो यही दर्शक (और पाठक भी) फिर से वापस मनोरंजन के कार्यक्रमों की ओर मुड़ जाएगा क्योंकि वहाँ कम से कम “भडैती” तो उत्तम कला के रूप में होती हीं है.
lokmat 

Thursday 10 December 2015

कांग्रेस: यह कैसी आत्मघाती व अलोकतांत्रिक “स्ट्रेटेजी” है !


अभी दो हफ्ते भी नहीं हुए जब भारतीय संविधान को कांग्रेस की देन बताते हुए पार्टी नेताओं ने इसकी संस्थाओं के प्रति सम्मान की सीख सत्ता पक्ष को दी थी. लेकिन ८ दिसंबर,२०१५ को संसद में पैदा किया गया गतिरोध कांग्रेस के ठीक विपरीत आचरण का प्रतीक बन गया.  लगभग १३० साल पुरानी कांग्रेस पार्टी कहीं बौद्धिक जड़ता की शिकार होती जा रही है. उसे मुद्दे और उनके प्रति समाज में अपेक्षित प्रतिक्रिया की समझ कम हो गयी है. यह समझ हीं किसी राजनीतिक पार्टी के प्रसार, उसके दीर्घायु होने और उसकी विश्वसनीयता की कसौटी होती है. जिन दलों में शीर्ष स्तर पर जन-जीवन से कटे लोग पार्टी के नीति-नियंता बन जाते हैं उन दलों की समझ क्षीण हो जाती है.     इस समझ से पैदा हुई राजनीतिक सूझ-बूझ, जिद की हद तक जन –नैतिकता के मानदंडों पर खड़े दिखने की ललक और दूरदर्शी रणनीतिकारों का आज कांग्रेस में नितांत अभाव है. प्रतिस्पर्धी राजनीति का, जो भारत में प्रैक्टिस की जाती है, पहला तकाजा है कि चूंकि राजनीति में जन-स्वीकार्यता जन-संदेशों का खेल है लिहाज़ा हर पार्टी दूसरी पार्टी की गलतियों का फायदा उठती है, अपने से कोई गलत सन्देश न देने की कोशिश करती है और और दूसरी पार्टी की छोटी गलती को ताड़ बना कर परोसती है. लेकिन इस जद्दो-जेहद के भी कुछ नियम होते हैं. इस लड़ाई में संवैधानिक मान्यताओं, प्रजातान्त्रिक परम्पराओं या तत्कालीन मानवीय मूल्यों की अवहेलना हुई तो उस पार्टी या उसके नेता से जनता मुंह मोड़ने लगती है.

एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड (ए जे एल) – यंग इंडियन्स विवाद को कांग्रेस नेतृत्व जिस तरह “हैंडल” कर रहा है वह सिद्ध करता है कि इस पार्टी की समझ कुछ ऐसे नेताओं में जिनका जन जीवन ए सी कमरों से बाहर नहीं आया हो, के बीच महदूद रह गयी है. तभी तो हाई कोर्ट द्वारा अपील ख़ारिज होने के बाद पार्टी के शीर्ष लोग रात भर “स्ट्रेटेजी” बनाते रहे और निकला एक निहायत बेहूदा और पार्टी के लिए घातक कदम. पार्टी नेतृत्व इसे "प्रतिशोध की राजनीति" बता रहा है़।

पूरी दुनिया में एक स्थापित लोक- सिद्धांत है कि अगर आप पर कोई आरोप लगे तो पहले उसे तर्कों के आधार पर गलत सिद्ध करते हैं और फिर अगर ज़रुरत पड़े तो कुछ समय बाद उस गलत आरोपों के सूत्रधारों के नाम बताते हैं, उनकी संलिप्तता और उस संलिप्तता का आशय बताते हैं. परन्तु कांग्रेस के “महान” रणनीतिकारों ने रात भर जग कर इसके उलट पहले सरकार की मंशा को कोसा, फिर न्यायपालिका पर परोक्ष रूप से आरोप चस्पा किया (क्योंकि न्यायपालिका के आदेश को अगर सरकार से जोड़ा जाएगा तो नागरिक शास्त्र के कक्षा १० का बच्चा भी समझ सकता है कि यही सन्देश जाता है) और फिर संसद का काम-काज टप किया. मुकदमें को लेकर तैयारी का यह आलम है कि हाई कोर्ट से अपील ख़ारिज होने के बाद “मरता क्या न करता” के भाव में निचली अदालत में सोनिया गाँधी के पक्ष प्रस्तुत किया जा रहा था. जब मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने हाई कोर्ट के आर्डर की प्रतिलिप चाही तो वह प्रतिलिपि बचावपक्ष के पास नहीं थी. उसे भी उपलब्ध कराया तो आरोपकर्ता सुब्रह्मनियम स्वामी ने.  

ज़रा गौर करें. यह विवाद न्यायपालिका के जेरे बहस है. ट्रायल कोर्ट ने कांग्रेस के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष क्रमशः सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी और तीन अन्य कांग्रेस नेताओं को इस आधार पर अदालत में उपस्थित होने का सम्मन भेजा है कि वे यंग इंडियन्स में प्रमुख शेयरहोल्डर्स हैं. उन पर आरोप है कि उन्होंने ए जे लिमिटेड के  १००० से ज्यादा शेयरधारकों से पूछे बिना सारे शेयर सोनिया –राहुल (दोनों के कुल ७६ प्रतिशत शेयर) वाली कंपनी –यंग इंडियंस –को दे दिए और ए जे लिमिटेड की अचल संपत्ति---खासकर दिल्ली के बहादुर शाह जफ़र मार्ग स्थिति हेराल्ड हाउस और लखनऊ के कैसरबाग स्थिति नेहरु भवन और बगल की जमीन ---का सही आंकलन नहीं किया गया.  ऊपरी अदालत में अपील करना हर व्यक्ति या संस्था का अधिकार है. इन नेताओं ने दिल्ली हाई कोर्ट में उपस्थिति के आदेश के खिलाफ अपील की लेकिन वह ख़ारिज हो गयी. बल्कि हाई कोर्ट ने केस की मेरिट में न जाते हुए भी अपील ख़ारिज करने का कारण बताते हुए मामले में आपराधिक तत्व होने की बात कही.

नाराज कांग्रेस ने पूरे दिन देश की संसद नहीं चलने दी. लोक सभा में पांच बार और राज्य सभा में तीन बार व्यवधान रहा नतीजतन पूरा काम काज बाधित रहा. लेकिन बगैर यह बताये हुए कि नाराजगी किस बात पर है कांग्रेस ने व्यवधान जारी रखा. क्या कांग्रेस इस आधारभूत बात को नहीं समझ पा रही है कि अदालत की कारवाई को लेकर संसद को कैसे बाधित किया जा सकता है या सरकार पर “प्रतिशोधात्मक राजनीति” का आरोप कैसे लगाया जा सकता है? फिर ट्रायल कोर्ट तो छोडिये , दिल्ली हाई कोर्ट ने भी व्यक्तिगत उपस्थिति से राहत की अपील न केवल ख़ारिज की बल्कि मामले में “आपराधिक अंश” की बात भी कही. क्या इतनी पुरानी पार्टी से, जो गणतंत्र बनाने के ६५ साल में तीन –चौथाई से ज्यादा काल तक शासन में रही हो यह उम्मीद की जा सकती है कि न्यायपालिका ऐसी संस्था को राजनीतिक तवे पर सेंके और वह भी बगैर किसी आधार के?

क्या सरकार यह केस लड़ रही है? क्या सुब्रह्मनियम स्वामी को यह अधिकार नहीं है कि व्यक्ति और वकील के रूप में इस मामले को न्यायपालिका के पास ले जाएँ? और अगर भारतीय जनता पार्टी के नेता  के रूप में भी यह मामला अदालत में उठा रहे है या फिर (तर्क के लिए) अगर भारतीय जनता पार्टी भी ऐसा कर रही है क्या यह गैर-कनोनी है? अगर ऐसा हो तो क्या यह कहा जा सकता है कि अदालत का फैसला “राजनीतिक प्रतिशोध” का प्रतिफल है? सोनिया के सलाहकारों ने तीन गलतियाँ की. न्यायपालिका की गरिमा गिराने की कोशिश की, संसद में व्यवधान का औचित्य न सिद्ध करके जनता की नज़रों में गिरी (कल जब जी एस टी पर भी विरोध करेगी तो जनता इसे अब औचित्यपूर्ण नहीं मानेगी) और तीसरा: अगर निचली अदालत के खिलाफ अपील करने और हार जाने के बाद संसद में व्यवधान की जगह चुपचाप निचली अदालत के सम्मान का भाव प्रदर्शित करते हुए सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी अदालत पहुँचते तो जन-समर्थन इन कांग्रेस नेताओं के पक्ष में होता. कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा कि “वह डरेंगी नहीं , वह इंदिरा गाँधी की बहू हैं”. उन्हें याद करना चाहिए कि इंदिरा गाँधी ने अदालत का सम्मान करते हुए अपने को उपस्थित किया और उससे उपजा जन समर्थन उन्हें फिर वापस सत्ता में लाया.          

फिर सन १९७७ और आज में अंतर है. मीडिया पलपल की खबर दिखा कर जन चेतना और समाज की तर्क शक्ति में व्यापक बदलाव कर चुकी है. अब आम जनता को पता है कि भ्रष्टाचार के मामले में अगर देश की निचली अदालत मात्र व्यक्तिगत उपस्थिति का सम्मन जारी करे और हाई कोर्ट उसके खिलाफ “आरोपी” के अपील को सख्त लफ़्ज़ों में ख़ारिज करते हुए कहे कि मामले में आपराधिक तत्व दिखाई देते हैं तो उसे राजनीतिक प्रतिशोध कह कर बचाव करना न्यायपालिका की अवमानना है.

संसद व्यवधान के बाद अपने पक्ष में कांग्रेस का तर्क प्रभाव डाल सकता था अगर यह अदालत के फैसले के बाद मीडिया के जरिये जनता तक अपनी बात तार्किक रूप से पहुंचाई गयी होती. कांग्रेस के तीन तर्क हैं. पहला: यंग इंडियन्स एक नॉन-प्रॉफिट संस्था है जो सेक्शन २५, कम्पनीज एक्ट, १९५६ के तहत गठित हुई है जिसकी सम्पत्ति या लाभ कोई सदस्य नहीं ले सकता; दूसरा, यंग इंडिया ने कोई ट्रांजेक्शन नहीं किया है. तीसरा, जो रियल स्टेट अर्जित हुई है वह भी कांग्रेस की हीं समय समय पर की गयी आर्थिक मदद का हीं नतीजा है. नेहरु परिवार और कांग्रेस आज तक भी अलग करके के जनता तो छोडिये कांग्रेस के लोग भी नहीं देख पा रहे हैं. लिहाज़ा सोनिया जब ए जे लिमिटेड था तो भी मालिक थी और यंग इंडियन के हाथ में आ गया तो भी मालिक वही हैं.

बहरहाल इस गलत “स्ट्रेटेजी” के चलते अब कांग्रेस पर नैतिक दबाव और साथ हीं जन मत का दबाव होगा कि जी एस टी बिल पास करे नहीं तो सन्देश यह जाएगा कि अपने नेताओं को संकट से उबरने के लिए यह कांग्रेस जन-कल्याण की अनदेखी कर सरकार पर अनैतिक दबाव बना रही है.

jagran

Sunday 6 December 2015

दिल्ली, बिहार, ग्रामीण गुजरात, सब एक हीं सन्देश दे रहे हैं

    
   

पहले दिल्ली, फिर बिहार और अब गुजरात के ग्रामीण क्षेत्र. इनके चुनाव परिणाम एक सन्देश दे रहे हैं. अगर यह सन्देश सत्ता पक्ष या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नहीं पढ़ते तो “....विपरीत बुद्धि” चरितार्थ कर रहे हैं. आज १९ महीने के मोदी शासन के बाद अगर किसी कक्षा ७ के बच्चे से भी सन २०१४ के आम चुनाव के परिणाम, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की स्वीकार्यता के पीछे जनता की अपेक्षाएं और तज्जनित जबरदस्त मतदान (२००९ के १८.६ प्रतिशत से बढ़ कर ३१.३ प्रतिशत) से हासिल पूर्ण बहुमत की पूरी स्थिति बताते हुए यह पूछा जाये कि देश की सरकार और खासकर प्रधानमंत्री को क्या करना चाहिए तो वह अनायास हीं कह उठेगा उन अपेक्षाओं को पूरा करना चाहिए.

और ये मूल अपेक्षाएं क्या थीं? देश में उद्योग लगे ताकि युवाओं को रोज़गार मिले, किसान आर्थिक तंगी झेलने में असफल हो कर पास वाले आम के पेड़ से न लटके याने कृषि का विकास, भ्रष्टाचार पर प्रभावी अंकुश , देश में शांति का माहौल और राज्य की शक्तियों और अभिकरणों के सामर्थ्य का आतंकवाद पर दहशत. और इन्हें पूरा करने के सभी कारक मौजूद भी थे. उदाहरण के तौर पर भारतीय जनता पार्टी के पास लोक सभा में अपने २८२ सदस्य (बहुमत से दस ज्यादा) लिहाज़ा “गठबंधन धर्म का  अनैतिक दबाव भी नहीं, चूंकि पार्टी और मातृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यह जानती है कि वोट मोदी को मिले हैं इसलिए यह भी दबाव नहीं कि “हमारी फैयाज़ दिली की वजह से तुम वहां हो और जब हम चाहें तुम्हे “पुनर्मूसको भव” की स्थिति में पहुंचा देंगे”. फिर क्यों ये महंत, ये साध्वी, ये उग्र हिंदूवादी क्यों विकास की दिशा बदल रहे हैं? क्यों नहीं इन्हें चुप कराया जाता. जो प्रधानमंत्री इतना शक्स्तिशाली हो कि रातों-रात अपनी पसंद का पार्टी अध्यक्ष ला सकता हो, जो प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों में उस भय का संचार कर सकता हो कि वे डर के मारे किसी पी एम ओ के अदना अधिकारी का मुंह ताकते हों निर्देश के लिए, जो प्रधानमंत्री पार्टी के आडवानी , जोशी जैसे दिग्गजों को रेलवे की “एबंडोंड” (परित्यक्त) पटरी की तरह छोड़ रखा हो वह इतना कमज़ोर कैसे हो सकता है कि एक महंत या साध्वी उसके एजेंडा की ऐसी- तैसी महीने-दर-महीने करते रहे और देश का माहौल बिगड़ता रहे?

क्या इसके लिए “राकेट साइंस” जानने की जरूरत है कि देश का माहौल बिगड़ा है. क्या यह कह कर कि जो लोग पुरष्कार लौटा रहे हैं वह कांग्रेस और कम्युनिस्टों के पिट्ठू हैं या यह सब कुछ “कृत्रिम विप्लव” (मैन्युफैक्चर्ड रिवोल्ट) है मोदी और उनकी सरकार और उनकी पार्टी “डिनायल मोड़” में नहीं है?

फिर आखिर मोदी इसे रोकते क्यों नहीं? प्रश्न यह नहीं है कि संघ और उसके अनुषांगिक संगठन यह सब कुछ कर रहे हैं. संघ का राष्ट्र निर्माण की बुनियाद और भाव अलग है जो कई बार संविधान से टकराता है. विश्व हिन्दू परिषद् अगर राम मंदिर की मांग करता है तो इसमें कुछ भी नया नहीं. सरसंघचालक मोहन भागवत अगर मंदिर जीवन काल में बनाने की बात करते है तो इसमें चौंकाने की कोई बात नहीं. परन्तु सत्ता में रह कर जब कोई मंत्री डा. महेश शर्मा या कोई मंत्री जनरल वी के सिंह या कोई साध्वी निरंजन ज्योति संविधान की भावनाओं के अनुरूप बात नहीं करते तब यह माना जाता है कि या तो प्रधानमंत्री कमज़ोर हैं (जो कि वह नहीं हैं) या उनकी मौन सहमति है. अख़लाक़ के मरने पर जब दो सप्ताह प्रतिक्रिया देने में देश के प्रधानमंत्री को लगे तो सोचना यह पड़ता है कि २०१४ में जिस व्यक्ति से अपेक्षाएं की गयी थी वह निर्णय या तो गलत था या व्यक्ति बदल गया.

क्या मोदी से जन अपेक्षाएं चुनाव जीतने के बाद बदल गयी. क्या हैं ये आक्रामक हिन्दुत्त्व के नए मुद्दे और क्या इन्हें विकास के मुद्दे से जनता ज्यादा तरजीह देने लगी है? वह २०१४ के चुनाव के बाद क्या चाहती है? राम मंदिर बनवाना? गौ हत्या के खिलाफ आन्दोलन? मुसलमान लड़कों का हिन्दू लड़कियों से शादी का कुचक्र बता कर “लव जेहाद” के नाम पर एक नया “घृणा प्रतीक” खड़ा करना, जो राम—जादों को वोट न दे उसे हराम.... बताना, हर तीसरे दिन मुसलामानों को पाकिस्तान भेजना? अख़लाक़ को मारने वाली भावनाओं का उभार, देश की प्रमुख संवैधानिक, कानूनी और अर्ध-कानूनी संस्थाओं पर चुन-चुन के “अन्य” विचारधाराओं वाले लोगों के हटा कर एक ख़ास विचारधारा वाले लोगों को लाना?

आजादी के ६८ साल में तीसरी बार देश ने नरेन्द्र मोदी के रूप में किसी नेता पर अपना सब कुछ न्योछावर करने की हद तक जन-स्वीकार्यता दी. पहली जन-स्वीकार्यता नेहरु को मिली थी.  जो जन –स्वीकार्यता नेहरु को मिली थी वह आजादी के  जश्न के नशे में झूमती भारतीय जनता के दुलारे (डार्लिंग ऑफ़ इंडियन मासेज) के रूप में थी उनसे कोई अपेक्षा नहीं थी. नेहरु वह अपेक्षा आज़ादी दिलाकर पूरी कर चुके थे. दूसरी इंदिरा गाँधी को मिली लेकिन वह दिक्-काल सापेक्ष थी और नेहरु को मिली जन-स्वीकार्यता से अलग थी. याने १९७१ में मिली फिर १९८० में. कभी दक्षिण में मिली तो उत्तर में नहीं. और कांग्रेस पार्टी को जो वोट (औसतन लगभग ३८ प्रतिशत) मिला वह आजादी के उपहार स्वरुप दो दशक तक चलता रहा. गरीबी रहे न रहे, ये वोट कांग्रेस को मिलते रहे क्योंकि जनता को उस पर भरोसा था. अशिक्षा और गरीबी के कारण देश की सामूहिक चेतना भी उस स्तर की नहीं थी कि जनता अपने कल्याण को समझे और उसे गवर्नेंस (शासन) से सीधे जोड़ सके. लेकिन नरेन्द्र मोदी की यह जन- स्वीकार्यता अलग थी. यह सशर्त थी. और मोदी ने भी उन्हें पूरा करने के वायदे पर अपनी राष्ट्रीय छवि बनाई. मोदी के व्यक्तित्व में चार तत्व भारत की जनता ने देखा ---- सुयोग्य प्रशासक, सफल विकासकर्ता, भ्रष्टाचार के खिलाफ जेहादी और छप्पन इंच छाती की वजह से आतंकवाद का विनाशक.   

क्या बेहतर न होता कि किसी एक महंत या साध्वी को माहौल खराब करने वाले बयां देने के कारण पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया जाता या मंत्रिमंडल से हटाया जाता यह कहते हुए कि अगर यह सब कुछ करना है तो सरकार से बाहर जाना होगा. क्या बेहतर नहीं होता कि अख़लाक़ के घर मोदी जाते और सख्त सन्देश सब को मिलता. क्या यह कह कर भाजपा अपने कर्तव्य की इतिश्री कर सकती है कि “अख़लाक़ का मरना कानून-व्यवस्था का प्रश्न है जो राज्य सरकार के दायरे में आता है?

सत्य को झुठलाकर टी वी चैनेलों के स्टूडियोज में तो भाजपा के अहंकारी प्रवक्ता गाल बजा सकते हैं और मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को अपनी वाकपटुता से इम्प्रेस कर सकते हैं लेकिन ताज़ा गुजरात के चुनावों में ग्रामीण क्षेत्रों में हार ने ने १९ महीने में तीसरी बार संकेत दिए हैं. अनसुना कर सकते हैं सत्ता में बैठे लोग, पर जनता बेहद निराश होगी और शायद दोबारा किसी नेता पर इस तरह का भरोसा नहीं करेगी. 
 
lokmat

Monday 30 November 2015

बाबा साहेब को सच्ची श्रद्धांजलि है “संविधान दिवस”




इसमें कोई दो राय नहीं कि मोदी सरकार ने २६ नवम्बर को “संविधान दिवस” के रूप में मनाने का फैसला कर इस पवित्र दस्तावेज के जन्मदाता डॉ भीमराव अम्बेदकर (बाबा साहेब) को सच्ची श्रद्धांजलि दी है. इसके साथ हीं “संविधान” और “कानून” के प्रति जनता की “आदतन” निष्ठा की भावना को भी इससे मजबूती मिलेगी. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ठीक हीं कहा कि “अगर कोई संविधान से छेड़-छाड़ की सोचता भी है तो वह आत्महत्या कर रहा है”. भारतीय समाज का एक बड़ा वर्ग अभी तक आदतन कानून के प्रति एक अनादर का भाव रखता है और अगर ट्रैफिक सिपाही न हो या पकडे जाने का डर न हो तो दोपहर में भी सहज भाव से “लाल बत्ती” को ठेंगा दिखाते हुए वाहन आगे बढ़ा लेने में कोई हिचक उसे नहीं होती. लाइन में खड़े हो कर टिकट लेना अपनी तौहीन समझता है और भ्रष्टाचार के प्रति सहिष्णुता की सीमा दूसरे पर तो थोपता है परन्तु अपने करने को “स्थिति-जन्य  अपरिहार्यता” मानता है.    

बाबा साहेब को भारत के लोगों की तासीर पता थी. संविधान सभा में बोलते हुए उन्होने कहा “संवैधानिक नैतिकता कोई प्राकृतिक भावना नहीं है. इसे पैदा करना पड़ता है. हमें इस बात का अहसास होना चाहिए कि हमें अपने लोगों को अभी यह सिखाना होगा. प्रजातंत्र भारत की जमीन पर एक ऐसी फसल को खाद- पानी देने जैसा है जो मूल रूप से गैर-प्रजातान्त्रिक है” . बाबा साहेब के अलावा संविधान विशेषज्ञों और विश्व राजनीति के कई प्रमुख लोगों को भारत के संविधान के सफल होने में शक था. राष्ट्रमंडल देशों में  में संवैधानिक इतिहास के जाने-माने विद्वान् सर आइवर जेंनिंग्स ने भारत के गणराज्य बनने के लगभग एक साल बाद सन १९५१ में मद्रास विश्वविद्यालय में बोलते हुए कहा “भारतीय संविधान में केंद्र व राज्यों को लेकर बनाये गए प्रावधान बेहद जटिल हैं और संविधान सभा में वकील-राजनीतिज्ञों के वर्चस्व ने इसे और जटिल बना दिया है”. इनका मानना था कि ऐसा जटिल संविधान शायद हीं व्यावहारिक रूप से टिक नहीं पायेगा. ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चर्चिल का मानना था कि भारत ने अगर गलती से भी प्रजातान्त्रिक व्यवस्था लेन की कोशिश की तो वहां अराजकता फ़ैल जायेगी.

भारतीय प्रजातंत्र ७० साल से चल रहा है. अराजक भी नहीं हुआ. एक बार आपातकाल लगा भी तो जनता ने जिस गुस्से का इज़हार किया उसका सदेश था कि दुबारा कभी कोई सत्ताधारी ऐसा करने की हिम्मत न करे”. मोदी ने भी लोक सभा में इस अवसर पर बोलते हुए इस बात की ओर इंगित किया.
  
लेकिन ऐसा नहीं कि सब कुछ सहज हीं होता रहा. भारत के गणराज्य बनने के बाद हीं संस्थागत तनाव शुरू हो गया. इसका मुजाहरा हमें संविधान को अंगीकार करने के तत्काल आठ महीने में मिलने लगा. संवैधानिक शक्तियों के तहत तत्कालीन नेहरु सरकार ने कई कानून बनाये जिनमें से लगभग ४० प्रतिशत सुप्रीम कोर्ट ने इस आधार पर गलत ठहराए कि राज्य को ऐसी शक्तियाँ संविधान नहीं देता. सबसे पहला मामला दिसम्बर, सन १९५० में उत्तर प्रदेश के जलालाबाद के सब्जी विक्रेता मुहम्मद यासीन ने म्युनिसिपैलिटी के नए एक आदेश के खिलाफ उठाया जो वहां की मंडी में किसी बिशम्भर पाण्डेय को विक्रेताओं से टैक्स बसूलने का एकाधिकार देता था. सुप्रीम कोर्ट ने उस आदेश को ख़ारिज किया.

दरअसल गणतंत्र बनने के पहले देश में सिर्फ तीन हाई कोर्टों – मद्रास, कलकत्ता और बॉम्बे – को हीं रिट जारी करने का अधिकार था और सरकार के खिलाफ किसी भी अभियोग के लिए अदालतों को भी गवर्नरजनरल से अनुमति लेनी होती थी. हमें राज्य की शक्तियों की उस औपनिवेशिक मानसिकता से अचानक बाहर आना था जो मुश्किल था. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के खिलाफ प्रेस स्वतन्त्रता सम्बंधित रोमेश थापर मामले सरकार के कानून को गलत करार दिया. अदालतों ने सरकार द्वारा बनाये लगभग हर तीसरे नए कानून को असंवैधानिक करार दिया. न्यायपालिका के इस रवैये को लेकर नेहरु काफी नाराज हुए और १६ मई, १९५१ को लोक सभा में बोलते हुए  में उन्होंने कहा “हमने एक भव्य और बेमिसाल संविधान अंगीकार किया लेकिन काले कोट में वकीलों ने इसका अपहरण कर लिया, इसे चुरा लिया”. नेहरु सरकार ने तत्काल याने संविधान के प्रभाव में आने के डेढ़ साल में हीं पहला संशोधन पेश किया जिसमें मौलिक अधिकारों में खासकर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर तीन नए निर्बंध (रेस्ट्रिकशंस) लगाये और साथ हीं संपत्ति सम्बन्धी अधिकार को बाधित किया. लेकिन खूबसूरती यह थी कि इन संस्थागत झगड़ों में संस्थाएं बलवती होती गयी और संविधान काम करता रहा.    

यहाँ एक सवाल उठता है. भारत का संविधान दुनिया के संविधानों का निचोड़ है. यह सबसे बड़ा है और लगभग तीन साल की जाने माने कानूनविदों और समाजदृष्टाओं की अथक मेहनत का परिणति है. फिर दिक्कत कहाँ है? अमरीका का संविधान सबसे छोटा लिखित संविधान है. यह सबसे पुराना -२२६ साल --होते हुए भी मात्र २७ बार बदला गया जबकि भारत का संविधान पिछले ६५ साल के अपने अस्तित्व में १०० से ज्यादा बार बदला गया. इन संशोधनों के तहत २३० अनुच्छेदों को बदला गया, ४१ नए जोड़े गए और साथ हीं अनुसूचियों में ३७ संशोधन किया गए. याने जहाँ अमरीका का संविधान औसतन हर साढ़े आठ साल में एक बार बदला जाता है भारत में हम अपने संविधान में लगभग हर छः महीने पर एक संशोधन किया जाता है. अगर अनुच्छेदों में संशोधन के हिसाब से देखा जाये तो हर तीन महीने में कोई न कोई अनुच्छेद या तो बदला जाता है या फिर नया जोड़ा जाता है.

इसका कारण क्या है? भारत का संविधान बनाने के पहले दुनिया के कम से कम आधा दर्ज़न प्रतिष्ठित प्रजातंत्रों के सिद्ध संविधानों को देखा गया और उनके सार को लेते हुए भारतीय स्थितियों के अनुरूप उन्हें ढाला गया जैसे संघीय ढांचा हो लेकिन केंद्र –राज्य सम्बन्ध इस तरह हो कि राज्यों को स्वायत्ता भी रहे और केंद्र का वर्चस्व भी. अमरीका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस और तमाम अन्य मुल्कों की सामाजिक संरचनाएं चूंकि अलग थी इसलिए हमने इसे अर्ध-संघीय बनाया. समता का अधिकार (अनुच्छेद १४) मौलिक अधिकार माना गया तो अल्प-संख्यक समुदाय के व्यक्तियों के सामूहिक अधिकार (कलेक्टिव राइट्स ऑफ़ इन्डिविजुअल्स)  को अनुच्छेद २७ और २८ के तहत और समूहों के अधिकार (राइट ऑफ़ कलेक्टीविटीज)  को अनुच्छेद २६, २९ और ३० के तहत अक्षुण रखा. फिर क्यों हमें संविधान में साल-दर साल या सत्र दर सत्र संशोधन करने पड़ते हैं?            

इसके दो प्रमुख कारण हैं. पहला हमें ऐसी संस्थाओं के प्रति जो हमारे खिलाफ भी हों सहनशीलता हीं नहीं बढानी पड़ेगी बल्कि उनका सम्मान भी करना होगा. अगर देश की संसद सर्वसम्मति से जजों की नियुक्ति का संवैधानिक संशोधन पारित करती है और देश के तमाम राज्य भी अनुमोदन करते है तो सुप्रीम कोर्ट को उस भावना को एक बार सम्मान देना चाहिए. भारत के इतिहास में कुछ अवसर छोड़ दिए जाये तो आमतौर पर सर्वोच्च न्यायलय के आदेशों के खिलाफ कानून लाने की परम्परा भारत के संसद में कम हीं देखने को मिलाती है. प्रधानमंत्री मोदी ने अपने शुक्रवार के भाषण में इस ओर इंगित भी किया और कहा कि भ्रष्टाचार के मामले में दोषी को तत्काल चुनाव के लिए योग्य ठहराने वाले आदेश के खिलाफ संसद कानून बना सकती थी लेकिन ऐसा नहीं किया गया. दूसरा: प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के कारण, बढ़ती शिक्षा, नए टेक्नोलॉजी और मीडिया के बढ़ते प्रभाव के कारण राज्य के प्रति बदलती जन-अपेक्षाओं की वजह से कानून में बदलाव जरूरी होते हैं और कई बार संविधान संशोधन अपरिहार्य हो जाता है. जी एस टी बिल इसका ताज़ा उदहारण है.



lokmat

Sunday 22 November 2015

कानून, लोक-नैतिकता और जनता का “विजडम” – गलत कौन ?



नवम्बर २०, २०१५, प्रजातंत्र के साथ ६५ साल से कानून और लोक नैतिकता के बीच चल रहे द्वन्द का एक नया रूप था. कुछ ने इसे प्रजातंत्र का मज़ाक कहा तो कुछ ने इसका इस्तकबाल किया. कानूनी और लोक-नैतिकता की एक रस्साकशी में इस बार कानून जीता. राष्ट्रीय जनता दल (राजद) सुप्रीमो लालू यादव के अर्ध-शिक्षित दोनों बेटों ने बिहार के मंत्री के रूप में शपथ ली, शाम को उनमें से एक उप-मुख्मंत्री घोषित हुआ. लगभग १८ साल पहले इन बच्चों की अशिक्षित माँ को रसोई घर से सीधे लाकर राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गयी, कानून-लोक नैतिकता का द्वन्द  फिर देखने को मिला था. राबड़ी देवी को सदन में बहुमत हासिल करने में ११२ साल पुरानी राष्ट्रीय पार्टी –कांग्रेस—और एक क्षेत्रीय दल—झारखंड मुक्ति मोर्चा --की मदद मिली थी. कानून असहाय देखता रहा. जो कानून लालू यादव को चारा घोटाले में मुख्यमंत्री पद छोड़ने को मजबूर करता है वह कानून उसी दिन राबड़ी को मुख्यमंत्री बनाने से लालू को नहीं रोक सकता था.          

एक नेता, जो प्रजातंत्र और नीम सामजिक चेतना-जनित पहचान समूह की राजनीति का उत्पाद होता है (जिसे कुछ बुद्दिजीवी “सामाजिक न्याय की ताकतें” और “सबाल्टर्न पॉलिटिक्स” (दबे कुचलों की राजनीति कहते हैं) अपने मुख्यमंत्रित्व काल में शासकीय कार्य के दौरान किये गए भ्रष्टाचार का आरोपी बनता है. केन्द्रीय जांच ब्यूरो जब मामले में प्रारंभिक तौर पर सच्चाई देखते हुए राज्यपाल से इस मुख्यमंत्री के खिलाफ पूछताछ की अनुमति मांगता है और राजनीतिक दबाव बनता है तो वह नेता घर की रसोई से उठाकर अपनी अशिक्षित पत्नी को मुख्यमंत्री बना देता है. शासन चलता रहता है. इस बीच जांच अपनी मंथर गति से आगे बढ़ता है और वह नेता देश की राजनीति में आता है और रेल मंत्री बन जाता है. याने जिस कानून के तहत उसे मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ता है वह कानून इस मामले में लागू नहीं होता जबकि भ्रष्टाचार में देश की जांच के सर्वोच्च संस्था उसे दोषी पाती है.

तीन मूल प्रश्न हैं. क्या कुछ गलत हुआ है, और अगर हुआ है तो गलती कहाँ हुई है और किसने किया है? साथ हीं एक और प्रश्न है यह गलती (अगर है) कानूनी है या लोक नैतिकता के स्तर पर. और अगर इस सब का उत्तर मिल जाये तो यह प्रश्न –क्या कानून और लोक नैतिकता में अन्योन्याश्रितता का सम्बन्ध नहीं है याने क्या दोनों एक दूसरे के पूरक नहीं हैं ? न्याय तो यही कहता है कि जो लोक नैतिकता है उसी के अनुरूप कानून बनता है फिर ६५ साल में यह विभेद क्यों? अगर लालू अदालत की नज़र में भ्रष्ट है और उन्हें कानूनन अगले छः साल तक चुनाव लड़ने याने लोक –जीवन से बाधित किया जाता है तो जनता उन्हें क्यों वोट देती है. क्या जनता के लोक-नैतिकता के पैमाने अलग है? और अगर जनता वोट देती है तो क्या यह माना जाये कि सन्देश यह है कि “भ्रष्टाचारी भी चलेगा किंग-मेकर के रूप में”? क्या यह भी सन्देश जनता का है कि लगभग तीन लाख करोड़ रुपये के बजेट वाले और ११ करोड़ आबादी वाले इस राज्य का नियंता और रहनुमा एक ऐसा लड़का (या लड़के) होगा जो “अपेक्षित” और “उपेक्षित” में अंतर नहीं जनता. आज विकास बेहद जटिल हो गया है. क्या “कुख्यात” आई ए एस अधिकारी उसे हर रोज़ भ्रमित नहीं करेंगे. और अगर यह कहा जाये कि मुख्यमंत्री नीतीश की देखरेख में सब कुछ रहेगा तो इन “रबर स्टैम्प”  की ज़रुरत क्यों है? मुख्यमंत्री के बाद के तीनों पद (वरीयता के अनुसार) क्रमशः लालू के पुत्र तेजश्वी, तेज प्रताप और और लालू की पार्टी के हीं अनुभवी अब्दुल बारी के पास होंगे. याने अगर नीतीश बिहार से बाहर हैं तो कोई तेजश्वी या कोई तेज प्रताप मंत्रिमंडल की बैठक की सदारत करेगा और बारी और राजीव रंजन सिंह (लल्लन सिंह) इन बच्चों के मातहत होंगे.  

इस व्यवस्था में यह साफ़ है नीतीश कुमार लालू यादव के सामने अपने घुटनों के बल रहे. लालू के हीं आदेश पर नीतीश के निकट रहे और सक्षम श्याम रजक को मंत्रिमंडल से आदेश पर बाहर किया गया. अगर घुटनों के बल हीं बैठना था तो भारतीय जनता पार्टी से सम्बन्ध –विच्छेद को नैतिक आधार का जामा क्यों पहनाया? भाजपा तो दस साल साथ रहने पर ऐसा नहीं की थी?

कहने को नीतीश सत्ता के लिए साष्टांग दंडवत में लालू के कदमों में आकर भी  समाजवादी, लालू यादव भ्रष्टाचार के आरोप में अदालत द्वारा जन-जीवन से हटाये जाने के बाद भी समाजवादी, मुलायम अपने बेटे को मुख्यमंत्री पद दिलवाकर और तमाम अपराधियों को उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल में बनाये रखने के बाद और नीतीश –लालू गठबंधन के खिलाफ चुनाव लड़ते हुए भी समाजवादी. क्या लोहिया ने इसी समाजवाद का तसव्वुर किया था.

फिर इन सब से हट कर एक और प्रश्न खड़ा होता है --- इस तरह की लोक-नैतिकता का प्रश्न उठाने वाले हम स्वतंत्र विश्लेषक कहीं अभिजात्यवर्गीय पूर्वाग्रह के शिकार तो नहीं? क्यों नहीं जब तक अंतिम अदालत से “दूध का दूध” नहीं हो जाता हम लालू यादव को युधिष्ठिर मानते और देश पर राज करने देते? जगन्नाथ मिश्र करें तो कोई “ब्रांडिंग” नहीं और लालू करें तो लोक-नैतिकता का सवाल? कांग्रेस या भाजपा जयललिता (भ्रष्टाचार में निचली अदालत से सजा पाने के बाद) का साथ लें तो नैतिकता का सवाल नहीं, लेकिन नीतीश ३६० डिग्री पलटी मारें तो “अनैतिक” और “सत्ता के लिए कुछ भी करने को तत्पर” की संज्ञा? अगर उस समय आय से अधिक संपत्ति मामले में सी बी आई के राडार पर रहे समाजवादी नेता मुलायम सिंह सभी “सेक्युलर” ताकतों को झटका दे कर अविश्वास मत के दिन केंद्र में सत्ताधारी कांग्रेस का साथ दें तो कांग्रेस पर कोई आरोप नहीं क्योंकि २००९ में जनता उसे फिर चुनती है.    

इन सब से भी एक बड़ा अन्य प्रश्न है. अगर जनता लालू के शासन -काल को “जंगल राज” नहीं मानती और लगातार २० प्रतिशत से ऊपर (इस बार ४२ प्रतिशत) वोट देती है तो हम विश्लेषक को क्या अधिकार है गलत बयानी का. आखिर जनता की अदलात हीं तो किसी भी प्रजातंत्र की “भव्य” इमारत की नीव होती है. कांग्रेस के के. कामराज भी अशिक्षित थे पर लोक बुद्दिमता में कई तत्कालीन नेता उनसे सीखते थे. संभव है तेजश्वी और तेज प्रताप को कल शासन चलाना आ जाये और अगर नहीं भी आये तो बिहार के समाज के १५ प्रतिशत यादव का गलत या सहीं सशक्तिकरण तो कर हीं सकते हैं –यही तो लालू की ताकत है और यही नीतीश का डर भी रहेगा. अंत में हम विश्लेषकों की भी एक कमजोरी है (जो राजनीतिज्ञों में भी है) हम जनता के “विजडम” को कभी गलत नहीं कहते और यह कह कर कन्नी काट लेते है कि “वह सब जानती है”. 

lokmat/patrika


Sunday 15 November 2015

समाजशास्त्रियों, चुनाव विश्लेषकों के लिए पहेली है बिहार के परिणाम




भाजपा व संघ के शीर्ष नेतृत्व को यह दूसरा “वेक-अप” काल बहरा कर सकता है


बिहार चुनाव के दौरान एक मध्यम वर्ग के परिवार में चार साल के बच्चे ने जैसे हीं अपने टी वी सेट पर देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का चेहरा देखा, उसकी भौहें तन गयी, मुट्ठी भींच गयी और बोला “भाइयों- बहनों”. मार्केटिंग के सिद्धांत के अनुसार “प्रोडक्ट” का “ओवर-एक्सपोज़र” (ज्यादा प्रचार) नहीं होना चाहिए वर्ना ग्राहकों का मन उससे उचट जाता है. मोदी ओवर-एक्सपोज़र के शिकार हो गए हैं. यही वजह है कि २९ क्षेत्रों में ३० रैलियां करने के बाद भी १६ क्षेत्रों में उनका प्रत्याशी हार गया. अगर घर का बच्चा उस शैली में बोले तो शुरू में वह “जन-स्वीकार्यता का घरेलूकरण” होता है पर अगर डेढ़ साल बाद भी वही नारे बोले तो वह “कंज्यूमर फटीग” (ग्राहक का उबना) होता है. एक राज्य के चुनाव को खुद अपने दम पर लड़ना ओवर एक्सपोज़र हीं नहीं था, आत्म-विश्वास का विद्रूप पक्ष भी था. शायद रणनीतिकार भूल गए कि एक काल विशेष में “ब्लैक” में बिकने वाला प्रोडक्ट भी कंज्यूमर फटीग का शिकार बनता है. फिर इन्हें क्यों लगता है कि इतनी पुरानी पार्टी को टिटिहरी की तरह केवल एक हीं व्यक्ति गिरने से  बचा सकता है और उसे जनाभिमुख कर सकता है (याने अन्य कोई करेगा तो आसमान की तरह पार्टी के गिरने का  डर है).      

बिहार चुनाव के नतीजों सेफोलोजी (चुनाव विज्ञान) के लिए हीं नहीं समाजशास्त्र के लिए भी चुनौती बन गए हैं. लेकिन भारतीय जनता पार्टी शायद इस दूसरे “वेकअप” काल (जगाने वाला अलार्म) को भी नहीं सुन पा रही है. लिहाज़ा पार्टी के गुरूर का यह आलम था कि चैनलों पर बैठने वाले प्रवक्ताओं को हार के दिन आदेश मिला कि कहो कि “यह चुनाव भाजपा या मोदी या एन डी ए के खिलाफ नहीं है बल्कि नीतीश के गठबंधन को “सकारात्मक” जनमत है ताकि वह काम करें”. अगर २४३ सीटों में भाजपा नेतृत्व वाली एन डी ए को ५८ सीटें हीं हासिल हो और जनता इतने घमासान चुनावी युद्ध के मद्दे नज़र विपक्षी महागठबंधन को १७८ सीटें दे (याने लगभग तीन-चौथाई) तो क्या इसे भी जनता का भाजपा दुत्कार देना नहीं कहेंगे? “दुत्कारना इसलिए क्योंकि इस पार्टी को कुत्त्तों से बेहद प्यार है और अक्सर लोगों की तुलना इस जानवर से करती है.

वैचारिक सांद्रता वाले दलों जैसे भाजपा या सी पी आई और सी पी एम् के साथ एक बड़ी समस्या है कि वह सत्ता मिलने के बाद तत्काल अहंकारी हो जाते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके विचार का अनुमोदन जनमत से हो चुका है तो ये मीडिया , या विपक्ष कौन होता है आलोचना करने वाला. लिहाज़ा “वेक-अप काल भी उसे “मैन्युफैक्चर्ड रिवोल्ट” (कृत्रिम विप्लव) लगता है. यही वजह है कि दिल्ली में हारने के बावजूद इनका अहंकार बढ़ता गया. ऐसी पार्टियाँ जब अवसान की स्थिति में आती हैं तो या तो मीडिया को “बिका हुआ” अथवा “दुराग्रही”  बताती है या विपक्ष के लोगों में राष्ट्रद्रोही और समाजविरोधी खोजने लगती हैं. पार्टी अध्यक्ष का प्रेस कांफ्रेंस में या चैनलों को दिए गए इंटरव्यू में जवाब में वह गुरूर साफ़ दिखाई देता था. इस क्रम में भाजपा की हार के कारणों पर जवाव था “उन्होंने जातिवादी राजनीति की जिसका हमें नुकसान हुआ”. ऐसा लगा कि रामबिलास पासवान और जीतन मांझी पिछले कई जन्मों से समाजवादी या राष्ट्रवादी रहे हों और जाति प्रथा के खिलाफ आन्दोलन कर रहे हों. स्वयं प्रधानमंत्री ने जुलाई २५ और अक्टूबर १५ तक मोदी ने १२ रैलियां कीं और कहीं भी अपनी जाति या “अति-पिछड़ा “ शब्द का प्रयोग नहीं किया लेकिन सरसंघचालक के आरक्षण नीति पर पुनार्विचार करने के वक्तव्य के बाद की १८ रैलियों में उन्होंने अपनी जाति, अपनी गरीब परिवार में को भाषण का मुख्य मुद्दा बनाया. क्या यह जातिवादी राजनीति नहीं थी? यह अलग बात है कि सरसंघचालक का यह वक्तव्य चुनाव में भाजपा की हार का एक बड़ा कारण बना और बैकवर्ड एकता मजबूत हुई.   

                            भाजपा के प्रति आक्रोश
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एन डी ए को कुल ३४ प्रतिशत वोट मिले जो पिछले साल (जिसमें जीतन मांझी नहीं थे ) के लोक सभा चुनाव में मिले मत प्रष्ट से ५ प्रतिशत कम हैं. यह भी तब जब कि मतदान का प्रतिशत पिछले लोक सभा चुनाव के मुकाबले अप्रत्याशित रूप से पांच प्रतिशत बढा है. याने लोगों में भाजपा को हराने की हद तक गुस्सा था. लेकिन इसका एक पक्ष और है. जहाँ एन डी ए को पांच प्रतिशत कम मत मिले वहीं महागठबंधन को भी तीन प्रतिशत (पिछले लोक सभा चुनाव के मुकाबले) कम मत मिले. और इन सबका का कारण यह कि मतदाता न तो मोदी के “भाषण के विषय वस्तु” से खुश था न हीं नीतीश-लालू गठजोड़ पर पूरी तरह मुतमईन. बल्कि असाधारण रूप से उभरे इस गुस्से की वजह से मतदातों का २४ प्रतिशत मत “अन्य” के खाते में पडा. ये अन्य न तो जीतते हैं न सरकार बनाते हैं बस वोट बेकार कराते हैं. भाजपा के खिलाफ गुस्से का एक और कारण था –कैंडिडेट का गलत चुनाव. यही कारण था भाजपा सांसद और भारत सरकार के पूर्व गृह-सचिव आर के सिंह के सार्वजनिक रूप से अपनी पार्टी के नेताओं पर आरोप लगाया कि “टिकट बेंचा गया है”. गलत प्रत्याशी देने का नतीजा यह हुआ कि लोगों (हर चार में से एक) ने “अन्य” को वोट दिया.   


                          समाजशास्त्रीय चुनौती : क्या बैकवर्ड एकता उभरी
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अगर भाजपा को दलितों का वोट नहीं मिला और पासवान –माझी की पार्टियों को सवर्णों का तो ई बी सी (अति-पिछड़ा) भी मोदी से प्रभवित नहीं रहा. यह अलग बात है कि समाजशास्त्रियों के लिए यह पहेली रहेगी कि पारस्परिक रूप से द्वंदात्मक भाव रखने वाले यादव और कुर्मी-कोइरी  या यादव और अति-पिछड़ा वर्ग कैसे नीतीश –लालू गठबंधन को पचा पाए और उसे अपना मत दे सके. यादव एक दबंग जाति है जमीन पर कब्जा है लिहाज़ा कमजोरों का शोषण यही जाति सबसे ज्यादा करती है. उसे सत्ता में लाने के लिए शोषित लोग उसे वोट दें यह बात समाजशास्त्रीय सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है. तो क्या यह बैकवर्ड एकता की दस्तक है? क्योंकि न तो लालू में न हीं नीतीश में इस तरह के सर्व-समाहन वाले गुण अभी तक देखने को मिले. लेकिन टिकट बटवारे को लेकर जो परिपक्वता दोनों नेताओं ने दिखाई या पूरे चुनाव प्रचार में नीतीश ने जिस गाम्भीर्य का परिचय दिया वह मोदी के लिए भी एक सीख हो सकती है.                
  


                      बिहार के मिजाज़ की समझ में गलती
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बिहार का भी इतिहास कुछ और होता अगर “बाहरी” मोदी इस राज्य के बारे में हीं नहीं देश के मिजाज़ के बारे में भी कुछ और तथ्य जान गए होते. पहला यह कि आक्रामक हिन्दुत्त्व से यह मीलों दूर रहना चाहता है. यही वजह है कि भारतीय जनता पार्टी (अगर पिछले चुनाव को छोड़ दें )तो सबसे अधिक वोट प्रतिशत १९९९ में रहा है और उसके बाद लगातार गिरता रहा है. और १९९९ में भी   हर छः हिन्दू जिसे मताधिकार प्राप्त था, में से मात्र एक ने इसे वोट किया. शीर्ष-पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी का उदार चेहरा इसे भाता था लेकिन लाल कृष्ण आडवानी का “कट्टरपंथी चेहरा” (जो गलती से आडवानी के व्यक्तित्व से चिपक गया था जबकि वह कभी भी कट्टर नहीं रहे हैं) उसे डराता रहा है. जब जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या कोई अतिवादी हिन्दू संगठन किसी पर कालिख पोतता है या पिच खोदता है या “वो बनाम हम “ का राग अलापता है और उसे अमल में लेन के लिए दंगे करता है तो अधिकाँश हिंदू उससे चिढ कर या तो किसी और दल की ओर हो जाता है या वापस अपने सदियों पुराने जाति की खोह में चला जाता है. इसे समझने के लिए किसी आइंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिए कि अगर ९९९४ में विश्व हिन्दू परिषद् राम मंदिर मुद्दे को परवान चढाता है तो उसी साल कांशी राम बहुजन समाज पार्टी बनाते हैं अगले चार साल बाद कोई मुलायम सिंह यादव, कोई लालू प्रसाद यादव या कोई नीतीश कुमार जातिवादी शक्तियों की पौध खडी करने लगता है. समाजशास्त्र का प्रारंभिक अध्ययन से हीं पता चलता है कि राष्ट्रीय पार्टी बनने की शर्तें बिलकुल अलग है और मूल शर्त है सर्व समाहन की नीतिगत क्षमता और नेता का अतिउदार और व्यापक व्यक्तित्व.

                      मोदी की आक्रामक शैली चिढाती है लालू की गुदगुदाती है
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मोदी की शक्ति लालू के संवाद धरातल पर आ कर खेलने में नहीं थी. “भाइयों-बहनों, एक मेरे इस गाल में पांच चांटा मरता है तो दूसरा उस गाल में ”या “भाइयों-बहनों, साठ हज़ार कि सत्तर हज़ार , कि आस्सी हज़ार , कि एक लाख करोड ? “ कहीं सोच के स्तर पर छोटापन जाहिर करता है. बिहार के लोगों ने इसे प्रधानमंत्री स्वर एक हल्का वक्तव्य माना.  लालू का “काला कबूतर” , धुएं में मिर्चा डाल कर “ एक शैली है जो सशक्तिकरण का स्वाद लिए यादव और पिछड़े वर्ग को गुदगुदाता है.        

बिहार के वोटरों में पिछले लोक सभा चुनाव के मुकाबले इस चुनाव के दौरान जन संवाद के धरातल के नीचे जाने का क्षोभ इस कदर था कि न केवल महागठबंधन का तीन प्रतिशत वोट कम हुआ बल्कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एन डी ए) का पांच प्रतिशत जबकि मतदान का प्रतिशत पांच अंकों से बढा. याने गुस्सा था कि जायेंगे, वोट देंगे लेकिन तुम्हें नहीं. यही कारण है नोटा (इनमें से कोई नहीं) के खाने में भी इस बार दूने से ज्यादा मत पड़े जबकि बिहार में शिक्षा का स्तर राष्ट्रीय औसत से १० प्रतिशत  कम है. यही कारण है कि “अन्य” के खाने में पिछले लोक सभा चुनाव के १७ प्रतिशत के मुकाबले २४ प्रतिशत वोट गए जबकि माना यह जाता था कि बिहार के चुनावी इतिहास में ऐसा “बहु-दलीय द्विध्रुवीय चुनाव शायद पहले नहीं देखा गया था. अगर यह आठ प्रतिशत वोट जो बेकार गए भाजपा को मिलते तो चुनाव की तस्वीर कुछ और हीं होती.

  कहा जाता है कि दुनिया का इतिहास आज कुछ और हीं होता अगर क्लियोपेट्रा की लम्बी नाक जो उसकी बेपनाह खूबसूरती में चार चाँद लगाती थी, थोड़ी छोटी होती या नेपोलियन बोनापार्ट को जून १८, १८१५ (ठीक दो सौ साल पहले) सबेरे दस्त न आने लगते जिसकी वजह से सेना को कूच करने में दोपहर हो गयी और वेलिंगटन के ड्यूक की मदद के लिए प्रूसिया का ब्लूचार भी पहुँच भी वॉटरलू गाँव (ब्रुसेल्स) पहुँच गया. बिहार देश के सबसे कद्दावर नेता और प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी का “वॉटरलू” साबित हो सकता है. मोदी बिहार का हीं नहीं देश का मिजाज़ नहीं समझ पा रहे हैं. बिहार में जबरदस्त शिकस्त दूसरा वार्निंग सिंग्नल है पहला दिल्ली चुनाव में हार के साथ मिला था. लार्ड ऐक्टन ने कहा था “पॉवर करप्ट्स” (सत्ता भ्रष्ट करती है) पर भारत में शायद सत्ता अंधी भी करती है और सहज तथ्य भी नहीं दिखाई देते यह इस चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी , उनकी भारतीय जनता पार्टी, लालबुझक्कड़ अध्यक्ष अमित शाह और मातृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चुनाव के समय की दो महीनों की गतिविधियों से समझा जा सकता है. 

साथ हीं यह देश व्यक्तित्व में किसी भी किस्म का “हल्कापन” अपने नेता में बर्दाश्त नहीं करता. विदेशी मूल की कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को दस साल सर-माथे पर रखा सिर्फ यह जानने के बाद की इस महिला में “प्रधानमंत्री पद” के प्रति भी कोई मोह नहीं है. यह त्याग चाहता है, घंटे-दर-घंटे, जलसा-दर-जलसा डिजाइनर कपडे पहनने वाला नेता नहीं.   

shuklapaksha