Friday 6 May 2016

वो, हम और “डील” --- कुछ अनछुए पहलू


भारत में घोटाले की बाद पहले चरण में “चिट्टी-चिट्ठी और जांच-जांच” खेलते हैं और अगर मामले  की आंच राजनीतिकों तक जाये तो “दूध का दूध और पानी का पानी” के जुमले फेंकते  हैं क्योंकि सभी राजनेता जानते हैं कि “तोता खाली टांय –टांय करता है”

भ्रष्टाचार को लेकर हमारी संस्थाएं संवेदन-शून्य हो चुकी हैं.  तुलसीदास के मूढ़ की तरह हैं जिनपर “जगत-गति” व्याप्त हीं नहीं होती ये संस्थाएं और इनके “बलवान लोग” “पागुर” (जुगाली)  करते रहते हैं. जरा दो राष्ट्रों ---- इटली और भारत-- की संस्थाओं की भ्रष्टाचार को लेकर प्रतिक्रिया देखें समझ में आ जाएगा भारत की सरकारों व  उनकी संस्थाओं का "भैंस-भाव”. चार साल। दो सरकारें। और संसद में इस बात पर पाँच घंन्टे बहस कि पैरामीटर किसने बदले अर्थात दोनो एक दूसरे की क़मीज़ के धब्बे दिखाते रहे।

अगुस्ता हेलीकाप्टर कंपनी की होल्डिंग कंपनी फिनमेकनिका के एक पूर्व वरिष्ठ कर्मचारी लोरेंजो ने एक पत्र भेजा जिसमें भारत द्वारा की गयी १२ हेलीकॉप्टरों की खरीद में “घूस” देने की बात कही. पत्र पाने के एक हफ्ते के अन्दर देश की सैन्य पुलिस – अरमा दी करबेनिएरि – ने जाल बिछा दिया. कंपनी के सी ई ओ ओरसी के इर्द गिर्द. उसके मोबाइल को और ईमेल को सर्विलांस और इंटरसेप्टर पर डाल दिया गया. गुप्त कैमरे लगाये गए और वायर टेप का जाल बिछा दिया गया. एक टीम छाया की तरह ओरसी और कंपनी के एक अन्य अधिकारी के पीछे लग गयी. कई रातों गुप्त छापे  मार कर इसके कार्यालय और घर में मौजूद दस्तावेजों की नक़ल तैयार कर लीं गयी. शिकार पांच महीने में हीं जाल में फंस गया. फ़रवरी १२, २०१३ को अल सुबह उत्तरी मिलान राज्य से ६० किलो मीटर दूर ऐल्प्स की पहाड़ियों की तलहटी में बसे सस्तो कालंडे शहर के मकान से ओरसी को गिरफ्तार कर लिए गया. अगले एक साल में देश की निचली अदालत ने ओरसी और उसके दूसरे अधिकारी को दो साल की सजा सुना दी लेकिन ज्यादा दर पर हेलिकॉप्टर बेचने के आरोप में). अगले दो साल में हीं मिलान के अपील कोर्ट (हाई कोर्ट) ने सजा पलटते हुए स्पष्ट रूप से भ्रष्टाचार के मामले में याने दलालों को और भारतीय लोगों को घूस देने के आरोप में चार और साढ़े चार साल के सजा सुना दी. याने एक चिट्ठी से खबर मिलने और हाई कोर्ट से सजा होने में मात्र चार साल. जब ओरसी को गिरफ्तार किया गया तो उस देश के तीन बार प्रधानमंत्री रहे बर्लुस्कोनी ने नाराजगी जताते हुए एक इंटरव्यू में कहा “ दुनिया में व्यापार करने के लिए घूस देना एक अनिवार्य शर्त है और ओरसी की गिरफ्तारी से इटली की  सरकार “आर्थिक आत्महत्या “ कर रही है. भारत जैसे देशों में बगैर घूस के कुछ होता हीं नहीं है”. ध्यान देना होगा कि इटली में किसी को घूस नहीं मिला, १२ हेलीकॉप्टरों को तीन गुने दाम पर बेंच कर ओरसी और कंपनी ने देश का कोई अहित नहीं किया और कंपनी में सरकार के बड़े शेयर हैं. 

अब जरा तस्वीर का दूसरा पहलू देखिये. ठीक उसी वक्त जब इतालियन मिलिट्री पुलिस को पूर्व कर्मचारी लोरेंजो की चिट्ठी मिली, भारत में भी प्रतिरक्षा मंत्रालय, एन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट और गृहमंत्रालय को भी एक चिट्ठी और कुछ “सीक्रेट” दस्तावेज़ भेजे गए. अमरीका के एक पूर्व हथियार दलाल और वकील एल्मोंड एलन द्वारा भेजे गए गुप्त दस्तावेजों में भारत की मिलिट्री के सात “सीक्रेट” दस्तावेज भी थे. एक दस्तावेज वायु सेना का अगले पांच साल में हथियार खरीद की योजना से सम्बंधित था दूसरा मानव-रहित विमान खरीदने की योजना के बारे में, तीसरा हेलीकाप्टर खरीदने के बारे मे, चौथा “रॉ” द्वारा उपयोग में लाये जाने वाले सुर्विलांस विमान की खरीद के बारे में और पांचवां नेवी के लिए अगली पीढी की सबमरीन खरीदने के बारे में. पत्र में कहा गया था अंतरराष्ट्रीय दलालों को भारत की रक्षा सम्बंधित सीक्रेट दस्तावेज  थोक के भाव उपलब्ध रहते हैं.

भारत के सरकारी संस्थाएं अब “चिट्टी चिठ्ठी” और “जाँच-जाँच” खेलने लगीं. जैसे गिद्ध को किसी घोंसले में मांस का टुकडा दिखाई देता है.  सी बी आई से कहा गया पता लगाये, एन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट से भी हकीकत बताने का इसरार हुआ. एन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट का कहना था सी बी आई ऍफ़ आई आर नहीं दे रही है जबकि सी बी आई रक्षा मंत्रालय द्वारा सभी तथ्य न देना देरी का कारण बताने लगी. अधिकारियों की एक टीम अमरीका पहुँच गयी शिकायतकर्ता एलन से पूछ-ताझ के नाम पर १५ दिन अमरीका में मौज करने। शायद “भारतीय सीक्रेट दस्तावेज का स्रोत” तलाश करने का यही सबसे बेहतरीन तरीक़ा भी है। हालांकि तथ्य यह ही कि भारत सरकार के आधिकारिक “एग्जामिनर” ने अपनी रिपोर्ट में यह घोषित कर दिया था कि दस्तावेज बेहद सीक्रेट हैं. 

बहरहाल सी बी आई ने उस साल येन केन प्रकारेण में मुकदमा दर्ज किया. लेकिन कोई निष्कर्ष नहीं निकला. इस बीच इनकम टैक्स के अधिकारियों से भी जानकारी चाही गयी लेकिन उस विभाग ने कहा “पहले तथ्य तो बताइये”. पहले से गिरफ्तार अभिषेक वर्मा तक जांच को ले जा कर मामला ठन्डे बस्ते में डालने के कोशिश सबने मिल कर की. याने अगुस्ता डील पर कोई रोक नहीं लगाई गयी नहीं किसी अधिकारी के खिलाफ सर्विलांस या छापा मारा गया कम से कम इस बात की चिंता करते हुए कि देश की सेना के गुप्त कागजात और योजनायें विदेशी दलालों तक कैसे पहुँची. टीम घर में जांच करने के बजाये अमेरिका में बैठे “व्हिसलब्लोअर” के घर पहुँचती है जब कि चोर घर में बैठे थे. सी बी आई शायद ऍफ़ आई आर भी न लिखती अगर उसे यह आभास न होता कि ऑगस्टा डील पर भी स्वयं इटली की सरकार ने ग्रहण लगा गया दिया है.

जब १२ फ़रवरी, २०१३ को फिनमेकनिका का सी ई ओ ओरसी इटली की मिलिट्री पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया जाता है तो भारत में खलबली मचती है क्योंकि असली भ्रष्टाचार का दावानल तो इधर हीं आता. तब भारत के रक्षा मंत्री कहते हैं “घोटाला हुआ है” मानो उन्होंने आइंस्टीन की तरह कोई “सापेक्षता का सिद्धांत प्रतिपादित किया हो”. सी बी आई मार्च में केस तो रजिस्टर करती है और उसमें पूर्व वायु सेना प्रमुख त्यागी की नाम भी रहता है पर त्यागी किन किन दलालों से मिले यह बात जब चार साल बाद मिलान अपील कोर्ट का फैसला आ जाता है और देश में आक्रोश की ज्वाला फूट पड़ती है तब सी बी आई पूछती  है. पहले दिन त्यागी इनकार करते हैं दूसरे दिन जब उनकी इटली में दलालों और अधिकारियों मुलाकात संबंधी रजिस्टर में दर्ज नाम दिखाए जाती हैं तो कबूल करते हैं. इस बीच मीडिया के सवालों पर वह उन्हें “इनह्यूमन” (पशुवत) भी कहना नहीं भूलते. बताया जाता है त्यागी कई बार इन दलालों से मिल चुके हैं और वह भी पद पर आने के एक महीने में और डील के दौरान. उनके रिश्तेदार इसी धंधे में बताये जाते हैं. क्या त्यागी पर हाथ डालने के लिए भी इतालियन कोर्ट के फैसले का इन्तेजार करना ज़रूरी था? क्या हमारे वायु सेना चीफ विदेश में किससे मिले इसकी जानकारी दूतावास का काम नहीं है? क्या देश में उन के भतीजे किस धंधे में लगे हैं यह इंटेलिजेंस को नहीं जाननी चाहिए?   

भारत में घोटाले की बाद पहले चरण में “चिट्टी-चिट्ठी और जांच-जांच” खेलते हैं और अगर मामले  की आंच राजनीतिकों तक जाये तो “दूध का दूध और पानी का पानी” के जुमले फेंकते  हैं क्योंकि सभी राजनेता जानते हैं कि “तोता खाली टांय –टांय करता है”. जब मामला किसी “नालायक” इटली सरकार द्वारा इससे आगे बढ़ाया जाता है और हमारे राजनेताओं के पास चुल्लू भर पानी नहीं होता तो हम उस देश की अदालत को अपने देश की अदालत से “लेटर रोगेटरी” भेजवा देते हैं. 

सी ए जी की रिपोर्ट अगस्त, २०१३ में याने इटली में ओरसी की गिरफ्तारी के सात महीने बाद संसद पटल पर रखी गयी जिसमें कहा गया “कॉन्ट्रैक्ट निगोशिएटिंग समिति” ने हेलीकाप्टर का जो निम्नतम (आधार कीमत) रखा है वह जो कीमत निर्माताओं द्वारा ऑफर की गयी है उससे गैर-वाजिब रूप से ज्यादा है. लेकिन भारत में सरकारों और उनकी संस्थाओं को इस तरह की रिपोर्टों से कोई खास फर्क नहीं पड़ता. “ऐसी रिपोर्टें तो ७० साल से आ रही हैं, लेकिन कभी देश में क़यामत हुई क्या” का शाश्वत भाव सत्ताधारी वर्ग में रहता है.

लिहाज़ा तीन महीने बाद बेहद ईमानदार छवि वाले रक्षा मंत्री अन्थोनी ने दिसम्बर, २०१३ को आकाशवाणी की तरह ईश्वरीय वचन कहे जो भ्रष्टाचार से युगों से दबे –कराहते लोगों को अच्छा लगा--- “हेलीकाप्टर समझौते में घपला हुआ है”. प्रश्न था कि हुआ है तो आगे क्या? इस पर रक्षामंत्री ने कहा “ब्रिटिश और इतालावी सरकारों ने ज्यादा जानकारी देने से इस आधार पर मना कर दिया कि मामला अभी अदालत में है”.

अब जरा गौर कीजिये जब इसी इतालवी सरकार ने भारत से जानकारी माँगी तो भारत की सरकार ने मात्र सी ए जी की रिपोर्ट पकड़ा दी. इस बात पर इटली की सरकार जो नाराज मिलान की अपील अदालत ने भी इस बात का जिक्र किया कि भारत से कोई सहयोग नहीं मिला. 

इन सब के बावजूद आज देश की पार्लियामेंट में बहस इस बात पर है कि “मैंने तो नहीं तह तक जाँच नहीं किया दम हो तो तुम करके दिखादो”. और शायद यह सरकार भी सफल न हो क्योंकि

गैर मुमकिन है कि हालात की गुत्थी सुलझे, 
अहले दानिश ने बहुत सोच के उलझाया है .
jagran/naiduniya

Monday 2 May 2016

कराहती न्यायपालिका - समाधान क्या है?


न्यायपालिका कराह रही है. देश के मुख्य न्यायाधीश सार्वजनिकरूप से रो पड़ते हैं. जजों की कमी है लिहाज़ा जनता को दशकों तक न्याय नहीं मिल पा रहा है. देर से हीं सही अगर न्याय मिलता भी है तो जरूरी नहीं की सही हो क्योंकि अमरीका में एक जज चार दिन में एक केस निपटाता है जबकि भारत में रोजाना आठ केस. या यूं कहें कि हर ४५ मिनट एक जज केस पढ़ भी लेता है पक्ष-विपक्ष की दलीलों को को सुन भी लेता है और फैसला लिख भी देता है. अगर न्यायपालिका में छुट्टियों का आंकलन शामिल कर दिया जाये तो शायद हर केस को निपटने का समय घट कर मात्र २५ मिनट हीं रहेगा. इनमें वे केस भी शामिल हैं जिनमें अभियुक्त को फांसी भी हो सकती है या जेल की सजा भी. वे केस भी शामिल हैं जिनमें गरीब बुढिया की एक मात्र दुकान  कोई मक्कार भतीजा हड़प जाना चाहता है और बुढ़िया सड़क पर भीख माँगने को मजबूर हो जाती है या जहर पी कर मौत को गले लगा लेती है. इस रफ़्तार से केस निपटाने में शायद आइंस्टीन का दिमाग भी फेल हो जाये.

लेकिन ठहरिये ! हमें अपने को कोसने की आदत हो गयी है. हर बात पर हम अमरीका और चीन से तुलना करते हैं और फिर “भारत कभी सोने की चिड़िया थी, अँगरेज़ सोना लूट ले गए और पिछले ७० सालों में बचा पीतल भ्रष्ट राजनीतिक वर्ग और सड़े सिस्टम की भेंट चढ़ गया” के भाव में बताते हैं कि कैसे चीन शिक्षा में बजट की इतना प्रतिशत , स्वास्थ्य में उतना और हथियार खरीदने में उससे भी ज्यादा खर्च करता है. हम भूल जाते हैं कि भारत का आबादी घनत्व ३६८ प्रति किलोमीटर स्क्वायर है जबकि चीन का १४२, इंग्लैंड का २१६, ब्राज़ील का २४, रूस का ८.३ अमरीका का ३२ है. मूल रूप से कृषि –आधारित अर्थ व्यवस्था में जब संसाधनों पर इतना दबाव पडेगा तो विकास की रफ़्तार धीमी तो रहेगी हीं और उस पर से कोढ़ में खाज के रूप में भ्रष्टाचार.

फिर हम कहाँ से शुरू करें? हमारी प्राथमिकता क्या है? घुरहू , पतवारू या छेदी को पहले पेट में अनाज चाहिए, अनाज के लिए खेत को पानी चाहिए, दलित के बीमार पत्नी और बच्चे के लिए अस्पताल चाहिए  शिक्षा चाहिए. घर में शौचालय चाहिए. बीमार रहेंगे तो बचेंगे नहीं (बाल मृत्यु दर ३.७ प्रतिशत है) , बच गए तो पढ़ –लिख नहीं पाएंगे (गरीबों और दलितों महिलाओं में साक्षरता आज भी कई राज्यों में ३५ प्रतिशत से कम है). और इस तरह के तमाम अभाव में जीने वाले लोगों की संख्या ७५ प्रतिशत है. ऐसे में तात्कालिकता के पैमाने पर उन्हें न्याय की ज़रुरत शायद उतनी नहीं जितनी जीवन की अनिवार्य शर्तों की.

अब न्याय न मिलने का या देर से मिलने का या न्याय की गुणवत्ता खराब होने का एक खतरनाक पहलू देखें. बिहार का आबादी घनत्व देश के मुकाबले तीन गुना ज्यादा है याने १०५६ व्यक्ति प्रति किलोमीटर स्क्वायर या अमेरिका के आबादी घनत्व से ३० गुना ज्यादा. इस राज्य में जमीन पर इतना दबाव है कि ७० प्रतिशत हत्याएं परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से जमीन को लेकर हो रही हैं. अंग्रेज़ी की कहावत “डॉग इट्स डॉग वर्ल्ड” (ऐसी दुनिया  जिसमें कुत्ता कुत्ते को खाता हो) बिहार में चरितार्थ हो रही ही. लिहाज़ा सिर्फ न्याय व्यवस्था दुरुस्त करने से शायद हीं स्थिति बेहतर हो सके. समाज में अभाव, अशिक्षा, रोजगार के अल्प अवसर की वजह से व्याप्त लम्पटता और राज्य अभिकरणों के भ्रष्ट लोगों और गुंडों-राजनीतिक वर्ग के बीच पनपा समझौता अभियोजन को प्रभावित करता है और न्याय प्रक्रिया को भी निष्पक्ष नहीं रहने देता. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक सजा की दर में बिहार देश के सभी राज्यों से पीछे है. सन २०१४ में अगर १०० लोगों पर आपराधिक मुकदमें थे तो केवल १० को सजा हो पाई जब कि सन २०१३ में १५.६ को हुई थी. राष्ट्रीय औसत ४५ प्रतिशत है।

इन सब का नतीजा यह है कि इन राज्यों में न केवल न्याय-व्यवस्था से बल्कि पूरे तंत्र से जनता का विश्वास उठ जाता है और हार कर वह थाने या ब्लाक में जा कर अपनी समस्या बताने की जगह मोहल्ले के उस गुंडे को तलाशने लगता है जो हाल हीं में खद्दर पहनने लगा है. ऐसे राजनीतिक रॉबिनहुड किसी न किसी जाति के होते हैं और वे अपनी जाति के लोगों के लिए “संकटमोचन का रूप” धारण कर लेते हैं. बिहार के हाल के चुनावों में जाति का संयोजन और जद (यू) –राजद की विजय का सहीं विश्लेषण इस बात को दर्शाता है. यह रॉबिनहुड शीर्ष पर बैठे नेताओं के लिए भीड़ जुटा सकता है और अवसर हो तो बाँहों की ताकत भी दिखा सकता है. अपराध के लिए जाने जाने वाले और वर्षों से जेल में बंद शहाबुद्दीन को राजद का पदाधिकारी बनाना यह सिद्ध करता है कि प्रजातंत्र की मूल अवधारणा कहीं दम तोड़ चुकी है.

देश में पुलिस –आबादी अनुपात वैश्विक औसत से आधी है, उत्तर प्रदेश में चौथाई और बिहार में उससे भी कम. तो क्या ज़रूरी नहीं कि पुलिस की  संख्या बढ़ाई जाये? क्या जिन राज्यों में पुलिस की संख्या औसत से ज्यादा है वहां अपराध कम हुए हैं? क्या सजा की दर बढ़ी है ? नहीं? ऐसे तमाम उदहारण हैं जिनमें अपराधी को सेशंस कोर्ट से सजा हुई। अपराधी ने हाई कोर्ट में अपील की। हाई कोर्ट ने सेशंस कोर्ट को डांट लगते हुए सज़ा को “ससम्मान रिहाई” में बदल दिया लेकिन फिर जब राज्य सर्वोच्च न्यायलय पहुंचा तो देश की सबसे बड़ी अदालत ने हाई कोर्ट को गलत ठहराते हुए और सेशंस के फैसले की प्रशंसा करते हुए अपराधी की सजा फिर बहाल कर दी. अगर राज्य सरकार ऊपर की अदालत में न जाती तो अभियुक्त सीना तान कर घूमता. या अभियुक्त खेत बेंच कर या कोई और अपराध करके पैसे खर्च करके अच्छा वकील खड़ा न करता तो कई साल पहले हीं जेल की सलाखों के पीछे होता. क्या न्याय प्रणाली दोषपूर्ण नहीं है?

दरअसल भारत के मुख्य न्यायाधीश का सार्वजनिक मंच से भावातिरेक में आना गंभीर है लेकिन समस्या का निदान मात्र जजों की संख्या बढ़ाने  से नहीं होगा. व्याधि कहीं और है और वह एक नहीं कई हैं और हर व्याधि दूसरी व्याधि को जन्म दे रही है. 
 
lokmat/jagran