दो सप्ताह पहले विश्व की एक सम्मानित मैगज़ीन
“एटॉमिक साइंटिस्ट” मैगज़ीन की बुलेटिन में एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए लिखा है
कि सन २०२० तक पाकिस्तान में परमाणु बमों की कुल संख्या ब्रिटेन के परमाणु बमों से
ज्यादा हो जाएगी. इस समय भी जहाँ भारत के पास १०० से कम बम है वहीँ पाकिस्तान के
पास करीब १०५ बम का अनुमान है. पाकिस्तान लगातार अपनी प्लूटोनियम उत्पादन क्षमता
बढ़ा रहा है और चीन द्वारा खुशाब (पंजाब) में लगाये गए परमाणु रिएक्टर से संतोष
नहीं हुआ तो अब दो नए रिएक्टर बनवा रहा है. इन रिएक्टर के ज़रिये छोटे और हलके
परमाणु बम बनाने की पाकिस्तान की मुराद मुशर्रफ के ज़माने से चली आ रही है. चूँकि
इस देश के पास भारी बमों के लक्ष्य तक ले जाने के लिए ज़रूरी यानों की कमी है
लिहाज़ा वह मिसाइल के ज़रिये इन बमों को लक्ष्य पर भेजने के लिए योजना पर काम कर रहा
है.
अब
तस्वीर का एक दूसरा पहलू देखें. सन २००१ से २०१० तक केवल अमरीका से मदद के रूप
(सैनिक एवं गैर-सैनिक) में करीबी $२१ बिलियन
या करीब दो लाख करोड़ रू (वर्तमान
पाकिस्तानी करेंसी के दर पर) इस्लामाबाद को दिया गया. सी आई ए के अनुमान के अनुसार
इसका लगभग ८० प्रतिशत मिलिट्री हड़प लेती है भारत का हौवा दिखा कर. पाकिस्तान के
हीं रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि इन पैसों का ना तो इस्लामाबाद की सरकार के
पास कोई सही हिसाब किताब है नहीं सेना इस पर कोई जवाब देती है. पाकिस्तानी सेना के
अधिकारियों के शाही घरों और फार्म हाउसों को देख कर यह लगता हीं नहीं है कि यह
किसी वेतन-भोगी अफसर का जीवन-स्तर हो सकता है.
इन स्थितियों के ठीक उलट कुछ अन्य तथ्य देखें.
जहाँ एक और पाकिस्तान के बजट का एक-तिहाई रक्षा के नाम पर जाता है (भारत में मात्र
सातवाँ हिस्सा) या जहाँ रक्षा के नाम पर छः लाख सेना रखी गयी है (हम सब जानते है
आतंरिक व बाहरी सुरक्षा की स्थिति क्या है). साथ भीं आज़ादी के ६५ साल बाद भी
पाकिस्तान में साक्षरता महज ५२ से बढ़कर ५७ फ़ीसदी हीं हो पायी है. एक-तिहाई
पाकिस्तानी स्वच्छ पानी से महरूम है और आधे से ज्यादा लोग यह मान चुके है कि अब इस
देश में उन्हें रोज़ी नहीं मिलेगी. लगभग ६० फ़ीसदी आबादी २० साल से कम आयु के युवाओं
की है जो बेरोजी जीवन यापन की जगह कुछ भी करने को मजबूर है. फिदायीन पैदा करने
वाली आतंक की खेती के लिए इससे अच्छी पौध दुनिया में शायद हीं और कहीं मिले.
अज्ञानता, गरीबी और निष्क्रिय राज्य व बाँझ कानून उन सारी स्थितियां को पैदा करने में सक्षम है
जिससे आतंकवादी संगठन मज़हब के नाम पर बारूद के बेल्ट बांध कर इन युवकों को कहीं भी
भेज सकें. जहाँ एक ओर अफ़ग़ानिस्तान से सटे फाटा
क्षेत्र में काबिज़
तहरीक-ए-तालिबान-ए-पाकिस्तान (टी टी पी ) ने इलाके में हथियार खासकर
फिदायीन के बारूदी बेल्ट का कुटीर उद्योग लगा रखा है वहीँ इन गुमराह युवकों को
फिदायीन बना कर कश्मीर से लेकर कंधार तक बेचा जा रहा है.
यही वजह है कि सेना हमेशा चाहती है कि भारत का
हौवा दिखाकर जहाँ एक ओर आतंकियों से साठ-गांठ रखते
हुए संसद या नागरिक शासन को इतना पंगु कर दिया जाये कि वह पलट कर यह ना पूछे कि
सेना के मद में इतना खर्च क्यों और यह खर्च कैसे और किससे पूछ कर किया गया वहीँ
जनता में सोचने वाले वर्ग को आतंकियों का खौफ बनाये रखा जाये.
पाकिस्तान जाने का कई बार मौका मिला है. सत्ता
में बैठे लोगों, वकीलों, नेताओं, फौजियों, बुद्धिजीवियों के अलावा आम लोगों से
मुलाकात रही है. इस्लामाबाद में हुए सार्क –शिखर सम्मलेन को कवर करने के दौरान
फुर्सत के क्षणों में पाकिस्तान की सामान्य जनता से मिलने का अवसर मिला. टैक्सी
ड्राइवर, छोटे ढाबों व पान के दूकान के मालिकों, गृहणियों, खरीद करने आई लड़कियों
और दो मकानों के बीच के खाली प्लाट पर क्रिकेट खेल रहे किशोरों से अनौपचारिक
बातचीत भी हुई.
जहाँ पढ़े-लिखे लोगों में हिंदुस्तान को लेकर
खासकर कश्मीर में “जो कुछ भी भारतीय सेनाएं कर रहीं हैं” (पाक प्रोपगंडा तंत्र
द्वारा किया गया प्रचार) के मद्दे –नज़र, एक
जबरदस्त नाराज़गी थी वहीँ यह सुनते हीं कि मैं हिंदुस्तान से आया हूँ ड्राइवर ने
पैसे लेने से मना कर दिया “बस जनाब, पैसे तो आते –जाते रहते हैं , अल्लाह-ताला से
दुआ कीजिये कि आमद-रफ्त बहाल हो और अमन से हम सब एक-दूसरे के यहाँ आ-जा सकें”.
ढाबा मालिक पैसे देने पर नाराज़गी से बोला “पाकिस्तान के लोगों को इतना तंग-दिल ना
समझें. आप मेहमान हैं और वह भी उस मुल्क से आये हैं जहाँ मेरी ननिहाल रही है. मेरे
वालिद उस मुल्क की बातें बताकर रोते-रोते चले गए. माहौल अच्छा हो तो वहां जाने की
मुराद पूरी करना चाहता हूँ”.
डर लगता है कि ख़ुलूस की जिस शिद्दत से आम
पाकिस्तानी नागरिक मिलता है वह शायद उसे भारत आने पर आम नागरिक न दे. दिल्ली का
टैक्सी ड्राइवर या ऑटो चालक पाकिस्तानी समझ कर ज्यादा पैसे ना वसूल कर ले.
भौगोलिक पैमाने पर शायद पाकिस्तान समूचे एशिया
में सबसे महत्वपूर्ण स्थिति में है. यह समूचे दक्षिण, मध्य एवं पश्चिम एशिया के
लिए एक गेटवे का काम कर सकता था और आर्थिक रूप से इसका लाभ उठा कर प्रमुख पोर्ट और
सड़क-ट्रांजिट मार्ग बन सकता था. लेकिन आतंकवादियों-सेना के दुर्गठबंधन ने यह नहीं
होने दिया.
सेना ने जानबूझकर देश के सुरक्षा परिदृश्य को
भारत-केन्द्रित बनाया जबकि असली खतरा सेना-आतंकी गठबंधन का था. जबभी किसी नागरिक
सरकार ने इसे चुनौती देनी चाहि पाकिस्तानी सेना ने भारतीय सीमा पर हमला करके,
फिदायीन हमले करा कर या धार्मिक कट्टरवाद को उभर कर ना केवल अपना अस्तित्व मजबूत
किया बल्कि तख्ता पलट दिया. यही वजह है कि ६५ साल की आज़ादी में लगभग आधा समय सैनिक
शासन में रहा. भारत के मुकाबले एक –चौथाई भू-भाग, लेकिन भारत के मुकाबले एक-छठीं
आबादी और फिर भी मात्र एक-आठवां जी डी पी और सबसे उपर साल २०१० में ८७ फिदायीन
हमलों में देश के ३००० निर्दोष नागरिकों का मरना केवल यही सिद्ध करता है कि
पाकिस्तान एक असफल राष्ट्र हो कर रह गया है.
ऐसे राष्ट्र से , जिसमे मिलिट्री, नागरिक शासन,
आतंकी और कठमुल्ला-प्रेरित एक बड़ा अतार्किक समाज एक दूसरे के खिलाफ या दो मिलकर
बाकी के खिलाफ या सब मिलकर पूरे समाज के खिलाफ काम कर रहे हों, ना तो लड़ कर जीता
जा सकता है नहीं समझा कर. बल्कि इन दोनों के बीच का रास्ता याने वहीँ तक आँखे
दिखाना जहाँ तक डर व्याप्त हो सके और उसके बाद तार्किक , बुद्धिजीवी वर्ग या
संस्थाओं को सही भविष्य दिखाना हीं समस्या का समाधान है. याने युद्ध का भय और
सार्थक दौत्य –सम्बन्ध एवं पारस्परिक सामाजिक-सांस्कृतिक सम्बन्ध बनाये रखना होगा.
छोड़ने पर यह पडोसी देश मुल्लाओं के हाथ में चला जाएगा और इसके परमाणु हथियार एक
ऐसे ताक़त के पास जो पूरे विश्व के लिए खतरा बन गया है.
rashtriya sahara hastakshep