Saturday 9 February 2013

अगर पडोसी एक असफल, बेलगाम राज्य हो तो क्या करें?



दो सप्ताह पहले विश्व की एक सम्मानित मैगज़ीन “एटॉमिक साइंटिस्ट” मैगज़ीन की बुलेटिन में एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए लिखा है कि सन २०२० तक पाकिस्तान में परमाणु बमों की कुल संख्या ब्रिटेन के परमाणु बमों से ज्यादा हो जाएगी. इस समय भी जहाँ भारत के पास १०० से कम बम है वहीँ पाकिस्तान के पास करीब १०५ बम का अनुमान है. पाकिस्तान लगातार अपनी प्लूटोनियम उत्पादन क्षमता बढ़ा रहा है और चीन द्वारा खुशाब (पंजाब) में लगाये गए परमाणु रिएक्टर से संतोष नहीं हुआ तो अब दो नए रिएक्टर बनवा रहा है. इन रिएक्टर के ज़रिये छोटे और हलके परमाणु बम बनाने की पाकिस्तान की मुराद मुशर्रफ के ज़माने से चली आ रही है. चूँकि इस देश के पास भारी बमों के लक्ष्य तक ले जाने के लिए ज़रूरी यानों की कमी है लिहाज़ा वह मिसाइल के ज़रिये इन बमों को लक्ष्य पर भेजने के लिए योजना पर काम कर रहा है.
 अब तस्वीर का एक दूसरा पहलू देखें. सन २००१ से २०१० तक केवल अमरीका से मदद के रूप (सैनिक  एवं गैर-सैनिक) में करीबी $२१ बिलियन या करीब दो लाख करोड़ रू  (वर्तमान पाकिस्तानी करेंसी के दर पर) इस्लामाबाद को दिया गया. सी आई ए के अनुमान के अनुसार इसका लगभग ८० प्रतिशत मिलिट्री हड़प लेती है भारत का हौवा दिखा कर. पाकिस्तान के हीं रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि इन पैसों का ना तो इस्लामाबाद की सरकार के पास कोई सही हिसाब किताब है नहीं सेना इस पर कोई जवाब देती है. पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों के शाही घरों और फार्म हाउसों को देख कर यह लगता हीं नहीं है कि यह किसी वेतन-भोगी अफसर का जीवन-स्तर हो सकता है.
इन स्थितियों के ठीक उलट कुछ अन्य तथ्य देखें. जहाँ एक और पाकिस्तान के बजट का एक-तिहाई रक्षा के नाम पर जाता है (भारत में मात्र सातवाँ हिस्सा) या जहाँ रक्षा के नाम पर छः लाख सेना रखी गयी है (हम सब जानते है आतंरिक व बाहरी सुरक्षा की स्थिति क्या है). साथ भीं आज़ादी के ६५ साल बाद भी पाकिस्तान में साक्षरता महज ५२ से बढ़कर ५७ फ़ीसदी हीं हो पायी है. एक-तिहाई पाकिस्तानी स्वच्छ पानी से महरूम है और आधे से ज्यादा लोग यह मान चुके है कि अब इस देश में उन्हें रोज़ी नहीं मिलेगी. लगभग ६० फ़ीसदी आबादी २० साल से कम आयु के युवाओं की है जो बेरोजी जीवन यापन की जगह कुछ भी करने को मजबूर है. फिदायीन पैदा करने वाली आतंक की खेती के लिए इससे अच्छी पौध दुनिया में शायद हीं और कहीं मिले. अज्ञानता, गरीबी और निष्क्रिय राज्य व बाँझ कानून उन  सारी स्थितियां को पैदा करने में सक्षम है जिससे आतंकवादी संगठन मज़हब के नाम पर बारूद के बेल्ट बांध कर इन युवकों को कहीं भी भेज सकें. जहाँ एक  ओर अफ़ग़ानिस्तान से सटे फाटा क्षेत्र में काबिज़  तहरीक-ए-तालिबान-ए-पाकिस्तान (टी टी पी ) ने इलाके में हथियार खासकर फिदायीन के बारूदी बेल्ट का कुटीर उद्योग लगा रखा है वहीँ इन गुमराह युवकों को फिदायीन बना कर कश्मीर से लेकर कंधार तक बेचा जा रहा है. 
यही वजह है कि सेना हमेशा चाहती है कि भारत का हौवा दिखाकर  जहाँ एक ओर आतंकियों से साठ-गांठ रखते हुए संसद या नागरिक शासन को इतना पंगु कर दिया जाये कि वह पलट कर यह ना पूछे कि सेना के मद में इतना खर्च क्यों और यह खर्च कैसे और किससे पूछ कर किया गया वहीँ जनता में सोचने वाले वर्ग को आतंकियों का खौफ बनाये रखा जाये.         
पाकिस्तान जाने का कई बार मौका मिला है. सत्ता में बैठे लोगों, वकीलों, नेताओं, फौजियों, बुद्धिजीवियों के अलावा आम लोगों से मुलाकात रही है. इस्लामाबाद में हुए सार्क –शिखर सम्मलेन को कवर करने के दौरान फुर्सत के क्षणों में पाकिस्तान की सामान्य जनता से मिलने का अवसर मिला. टैक्सी ड्राइवर, छोटे ढाबों व पान के दूकान के मालिकों, गृहणियों, खरीद करने आई लड़कियों और दो मकानों के बीच के खाली प्लाट पर क्रिकेट खेल रहे किशोरों से अनौपचारिक बातचीत भी हुई.
जहाँ पढ़े-लिखे लोगों में हिंदुस्तान को लेकर खासकर कश्मीर में “जो कुछ भी भारतीय सेनाएं कर रहीं हैं” (पाक प्रोपगंडा तंत्र द्वारा किया गया प्रचार) के मद्दे –नज़र,  एक जबरदस्त नाराज़गी थी वहीँ यह सुनते हीं कि मैं हिंदुस्तान से आया हूँ ड्राइवर ने पैसे लेने से मना कर दिया “बस जनाब, पैसे तो आते –जाते रहते हैं , अल्लाह-ताला से दुआ कीजिये कि आमद-रफ्त बहाल हो और अमन से हम सब एक-दूसरे के यहाँ आ-जा सकें”. ढाबा मालिक पैसे देने पर नाराज़गी से बोला “पाकिस्तान के लोगों को इतना तंग-दिल ना समझें. आप मेहमान हैं और वह भी उस मुल्क से आये हैं जहाँ मेरी ननिहाल रही है. मेरे वालिद उस मुल्क की बातें बताकर रोते-रोते चले गए. माहौल अच्छा हो तो वहां जाने की मुराद पूरी करना चाहता हूँ”.      
डर लगता है कि ख़ुलूस की जिस शिद्दत से आम पाकिस्तानी नागरिक मिलता है वह शायद उसे भारत आने पर आम नागरिक न दे. दिल्ली का टैक्सी ड्राइवर या ऑटो चालक पाकिस्तानी समझ कर ज्यादा पैसे ना वसूल कर ले.
भौगोलिक पैमाने पर शायद पाकिस्तान समूचे एशिया में सबसे महत्वपूर्ण स्थिति में है. यह समूचे दक्षिण, मध्य एवं पश्चिम एशिया के लिए एक गेटवे का काम कर सकता था और आर्थिक रूप से इसका लाभ उठा कर प्रमुख पोर्ट और सड़क-ट्रांजिट मार्ग बन सकता था. लेकिन आतंकवादियों-सेना के दुर्गठबंधन ने यह नहीं होने दिया.
सेना ने जानबूझकर देश के सुरक्षा परिदृश्य को भारत-केन्द्रित बनाया जबकि असली खतरा सेना-आतंकी गठबंधन का था. जबभी किसी नागरिक सरकार ने इसे चुनौती देनी चाहि पाकिस्तानी सेना ने भारतीय सीमा पर हमला करके, फिदायीन हमले करा कर या धार्मिक कट्टरवाद को उभर कर ना केवल अपना अस्तित्व मजबूत किया बल्कि तख्ता पलट दिया. यही वजह है कि ६५ साल की आज़ादी में लगभग आधा समय सैनिक शासन में रहा. भारत के मुकाबले एक –चौथाई भू-भाग, लेकिन भारत के मुकाबले एक-छठीं आबादी और फिर भी मात्र एक-आठवां जी डी पी और सबसे उपर साल २०१० में ८७ फिदायीन हमलों में देश के ३००० निर्दोष नागरिकों का मरना केवल यही सिद्ध करता है कि पाकिस्तान एक असफल राष्ट्र हो कर रह गया है.     
ऐसे राष्ट्र से , जिसमे मिलिट्री, नागरिक शासन, आतंकी और कठमुल्ला-प्रेरित एक बड़ा अतार्किक समाज एक दूसरे के खिलाफ या दो मिलकर बाकी के खिलाफ या सब मिलकर पूरे समाज के खिलाफ काम कर रहे हों, ना तो लड़ कर जीता जा सकता है नहीं समझा कर. बल्कि इन दोनों के बीच का रास्ता याने वहीँ तक आँखे दिखाना जहाँ तक डर व्याप्त हो सके और उसके बाद तार्किक , बुद्धिजीवी वर्ग या संस्थाओं को सही भविष्य दिखाना हीं समस्या का समाधान है. याने युद्ध का भय और सार्थक दौत्य –सम्बन्ध एवं पारस्परिक सामाजिक-सांस्कृतिक सम्बन्ध बनाये रखना होगा. छोड़ने पर यह पडोसी देश मुल्लाओं के हाथ में चला जाएगा और इसके परमाणु हथियार एक ऐसे ताक़त के पास जो पूरे विश्व के लिए खतरा बन गया है.

rashtriya sahara hastakshep 

संघ के आदेश पर भाजपा का कट्टर हिन्दुवाद की और फिर मुड़ना “सेल्फ गोल” होगा !




सिंघल, तोगड़िया का समर्थन मिला तो मोदी की विकास पुरुष की छवि खतरे में होगी
भारतीय जनता पार्टी को नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने की एक शर्त है. अगर कट्टर हिंदूवादी शक्तियां मसलन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद् या बजरंग दल कहीं मोदी के आसा-पास फटकती नज़र आयीं तो मोदी की दस वर्षों में तराशी विकास के मसीहा की छवि एक रात में ढहसे हट जाएगी और उसकी जगह २००१ के गुजरात की छवि ले लेगी. मुश्किल यह है कि पार्टी इस समय पूरी तरह संघ की गिरफ्त में है और यह बात कहने की हैसियत या हिम्मत हाशिये पर डाल दिए गए लाल कृष्ण आडवानी को छोड़ कर पार्टी के अन्य किसी नेता में नहीं है.
“ये लोग (भा ज पा) आज हमारी मेहनत पर आज सत्ता सुख भोग रहे हैं , इन्हें शर्म आनी चाहिए” . ये ताज़ा उदगार हैं विश्व हिन्दू परिषद् के मुखिया अशोक सिंघल के. “यह धर्म संसद (राजनीतिक दिशा ) बदलने में  निर्णायक सिद्ध होगा” कहना है परिषद् के दूसरे सबसे बड़े नेता और फायरब्रांड हिन्दू नेता प्रवीण तोगड़िया के. साफ़ दिखाई दे रहा है कि भा ज पा चाहे या ना चाहे , हिन्दुत्त्व की गैर –राजनीतिक ताकतों के चंगुल से निकलना मुश्किल होगा.     
प्रश्न है कि क्या गुजरात के मुख्या मंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी पुरानी छवि पर वापस जाने को तैयार होंगे और तब क्या जनता उनके विकास वाले चहेरे से मुतास्सिर हो सकेगी. ९०वेन दशक से आज तक गंगा में काफी पानी बह चुका है. भारतीय समाज काफी बदल गया है रोटी का संगर्ष कर रहा भारत और रोटी जीत चुका “इंडिया” दोनों को हीं मंदिर में कोई दिलचस्पी नहीं रही. भावनात्मक मुद्दों को भुनाने का फेज ख़त्म हो चुका है. संघर्षरत भारत और प्रगतिशील (?) इंडिया अब भ्रष्टाचार और बलात्कार पर उद्वेलित होता है मंदिर पर नहीं. देश में २००९ के आम चुनाव में ५५ करोड़ से ज्यादा हिन्दू वोटर था लेकिन भा ज पा को वोट मिले आठ करोड़ से भी कम वोट यानी हर सात हिन्दुओं में से छह ने इस पार्टी को ख़ारिज किया है. मंदिर –मस्जिद विवाद के चरम काल में सन १९९१ का चुनाव हो या १९९६ का इस पार्टी का  वोट प्रतिशत लगभग एक हीं रहा और सन १९९८ और सन १९९९ के चुनावों में जो चार प्रतिशत बड़ा वह बाद के दोनों चुनावों में बुरी तरह नीचे आ गया.    
देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी ---भारतीय जनता पार्टी -- का वापस मंदिर और कट्टर हिन्दूत्व ऐसे मुद्दों पर जाना ना केवल इस पार्टी में शीर्ष पर बैठे लोगों की संकुचित सोच को दर्शाता है बल्कि यह भी बताता है कि क्रियाशील प्रजातंत्र (फंक्शनल डेमोक्रेसी) में भी ज़रूरी नहीं है कि समय के साथ राजनीतिक पार्टियों में परिपक्वता आये जिससे इस शासन –पध्यती की क्वालिटी बेहतर हो. इस फैसले से यह भी स्पष्ट होता है कि मज़बूत  वैचारिक-आधार पर खड़े राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सरीखे अनुशासित संगठनों की भी एक सीमा है जो उनके सोच में बदलाव को रोकती है और तब जो स्पष्ट है वह भी दिखाई नहीं देता.
जिस देश की १२३ करोड़ की कुल आबादी में १०० करोड़ से ज्यादा हिन्दू हो और महज १५ करोड़ मुसलमान उस देश में अगर हिंदुत्व पर आधारित और मंदिर-मस्जिद विवाद से उपजी राजनीतिक पार्टी आठ करोड़ से भी कम वोट पाए और जिसको पिछले १४ सालों में हर तीसरे मतदाता ने छोड़ दिया हो उसे क्या फिर वापस मंदिर-मस्जिद या कट्टर हिंदुत्व पर जाना चाहिए? क्या इन आंकड़ों से स्पष्ट नहीं है कि तासीरन हिन्दू उदारवादी होता है और एक सीमा से अधिक कट्टरतावाद से उसे गुरेज है? उसी तरह जिस तरह कट्टर अल्पसंख्यकवाद से देश के मुसलामानों को भी ऐतराज होने लगा है. लिहाज़ा दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को महत्वाकान्क्षी भारत (एस्पिरेसनल इंडिया) की और देखना होगा जहाँ भ्रष्टाचार, रोजगार, अमीरी-गरीबी की बढ़ती खाई , बेहतर जीवन मुद्दा है ना कि जाति और धर्मं.
इस बात को दूसरे तथ्यों से भी सिद्द किया जा सकता है. विवादास्पद ढांचा गिराने के  बाद से आज तक छः आम चुनाव हुए. कहना ना होगा कि इस घटना के तत्काल पहले याने सन १९९१ के चुनाव या घटना के चार साल बाद याने सन १९९६ में हिंदुत्व की भावना अपनी चरम पर होगी. लेकिन तब से ले कर आज तक हुए सात चुनावों में एक भी ऐसा नहीं था जिसमे भारतीय जनता पार्टी कहीं भी कांग्रेस के आस पास रही हो. सन २००९ के आम चुनाव में जहाँ कांग्रेस को कुल २८ प्रतिशत या लगभग १२ करोड़ वोट मिले वहीँ चुनाव की वैतरणी को हिंदुत्व की बछिया की पूंछ पकड़ कर पार करने की कोशिश करने वाली इस पार्टी को महज १८ प्रतिशत आठ करोड़ से भी कम वोट.
क्या यह सिद्ध नहीं करता कि अगर कोई पार्टी एक सीमा से आगे हिन्दूवादी कट्टरता अपनाती है तो बहुसंख्यक समाज उसे ना केवल ख़ारिज कर देगा बल्कि उस गुस्से में वह इससे भी अधिक दकियानूसी सोच से उपजी क्षेत्रीय पार्टियों का दामन थाम लेगा? भा ज पा का जनाधार लगातार गिरना और ठीक उसके बरअक्स इन जाति-आधारित क्षेत्रीय पार्टियों का जनाधार बढ़ना यही संकेत देता है.
यह बात अब जग-जाहिर हो चुकी है कि संघ अपने इस अनुषांगिक (?) राजनीतिक संगठन को पूरी तरह नियंत्रण में ले चुका है. और अबकी बार यह नियंत्रण खरादी की बांक में फंसे लकड़ी जैसा है. अब ना तो बड़े कद के अटल बिहारी वाजपेयी परिदृश्य में हैं ना हीं हाशिये पर डाल दिए गए आडवाणी. उधर सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, वेंकैया नायडू या राजनाथ सिंह वाजपेयी-आडवाणी सरीखे मॉस लीडर नहीं थे लिहाज़ा संघ के सामने तन कर खड़े होने की कूवत नहीं थी. बन पाए. नतीजा यह रहा कि  इन्हीं में से एक जो ज्याद लचीला था , को पार्टी के शीर्ष पर रख कर संघ ने अपना नियंत्रण मजबूत करना शुरू कर दिया. 
इसी से जुड़ा एक अन्य प्रश्न भी है. क्या वजह है कि अपने ८७ साल के अस्तित्व के बावजूद समाज के बड़े मुद्दे पर इसकी शक्ति नहीं लग पाती है और कोई अन्ना हजारे आकर उन मुद्दों पर बगैर किसी संसाधन के , बिना किसी कैडर के पूरे समाज को उद्वेलित कर देता है और तंत्र को झनझना देता है. बेहद संगठित, राष्ट्रवाद की विचारधारा से ओतप्रोत और प्रामाणिक रूप से अनुशासित ८७ साल पुराने इस संघ से क्या यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि जब वैश्वीकरण के दौर में राष्ट्रवाद की अवधारण हीं कटघरे में हो तो क्या व्यापक जन हित का भाव अंगीकार कर लेना श्रेयस्कर नहीं रहेगा और क्या इस भाव में मंदिर-मस्जिद की जगह भ्रष्टाचार, मानव विकास, विश्व बंधुत्व नहीं आता  जो हिन्दू धर्मं का मूल रहा है? 

jagran

बदल रहा है जन-धरातल पर संवाद का विषय



तथ्य देने व् तर्क शक्ति बढाने में टी वी स्टूडियो की बड़ी भूमिका
हैबर मास के जन धरातल (पब्लिक स्फीयर) के सिद्धांत और मीडिया की भूमिका की इस अवधारणा को, कि प्रजातंत्र में मास मीडिया का मूल कार्य मुद्दों पर परस्पर-विरोधी विचारों को सामने ला कर एक बाज़ार खड़ा करना होता है, अगर मिला कर देखा जाये तो आज भारत के न्यूज़ चैनलों में होने वाले डिस्कशन एक बड़ा कार्य कर रहे हैं. शायद यही वज़ह है कि इंडिया गेट पर अब भावनात्मक मुद्दे “मंदिर-मस्जिद” की जगह गैर-राजनीतिक लेकिन जन-हित के मुद्दों मसलन भ्रष्टाचार और बलात्कार ने ले ली है.
राजनीति-शास्त्र का एक सिद्धांत है कि अर्ध-शिक्षित अथवा अशिक्षित समाज में भावनात्मक मुद्दे पर आया जन-उबाल कई बार संवैधानिक व्यवस्था पर भारी पड़ जाता है और शासन के पूरी प्रजातान्त्रिक स्वरुप को हाइजैक कर लेता है. सन १९९२ में ढांचा का गिरना उसी का नतीजा रहा है. लेकिन पिछले २० सालों में शिक्षा के विस्तार, प्रति-व्यक्ति आय में बढोत्तरी और परिणाम –स्वरुप उपजी बेहतर समझ ने स्थिति बदल दी है.
जन-अभिरूचि में इस परिवर्तन को एक शुभ संकेत मानते हुए  आज चैनलों में प्राइम टाइम में ना तो बाबा रहते हैं ना हीं भूत. तात्कालिक जन मुद्दे पर घंटों बहस की जाती है जिसमे ना केवल विषय के  जानकार अपनी राय देते है बल्कि राजनीतिक पार्टियों के लोग अपनी स्थिति स्पष्ट करते हैं. चूंकि भारत में प्रजातंत्र द्वंदात्मक या यूँ कहें कि प्रतिस्पर्धी अवधारना पर आधारित है लिहाज़ा कई बार दो पार्टियों के प्रतिनिधि एक –दूसरे से झगड़ते दिखाई देते है और कई बार उनकी कोशिश एक-दूसरे को नीचा दिखने की होती है लिहाज़ा डिस्कशन की सार्थकता बेमानी सी दिखने लगाती है. कई बार यह भी प्रयास होता है कि    टी वी चैनलों के एंकर या विशेषज्ञों पर आक्षेप कर के उनकी निष्पक्षता को कटघरे में लाया जाये.
ऐसी स्थिति खासकर तब आती है जब किसी मुद्दे पर किसी राजनीतिक दल की कथनी और करनी में अंतर को ले कर कोई एंकर सवाल करता है या कोई विशेषज्ञ कोई तथ्य प्रस्तुत करता है. उदाहरण के तौर पर अगर समाजवादी पार्टी के इस वक्तव्य को कि वह खुदरा व्यापार में ऍफ़ डी आई नहीं लाने देगी और संसद में मतदान के दौरान उसके बहिष्कार को लेकर सवाल हो तो हमले प्रश्न करने वाले पर हो जाता है. उसी तरह अगर भारतीय  जनता पार्टी को यह हकीकत  बताई जाती  है कि पिछले २३ सालों में हुए सात आम चुनावों में पार्टी को मिले मत-प्रतिशत से साफ़ हो जाता है कि वह हिन्दू समाज (अगर ऐसा कोई समाज गलती से है भी तो) का रहनुमा नहीं है और हिन्दुओं के लिए मंदिर कोई मुद्दा नहीं है तो लाज़मी है कि जवाब के रूप में एंकर या विशेषज्ञ पर हमला हीं हो सकता है.
यह सही है कि टी वी चैनलों पर संवाद की प्रक्रिया अभी अपेक्षाकृत नयी विधा है और अभी डिस्कशन  के पैरामीटर्स और बेहतर करना जरूरी है. लेकिन इससे बड़ी जरूरत है प्रतिभागियों में उस भाव की जिसमे परस्पर विरोधी तर्क-वाक्यों को सहजतापूर्वक और बेबाकी से आत्मसात की जाए. ब्रिटेन की  संसद में ऐसी परंपरा रही है कि जब कोई बड़े से बड़ा नेता बोल रहा हो और कोई संसद सदस्य अचानक खड़ा हो कर कुछ कहना चाहे तो पहला वक्ता बाद वाले वक्ता के सम्मान में बैठ जाता है. लेकिन ऐसा दूसरे वक्ता तभी करता है जब कोई बहुत हीं अपरिहार्य स्थिति हो. कहने का मतलब यह कि संवाद में एक-दूसरे के तर्क वाक्यों का सम्मान करने की भावना होनी चाहिए ना कि “बोलती बंद कर दी” का विजयी भाव.  ना हीं प्रतिभागी की दिलचस्पी अपनी बात तार्किक रूप से रखने में कम और अपने दूर बैठे नेता को खुश करने में ज्यादा होनी चाहिए. ऐसा करने वाले पार्टियों के प्रतिभागी शायद यह भूल जाते हैं कि वह जाने-अनजाने अपनी हीं पार्टी और नेता का नुक्सान कर देते हैं.
कई बार विशेषज्ञ भी अपने तर्क-वाक्य तथ्यों पर आधारित कम करते है और अपने विचार ज्यादा. यही वह क्षण होता है जब उसके और राजनीतिक प्रतिभागी के बीच अंतर ख़त्म हो जाता है . अगर कोई विशेषज्ञ यह कह रहा हो कि मंदिर आम भारतीयों का या खासकर हिन्दुओं का मुद्दा नहीं रहा या अगर रहा भी तो उसका राजनीतिक लाभ नहीं लिया जा सकता लिहाज़ा तो उसे पिछले सात आम चुनावों के आंकड़ों से सिद्ध करना होगा. भारत में विशेषज्ञों का एक बड़ा वर्ग है जो राजनीतिक संवादों में तथ्य-आधारित निष्कर्ष से ज्यादह अपने विचार परोसता है.
चूँकि अचानक जन-अभिरूचि देश में गंभीर व वास्तविक मुद्दों पर ज्यादा बढ़ गयी है जिसकी वज़ह से सभी बड़े चैनल स्टूडियो डिस्कशन करने लगे हैं इसलिए राजनीतिक पार्टियों के लिए भी अपेक्षित है कि वह अपने उन्हीं प्रतिनिधि को भेजें जिनमे विषय को लेकर समझ हो या जो केवल नेता-वंदना या गले की ताक़त का सहारा ना लेकर अपनी बात को प्रभावी ढंग से रखें.
बहरहाल एक बात साफ़ है इस तरह के संवाद के लिए मंच उपलब्ध करा कर भारतीय खबरिया चैनलों ने प्रजातंत्र को मजबूती देने की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया है और इसीका नतीजा है कि अब औसत शिक्षित व्यक्ति को भी मालूम हो गया है कि देश में भ्रष्टाचार उसको तबाह कर रहा है कि मंदिर का ना बनाना. यही वजह है कि देश के अधिकांश मुसलमानों ने स्पष्ट रूप से कहा “विश्वरूपं फिल्म में क्या है , क्या नहीं हम बगैर देखे कैसे कह सकते है” या “इस्लाम इतना कमज़ोर नहीं है कि किसी फिल्म के कुछ अंशों से असर पड़े” या “अगर आतंकवादी धर्म का सहर लेता है और इसे फिल्म में दिखाया गया है तो गलत क्या है”. ध्यान रहे कि यह कहने वाले ज्यादातर युवा मुसलमान थे.
देश में सन २००९ के चुनाव से अगले चुनाव की बीच कोई दस करोड़ नए लोग मतदाता –सूची में शामिल हो रहे हैं. यह सब युवा हैं और इन्हें रोजगार चाहिए न कि मंदिर-मस्जिद. लिहाज़ा चैनलों पर आज मुख्य बहस सार्थक और वास्तविक जन सरोकार के मुद्दें है.  इसका लाभ यह रहा है कि सरकारें अब “कुछ भी करके निकलने “ की स्थिति में नहीं रहीं और उन्हें संसद में नहीं तो चैनलों पर जवाब देना हीं होगा.

lokmat 

Monday 4 February 2013

Rahul laments mediocrity

In his debut speech after assuming the official second-in-command position in Congress, Rahul Gandhi was as candid as he was reflective. Never since the days of Rajiv Gandhi more than two decades ago, has such a candid confession emerged from the ranks of the party.

“The existing system is designed to keep people with knowledge out and promote mediocrity. It does not matter how much wisdom you have, if you have no position you mean nothing....why do a handful of people control the entire political space? Why is it that chief ministers appoint a teacher? Why do ministers do what panchayats should have done,’’ wailed the new leader of party that has ruled India for nearly five decades out of total of 65 years of republican life.

What Rahul said was a mix of anguish, self-purgatory “no-more-of it” urge and an appeal for catharsis of the minds of those sitting on the dais. It is important to reflect on Sri Aurobindo, who once said referring to the average politician, “ He does not represent the soul of a people or its aspirations. What he does usually represent is all the average pettiness, selfishness, egoism, self-deception that is about him as well as a great deal of mental incompetence and moral conventionality, timidity and pretence.’’

On this background, Rahul’s pain is not without reason. Ongoing schemes like MNREGA, NRHM, Sarva Shiksha Abhiyan and the proposed Food Security Bill are some of the world’s best direct delivery schemes but corrupt state governments and their agencies pocket entire sums allocated.

In major crisis situations resulting in public outcry, the response of the government has lacked wisdom and were perfunctory, vindictive and dishonest. Let us examine the Anna Hazare movement, a manifestation of collective consciousness against corruption. Falling into a state of self–deception and mental incompetence, the ruling class took a hostile position of “us versus them”. Instead of swimming downstream with collective consciousness of the masses, and thereby taking on corruption, it sought to quell this public anger with force, as if the culprit were the people with Anna Hazare as its leader.

From the prime minister to the ordinary babu in North Block, Anna was branded as a ‘media creation’ or worse, that he had “been planted by the RSS which has exported its workers into the crowd”. This adversarial position continues even today when Sonia Gandhi delivered her opening speech at Jaipur’s “Chintan Shivir”. There was hardly any appeal for a fight-to-finish war against corruption, other than some tangential references.

Take inflation, particularly the problem of food accessibility. India is a country where 21 million tons of wheat (ie 22 per cent of its total wheat production) is wasted due to poor management, mainly due to a lack of godowns, according to a recent report. This waste, coupled with equal damage to rice and other coarse grains, would have taken care of nearly 70 per cent of our total food grain requirements. We waste 40 per cent of fruits and vegetables between growers and consumers for want of refrigerated transport, poor roads and corruption. But the Planning Commission and the Union government fought with the National Advisory Council (NAC) for three years on whether it would be prudent to spend Rs 1.10 lakh crore under this head and whether it would not exacerbate the fiscal deficit – a perceivedred rag to FDI.

A rape in Delhi makes the entire political class jittery not because of the incident per se but on account of its horrific nature as reported by the media and resultant manifest sense of outrage across the country. Initially, the government and the police took it with characteristic nonchalance. Once the media took up the cause and thousands of angry youth laid siege at India Gate marching towards Raisina Hills, the seats of power began to quake. Again, the ruling class first got into the denial mode, then got belligerence and finally became manipulative by accusing innocents for the death of a constable.

The beheading of two Indian soldiers evoked great drawing-room outrage besides high-decibel thunder in TV studios. While the ruling party initially sought to tackle it with its usual pretension of equanimity, belligerent Hindutva forces used it as an opportunity to appeal to its constituency. TV anchors baying for Pakistani blood can be pardoned for their lack of sincerity but not those who decide the destiny of the nation. 

Great jurist Nani Palkhivala in his book Our Constitution Defaced and Defiled says, “At present the main infirmity of democracy is that the only job for which one needs no training or qualification whatsoever is the job of governing and legislating. Election mostly throws either mediocrity or extremism into power”. Well said.
 
The Sunday  Indian

भारत में मीडिया पर दबाव नहीं: विश्व प्रेस इंडेक्स की रिपोर्ट भ्रामक




“रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स” नामक गैर –सरकारी संस्था की “वर्ल्ड प्रेस इंडेक्स” शीर्षक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार प्रेस की आज़ादी में भारत दस साल में न्यूनतम रैंक पर आ गया है. रिपोर्ट का मतलब है कि भारत में इन दस सालों में मीडिया की स्वतन्त्रता राज्य अभिकरणों द्वारा बाधित की गयी है याने लोकतंत्र की जड़ें कमजोर हुई हैं. रिपोर्ट के अनुसार भारत विश्व के १७९ देशों में जहाँ २००२ में १३1वें पायदान पर था सन २०१२ की दिसम्बर माह तक आते –आते १४०वे पायदान पर फिसल गया.
शायद विश्व स्तर पर प्रजातंत्र और उसकी मूल अवधारणाओं को लेकर इतनी बचकानी लेकिन घातक रिपोर्ट पहले कभी नहीं आई है. रिपोर्ट बनाने वालों ने ना तो इसकी समझ है कि तथ्यों को प्रजातंत्र की मूल अवधारणाओं से कितना जोड़ा जाये और ऐसा करते वक़्त किस हद तक तात्कालिक परिस्थितियों को ध्यान में रखा जाये ना हीं वे यह जानते हैं कि अनेक पहचान-समूह वाले समाज में राज्य की भूमिका किस तरह की होती है खासकर उस समाज में जहाँ धर्म, जाति, उप-जाति, क्षेत्र एवं भाषाई आधार पर एक-दूसरे से द्वंदात्मक समन्वयता सम्बन्ध रहे हों.
भारत में मीडिया (प्रेस) की आज़ादी को लेकर उस समय अन्तर्राष्ट्रीय संस्था आरोप लगा रही है जिस समय देश की सरकार ने सूचना का अधिकार दे कर लोकतंत्र की गुणवत्ता को आसमान पर पहुचा दिया हो  और जिस समय एक नहीं दो-दो देशव्यापी लेकिन पूर्णरूप से अहिंसक आन्दोलनों ने सत्ता वर्ग की चूलें हिला दी हों. कहना न होगा कि इन दोनों आन्दोलनों में ---एक भ्रष्टाचार के खिलाफ और दूसरा बलात्कार को लेकर – मीडिया की भूमिका अप्रतिम रही है.
रिपोर्ट पढने से ऐसा लगता है कि भारत में पिछले दस सालों में सत्ता में बैठे लोगों ने मीडिया को दबाने और नतीज़तन लोकतंत्र के मूल पर आघात करने की सफल कोशिश की हो. यह बात सही है कि सत्ता और मीडिया का द्वंदात्मक सम्बन्ध रहा है और ऐसे मौके आयें है जब एक समय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया खासकर न्यूज़ चैनलों पर लगाम लगने की एक सरकारी कोशिश हुई जब इनके खिलाफ एक कानून का मसौदा तैयार किया गया. लेकिन यह भारतीय प्रजातंत्र की खूबी है कि ऐसी कोशिशे स्वतः हीं सत्तावर्ग ने दबाव देखते हुए ख़ारिज की. सभी संपादकों ने अपना विरोध ऐसे किसी दुष्प्रयास के खिलाफ देश सबसे बड़ी सत्ताधारी पार्टी की मुखिया सोनिया गाँधी और देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के यहाँ दर्ज करायी. स्वयं दोनों नेताओं ने इसे गलत बताया और कानून का मसौदा ठन्डे बस्ते में डाल दिया गया.
उधर इलेक्ट्रॉनिक चैनलों के संपादकों ने अपने न्यूज़ के विषयवस्तु को अधिकाधिक जनोपादेय बनाने के लिए एक संस्था “ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन बनायीं और स्व-नियंत्रण की रह पर चलने लगे. सत्ता पक्ष हीं नहीं सभी वे लोग जो लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका को लेकर संजीदा थे इस प्रयास की सार्थकता को पिछले तीन वर्षों में सराहा . यह सही है कि गाहे-बी-गाहे आज भी कुछ लोग मीडिया को सरकार द्वारा परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित किये जाने की बात करते हैं लेकिन यह प्रजन्तंत्र का आभूषण है जिसमे विरोधी स्वर को द्वन्द के भाव से नहीं बल्कि आत्म-शुद्धि के नए प्रयास के रूप में मीडिया देखती है.
वर्ल्ड प्रेस इंडेक्स की वर्तमान रिपोर्ट में भारत का स्थान नौ बिंदु नीचे गूगल के एक अधिकारी के हाल के बयान  के आधार  पर किया गया है जिसमे इस अधिकारी का कहना था कि सरकार के अधिकारियों ने सोशल मीडिया खासकर गूगल से  कई बार इस आशय से कि कुछ टिप्पणियां उपद्रव उभर सकती है, निवेदन किया कि वह अपने साईट से उन टिप्पणियों को हटा लें.
यहाँ यह साफ़ करना ज़रूरी है कि सरकार अगर कहीं काननों का अभिव्यक्ति को लेकर दुरुपयोग करने कि कोशिश कराती भी है तो स्वयं प्रजातान्त्रिक शक्तियां , अदालत और मीडिया इतना बड़ा दबाव बना देती है कि ऐसे प्रयास सफल होना तो दूर , सरकार की किरकिरी का सबब बन जाते है. हाल में बाल  ठाकरे के निधन के बाद एक युवा लड़की की टिपण्णी को लेकर ऐसा हीं हुआ. सरकार को मुक़दमा वापस लेना पड़ा.
महज कुछ इस तरह की सामान्य घटनाओ को लेकर यह मान लेना कि भारत में मीडिया पर सरकार दबाव बनती है कटाई गलत होगा. यहाँ एक घटना वास्तु-स्थिति को बताता है. फेस-बुक पर बुलंदशहर के एक युवा ने किसी सम्प्रदाय –विशेष के बारे में कोई टिपण्णी की जिसकी वजह से सैकड़ों लोग मेरठ जिले में प्रदर्शन करने लगे. उसी संप्रदाय के धार्मिक नेताओं ने तथा जिले के अधिकारियों ने समझा-बुझा कर उग्र भीड़ को शांत किया और उस युवा को गिरफ्तार किया गया. जिस देश में संकीर्ण –सोच के आधार पर इतने समूह एक दूसरे से वैमनस्य रखते हों उसमे सरकार के लिए मुश्किल होता है कानून –व्यवस्था बनाये रखना.
जैसे –जैसे प्रजातंत्र मजबूत होता है लोगों की समझ बेहतर होती है और आपसी बैर-भाव ख़त्म करने के तंत्र स्वतः हीं विकसित होने लगते हैं. यह मान लेना कि अन्य देशों के मुकाबले भारत में मीडिया की स्वायत्तता पर कोई सरकारी हमला हो रहा है विश्व भारत ऐसे प्रजातान्त्रिक देश के बारे में गलत संकेत देते है.
प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया औपचारिक संस्थाएं हैं जो कानून की ज़द में राझ कर अपना काम कर रहें है जब कि दूसरी और सोशल मीडिया अभी अनौपचारिक है, अपरिपक्व है और ज़रुरत है कि इसका उपयोग करना वाले स्वयं संयम बरतें.
रिपोर्ट बनाने वाली संस्था ने यह नहीं देखा कि प्रजातंत्र के उद्गम-स्थल ब्रिटेन में किस तरह सरकार द्वारा प्रायोजित ह्यूटन इन्क्वायरी रिपोर्ट और हाल में जारी लार्ड लेविसन रिपोर्ट ने जिस तरह का हमला उस देश की मीडिया पर किया है वह आने वाले दिनों में एक बदनुमा दाग साबित होगा. ह्यूटन रिपोर्ट के कारण पड़ से हटने वाले बी बी सी के पत्रकार गिल्लिगन ने  अपने इस्तीफा –पत्र में लिखा “यह रिपोर्ट न केवल बी बी सी बल्कि देश की पत्रकारिता को कुंठित करने वाला साबित होगा” . लेकिन वर्ल्ड प्रेस इंडेक्स में ह्यूटन और लाविसन की रिपोर्टों इस रिपोर्ट को संज्ञान में नहीं लिया गया है.
अंतर्राष्ट्रीय गैर-सरकारी संस्थाओं की एक मानसिकता रही है कि वह गैर-यूरोपीय देशों की अच्छी बातों को सहज भाव से नजरंदाज़ कर देती हैं और उनकी सामान्य एवं परिस्थितिजन्य गलतियों को “प्रजातंत्र पर कुठाराघात” या “मानव अधिकार पर हमले” की संज्ञा देकर अपने को विश्व गुरु के रूप में पुनर्प्रतिष्ठापित करना चाहती हैं.  

BHASKAR