Wednesday 16 July 2014

चोर के हाथ कटाने की हिमायत : क्या यह अदालत की अवमानना नहीं



झारखण्ड के बोकारो में स्थित एक गाँव गुलगुलिया ढोरा में एक बलात्कार हुआ. मामला पंचायत में गया. मुखिया ने फैसला सुनाया कि बलात्कार की शिकार महिला का पति बलात्कार आरोपी की १४ –वर्षीया बहन से बलात्कार करे. यही हुआ. पूरे गाँव के सामने. लड़की के माँ-बाप बचाने की गुहार लगाते रहे पर कोई नहीं निकला. लड़की को पास के जंगल में ले जा कर पंचायत के फैसले को पर अमल के भाव में बलात्कार किया जाता रहा. सम्बंधित थाने में भी शुरू में रिपोर्ट नहीं लिखी गयी.
उधर मद्रास हाई कोर्ट के एक जज ने अपने फैसले में ईरान में चोरों की उंगलियाँ काटने वाली मशीन का ज़िक्र करते हुए कहा कि कहा है कि अदालत यह मानती है कि जालसाजी के लिए भी उंगलियाँ काटने की सजा दी जानी चाहिए. जज महोदय ने आगे कहा “दुर्भाग्य से हमारे यहाँ ऐसे कठोर कानून नहीं हैं कि फर्जी कागजात बनाने वालों के हाथ काट लिए जाएँ नहीं तो अपराधियों के हौसले इतने नहीं बढे होते.”
पंचायत या मुखिया का फैसला ऐसा क्यों है समझना मुश्किल नहीं है. वह रिट्रीब्यूटिव जस्टिस (प्रतिशोध से न्याय) हीं जानता है, उसे पुरुष-प्रधान समाज में पीड़ित पत्नी नहीं पति नज़र आता है और प्रतिकार के रूप में आरोपी की बहन नज़र आती है असली बलात्कारी पुरुष नहीं. याने खरबूजा चाकू पर गिरे या चाकू खरबूजे पर , कटेगा खरबूजा हीं” के न्याय-दर्शन से ऊपर नहीं सोच पाता. उसे यह भी नहीं मालूम कि अपराध-न्याय शास्त्र में पीड़ित व्यक्ति होता है और जुर्म भी व्यक्ति हीं करता है परिवार नहीं लिहाज़ा सजा अपराधी की निर्दोष बहन को एक और अपराध के रूप में नहीं दी  जा सकती. उसकी समझ नए तार्किक (?) व युक्तियुक्त (?) व्यवस्था को लेकर अभी नहीं बनी है.  
लेकिन जब हाई कोर्ट का एक जज हाथ काटने की बात विधि द्वारा स्थापित औपचारिक संस्था के प्रतिनिधी के रूप में कहता है और यह कहते हुए कि यह “अदालत मानती है जालसाजी के लिए भी उंगलियाँ काटने की सजा दी  जानी चाहिए” और “दुर्भाग्य से हमारे यहाँ ऐसे कठोर कानून नहीं हैं” तब कई गंभीर प्रश्न उठ खड़े होते हैं. यह अवसर भी जज का ड्राइंग रूम नहीं होता, ना हीं किसी सेमिनार में “भारतीय अपराध न्याय-शास्त्र की विवेचना” बल्कि भरी अदालत.
क्या यह कथन अदालत, न्याय-व्यवस्था या संविधान की अवमानना नहीं है? “अदालत की अवमानना कानून, १९७१ में “अदलत की अवमानना” की परिभाषा में कहा गया है कि अगर कोई ऐसा कृत्य जो अदालत की गरिमा को गिरता हो” इस कानून के तहत अपराध है. इसकी व्याख्या करते हुए सर्वोच्च न्यायलय ने डी सी सक्सेना बनाम भारत के मुख्य न्यायाधीश मामले में १९९६ में अपने फैसले में कहा “ऐसा कोई कृत्य जो अदालत की गरिमा गिरता हो या न्याय प्रशासन में जनता का विश्वास (अंडरमाइन) कम करता हो” अदलत की अवमानना है.  
भारतीय संविधान के अनुसूची ३ के खंड ८ में हाई कोर्ट के जजों के लिए पद भार ग्रहण करते वक़्त ली जाने वाली शपथ का प्रारूप दिया है. हर जज को संविधान के प्रति निष्ठा की हीं नहीं बल्कि संविधान और कानून को बनाये रखने (अपहोल्ड) की शपथ लेनी होती है.
भरी अदालत में यह कहना कि दुर्भाग्य से हमारे यहाँ हाथ काटने का कानून नहीं है यह तस्दीक नहीं करता कि हमारे कानून में जबरदस्त कमी है और “यह” अदालत इस कमी को दुर्भाग्य मानती है. क्या यह अपनी हीं शपथ का उल्लंघन नहीं है? क्या यह अदालतों के प्रति और न्याय-प्रक्रिया के प्रति जनता में दुर्भाव (डिसएफेक्शन)नहीं पैदा करता?
उच्च न्यायालय के जज का मक़ाम भारतीय न्याय व्यवस्था में काफी ऊपर रखा गया है. वह फांसी के मामले में अपील सुनता है. अगर शपथ में उसने यह वायदा किया है कि बगैर दुर्भावना के (इल-विल) कानून की हिफाज़त करेगा तो उसी कानून को दुर्भाग्य मानना क्या संकेत देता है.
यहाँ दो बातें और. जज अपने मर्ज़ी से न्यायमूर्ति का पद ग्रहण करता है उसे यह भी सुविधा है कि वह जज ना बने या जब भी लगे कि कानून दुर्भाग्यपूर्ण है तो इस्तीफ़ा दे दे. लेकिन कानून या संविधान शायद उसे यह इज़ाज़त नहीं देता कि वह पद , वेतन, ऊँची और सम्मानित कुर्सी का भोग करे और जिस व्यवस्था से यह सब कुछ हासिल किया है उसी व्यवस्था को औपचारिक तौर पर और औपचारिक अवसर पर (अदालत की कार्यवाही) के दौरान इतना गलत बताये कि जनता को लगे कि काश हमारी भी व्यवस्था मिस्र जैसे होती तो बलात्कार, जालसाजी और हटी जैसे जघन्य अपराध ना होते.
यहाँ प्रश्न यह भी नहीं है कि जज ने यह बात प्रसंगोक्ति (ओबिटर डिक्टम) के रूप में कही है या मूल फैसले (रेशियो) के अंश के रूप में या फिर ऑब्जरवेशन के भाव में. इसका सन्देश पूरे देश में यह गया है कि एक हाई कोर्ट के जज का मानना है कि कानून में कमी की वजह से जालसाज और बलात्कारी पैदा हो रहे हैं.
फिर भारतीय अपराध न्याय-शास्त्र का पूरा ढांचा हीं सुधारवादी (रेफोर्मेटरी) दर्शन पर आधारित है जिसमे अपराध को एक रोग मान कर उस रोगी को ठीक करने का प्रयास होता है. प्रशन है कि अगर जज को प्रतिशोधात्मक (रिट्रीब्यूटिव) न्याय व्यवस्था में विश्वास है तो फिर वह सुधारवादी सिस्टम में काम हीं क्यों कर रहा है? और क्या यह डर हमेशा नहीं बना रहेगा कि ऐसी विचारधारा वाले जजों का फैसला प्रतिष्ठापित अवधारणा से कम या अधिक सख्त होगा?
अगर अन्ना हजारे के पास धरना दे कर लोकपाल लाने के लिए दबाव डालने का विकल्प है तो क्या इस जज के पास इस्तीफा दे कर व्यवस्था के खिलाफ आन्दोलन करने का विकल्प नहीं था ? और क्या जनता को ऐसे जज से ऐसे साहस  की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए?  संभव है कि कानून दुर्भाग्यपूर्ण हो, लेकिन क्या उसे सिस्टम का उपभोग करते हुए और उसी का लानत मलानत करते हुए हम नैतिक स्तर पर उस नक्सली से भी नीचे नहीं चले जाते जो कम से कम सिस्टम का उपभोग तो नहीं कर रहा है. जंगलों में रहता है , गोली चलाकर या खा कर मरता है पर जो है वही कहता है जो सोचता है वहीं करता भी है.

nai duniya

Tuesday 15 July 2014

क्या गुल खिलाएगी "आतंक" से भेंट

वैदिक विभिन्न देशों में ऎसी यात्रा पर जाते रहे हैं। ये सेमिनार और आपसी संवाद की यात्राएं होती हैं। इनका सरकार या आधिकारिक डेलिगेशन से कोई लेना-देना नहीं होता। न ही ये कोई डिप्लोमेसी का जरिया होती हैं। 

स्थिति इसलिए ज्यादा खराब हुई है, क्योंकि वेद प्रताप वैदिक ने काफी बढ़-चढ़कर बातें की हैं। उन्होंने पाकिस्तानी टेलीविजन को एक साक्षात्कार में कह दिया कि वे मोदी से मिलते रहते हैं। 

कश्मीर की आजादी के पक्षधर हैं। क्या सरकार ऎसे व्यक्ति से खुद को ही नुकसान करना चाहेगी। वैदिक सत्ता के करीब रहे हैं। उनकी भाजपा और बाबा रामदेव से नजदीकियां जगजाहिर हैं। ऎसे में उनकी सईद से मुलाकात के बाद सरकार को नुकसान होना लाजिमी है। 

बुनियादी तौर पर पत्रकारिता में एक सर्वमान्य सत्य यह है कि बडे-बड़े अपराधियों, जिनकी पुलिस को तलाश रहती है या जिन पर इनाम घोेषित होता है और वे पकड़ में नहीं आ रहे हैं, उनसे साक्षात्कार करना पूरे विश्व में सामान्य प्रक्रिया है। ओसामा बिन लादेन का हामिद मीर ने साक्षात्कार किया था। लिट्टे प्रमुख प्रभाकरन, जिसने राजीव गांधी की हत्या कराई, उसका साक्षात्कार हुआ था। 

कुख्यात चंदन तस्कर वीरप्पन, जिसे कभी पुलिस पकड़ नहीं पाई, उसका साक्षात्कार किया गया। डकैत ददुआ का साक्षात्कार किया गया था, जिसका किसी के पास फोटोग्राफ तक नहीं था। इन सबके अलावा हमारे देश में उन नक्सलियों का जंगलों में साक्षात्कार करने के लिए पत्रकार अक्सर जाते हैं, जिनकी तलाश पुलिस कर रही होती है। 

इस तरह के साक्षात्कार के दो मकसद होते हैं। पहला यह होता है कि जिन्हें पुलिस या अन्य एजेंसियां नहीं पकड़ पा रही हैं, वे पत्रकारों को उपलब्ध हैं। यानी उन्हें पकड़ने के प्रयासों में कहीं न कहीं कमी है। दूसरा मकसद यह होता है कि उन अपराधियों का वर्जन भी सुना जाए। 

इस लिहाज से वेद प्रताप वैदिक ने हाफिज सईद से मुलाकात कर कुछ गलत नहीं किया है। इनमें से कई साक्षात्कारों में अपराधी कैमरे के सामने नहीं आते। नक्सली इसी तरह साक्षात्कार देते हैं। वे अनौपचारिक बात करने को तैयार होते हैं। वे टेपरिकॉर्डर की भी इजाजत नहीं देते। पूरे विश्वभर में ऎसी अनौपचारिक बातचीत की परम्परा है। 

वैदिक-सईद प्रकरण में बेहतर होता कि हमारा इंटेलीजेंस ब्यूरो वैदिक से उनकी मुलाकात के बारे में तफ्सील से जानकारी मांगता। वह उनकी बातचीत का विश्लेषण कर पाता और सईद के जवाबों से उसके इरादों का अंदाज लगा पाता। वैदिक को देशद्रोही या गुनहगार की तरह पेश करना गलत है। भारत के दंड विधान में, सीआरपीसी या आईपीसी में किसी अपराधी या सरगना से मिलने की पाबंदी नहीं है।

मीडिया में इस पर बेबुनियाद बहस हो रही है। उनकी यात्रा पर विवाद प्रदर्शित करता है कि देश में तर्क शक्ति का विलोप हो रहा है, जो कि समाज के लिए खतरनाक स्थिति है। ऎसा प्रतीत हो रहा है कि विपक्ष और मीडिया के एक वर्ग के पास मुद्दे ही नहीं हैं। कांग्रेस संसद में महंगाई के मुद्दे पर सरकार को घेरती तो ज्यादा मुनासिब होता। 

सवाल यह जरूर उठता है कि एक भारतीय पत्रकार होने के नाते वैदिक को 26/11 के मास्टरमाइंड से जो तीखे सवाल करने चाहिए थे, वो उन्होंने किए कि नहीं? लेकिन इसमें यह भी ध्यान रखना होगा कि उन्होंने सईद से एक अनौपचारिक मुलाकात की थी।

वे किसी योजनाबद्ध साक्षात्कार के लिए नहीं गए थे। वे इससे पहले भी तीन दर्जन बार पाकिस्तान जा चुके हैं। इस बार उनकी यात्रा पर यह सवाल उठाना कि वे विशेष तौर पर मोदी सरकार के भेजे गए दूत थे, यह सरासर गलत है। कोई सरकार सईद जैसे आतंकी से बातचीत करने के लिए वैदिक को ही क्यों चुनेगी


rajsthan patrika