Thursday 15 May 2014

क्या हम जैसे मोदी के आलोचक “बायस्ड” थे ?


प्रजातान्त्रिक सिस्टम में शासन की एक दिक्कत है. यह सर्वमान्य सत्य है कि जनता के मौलिक अधिकारों के प्रति अदालतों की बढ़ती प्रतिबद्धता और राज्य के फैसले लेने के दौरान दबाव समूहों की बढ़ती भूमिका और उतनी हीं बड़ी मीडिया की (जो शासन की गलतियों के खिलाफ जनमत बनाता है) नकारात्मक भूमिका कई बार शासक वर्ग की दिक्कत बढाते हैं और विकास की रफ़्तार को बाधित करते हैं. लेकिन यह तीनों पहलू अपरिहार्य भी माने जाते हैं. शासक वर्ग के लिए इन्हीं के बीच रास्ता निकालने की शर्त होती है.
अब यह कहने में कोई गुरेज नहीं हो सकता कि भाजपा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार बनाने जा रही है और यह भी उतना हीं सत्य है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री होंगे. उनके लिए चुनौती होगी विकास करना, स्वच्छ प्रशासन देना याने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगना और तमाम पहचान समूहों में बंटे और आपसी वैमनष्यता पूर्ण समाज में बगैर वोट की राजनीति को ध्यान में रखे शासन करना. इन सबसे बड़ी दो और चुनौतियाँ होंगी ---बाजारी ताकतों का हित साधन बनाम गरीबी –उन्मूलन के कार्यक्रम और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हिंदूवादी सोच, जिसे संघ राष्ट्रवाद के सादृश्य (को-टर्मिनस) मानता है याने जहाँ हिंदुत्व की सीमा ख़त्म होती है वहीं राष्ट्र की भी.
प्रजातंत्र में जन धरातल पर आलोचना का अधिकार मिला है. लेकिन इसकी शर्त यह है कि वह आलोचना जनहित को ध्यान में रख कर की जाये और अगर वह आलोचना व्यक्तिगत है तो ऐसा किये जाने के पीछे बड़ा जनहित हो.  मोदी के आलोचकों का एक बड़ा समूह है (जिसमें मैं भी हूँ) लगभग उतना हीं बड़ा जितना बड़ा उनकी हिमायत करने वालों का.  
किसी कई बार जब हम किसी की आलोचना करते हैं तो संदर्भिता बदल जाती है. मोदी को लेकर आलोचना में यह दोष रहा है. आज के परिप्रेक्ष्य में मोदी की सार्थकता हम किस बात से स्थापित करते हैं यह व्यक्तिगत सोच पर निर्भर करता है. एक तर्क वाक्य है “मोदी अपनी आलोचना को लेकर सहिष्णु नहीं हैं”. इस तर्क का विस्तार करते हुए उनके आलोचक (मैं स्वयं भी) कहते हैं “लिहाज़ा मोदी अहंकारी हैं या मीडिया आलोचना को लेकर सहनशील नहीं हैं”. इन आलोचकों में से हीं एक वर्ग (मैं नहीं) तर्क का और विस्तार करता हुआ यह भी कहता है “ लिहाज़ा मोदी का प्रजातंत्र में विश्वास नहीं है लिहाज़ा एक डिक्टेटर की तरह शासन चलाएंगे”. कुछ अतिवादी आलोचक मूल तर्क को खींच कर यहाँ तक ले जाते हैं कि उन्हें मोदी में “हिटलर” नज़र आने लगता है.
मूल तर्क-वाक्य के इस तरह के विस्तार को स्वयं तार्किक दोष का शिकार होना पड़ता है क्योंकि इसमें संदर्भिता कहीं दूर छूट जाती है.
लेकिन क्या यह कहना गलत होगा कि आज देश में राजनीतिक वर्ग में शायद हीं कोई व्यक्ति होगा जिसने विकास की बारीकियों, इस सन्दर्भ में राज्य की भूमिका और सकल घरेलू उत्पाद और मानव विकास के विरोधाभास को इतनी गहराई से समझा हीं नहीं नहीं हो बल्कि अमल में लाया हो जितना मोदी ने? गुजरात माडल में सब कुछ अच्छा हो यह कहना गलत होगा लेकिन अगर कोई मुख्यमंत्री यह सुनिश्चित करे कि उसका तंत्र विकास की योजनाओं को शत प्रतिशत अमल में लाये और भ्रष्टाचार करने के पहले उसकी रूह काँप उठे तो यह शुरूआती दौर में एक बड़ी उपलब्द्धि है. गुजरात में ऐसा हुआ है. अगर मोदी चाहते हैं कि अमुक परियोजना अमुक समय में पूरी ही जाये तो ना तो कोई भ्रष्ट विधायक ना हीं कोई चालाक या कामचोर अफसर उस परियोजना से छेड़ –छाड़ करने की जुर्रत कर सकता है. शायद इसी को हम मोदी का “आलोचना के प्रति शून्य सहनशीलता” मानते हैं. और फिर उन्हें तर्क-वाक्य के विस्तार दोष के ज़रिये “हिटलर” की संज्ञा दे देते हैं.
सामान्यजन मोदी के साथ है. अगर भारतीय जनता पार्टी का लगातार गिरता मत प्रतिशत १८.६ (२००९) से बढ़ कर इस चुनाव में ३० (२०१४ में अनुमानित) या उससे अधिक हो जाता है तो इसका मलतब २००९ के चुनाव के ७.९ करोड़ मतों के मुकाबले पार्टी को इस चुनाव में १८ करोड़ मत मिलेंगे. यह जनता मोदी से विकास की अपेक्षा करती है. भ्रष्टाचार-शून्य प्रशासन की अपेक्षा करती है. और साथ हीं आतंक -रहित वातावरण की अपेक्षा करती है. चौथा मोदी से उसकी यह भी अपेक्षा है कि साम्प्रदायिक सौहार्द्र मजबूत हो. इस जनता को यह परेशानी (जो आलोचकों में है) नहीं है कि मोदी आलोचनाओं के प्रति कितना प्रतिक्रियावादी हैं और यह प्रतिक्रिया उन्हें “आलोचकों की नज़र में कब हिटलर बना देती है”.
एक सामान्य विवेक का व्यक्ति भी यह जानता है कि आज मोदी देश के सर्व-मान्य नेता हैं. मोदी को भी यह भान है. लिहाज़ा कोई बच्चा भी यह समझ सकता है कि उनकी प्राथमिकता होगी कि मुसलमान भय –मुक्त वातावरण में रहे. ताकि मोदी भारत में हीं नहीं विश्व में अपनी छवि एक “वास्तविक सेक्युलर नेता” के रूप में बना पायें. संघ भी उनकी इस राय से इत्तेफाक रखेगा क्योंकि संघ में भी सोच-परिमार्जन का मंथन चल रहा है. लेकिन चूंकि कानून –व्यवस्था राज्य सरकारों के हाथ में है लिहाज़ा मोदी सम्यक विकास के रास्ते हीं मुसलमानों के दिल का भय निकाल सकते हैं. उन्हें इसके लिए “एक्स्ट्रा माइल “ भी जाना पड़ सकता है. अब यह संघ की जिम्मेंदारी होगी कि विचारधार के अतिरेक में डूबे संघ के निचले स्तर के कार्यकर्ता कोई गलती ना करें. मेरे मानना है कि संघ में भी नयी सोच वाला वर्ग मोदी को फ्री हैण्ड देगा मुसलमानों के दिल भय निकालने के प्रयासों को.
मोदी के लिए असली समस्या होगी बाजारी ताकतें , कॉर्पोरेट समूह का और विदेशी पूंजी निवशकों से  जो गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में खर्च होने वाले धन को वित्तीय घाटा (फिस्कल डेफिसिट) बढाने वाला मान कर विरोध करते हैं. शायद मोदी को यह अहसास है. लेकिन इसकी काट भी उनके पास है. अगर भ्रष्टाचार अंकुश लगा सके तो बगैर अतिरिक्त व्यय के डिलीवरी अंतिम लक्षित व्यक्ति तक पहुँच सकती है. इसके लिए सोशल सेक्टर और नॉन-स्टेट एक्टर्स (राज्येतर संस्थाएं) को शामिल करना होगा गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रमों के डिलीवरी पक्ष को भ्रष्ट राज्य सरकारों के चंगुल से लिकालने के लिए.
अगर यह सब कुछ ऐसा हीं रहा तो मोदी देश में एक “शांत क्रांति “ का आगाज़ करेंगे. एक साल के कार्य के बाद हीं मोदी और उनकी जनोपादेयता का चीड-फाड़ करना समीचीन होगा.

jagran/lokmat