Tuesday 28 May 2013

अरे, अपने हीं लोग हैं डांट –डपट कर ठीक कर लिया जाएगा”




नक्सली समस्या, और सत्ताधारियों का आपराधिकरूप से कैजुअल रवैया 
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कुछ वर्ष पहले की बात है. प्रधानमंत्री नक्सल-प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक ले रहे थे. एक मुख्यमंत्री ने कहा “अरे, यह कोई बड़ी बात नहीं है. कुछ अपने हीं लोग भटक गए हैं, हम उनको समझा -बुझा लेंगे, सब ठीक हो जाएगा”.  दूसरे मुख्यमंत्री ने कहा “ भैय जी, कहाँ है नक्सली समस्या, आप लोग भी बेमतलब बात का बतंगड़ बना रहे हैं, अरे अपने हीं समाज के कुछ लड़के है डांट-डपट कर ठीक कर लिया गया है कोई समस्या नहीं है. हमारे राज्य में तो यह कोई समस्या हीं नहीं है.” ये दोनों मुख्यमंत्री उन दो राज्यों के थे जहाँ नक्सल प्रभाव एक में दो तिहाई क्षेत्र में है और दूसरे में एक तिहाई क्षेत्र में. इन दोनों राज्यों में नक्सलियों के पास राकेट लांचर तक मौजूद हैं.  
यह घटना एक अधिकारी ने जो उस मीटिंग में मौजूद था मुझे बतायी. नक्सली आज देश के ६०० से अधिक जिलों में से एक तिहाई में फ़ैल चुके हैं इनकी संख्या २०,००० से ज्यादा है और इसके करीब चार गुना इनके मददगार है.
एक अन्य घटना लें. बांग्लादेश सीमा पर बी एस ऍफ़ के जवानों ने पांच खूंखार पाकिस्तानी आतंकवादियों को मार गिराया. बड़े उत्साह से बी एस ऍफ़ के अधिकारियों ने तत्कालीन केन्द्रीय गृह मंत्री के साथ मीटिंग में इस घटना का बताना चाहा. जैसे हीं अधिकारी ने अपनी बात ख़त्म की वह गृहमंत्री दार्शनिक अंदाज़ में बोले “वो जिन्हें मारा गया है हमारे हीं भाई –बंधु हैं , हमे उनको मार कर खुश नहीं होना चाहिए”. बैठक ख़त्म होने का बाद सारे के सारे अफसर इस डांट के बाद सर पीटते रहे.
देश की सत्ता पक्ष –वह जाहे केंद्र में हो या राज्य में, कभी भी यह कोशिश नहीं कर सका कि इस घटना की गंभीरता को समझे. राज्य में राजनीतिक दलों ने या तो नक्सलियों से गुप्त समझौता किया या इसे जान-बूझ कर नज़रन्दाज़ करते रहे. कुलमिला कर यह आपराधिक कृत्य सत्ता पक्ष द्वारा चलता रहा.
नक्सली जिनका माओवादियों के २००४ के बाद के अवतार में जबरदस्त वैचारिक क्षरण हुआ है और जो आज महज ठेकेदारों , सरकारी अफसरों से पैसा वसूलने का तंत्र हो गया है, नेतृत्व-विहीन भी हो गया है. नतीजा यह है कि अपने को अस्तित्व में रखने और अपनी स्वीकार्यता व्यापक करने के लिए परेशां नहीं है वह सिर्फ परेशान है तो इस बात के लिए राज्य की हिम्मत इस ओर आँख उठाने की न हो. डरपोक और भ्रष्ट तंत्र व राजनेता में वह इच्छा –शक्ति बन हीं नहीं पा रही है जिससे इस “रेड टेरर” का मुकाबला किया जा सके.
आंध्र प्रदेश की सरकार ने आज से कोई ढाई दशक पहले “ग्रेहाउंड” गुरिल्ला फाॅर्स विकसित की. इस फाॅर्स में प्रतिबद्धता , प्रोफेशनलिज्म और शक्ति का अद्भुत समन्वय था. यह आज भी देश की सबसे अधिक वेतन पाने वाली संस्था है. दस साल के अन्दर इसने अपने राज्य में जिसमे २६ में से २३ जिले जबरदस्त नक्सली प्रभाव में थे , ना केवल नक्सलियों को मार भगाया बल्कि एक ऐसे दहशत पैदा की कि नक्सलियों की ग्रेहाउंड को देख कर रूह काँप जाति है. अभी तीन सप्ताह पहले ग्रेहाउंड ने हेलीकाप्टर से आ कर इसी छत्तीसगढ़ के जंगलों में ना केवल शीर्ष नक्सली नेताओं को मार गिराया बल्कि ऑपरेशन के बाद पूरी सफलता से वापस लौट गए. छत्तीसगढ़ की पुलिस महज तमाशबीन बनी रही और मात्र स्थानीय मदद करती रही. यह अलग बात है कि ग्रेहाउंड का एक इंस्पेक्टर हेलिकॉप्टरो में नहीं चढ़ पाया और नक्सालियों की गोली का शिकार होना पड़ा.
एक तरफ दो मुख्यमंत्रियों का गैर-जिम्मेदाराना रवैया है जो कि अपराध की श्रेणी में आता है और दूसरी तरफ आंकड़े बताते हैं कि पिछले तमाम वर्षों में अगर एक चार जनता के या सुरक्षा बालों के लोग मारे जाते हैं तो महज एक नक्सली मारा जाता है. कश्मीर ऐसी जगह में भी स्थिति उलटी है याने अगर एक सुरक्षा बल या जनता का आदमी मारा जाता है तो एक आतंकवादी भी मारा जाता है.
चिदंबरम ने गृहमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान सी आई आई में भाषण देते भुआ इस समस्या से कारगर तौर पर निपटने के लिए एक सिद्धांत दिया था --- इलाका खाली कराओ, कब्जे में लो और विकास करो (क्लियर, होल्ड एंड डेवेलोप). उनका कहना था कि कांग्रेस के हीं एक नेता दिग्विजय सिंह ने नक्सलियों की समर्थन में ना केवल विरोध किया बल्कि एक लेख लिख मारा. चिदंबरम ने अपने भाषण में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया दशकों के शोषण और सरकारी भ्रष्टाचार ने आदिवासियों का राज्य और उनके अभिकरणों में विश्वास ख़त्म कर दिया है. “आज स्थिति यह है कि राज्य के विरोध में जो भी सशक्त संगठन आता है ये आदिवासी उनके साथ हो जाता है. लिहाज़ा हमें सबसे पहले उनका विश्वास जीतना होगा”, चिदंबरम ने कहा था.  
यह एक बड़ा हीं सार्थक , और मुमकिन-उल-अम्ल सिद्धांत था. लेकिन आपराधिक रूप से निकृष्ट राज्य सरकारों ने इसे संभव नहीं होने दिया. उनमें उस किस्म की प्रतिबद्धता नहीं थी जो इस सिद्धांत के अनुपालन के लिए अपेक्षित था. नतीजा यह रहा कि केंद्र का पैसा फिर से भ्रष्ट, आपराधिक और कायर नेता-अफसर के मार्फ़त नक्सलियों का पास पहुँच गया.
धीरे –धीरे सरकार की कायरता से नक्सलियों की हिम्मत बढ़ने लगी और आज आंध्र प्रदेश (छत्तीसगढ़ की सीमा के पास से) से नेपाल तक एक “क्रांतिकारी पट्टी” जिसका आधार “मुक्त क्षेत्र” की माओवादी अवधारणा है लगभग सच होती दिखाई दे रही है.  
विश्व का इतिहास गवाह है कि इस तरह के आतंकवाद को ख़त्म करने का सबसे सटीक तरीका है ---पहले आतंकियों की आपूर्ति लाइन ख़त्म करो, ग्रेहाउंड सरीखे बल का गठन कर इन्हें सामरिक रूप से पंगो करो और फिर वहां के लोगों का विश्वास जीतो, विकास करो. कहने का मतलब यह कि पहला काम है नक्सलियों को पंगु करने वाला पुलिस एक्शन.
इन सबके लिए ज़रुरत है सत्ताधारियों की सोच बदलने की, कायरता छोड़ने की और चुनाव में वोट की ललक से निजात पाने की. क्या आज का सत्ता वर्ग इस थोड़ी सी कुर्बानी के लिए तैयार है? 

bhaskar