Wednesday 28 December 2016

ये ‘लान्जेरी” बनाम ‘लंगोट’ की लड़ाई है पी सी साहेब !


डिजिटल भुगतान पर सरकार के जोर देने के खिलाफ कांग्रेस नेता और भूतपूर्व वित्तमंत्री पी चिदंबरम (पी सी ) का कहना है कि सरकार का यह जानना कि कोई युवती कौन सा अधोवस्त्र (अमेरिका और यूरोप और भारत के अभिजात्य वर्ग में इसे लांजेरी कहते हैं) खरीदती है या कोई पुरुष कौन सी दारू पीता है, उनके मौलिक अधिकारों का हनन है. बोफोर्स घोटाले के दौरान विश्वनाथ प्रताप सिंह ने वाराणसी की एक जनसभा में विन चड्ढा के दलाली पर बोलते हुए अपभ्रंश यमक और अनुप्रास अलंकार का मिश्रित प्रयोग करते हुए लाक्षणिक रूप से कहा था “तुम बिन चड्ढा हम बिन चड्ढी”. चिदंबरम साहेब को “लान्जेरी” प्रयोग करने वालों के मौलिक अधिकार की चिंता जायज है पर उन गरीबों के मौलिक अधिकारों का क्या जिनकी लंगोट भी काला धन की भ्रष्ट व्यवस्था के कारण पिछले ७० सालों से छीन गयी है.

अजीब है संपन्न वर्ग का तर्क. पूर्व मंत्री ने एक सारिणी दे कर समझना चाहा है कि अमरीका, जर्मनी फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा सरीखे संपन्न देशों में भी नकद का प्रयोग लगभग आधे से ज्यादा काम-काज में होता है. वह यह बताना भूल गए कि स्विट्ज़रलैंड का प्रधानमंत्री बस में कंडक्टर से टिकट लेकर संसद में आता है और सन १९२४ में कैम्पबेल काण्ड में प्रधानमंत्री की सरकार इसलिए चली गयी कि राजनीतिक कारणों से सरकार ने कुछ लोगों के खिलाफ मुकदमे उठा लिए थे (यह घटना भी यू पी ए के शासन काल में बनी प्रशासनिक सुधार आयोग की चौथी रिपोर्ट पेज संख्या ९ में ऊधृत की गयी है) जबकि भारत में बेटे पर भ्रष्टाचार के मुकदमें के बाद भी लोग मंत्री बने रहते हैं. जिन पश्चिमी देशों का हवाला पी सी साहेब ने दिया है वहां भ्रष्टाचार इस तरह लोगों के जीवन को नहीं खा रहा है कि सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी ) का ६६ प्रतिशत काली संपत्ति में बदल जाता हो.

पी सी का एक और तर्क देखिये. उनके अनुसार नोटबंदी से भ्रष्टाचार ख़त्म नहीं होगा. इसके लिए उनका कहना है कि इस घोषणा के बाद नए नोट लेते हुए जो लोग रँगे हाथ पकडे गए उनमें रिज़र्व बैंक, अन्य बैंक , पोस्ट ऑफिस , कांडला पोर्ट आदि तमाम सरकारी विभाग के अधिकारी हीं नहीं सेना के इंजीनियरिंग सेवा के अभियंता भी थे. यह कुछ ऐसा हीं तर्क है कि अगर ७० साल में अपराध बढे हैं तो न तो भारतीय दंड संहिता जी जरूरत है न हीं अदालतों या जजों की. और शायद यही सोच कर कांग्रेस सरकार ने ७० साल में से ५० साल से ज्यादा के अपने शासन काल में भ्रष्टाचार पर कभी अंकुश नहीं लगाया और नतीजा यह रहा कि काला धन सुरसा की तरह मुंह बढ़ाता चला गया.

कांग्रेस ने शायद नोटबंदी के खिलाफ तर्क जुटाने का काम अपने इस सबसे प्रतिभाशाली नेता और पूर्व वित्त मंत्री को दिया है पर उनके तर्क बचकाने हीं नहीं भ्रष्टाचार के प्रति सहिष्णुता का भाव रखते दिखाई देते है।  इस कांग्रेस नेता ने यह बताने की कोशिश की कि कि सरकार ने अपना “गोलपोस्ट” (लक्ष्य) बदला है. उनके अनुसार प्रधानमंत्री ने अपने ८ नवम्बर के राष्ट्र के नाम संबोधन में १८ बार “काला धन” शब्द का इस्तेमाल किया और पांच बार “जाली नोट” का लेकिन एक बार भी “कैशलेस” (नोट-विहीन आदान-प्रदान) का नहीं जबकि नवम्बर २७ के दो भाषणों में २४ बार “नोट-विहीन” (कैशलेस) शब्द का प्रयोग किया और “काला धन” शब्द का केवल नौ बार.

कोई नीति (या कानून) सही है या गलत समझाने का सर्वमान्य तरीका होता है यह प्रश्न करना कि इस नीति के न होने से क्या नुकसान हो रहा था या होता. दूसरा इस नीति से नीति निर्माता को लाभ क्या मिलता --- परोक्ष रूप से या प्रत्यक्ष रूप से. जिस शाम मोदी ने नोटबंदी की घोषणा की एक सामान्य    ज्ञान का बच्चा भी बता सकता था कि आम जनता को जबरदस्त दिक्कत होगी. शायद सरकार को भी इतनी समझ तो है हीं. दूसरा काला धन इस देश को ७० साल से खा रहा है और यह धन  भ्रष्टाचार  की स्थूल परिणति भी है और कारण भी. भ्रष्टाचार सामाजिक व्याधि है जो मूलरूप से  समाज में नैतिकता के ह्रास से पैदा होता है. इसे ख़त्म करने में राज्य अभिकरण की भूमिका सीमित होती है. और अगर होती भी है तो धन के सञ्चालन पर नियंत्रण के माध्यम से हीं. लिहाज़ा पहला कदम हीं इस धन पर अंकुश लगने का था जो नोटबंदी के जरिए सभी काले नोट को वापस लाने के प्रथम उपक्रम के रूप में हो सकता था. लिहाज़ा पहले नोटबंदी पर जोर दिया गया फिर कैशलेस आदान-प्रदान पर. इस में यह गारंटी नहीं होती कि भ्रष्ट और अनैतिक अफसर या नेता या सेठ कल से साधू  हो जाएगा और बैंक, आर बी आई और थाने का दरोगा माला ले कर जपा करेगा. उसके लिए कैशलेस अर्थ व्यवस्था को न केवल रियल एस्टेट में बल्कि चड्ढी खरीदने में प्रयुक्त करना होगा ताकि भष्टाचारी “मौलिक अधिकार” के नाम पर चड्ढी में सोना न छिपाए.

पी सी का एक और अतार्किक उदहारण लें. उनके अनुसार पहले सभी रियल एस्टेट, बड़े ठेके ऊँचे मूल्य वाले गहने  को डिजिटल पेमेंट की सीमा में लाना चाहिए. क्या वह आज भी नहीं है. क्या कानून बन जाएगा तो मकान की खरीद मात्र सफ़ेद धन में हीं होगी और पीछे से लिए जाने वाली काला धन                                                                          बंद हो जाएगा. उसके लिए सामान्य खरीद और उपभोग के ठिकानों पर अंकुश लगाना पहला कदम है अन्यथा ओवर- इन्वोइसिन्ग और अंडर- इन्वोइसिन्ग के जरिया काला धन पैदा होने का स्रोत बना रहेगा.
और फिर अगर पी सी ऐसा मानते हैं कि बड़े सौदे डिजिटल माध्यम से हों तो उन्होंने कार्यकाल में यह “जादुई” छडी क्यों नहीं घुमाई?

मोदी सरकार को अगले कदम में मजबूत कानून श्रृंखला और संस्थागत सपोर्ट की ज़रुरत है. जिसे अगले कुछ महीनों में करना होगा ताकि न तो आयकर अधिकारी भष्टाचार का तांडव कर सके न हीं भ्रष्टाचारी बच के निकल सके. लेकिन इन सबके बाद अभी कई संस्थागत चिदंबरम पैदा होंगे जो मौलिक अधिकार की दुहाई दे कर बचना चाहेंगे बगैर यह देखे हुए कि ७० साल में करोड़ों गरीबों के मौलिक अधिकार को किसने हडपा. भ्रष्टाचारी से जब इनकम टैक्स अधिकारी पूछेगा कि नौकर ने तीन करोड का फ्लैट कैसे लिया तो वह अदालत में संविधान के अनुच्छेद १९ (१) (छ) की दुहाई दे कर बचना चाहेगा यह कहते हुए कि व्यवसाय के मौलिक अधिकार का हनन हो रहा है. भारत जैसे उदार प्रजातंत्र में अदालतें भी चश्मा लगा कर इस भ्रष्टाचारी को राहत देती नज़र आयेंगी. लिहाज़ा सरकार तो अपना काम कर रही है लेकिन एक व्यापक जन आन्दोलन की ज़रुरत है भ्रष्टाचार के इस कोढ़ के खिलाफ जैसा कि २०११ में अन्ना के आन्दोलन के समय नज़र आया था.  और यह तब तक संभव नहीं जब तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  सरीखे बड़े संगठन, राजनीतिक दल एक स्वर में इस भारत को बदलने के यज्ञ में शामिल न हों.  

jagran

Sunday 27 November 2016

काला धन: विपक्ष का कुतर्क




अद्भुत है इस देश के एक वर्ग की तर्क शक्ति जो सकारात्मक को नकारात्मक बना कर जन विमर्श में डालने की जबरदस्त सलाहियत रखता है. पूर्व-वित्त मंत्री और कांग्रेस नेता चिदंबरम के सवाल-जवाब के प्रारूप में लिखे गए ताज़ा लेख में यह बताने की कोशिश की गयी है कि काला धन कोई बड़ी समस्या नहीं है और दुनिया के सभी देशों में यह कमोबेश है. इस बात को सिद्ध करने के लिए उन्होंने वर्ल्ड बैंक के एक अध्ययन को लिया है जिसके अनुसार अमेरिका में छाया अर्थ-व्यवस्था (काले धन की अर्थव्यवस्था) सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी ) का ८.६ प्रतिशत, चीन में १२.७ प्रतिशत जापान में ११ प्रतिशत और भारत में २२.२ प्रतिशत है. उनका कहना है कि ब्राज़ील , रूस और दक्षिण अफ्रीका में तो यह भारत से भी ज्यादा है. याने पूर्व वित्त मंत्री के हिसाब से यह कोई खास समस्या नहीं है जिसके लिए जनता को इतने कष्ट में डाला जाये.

तर्क-शास्त्र में एक दोष का वर्णन है --- अपने मतलब के तर्क वाक्य छांट लेना और बाकि छोड़ देना. चिदाम्बरम ने अपने लेख में इसका खूब इस्तेमाल किया. वह भूल गए कि उनके शासन काल में हीं देश के एक प्रख्यात अर्थ-शास्त्री प्रोफेशन अरुण कुमार ने यह आंकड़ा गलत बताया और कहा कि भारत में काली अर्थ-व्यवस्था जी डी पी ६० प्रतिशत याने १.४० ट्रिलियन डॉलर है. विश्व बैंक के आंकडे का आधार गलत है और दूसरे चार अन्य अध्यनों में भी इसे ४० प्रतिशत से ७० प्रतिशत बताया गया है. कांग्रेसी कुतर्क का यह आलम है कि यू पी ए -२ में २०१२ में इस मुद्दे पर जारी श्वेत पत्र में श्नेडर गणना (गत्यात्मक बहु-संकेतक बहु-कारक आंकलन पद्यति ) को आधार माना गया जिसके अनुसार श्री लंका में भारत से तीन गुना काली अर्थ-व्यवस्था है । इसके उलट यह देश मानव विकास सूचकांक में भारत से काफी आगे है. चिदंबरम अपने तर्क के आधार पर यह भी कह सकते हैं कि श्री लंका की तरह भारत में भी काली अर्थ-व्यवस्था को दूना किया जाना चाहिए क्योंकि इससे मानव विकास बेहतर होता है.  

चिदंबरम के अन्य खुद हीं पैदा किये गए सवाल और उनके खुद हीं दिए गए जवाव देखिये. प्रशन :क्या नोटबंदी से भ्रष्टाचार रुकेगा? जवाब: नहीं. भ्रष्टाचारी नए नोट में घूस लेंगे? क्या इससे नकली नोट छपना बंद होंगे? नहीं, अगर वो पुराने नोटों की नक़ल कर सकते हैं  तो नए की भी कर लेंगे. प्रश्न: क्या इससे काला धन बंद होगा ? जवाब : नहीं, क्योंकि ऐसा करने वाले जिन क्षेत्रों – जैसे निर्माण, चुनाव या सोना की खरीद में यह सब करते रहेंगे. ये जवाब जितने सहज हैं उतना हीं बचकाने भी. इन सब जवाबों से यह निकलता है कि” लिहाज़ा यह कोई समस्या नहीं है और काला धन की समान्तर अर्थ व्यवस्था  चलती  रहनी चाहिए. और शायद यही कारण रहा कि ७० साल में इसे पाल-पोस कर दैत्याकार बना दिया कांग्रेस सरकार ने. यू पी ए -२ के शासन काल में काला धन पर एक श्वेत पत्र जारी किया गया उसमें भी यही आंकड़े दिए गए. और यहाँ तक बताया गया कि एशिया के अन्य देशों में तो यह समस्या दूनी ज्यादा है. कांग्रेस के ४५ साल के शासन में कभी कोई सार्थक प्रयास नहीं हुआ.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नोटबंदी के ऐलान के बाद पहले २४ घंटों में देश की प्रतिक्रिया बेहद सकारात्मक रही. “सेठ फंसा”, “घूसखोर अफसर अब क्या करेगा” या “नेतवा की रात की नींद उड़ी” का ७० साल पुराना घुन लगा भाव अचानक मुखर हुआ. लेकिन उसके बाद यह प्रतिक्रिया नकारात्मकता में बदली और बढ़ती चली गयी. कमज़ोर वर्ग इस फैसले से दिक्कत में रहा और अभी भी है. इस दिक्कत को बेहतर ऐलान-पूर्व रणनीति के तहत कम किया जा सकता है. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी इसे माना.

लेकिन इसी बीच अर्थशात्रियों का एक वर्ग इस प्रयास के औचित्य पर प्रश्न उठाने लगा. उस का कहना था कि नोटबंदी मुख्य समस्या का समाधान नहीं है क्योंकि धन के रूप में काली कमाई और उससे उपजी संपत्ति का बहुत कम हिस्सा हीं नकदी के रूप में रहता है. उनका मानना है कि हमला कहीं और करना होगा. इस हमले से एक तो कुछ चोर हीं पकडे जायेंगे और दूसरा इस प्रयास के अनुषांगिक क्षति के रूप में कमज़ोर तबके की दिक्कतें अचानक बढ़ जायेंगी. यह भी तर्क है कि इससे अगर कुछ चोर पकडे भी गए तो इससे आगे चोरी न हो इसकी कोई गारंटी नहीं है. यह आखिरी तर्क कुछ ऐसा है जैसे यह कहना कि चोर को जेल भेजने से यह सुनिश्चित नहीं होता कि अब कोई चोर पैदा नहीं होगा लिहाज़ा चोर पकड़ना छोड़ कर समाज में नैतिकता का प्रचार –प्रसार किया जाना चाहिए. दरअसल अव्वल तो यह राज्य का कार्य नहीं है. उसके लिए दूसरी सामाजिक –नैतिक संस्थाएं और गैर-राज्य प्रक्रियाएं होती हैं (जो भारत में विलुप्त-प्राय हैं) और दूसरे  अगर राज्य को कहीं से शुरू करना है तो आखिर किस मुकाम से शुरू करे, खासकर उस स्थिति में जब पूरा “आवां का आवां” हीं खराब हो. जिस देश में सिपाही से लेकर मंत्री तक और ठेकेदार से लेकर जज तक भ्रष्ट पाए जाते हों उसमें काला धन पर अंकुश लगाना किसी क्रांति से कम नहीं और वह भी न केवल राज्य-नीत क्रांति बल्कि सामाजिक –नैतिक –व्यक्तिगत –आध्यात्मिक क्रांति.    

एक बात जो इस प्रयास को नाकाफी बताने वाले अर्थशास्त्री भूल रहे हैं वह यह कि मोदी सरकार ने यह कदम उस समय उठाया है जब टेक्नोलॉजी ने समाज के हर व्यक्ति की एक –एक गतिविधि पर नज़र रखना बेहद सहज कर दिया है. आप माल जाते है उसका टीवी फुटेज है, आप के घर पर सेठ की कार दिवाली का गिफ्ट लेकर आती है उसका फुटेज मिल सकता है (सी बी आई के डायरेक्टर के घर कौन दलाल कब कब गया यह आज भी एक बड़ा मामला है), आप अब ज्यादा दिन बेनामी संपत्ति नहीं रख सकते क्योंकि जिसके नाम संपत्ति ली है उसे रजिस्ट्री आफिस में हीं फोटो खिंचवाना है. आपसे उसका रिश्ता पता लगाना मुश्किल नहीं होगा. उन सभी सोने बेचने वालों से सीसीटीवी फुटेज ली जा रहीं हैं जिन्होंने नोटबंदी की रात सोना बेंचा.  

सात दशक तक समाज कान में तेल डालकर सोता रहा “कोई नृप होहिं हमें का हानि” के भाव में और लोग अपनी जाति के कुख्यात छवि वाले लम्पट को भी प्रतिनिधि के रूप में प्रजातंत्र के मंदिरों –विधान सभाओं और संसद--को दूषित करने के लिए भेजता रहा. समाज की सोच की जड़ता यहाँ तक बढ़ी कि गाँव में बूढ़ी माँ बेटे की नौकरी लगने पर यह पूछने लगी कि “ऊपर की आमदनी कितनी है?”. भष्टाचार पूरे समाज में आत्मसात हो गया, जीवन पद्यति का भाग बन गया और महिमा-मंडित होने लगा. शादी के बाज़ार में एक सप्लाइ इंस्पेक्टर की कीमत इंटरमीडिएट के शिक्षक से ज्यादा होने लगी.

ऐसा नहीं था कि सरकारों को काला धन के बारे में आज पता चला है. अंग्रेज़ी शासन में भी इस व्याधि से मुक्ति के लिए अनेक समितियां बनी. सन १९३६ में अय्यर समिति ने सिफारिश की कि कर कानून में आमूलचूल बदलाव लाये जाएँ ताकि कम से कम कर –वंचना रोग की तरह न फैले. लेकिन इच्छा-शक्ति का नितांत अभाव रहा. आज जरूरत है कि भारतीय समाज इसे एक जन अभियान के रूप में ले और भ्रष्टाचार की ताबूत में आखिरी कील ठोके स्वयं को बदल कर और दूसरों पर बदलने का दबाव बना कर. केवल राज्य अभिकरण यह काम नहीं कर सकते.    

jagran

Thursday 3 November 2016

औपचारिक संस्थाएं बनाम अतार्किक जन सोच


एक खबर के अनुसार उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब चुनाव के मद्दे नज़र चुनाव आयोग उन दलों पर शिकंजा कसेगा जो मतदातों से बड़े –बड़े और लुभावने वादे करते हैं. ऐसे दलों को एक शपथ पत्र देने होगा कि वे इन वादों को पूरा करेंगे और अपने घोषणा-पत्रों में भी उन वादों को पूरा करने के लिए अपेक्षित वित्त की व्यवस्था के बारे में विस्तार से देना होगा. अब मान लीजिये किसी दल ने कहा “सब  छात्रों को मुफ्त लैपटॉप” और दावा किया कि इसके लिए वित्त जुटाने के लिए भ्रष्टाचार दूर करके कर वसूली बढाया जाएगा. क्या चुनाव आयोग यह कह सकता है कि उसे भ्रष्टाचार ख़त्म करने के पार्टी के दावे पर विश्वास नहीं और क्या वह इस आधार पर पार्टी का चुनाव चिन्ह रद्द कर सकता है. उधर   सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय संविधान पीठ के समक्ष एक बार २५ साल जन प्रतिनिधि कानून की धारा १२३ (३) के तहत आने वाला पुराना विवाद उस खडा हुआ है. अदालत ने सरकार सहित सभी पक्षों से पूछा है कि “क्या धर्म, जाति या जन-जाति के नाम पर यह कहते हुए कि अगर वोट मिलेगा तो उस समुदाय की रक्षा और विकास किया जाएगा, वोट माँगा गया तो इसे "भ्रष्ट आचरण  की संज्ञा दी जा सकती है"?, मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली इस संविधान पीठ ने इसी तरह के अन्य कई सवालों का जवाब जानना चाहा है। शायद हम नैतिकता और वैज्ञानिक सोच के प्रति जन-उदासीनता से जन्मे सवालों का समाधान औपचारिक संस्थाओं व प्रक्रियाओं के माध्यम से खोज रहे हैं.  

दरअसल अदालत की मजबूरी यह है कि सामाजिक या विश्वास के मुद्दे जब उसके पास आते हैं तो उन्हें तर्क और कानून की कसौटी पर कसा जाता हैं. अगर वह मुद्दा एक व्यापक समाज में विश्वास का मक़ाम हासिल कर चुका है तो चाहे वह कितना भी गलत क्यों न हो औपचारिक संस्थाओं या व्यवस्थाओं या क़ानूनों द्वारा उस विश्वास को ख़त्म नहीं किया जा सकता. याने कोई भी अदालत यह नहीं कह सकती कि यह मुद्दा कानून से परे है और इसे सुलझाना निरपेक्ष और विश्वसनीय समाज सुधारकों का काम है. वास्तव में आज भारत में इस तरह के समाजसुधारकों की नस्ल लगभग विलुप्त हो गयी है. अब कबीर, दादू या रहीम पैदा नहीं होते. अदालत के प्रश्न काफी गहरे हैं. दलित और आदिवासियों पर आज भी अत्याचार हो रहे हैं जब कि कानून दर कानून बनते गए और हर संशोधन में प्रावधानों को और सख्त किया जाता रहा. संविधान ने तो ७० साल पहले हीं छूआछूत ख़त्म कर दिया था.  

अदालत की चिंता को और अधिक विस्तार दिया जाये तो कई नए प्रश्न खड़े होते हैं. कुछ अन्य उदाहरण लें. अगर मायावती दलितों से वोट मांगे और वह कानून-सम्मत है तो फिर लालू यादव या मुलायम सिंह का यादवों की रक्षा और विकास के लिए वोट मांगना गलत क्यों? भारत में व्यक्ति की जाति या समुदाय के बारे में उसके नाम से और कई बार परिधान से पता चल जाता है. जब कोई ओवैसी ऊँचे पायचे का पाजामा और दुपल्ली टोपी लगाये या खास सलीके से कटी दाढी के साथ बिहार के किसनगंज में जहाँ एक सम्प्रदाय विशेष की आबादी ७० प्रतिशत है जा कर उनके हिफाजत का वायदा करते हुए वोट माँगता है तो क्या इसे समझने के लिए कि यह “धर्म के नाम पर वोट मांगना है” किसी आइन्स्टीन के दिमाग की ज़रुरत है? जन प्रतिनिधि कानून की धारा १२३ (३) के तहत कोई भी प्रत्याशी या उसका एजेंट या उसकी सहमति पाया व्यक्ति अपने धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा अथवा धार्मिक चिन्हों का इस्तेमाल करके उस प्रत्याशी के चुने जाने के अवसर को आगे बढ़ाता है या किसी अन्य प्रत्याशी के अवसर को प्रभावित करता है तो वह भ्रष्ट आचरण माना जाएगा.

भारत कुछ अलग किस्म का देश है जिसमें अनगिनत पहचान समूह है. सिर्फ़ इतना हीं रहता तो कोई बात नहीं थी. ७० साल में “फर्स्ट-पास्ट –द- पोस्ट “ सिस्टम की दोषपूर्ण चुनाव पद्यति के कारण राजनीतिक वर्ग ने इसे और धार दी है और कई बार नए पहचान समूह पैदा किये है जैसे “महादलित”. खास बात यह है कि राजनीतिक वर्ग इन पहचान समूहों को एक दूसरे से लड़ाता रहता है. अब समाजशास्त्र के नियमों को ध्यान दें तो अगर कोई मायावती (स्वर्गीय कांसी राम को न भूलें) होगा तो कोई लालू या मुलायम भी होगा, कोई कम्मा नेता होगा तो कोई कापू भी और कोई वोक्कालिगा होगा तो कोई लिंगायत भी. ऐसे में यह कैसे कह सकते हैं कि ओवैसियों के खिलाफ कोई वेदांती नहीं खड़ा होगा? कोई राम मंदिर नहीं राष्ट्रव्यापी मुद्दा बनेगा और राजनीतिक संवाद इसके इर्द-गिर्द नहीं घूमेगा. एक ऊँचे पायचे का पजामा पहन कर वोट मांगे तो ठीक लेकिन दूसरा तिलक लगा कर या गेरुआ पहन कर प्रत्याशी के पक्ष में खड़ा हो और धर्म विशेष के नाम पर वोट मांगे तो गलत !

एक और प्रश्न लें जो शायद सर्वोच्च अदालत के संज्ञान में होगा. एक व्यक्ति जिसकी स्वीकार्यता उस धर्म, जाति या अन्य पहचान समूह के अनुयाइयों के बीच है चुनाव मंच पर आता है लेकिन वह अपने प्रत्याशी के लिए विकास के नाम पर वोट माँगता है. लक्षित वोटर उसके कट्टर अनुयायी हैं लिहाज़ा वे प्रभावित हो कर वोट करते हैं. क्या इसे कानून सम्मत माना जा सकता है. उदाहरण के तौर पर कोई जैन मुनि या कोई लामा अपने अनुयाइयों को यह कहता है कि उसी पहचान समूह के अमुक व्यक्ति को वोट तो वह तुम्हारा विकास करेगा, तो क्या यह उचित ठहराया जा सकता है. ध्यान रहे कि मतदाता ने वोट इस आधार पर नहीं दिया कि उन्हें विकास को लेकर प्रत्याशी में विश्वास है बल्कि वोट देने की वजह मुनि या लामा के प्रति धार्मिक विश्वास है.

lokmat

इस कानून के उपरोक्त प्रावधान का मूल उद्देश्य यह था कि चुनाव के दौरान मतदाता के स्व –विवेक पर कोई भी अतार्किक भावनात्मक मुद्दे भारी न पड़ें. परन्तु अगर मतदाता जाति, धर्म , भाषा या नस्ल में हीं अपना भविष्य सुनिश्चित पाता है तो कानून उसे कैसे रोक सकता है? कानून तो बलात्कारियों और हत्यारों को भी फांसी की सजा देता है. फिर अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मौलिक अधिकार है और अगर अच्छे प्रजातंत्र के लिए डिबेट और जन-संवाद अपरिहार्य है तो रास्ता एक हीं बचताहै और वह है – मतदाताओं की सोच अर्थात् उन वास्तविक मुद्दों के प्राथमिकता जो वोटरोँ के अपने सम्यक विकास को सुनिश्चित करते हों.      

Thursday 20 October 2016

तीन तलाक और उलेमाओं के एक वर्ग का पूर्वाग्रह




शायद हमने गलत समझ की वजह से पिछले ७० सालों में प्रजातंत्र को मजाक बना दिया है. या यूं कहें कि प्रजातंत्र मानसिक ऐय्यासी का अखाडा बन गया है जिसमें अभिजात्य वर्ग बौद्धिक जुगाली करते हुए देश की शांति, विकास और जीवन के गुणवत्ता को बाधित कर रहा है. समान नागरिक संहिता का विरोध,  भारत –विरोधी और पाकिस्तान-समर्थक नारे देश की छाती दिल्ली के जे एन यू में लगाने वालों में भी “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देखना”, एक साथ केंद्र और राज्य के चुनाव कराने की अवधारणा की कुछ क्षेत्रीय दलों द्वारा मुखालफत, आतंकवाद के खिलाफ प्रभावी कदम उठाने के लिए केंद्र को अधिक शक्ति देने के खिलाफ राज्यों का खड़ा होना, केंद्र के तमाम जन कल्याण के कार्यक्रमों के प्रति राज्य सरकारों का इस लिए उदासीन होना कि इसका श्रेय केंद्र की सरकार को मिलेगा कुछ उदाहरण है. गौर करें, भारत जिस किस्म का आतंकवाद पिछले ३० सालों से झेल रहा है उसका आयाम न केवल देश-व्यापी है बल्कि मूल रूप से वैश्विक है. आतंकवादी बाहरी मुल्कों से आते हैं, देश में भी पाकिस्तानी कुप्रयासों से उनकी पौध लगाई जाती है. हाल के दौर में पाकिस्तानी एजेंसियों ने बांग्लादेश और नेपाल को नर्सरी के रूप में विकसित किया है. लेकिन जैसे हीं केंद्र सरकार ने कुछ साल पहले कानून में बदलाव करके आतंकवाद –निरोधक राष्ट्रीय इकाई को राज्यों में स्थापित कर उन्हें राज्यों की पुलिस के समान अधिकार देने चाहे कई राज्य तन कर खड़े हो गए इस तर्क के साथ कि यह अर्ध-संघीय ढांचे के खिलाफ है और इससे उनकी स्वायत्तता बाधित होती है. अमरीका हमसे बड़ा संघीय संविधान है और जहाँ राज्यों को बेहद अधिक अधिकार हैं लेकिन जब ९/११ को वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हमला हुआ उसके एक साल में वहां केंद्र ने निर्बाध शक्तियां होमलैंड सिक्यूरिटी एक्ट के तहत अपने पास ले लीं. किसी राज्य ने चूं भी नहीं किया.

हमारे देश में ताज़ा चर्चा है समान नागरिक संहिता को लेकर. याने क्या देश में “तीन तलाक” , “निकाह हलाला” और बहु-विवाह प्रथा बनी रहनी चाहिए या संविधान के अनुच्छेद १४, १९ और २१ के अनुरूप हर नागरिक को चाहे वह किसी भी धर्म का हो या किसी भी लिंग का, समान अधिकार होने चाहिए? और यह बात देश की सर्वोच्च अदालत ने पूछी है किसी राजनीतिक पार्टी ने नहीं या किसी धार्मिक-सामाजिक संगठन ने नहीं. देश की लॉ कमीशन ने १६ सवाल बना कर जनता से उनकी राय जाननी चाही है. अचानक आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तन कर खडी हो जाती है तमाम उन बातों की दुहाई देते हुए जिनकी वजह से संविधान निर्माताओं को मजबूरी में कुछ प्रावधान करने पड़े (जैसे अनुच्छेद २५ में धर्म का प्रोपोगेशन”। लेकिन फिर इस दबाव को निष्क्रीय करने के लिए नीति निर्देशक तत्वों में फिर से एक बार समान नागरिक संहिता बनाना राज्य का कर्तव्य बताया. संविधान सभा की अल्प-संख्यक समिति के इसी दबाव की नतीजा था कि शिक्षा के लिए , संस्कृति के लिए और धर्म-आधारित व्यक्ति के सामूहिक अधिकार और धर्म-आधारित समूह के अधिकार का प्रावधान अनुच्छेद २६ से ३० तक में देखने को मिलता है. पाकिस्तान बनने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी, हर दूसरे दिन अल्प-संख्यक समिति अपने को अलग करने की धमकी देती थी. सत्ताधारी  दल उनका मान-मनौव्वल करता रहता था.

अब वर्तमान स्थिति पर. धर्म का मूल भाग और उस धर्म के अनुयाइयों द्वारा प्रयोग में लाये जाने वाली परम्परों में अंतर होता है. परम्पराएं धर्म का मूल भाग नहें होती. लिहाज़ा अनुच्छेद २५ में मिलने वाला मौलिक अधिकार परम्पराओं पर लागू नहीं होता. सर्वोच्च अदालत में दो माह पहले इसी मामले में दायर एक प्रति-हलफनामे में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने स्पष्ट रूप से कहा कि “तीन तलाक और बहु-विवाह अवांछित हैं”. अगर यह इस्लाम धर्म का मूल भाग होता तो अवांछित न होता. सर्वोच्च न्यायलय ने पहले भी कई फैसलों में यह स्पष्ट किया है.

फिर अगर पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित दुनिया के २२ देश जिसमें अधिकांस इस्लामिक राज्य हैं, इस शोषक और पुरुष-प्रधान कुप्रथा को छोड़ चुके हैं तो भारत में क्यों बनाये रखने पर मुसलमान उलेमाओं का एक वर्ग जोर दे रहा है? मधु किश्वर बनाम बिहार राज्य में इसी अदालत ने कहा था कि अगर कोई प्रथा या  कस्टम मौलिक अधिकारों को बाधित करता है तो गैर-कानूनी है. सबसे पहले मिस्र ने इस तीन तलाक की प्रथा से निजात पाई और वह भी आज से ८७ साल पहले सन १९२९ में कानून संख्या २५ बना कर. दरअसल इस्लाम के चार स्कूलों में से एक –हन्बली --के विद्वान् इब्न तैमियह ने १३ वीं सदी में पहली बार तीन तलाक़ के व्याख्या करते हुए कहा था कि एक बैठक में तीन बार तलाक कहना मुकम्मल नहीं माना जाएगा और इसे एक बार कहा हुआ तलाक समझा जाएगा. मिस्र ने यह बदलाव इसी के मद्दे नज़र किया था. लेकिन इसके बाद पूरी दुनिया के इस्लामिक देशों में इसे माना जाने लगा और तदनुरूप कानून बनाए गए. सूडान ने इसे १९३५ में लागू किया. कालान्तर में धुर इस्लामिक राष्ट्र जैसे इराक, जोर्डन , इंडोनेशिया , संयुक्त अमीरात और क़तर भी तैमियाह की व्याख्या के अनुरूप कानून लाये। 

                    टर्की और पाकिस्तान
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उधर एक अन्य धारा का प्रतिनिधित्व करते हुए मुस्तफा कमाल के शासन में टर्की में सन १९२६ में स्विस नागरिक संहिता को अंगीकार किया गया. यह संहिता पूरे यूरोप की सबसे प्रगतिशील संहिता मानी जाते थी. लेकिन किसी मुसलमान ने नहीं कहा कि यह इस्लाम के खिलाफ है. पाकिस्तान में १९५५ में तत्कालीन प्रधानमंत्री मुहम्मद अली बोगरा ने पहली पत्नी को तलाक दिए बगैर अपनी सेक्रेटरी से शादी कर ली। पूरे पाकिस्तान में गुस्से का सैलाब आ गया. महिला संगठनों ने प्रदर्शन शुरू किये. मजबूरन एक कमीशन बनाया गया जिसने १९५६ में व्यवस्था दी कि एक बैठक में तीन बार कहा गया तलाक एक बार माना जाएगा. और तब से सुधार शुरू हुआ.

आखिर क्या वजह है कि भारत के उलेमाओं का एक वर्ग इस्लाम को इतना कमज़ोर मानता है कि स्त्रियों को समान अधिकार देने की व्यवस्था में उसे खतरा नज़र आ रहा है ? दरअसल कमज़ोर भारतीय इस्लाम नहीं है बल्कि देश के उलेमा हैं जिन्हें अपनी संस्था के अस्तित्व पर खतरा नज़र आने लगा है.
पूरी दुनिया की न्याय व्यवस्था में माना जाता है कि जीने का अधिकार तब तक सम्पूर्ण नहीं हो सकता जब तक जीने का विश्वास और गरिमा के साथ जीना शामिल न हो. प्रश्न  यह भी नहीं है कि कितनी मुसलमान औरतें इस प्रथा की शिकार हैं. अगर एक भी है तो वह प्रथा सभी समाज पर दाग है.

आधुनिक धर्म-निरपेक्षता के सिद्धांत के जनक होल्याके ने नैतिकता की परिभाषा देते हुआ कहा “नैतिकता व्यक्ति के उन्नयन पर आधारित होती है और उसका किसी भगवान् या भविष्य की दुनिया के  वादे से कोई मतलब नहीं होता. लिहाज़ा इसे कभी भी भगवान और धर्म से परे रखना चाहिए. भारत एक धर्म-निरपेक्ष देश है जिसमें व्यक्ति स्वातंत्र्य सर्वोपरि है. इसे बनाये रखने में मुस्लिम उलेमाओं के सभी वर्ग मदद करे तो शायद यह इस्लाम की भी बड़ी सेवा होगी.

jagran

Thursday 14 July 2016

संवैधानिक प्रावधानों का सम्मान ज़रूरी

“मन की बात” मात्र आकाशवाणी से माह में एक बार कुछ पलों के लिये भले हीं हो यह माना जाता है कि मन निर्मल होता है और वह काल- और स्थिति –सापेक्ष नहीं होता बल्कि व्यक्ति का शाश्वत आभूषण होता है. देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी “मन की बात “ करते हैं. एक निर्मल सन्देश का भाव होता है और देश भी उसे यथावत ग्रहण हीं नहीं करता अपितु अमल में लाता है. लेकिन जब देश के हीं दो राज्यों में छल करके सत्ता में आने का कुचक्र किया जाता है और उसे सुप्रीम कोर्ट “असंवैधानिक” करार देता है तो शंका होती है कि “निर्मल मन” से यह कैसी “गंगा” ?

सुप्रीम कोर्ट ने मात्र दो महीने के भीतर दो फैसले दिए और दोनों में केंद्र और राज्यपाल की भूमिका पर प्रश्न चिन्ह लगा और दोनों राज्यों में कांग्रेस की सरकारें पुनर्प्रतिष्ठापित की गयीं. ताज़ा फैसला जो कि अरुणाचल प्रदेश के बारे में है एक तरह से राज्यपाल को “दोषी” ठहराने की तरह है. विश्वास नहीं होता कि राज्यपाल की संस्था “दिल्ली दरबार” को खुश करने के लिए इस हद तक गिर सकती है. संविधान निर्माताओं ने इस संस्था को बेहद सम्मानित स्थिति देने चाहा था और इसी वजह से देश की दो संस्थाओं --- राष्ट्रपति और राज्यपाल – के शपथ का प्रारूप अनुच्छेद में रखा जबकि बाकि सभी संस्थाओं का ---- प्रधानमंत्री से लेकर विधायक तक और सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश से लेकर हाई कोर्ट के जज तक --शपथ-प्रारूप अनुसूची में रखा. और साथ हीं जहाँ राष्ट्रपति व राज्यपाल संविधान के परिरक्षण, संरक्षण और अभिरक्षण की शपथ लेते हैं वहीं बाकि लोग यहाँ तक कि भारत के प्रधान न्यायाधीश को भी संविधान में निष्ठा की शपथ लेनी होती है.

लेकिन यहाँ सवाल सिर्फ राज्यपाल की भूमिका का नहीं है. संविधान के अनुच्छेद ३५६ में स्पष्टरूप से लिखा गया है कि “राज्यपाल की रिपोर्ट पाने या अन्यथा (याने किसी भी अन्य रिपोर्ट या सूचना के आधार पर) अगर राष्ट्रपति इस बात से संतुष्ट है कि राज्य संवैधानिक प्रावधानों .......  “ . अर्थात केंद्र सरकार (१) राज्यपाल की बात मानने को बाध्य नहीं है  और  (२) वह अन्य साधनों से भी तथ्यों व स्थिति का पता लगा सकती है. इसलिए राज्यपाल के फैसले पर अगर राष्ट्रपति शासन लगाया गया है तो इस कृत्य का आरोप मात्र राज्यपाल पर नहीं बल्कि केंद्र पर लगता है. दूसरा १९९४ में सुप्रीम कोर्ट के नौ–सदस्यीय संविधान पीठ का फैसला आज भारत में राज –काज (ऐसे मामलों) में बोम्मई जजमेंट के नाम से ध्रुव तारे की तरह दिशा बताता है. उस फ़ैसलै में स्पष्टरूप से राज्यपाल को क्या करना चाहिए और क्या नहीं, केंद्र को किस बात का संज्ञान लेना चाहिए और कितना यह सब दिया गया है. लिहाज़ा केंद्र जब भी चाहे राज्यपाल (अगर वह केंद्र के इशारे पर काम नहीं कर रहा है) के फैसले को नज़रंदाज़ कर सकता है.

मान लीजिये कि केंद्र में शासन कर रही भारतीय जनता पार्टी का यह तर्क मान भी लिया जाये कि अगर कोई पार्टी अपनी आतंरिक कलह के कारण टूट भी रही है तो क्यों न उसका फायदा उठाते हुए सरकार बनायी जाये, तो क्या यह देखना जरूरी नहीं कि दल-बदल विरोधी कानून, २००३ के प्रावधानों को ठेंगा न दिखाया जाये. इस कानून के अनुसार दल-बदल तभी वैध होगा जब किसी दल के दो-तिहाई विधायक पार्टी छोड़ें और किसी दूसरे दल में शामिल हों. इन दोनों राज्यों में टूटने वाले कांग्रेस विधायको की संख्या क़ानूनी सीमा से काफी कम थी. लिहाज़ा इसे किसी भी किस्म का समर्थन देना अनैतिक हीं नहीं गैर-कानूनी भी था. लेकिन भारतीय जनता पार्टी के कुछ उत्साही नेताओं ने न केवल इन्हें भड़काया बल्कि इन्हें अपने होटलों में ठहराया और बाद में अपनी पार्टी में शामिल किया.

शायद पार्टी के शीर्ष नेताओं में संवैधानिक मर्यादाओं के प्रति अपेक्षित निष्ठा नहीं है जिसका नतीजा यह होता है कि आरोप की आंच सीधा प्रधानमंत्री मोदी तक पहुँच जाती है. कोई भी “सक्षम” प्रधानमंत्री यह नहीं चाहेगा कि देश को नयी उंचाइयों तक ले जाने के वायदे के लिए जनता में सरकार और उसके मुखिया के प्रति एक अपेक्षित विश्वास कहीं कम हो. राज्यों में चुनी हुई कांग्रेस सरकारों को असंवैधानिकरूप से हटाने के मामले में  तो मोदी को इस तर्क का भी लाभ नहीं मिल सकता कि “भारत माता की जय बोलने” या गौ मांस खाने वालों को पाकिस्तान ्भेजने के संघीय दुराग्रह से प्रधानमंत्री मजबूर हैं. फिर इस तरह के फैसले लेने का प्रयोजन भी क्या था – दो छोटे-छोटे राज्यों में छल करके सरकार बनाना? उत्तराखंड में तो वैसे भी कुछ माह में चुनाव होने वाले हैं. शायद प्रधानमंत्री को छोटी सोच वाले पार्टी व सरकार के रणनीतिकारों से बचना होगा.    

फिर सुप्रीम कोर्ट के दोनों फैसलों से देश भर में जो सन्देश गया वह यह कि राज्य की गैर-भाजपा सरकारों के प्रति केंद्र का अनैतिक हीं नहीं दमनकारी और वैमंस्य्तापूर्ण रवैया है. ऐसे में “सहकारी संघवाद” (को-ऑपरेटिव फेड़ेरालिस्म) के मोदी डॉक्ट्रिन का क्या होगा? विकास के लिए राज्यों का सहयोग अपरिहार्य है. क्या मोदी के तमाम जनोपयोगी कार्यक्रमों पर उसी शिद्दत से राज्य सरकारें अमल करेंगी? क्या मोदी को यह नहीं मालूम कि केंद्र अधिकांश कार्यक्रम उदासीनता की चौखट पर दम तोड़ देंगे अगर राज्यों का साथ न मिला? पर यह ओछी हरकत क्यों?              

अगले हफ्ते प्रधानमंत्री ने अंतर-राज्यीय परिषद् की बैठक बुलाई है. शायद मकसद है फिर से एक बार केंद्र –राज्य संबंधों में दुराव कम करना और विकास को आगे बढ़ने के लिए उनकी मदद मांगना जिसमें जी एस टी बिल के लिए राज्य सभा में समरथन हासिल करना भी शामिल है.  

भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन ने सन २०० में गणतंत्र दिवस की स्वर्णजयंती समारोह के अवसर पर देश की संसद से राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा था “आज हमें विचार करना होगा कि संविधान ने हमें असफल किया है या हमने संविधान को”. आगे उन्होने देश के प्रथम राष्ट्रपति डर राजेंद्र प्रसाद के कथन को उधृत किया --- अगर लोग जो चुने जा रहे हैं चरित्रवान और ईमानदार व्यक्तित्व वाले सक्षम (लोग) हैं तो वे एक खराब संविधान से भी बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं लेकिन अगर उनमें ये कमियां हैं तो एक बेहतरीन संविधान भी देश की मदद नहीं कर सकता”.

lokmat

Wednesday 6 July 2016

मोदी और उनकी सरकार का दुराग्रहपूर्ण विश्लेषण



ताज़ा मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर एक अंग्रेज़ी अखबार लिखता है “ स्मृति ईरानी को हटा कर प्रकाश जावडेकर को उनकी जगह पर बैठा कर संघ (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) ने अपनी बाँहों की ताकत एक बार फिर दिखाई”. मुझे याद आता है कि जब स्मृति ने मानव संसधान मंत्री के रूप में शपथ लिया था  तो इसी अख़बार ने घोषित किया कि चूंकि स्मृति संघ के नजदीक हैं इसीलिये मोदी को उनको इस पद पर लेना पड़ा. पिछले दो साल से भारत के ये “लाल बुझक्कड़” विश्लेषक (जिसमें कई बार मैं भी शामिल होता हूँ) जनता को बताते रहे कि किस तरह स्मृति ईरानी के ज़रिए संघ अपना एजेंडा लागू करवाने के लिए विभाग के तमाम पदों पर संघ के लोगों को बैठा रहा है. याने स्मृति मंत्री बनी तो भी संघ के कारण और हटीं भी तो संघ के बाजू की ताकत और इस बीच यह आरोप भी कि मंत्री संघ के इशारे पर शिक्षा के जरिए हिन्दुत्त्व ला रहीं है.

यहाँ हम उन विश्लेषकों की बात नहीं कर रहे हैं जिनका भारतीय जनता पार्टी, हिन्दुत्त्व, संघ और तत्संबंधी सभी अन्य विचारों, अवधारणाओं और संस्थाओं के खिलाफ लिखना या बोलना एक शाश्वत भाव है बल्कि उनकी, जो निरपेक्ष भाव से विश्लेषण करने का दावा करते हैं. क्या हम दुराग्रही नहीं होते जब इस विस्तार के सकारात्मक मूल भाव को छोड़ कर इसमें भी संघ, पॉलिटिक्स और आक्रामक हिन्दुत्त्व देखने लगते हैं? उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश , उत्तराखंड और पंजाब में चुनाव हैं लेकिन राजस्थान, मध्य प्रदेश में फिलहाल नहीं. इस विस्तार में राजस्थान से चार मंत्री और मध्य प्रदेश से तीन मंत्री लिए गए हैं जब कि उत्तर प्रदेश से भी तीन , उत्तराँचल से एक और पंजाब से एक भी नहीं. लेकिन हम “लाल बुझक्कड़ विश्लेषक” टी वी चैनेलों के डिस्कशन में और लेखों में यह कह रहे हैं कि यह विस्तार आगामी चुनाव के मद्देनज़र, धर्म और जाति को साधने के लिए किया गया है. हम तर्कशास्त्रीय दोष के शिकार हैं या बीमार मानसिकता के यह समझ में नहीं आता जब इसमें भी राजनीति देखते हैं कि मोदी ने यू पी में ब्राह्मण वोट को साधने के लिए महेंद्र पाण्डेय को, दलित में पासी वोट के लिए कृष्णराज को और पटेल (कुर्मी) वोट के लिए अनुप्रिया पटेल को मंत्रिपरिषद में जगह दी. अगर यह तर्क है तो पंजाब को क्यों छोड़ दिया. इस पर हम विश्लेषक उसी हठधर्मिता से कहते हैं “हालांकि अहलुवालिया पश्चिम बंगाल से राज्य सभा में हैं लेकिन हैं तो सिख हीं न”. शायद उन्हें नहीं मालूम कि अहलुवालिया हमेशा बिहार में रहे हैं और पंजाब में उन्हें शायद हीं कोई जनता हो? २०१४ के चुनाव में जब पार्टी को उत्तर प्रदेश में ४२ प्रतिशत मत मिले और ७२ सीटें तब भाजपा सरकार में भी नहीं थी फिर कैसे २०१२ के १५ प्रतिशत के मुकाबले ४२ प्रतिशत वोट मिले?

इस विस्तार का सीधा सन्देश है कि “मोदी सरकार विवाद नहीं विकास चाहती है लिहाज़ा परफॉरमेंस हीं एक मात्र आधार रहेगा. प्रकाश जावडेकर सर झुका कर बगैर किसी विवाद में पड़े बेहद रफ़्तार से पर्यावरण को लेकर देश में हीं नहीं विदेश में काम करते रहे. मनोज सिन्हा जो स्वयं इंजीनियर रहे है चुपचाप रेलवे में अपना योगदान देते रहे। मोदी में  क्षमता पहचानने की सलाहियत है। स्मृति आक्रामक व्यक्तित्व की वजह से विवाद में रहीं. प्रधानमंत्री विवाद नहीं चाहते लिहाज़ा उनकी जगह प्रकाश जावडेकर को लाया गया. एक विख्यात सर्जन, एक पर्यावरणविद , एक सर्वोच्च न्यायलय का वकील , कई पूर्व अफसर और सभी पढ़े-लिखे सांसद इस विस्तार में जगह पाए. इसकी वजह यह थी कि विकास अब काफी टेक्निकल हो गया है और नेता चाहे कितना भी लोकप्रिय हो आज का विकास समझने की सलाहियत के लिए आधुनिक शिक्षा और समझ की ज़रुरत होती है.

यही वजह है कि तीन दिन पहले एक प्रमुख हिंदी अखबार के सम्पादक ने जब मोदी जी से इंटरव्यू में पूछा कि इन ढाई सालों के शासन के दौरान में कोई मलाल , तो उनका जवाब था कि मीडिया के एक वर्ग को जो २०१४ में हमारे हारने का दावा करता रहा, उसे हम ढाई साल में विकास को लेकर अपनी सदाशयता के बारे में “कन्विंस” नहीं कर पाए.

शायद मोदी सही थे और हम दुराग्रही. यह अलग बात है इसी में विश्लेषकों का एक वह वर्ग भी है जो निरपेक्ष विश्लेषण और वह भी केवल तथ्यों की आधार पर करता है और उसके विश्लेषण को सरकार को गंभीरता से लेना होगा.  
      
दुराग्रहपूर्ण विश्लेषण का एक और पहलू है। मीडिया में एक वर्ग “सेक्युलर विश्लेषकों” का है.  “भारत माता की जय” कहने पर इसरार करने वालों के खिलाफ इस “सेक्युलर बुद्धिजीवियों “ ने हजारों लेख लिख मारे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर एस एस) के लानत –मलानत की. लेकिन इनमें से किसी एक ने भी यह नहीं लिखा कि संघ के शिक्षा प्रकल्प द्वारा संचालित असम के एक स्कूल के एक मुसलमान छात्र सरफ़राज़ ने पूरी असम बोर्ड की परीक्षा में टॉप किया है. आज संघ के स्कूलों में ३०,००० से ज्यादा मुसलमान छात्र पढ़ रहे हैं. क्या कभी किसी बुद्धिजीवी ने सुना कि इन संघ-संचालित आधुनिक शिक्षा पद्धति में मुसलमानों से साइंस छोड़ कर हिन्दू धर्म अंगीकार करने का दबाव डाला गया? सरफराज के अगर पूरे असम में टॉप किया है तो वह गीता के श्लोकों और वैदिक ऋचाओं को पढ़ कर नहीं? लेकिन इन सेक्युलर बुद्धिजीवियों को सांप सूंघ गया इस खबर के बाद. किसी ने एक शब्द भी नहीं लिखा संघ के प्रयासों को लेकर. कम से सरकार की नहीं तो सामाजिक संगठनों के प्रति तो हम नैतिक ईमानदारी दिखा हीं सकते हैं.

“कोई धर्म आतंकवादी नहीं होता और आतंकवादियों का कोई धर्मं नहीं होता” यह कायरतापूर्ण जुमला अक्सर इस वर्ग के द्वारा हर आतंकी घटना के बाद फेंका जाता है. लेकिन वे यह नहीं बताते कि आतंकवादी का तो धर्म होता है. और वे  उसी धर्म में अपने  “अस्तित्व का कारण” ढूढते है और उसी के तले वे फलते-फूलते हैं. लिहाज़ा यह कहना की आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता सत्य को न पहचानने की कायरता है , “बाँझ” सोच है. कबूल करें कि आज इस्लामिक आतंकवाद दुनिया के लिए एक बड़ा ख़तरा है. इसे कम करने के दो हीं उपाय हैं. पहला कि इस धर्म के सच्चे अनुयायी इस आतंकवाद के प्रति “जीरो टोलेरेन्स” रखें. मस्जिदें और मदरसे इनके पनाहगार न बनें, ना  हीं इन्हें किसी किस्म का प्रश्रय पूरे समाज से मिले. लेकिन मुश्किल है कि ओसामा बिन लादेन को भी मुस्लिम समाज ने महिमामंडित होने पर ऐतराज नहीं जताया ना हीं ऐसे कदम उठाये जिससे आतंकवादी तत्वों में अपने समाज से एक सख्त सन्देश जाये कि अगर शरीया कानून  के तहत बलात्कारी संगसार किया जा सकता है तो आतंकवादी भी. उसे कहीं न कहीं यह सन्देश मिलता रहा कि यह हथियार इस्लाम को दबाने वालों के खिलाफ उठाया जा रहा है लिहाज़ा यह अल्लाह का काम है.  

अगर एक समुदाय के गुमराह युवा धर्म से अपने औचित्य का सर्टिफिकेट ले कर दुनिया की शांति के लिए भारत के सुख-चैन में बाधक बन रहे हों तो इसे रोकना हर नागरिक का चाहे वह किसी भी धर्म का हो पहला कर्तव्य है. दूसरा : अगर लड़ाई धर्म के नाम पर है और गरीबी या भौतिक-अभाव को लेकर नहीं, तो राज्य से ज्यादा भूमिका उस धर्म के अनुयाइयों की बनती है और बुद्धिजीवियों की भी. केवल मोदी –विरोध के शाश्वत भाव से शायद हम कुछ दिन में असली बौद्धिक जगत में अपनी स्वीकार्यता हीं नहीं उपादेयता भी खो देंगे. लिहाज़ा विश्लेषण हो लेकिन दुराग्रही भाव से नहीं.        

lokmat

Tuesday 28 June 2016

मोदी साक्षात्कार के निहितार्थ


कोई बड़ा नेता यू हीं इंटरव्यू नहीं दे देता, खासकर देश का प्रधानमंत्री और वह भी नरेन्द्र मोदी जैसा. इसके पीछे कोई उद्देश्य होता है जो काल, स्थिति और मैसेज को ध्यान में रख कर किया जाता है. फिर इसी के अनुरूप  माध्यम और संस्था और भाषा का चुनाव होता है.

देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्र को संबोधित भी कर सकते थे. प्रेस कांफ्रेंस भी कर सकते थे या किसी ज्यादा प्रसार वाले अखबार या ज्यादा टी आर पी वाले हिंदी चैनल को भी यह इंटरव्यू भी दे सकते थे. पर उन्होंने एक अंग्रेज़ी का टी वी चैनल हीं क्यों चुना और फिर खुद हिंदी में हीं क्यों बोला, यह जानना जरूरी है.

राष्ट्र को संबोधित करना एकल संवाद होता है जैसे “मन की बात”. इसमें यह आभास नहीं मिलता कि जनता के सवालों का जबाव मिल रहा है. प्रेस कांफ्रेंस बेलगाम होता है और कई बार मूल आयाचित सन्देश प्रश्नों के अम्बार में खो जाता है. भारतीय जनमानस में औपनिवेशिक मानसिकता की वजह से आज भी अंग्रेज़ी को बौद्धिकता का पर्याय माना जाता है और साथ हीं कुछ हद तक बौद्धिक ईमानदारी का भी. लेकिन साथ हीं अंग्रेज़ी सवालों का हिंदी में जवाब ८० करोड़ से ज्यादा हिंदी बोलने और समझने वालों को अपने नेता की बात बोधगम्य बनाती है. दो साल से ज्यादा के शासन काल में निरपेक्ष विश्लेषकों के मन में हीं नहीं, जनता का मन में भी कुछ शंकाएं जन्म लेती हैं और उन शंकाओं का समाधान मात्र इसी तरीके से किया जा सकता था.

इस ८८ मिनट के इंटरव्यू में चार प्रमुख अन्तर्निहित सन्देश जो  प्रश्नों के उत्तर के रूप मे  थे प्रधानमंती देना चाहते थे. एक यह कि अगर देश का विकास सर्वोपरि है तो हर तीसरे दिन कोई सत्ता –पक्ष का नेता या मंत्री या भगवाधारी  भावनात्मक मुद्दे उठा क्यों उठा रहा है? क्यों कोई मंत्री “भारत माता की जय “ न कहने वालों को पाकिस्तान जाने की सलाह दे देता है और क्यों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी अनुषांगिक संगठन का पदाधिकारी “मुसलमान –मुक्त भारत” की बांग दे देता है? शंका यह होती है कि मोदी ऐसे कद्दावर नेता के शीर्ष पर रहते हुए यह विरोधाभास क्यों. क्या इन गैर-विकास मुद्दों से माहौल खराब करने वालों को कोई मौन सहमति तो नहीं है?

प्रधानमंत्री ने बेहद खूबसूरती से इस इंटरव्यू के सवालों के जरिये यह साफ़ किया कि वह इस “ब्रांड की राजनीति” से अपने को अलग हीं नहीं रखते बल्कि एक चेतावनी भी थी कि एक सीमा के आगे इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. साक्षात्कार में सवाल आया ---पार्टी के लोग इस तरह के मुद्दे उठाते हैं” और मोदी का जवाब था-- पार्टी हीं नहीं किसी के द्वारा भी अगर इस तरह की बात होती है तो वह गलत है और यह वे लोग करते हैं जो मीडिया में अपने प्रचार को आतुर रहते हैं. इसका सन्दर्भ ध्यान देने लायक है. तीन दिन पहले, हाल हीं में भारतीय जनता पार्टी द्वारा राज्य सभा भेज गए सुब्रह्मनियम स्वामी का रिज़र्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन पर अनर्गल आरोप लगाना और इस प्रक्रिया में मोदी सरकार के दूसरे कद्दावर नेता और वित्त मंत्री अरुण जेटली परोक्ष रूप से हमला करना. सन्देश यह जा रहा था कि यह हमला इतना सामान्य नहीं जितना दिखाई देता है और यह भी कि स्वामी पर संघ का वरदहस्त है. जेटली चीन यात्रा बीच में हीं रोक कर भारत वापस लौटना अनायास हीं नहीं है.

प्रधानमंत्री का सन्देश साफ़ था कि भविष्य में ऐसी स्थितियां पैदा करने वालों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. शायद इससे सन्देश का विस्तार करते हुए मोदी ने यह भी कहा कि टीवी चैनलों के डिबेट में वह देखते हैं कोई प्रवक्ता कुछ कह रहा है. वह इनमें से कइयों को पहचानते भी नहीं हैं लेकिन मीडिया इन्हें ऐसे प्रोजेक्ट करता है जिससे वह अपने कद से बड़े हो जाते हैं. आशय यह था कि ये प्रवक्ता क्या कहते हैं पार्टी या सरकार की नीतियों के बारे में इससे सरकार के काम-काज की विश्लेषण नहीं किया जाना चाहिए. मोदी का यह सन्देश इसलिए भी सामयिक था क्योंकि पिछले कुछ दिनों से यह सोच उभरी है कि ये प्रवक्ता अहंकारी और असहिष्णु होते जा रहे हैं.

विदेश यात्राओं को लेकर मोदी ने यह बताना चाहा कि वह इसलिए व्यक्तिगत रूप से विश्व के तमाम नेताओं से मिल रहे हैं क्योंकि जमीनी पृष्ठभूमि से होने की वजह से उनके बारे में अन्य देशों में उनके बारे में अपरिपक्व जानकारी है जिससे कई बार देश का नुकसान हो सकता है. शायद उनका आशय गुजरात दंगों के बाद कुछ देशों द्वारा बनाई गयी उनकी छवि के सन्दर्भ में था. उनका यह याद दिलाना कि अमरीकी अख़बारों में उनकी हाल की यात्रा के दौरान यह बताया  कि बराक ओबामा की भारत के साथ मैत्री का वर्तमान मकाम अमरीकी राष्ट्रपति की कूटनीतिक सफलता का ध्योतक है मोदी के सन्देश का
सार था.

मंहगाई को यह कह कर कि दो सालों में जिस तरह का सूखा रहा और जिस तरह किसानों ने घबरा कर दलहन की जगह गन्ना बोने शुरू किया जिससे दाल  की कीमतों में वृद्धि हुई, कोशिश की कि जनता को आश्वस्त किया जाये कि स्थिति नियंत्रण में लाई जा सकेगी. हालांकि दलहन की पैदावार लगातार पिछले कई वर्षों से कम हुई है जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य यो पी ए सरकार ने भी बेतहाशा बढाया.

एक राजनीतिक सन्देश भी था जिसमें यह प्रयास था कि विपक्ष और कांग्रेस को अलग किया जाये. एक प्रशन के उत्तर में उन्होंने संसद में गतिरोध का आरोप विपक्ष पर लगाना गलत है और बगैर नाम लिए उन्होंने कांग्रेस को इसका दोषी बताया. गरीब राज्यों के लोगों के कल्याण से जी एस टी बिल को जोड़ते हुए उन्होंने यह कोशिश की कि जनता कांग्रेस के रवैये के प्रति नाराज हो और गैर -कांग्रेस विपक्षी दल  बिल के साथ हों.

महंगाई को छोड़ कर बाकि संदेश अपेक्षाकृत तार्किक और ग्राह्य कहे जा सकते हैं पर आगे जनता यह भी देखेगी कि क्या कोई मंत्री गिरिराज या कोई महंत या कोई सुब्रह्मनियम स्वामी फिर तो नहीं पुराना राग अलापने लगा. अगर ऐसा होता है जनता की शंका बनी रहेगी.  

nai duniya/ lokmat

Sunday 26 June 2016

एन एस जी की हकीकत बनाम मोदी के प्रयास


हम भारतीय आदतन उत्सव-धर्मी हैं. देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यह बात जानते हैं. लिहाज़ा वह हर काम जो मोदी की जानिब से होता है वह उत्सव का स्वरुप ले लेता है. “स्वच्छ भारत अभियान” , “अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस” , “विदेश यात्रा”, “राष्ट्रवाद” “ओबामा का भारत आना” और ताज़ा “एन एस जी की सदस्यता” आदि कुछ उदाहरण हैं. ऐसा नहीं कि विकास के काम कुछ कम हुए हैं. नयी “फसल बीमा योजना”, “मृदा परीक्षण”, “यूरिया पर नीम की परत” “गरीबों का बैंक खाता” ये कुछ सार्थक प्रयास हैं लेकिन शायद भारतीय जनता पार्टी के स्वभाव में हीं “भावनात्मक अतिरेक से अपने औचित्य को सही ठहराना” है नतीजतन जिन योजनाओं को जन –अभियान बनाना चाहिए वह हाशिये पर रहे. और यह आभास दिया जाने लगा कि मोदी जी की हर विदेश यात्रा सिकंदर की तरह “विश्व विजय अभियान” है.

यहाँ अगर हम ओबामा से “दोस्ती” , “अमरीका की भारत के पक्ष में पैरोकारी” , मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम (एम् टी सी आर) की सदस्यता को मोदी डोक्ट्रिन की सफलता माने तो चीन सहित एक नहीं दस-दस देशों द्वारा भारत का एन एस जी की सदस्यता के खिलाफ खड़ा होना क्या विफलता नहीं कही जायेगी ? इनमें वे भी देश थे जिन्होंने ने हाल में “मोदी विश्व फहत” अभियान में एन एस जी की सदस्यता पर समर्थन का स्वयं मोदी को आश्वासन दिया था.    

हर राजनीतिक दल का राजनीति करने का अपना तरीका होता है. शायद कांग्रेस की अपनी रणनीति में  अपने सफल प्रयासों को उत्सव में बदलने की कला नहीं रही. इसके दो उदाहरण लें. सन २००८ में अमेरिका का १२३ समझौता और एन एस जी का भारत के लिए “वेवर” जिसके तहत वह तमाम सदस्य देशों से यूरेनियम खरीद सकता हो, अपने आप में ऐतिहासिक उपलब्धि थी. वही चीन था और वही भारत था जिसने परमाणु प्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं किया था लेकिन हम सफल रहे. लेकिन तत्कालीन कांग्रेस के नेतृत्व वाली यू पी ए -१ की सरकार को संसद में लगभग हार की कगार पर खड़ा होने की स्थिति आ गयी थी. दूसरा उदाहरण है १९६६-६७ का. देश हीं नहीं दुनिया के इतिहास में शायद पहली बार प्रमुख अनाज -गेहूँ -- का उत्पादन एक साल के भीतर डेढ़ हुना गुआ था याने १२ मिलियन टन से १७ मिलियन टन. लेकिन किसी को पता भी नहीं चला कि हरित क्रांति ने किसानों का कितना बड़ा हित किया. उस साल याने १९६७ में कांग्रेस १० राज्यों में चुनाव हार गयी. आज भारत की कुल अनाज पैदावार २६५ मिलियन टन है और इन ५० सालों के दौरान कांग्रेस ४० साल शासन में रही. लेकिन आभास यह रहा कि पार्टी ने देश के विकास के लिए कुछ भी नहीं किया. और देश रसातल में पहुँच गया. आज सन्देश यह जा रहा है कि सिर्फ भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी हीं देश को बचा सकते हैं.

अब जरा गौर करें एन एस जी की सदस्यता के मुद्दे पर. अमेरिका में मोदी और ओबामा के संयुक्त वक्तव्य में कहा गया कि भारत उस देश से छः परमाणु रिएक्टर खरीदेगा. कंपनी का नाम है –वेस्टिंगहाउस और टेक्नोलॉजी डिज़ाइन का नाम ए पी-१०००. यह टेक्नोलॉजी अभी पूरी तरह मान्यता नहीं हासिल कर पाई है. अमेरिका की हीं कई राज्यों के अभिकरणों ने --- फ्लोरिडा पॉवर एंड लाइट तथा टेनेसी घाटी प्राधिकरण -- इसके साथ हुए सौदे रद्द कर दिए हैं या रियेक्टरों की संख्या घटा दी है. इन अभिकरणों को जिस दर पर ये रियेक्टर सप्लाई किये गए हैं अगर उसी  दर पर भारत को भी किया जाएगा तो इसकी स्थापना कीमत ७० करोड़ प्रति मेगा वाट होगी जो भारत में अब तक उपलब्ध दर से सात गुनी ज्यादा  होगी. लिहाज़ा इस दर पर प्रारंभिक स्तर पर बिजली २५ रुपये प्रति यूनिट पड़ेगी. क्या देश इस स्थिति में है कि इतनी लगत पर रियेक्टर लगाये और इतनी महंगी बिजली ले? क्या इसके लिए वैश्विक टेंडर अपेक्षित नहीं था और क्या खरीदने के प्रस्ताव के पहले हर पहलू की जांच कर ली गयी थी?
जब प्रधानमंत्री हाल की अमरीका यात्रा (अभियान?) पर थे तो अचानक देश के अख़बारों और टी वी चैनलों पर खबर आयी एक “बड़े फतह” की. भारत “मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम” (एम् टी सी आर) का सदस्य बन गया. देश का शायद हीं कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति और देश के अधिकांश पत्रकार इसके बारे में पहले से जानते थे लेकिन जैसे हीं विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने भारत से मोदी की विदेश यात्रा को कवर करने गए रिपोर्टरों को इसे  “ऐतिहासिक सफलता” के रूप में बताया तो लगा जैसे मोदी डोक्ट्रिन का भूचाल आ गया. देश में इस “सफलता” का उत्सव शुरू हो गया. इसमें कोई दो राय नहीं कि इसकी सदस्यता मिलने से हमें वैश्विक मिसाइल टेक्नोलॉजी तक पहुँच मिली और यह एक कूटनीतिक उपलब्धि है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि २.३ ट्रिलियन डॉलर की भारतीय अर्थ-व्यवस्था पर हर देश पलक पावडे बिछाए बैठा है क्योंकि हम बड़े आयातक है. अमेरिका से दोस्ती इसलिए भी है कि हम लगभग चार लाख करोड़ रुपये के रियेक्टर खरीद रहे हैं. रक्षा उपकरणों की खरीद अलग.

शायद हर कदम को राष्ट्रव्यापी उत्सव में बदलने की मोदी के रणनीतिकारों की आदत ने एन एस जी को लेकर होमवर्क नहीं किया था. दरअसल अगर किया होता तो जान जाते कि सदस्यता के लिए जितनी राजनीतिक पूंजी खर्च की गयी है वह बेमानी थी और रंचमात्र भी लाभ नहीं था. इन रणनीतिकारों को एन एस जी की गाइडलाइन्स में सन २०११ में पैरा ६ और ७ में किये गए संशोधन को पढ़ लेना चाहिए था. ये पैरा किसी भी सदस्य देश को किसी भी ऐसे सदस्य देश को जो परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर न किया हो, संवर्धित यूरेनियम और री-प्रोसेसिंग सम्बंधित टेक्नोलॉजी नहीं देंगे. लिहाज़ा अगर भारत सदस्य बन भी जाता है तो उसे यह लाभ नहीं मिलेगा और अगर इसमें संशोधन करना भी हो तो चीन नहीं होने देगा. लिहाज़ा यह पूरा प्रयास “बाँझ सफलता” के अलावा कुछ नहीं था.

दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों का एक वर्ग है जो आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन से पुष्पित –पल्लवित होता है. मोदी सरकार के किसी प्रयास पर यह बौद्धिक पालिश चढाता है. इस दौरान यह बताया जाने लगा कि नेहरु ने अगर अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी की परमाणु रियेक्टर देने की पेशकश स्वीकार कर ली होती तो न तो चीन १९६२ में हमला करने की जुर्रत करता न पाकिस्तान १९६५ में, ना हीं आज एन एस जी की सदस्यता के हम मोहताज़ होते. वे शायद भूल रहे हैं कि तब कश्मीर भी हाथ से लिकल गया होता क्योंकि सुरक्षा परिषद् में सोवियत संघ हमारे पक्ष में खड़ा न होता. वे यह भी भूल रहे है कि विश्व शांति में नेहरु का क्या योगदान रहा. उन्हें तात्कालिक परिस्थिति का भान होता तो जानते कि पर्यावरण  उस समय मुद्दा नहीं था और बिजली पैदा करने के लिए हमारे पास कोयले का विशाल भंडार था जिससे कम लागत और कम पूंजी निवेश में हम बिजली की दिक्कत दूर कर सकते थे. उस समय हमारी हैसियत अनाज के लिए कटोरा लेकर घूमने वाली थी, परमाणु रियेक्टर लगाने की नहीं ?      

lokmat

Wednesday 15 June 2016

“टापर” घोटाला और नीतीश का कुतर्क



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जो छात्र या छात्रा अपने विषय का उच्चारण भी ठीक से न कर पाये फिर भी वह बिहार बोर्ड में टॉप करे तो यह शिक्षा में भ्रष्टाचार को संस्थागत दर्ज़ा दिलाने, सिस्टम की असफलता और “गवर्नेंस” में पैदा हुए सडांध की ओर इंगित करता है. इस “टॉपर” घोटाले में अगर किसी स्कूल के मालिक बच्चा राय के साथ बिहार बोर्ड का अध्यक्ष लालकेश्वर प्रसाद सिंह भी आकंठ डूबा हो, तो बीमारी के लक्षण साफ़ दीखने लगते हैं. और अगर बोर्ड अध्यक्ष की पत्नी उषा सिन्हा एक समय सत्ताधारी दल की विधायक हो और अगर बच्चा राय की तस्वीर जन-मंचों पर किसी खिलखिलाते नीतीश या किसी कृतज्ञ लालू यादव के साथ छपे तो यह राज-काज में कैंसर के उस स्टेज को बताता है जिसे “मेटास्टेसिस” कहते है याने शरीर के हर अंग बीमारी का फैलना.

घटना के उजागर होने के तीन दिन बाद एक सार्वजनिक मंच से प्रदेश के मुख्यमंत्री की  “निश्छल (?)” स्वीकारोक्ति मिश्रित बचाव देखिये. “हम बच्चों को किसी तरह स्कूल लाने की योजना पर काम कर रहे हैं. लेकिन हमारी कोशिशों में टांग लगने वालों की कमी नहीं है. उनका एक हीं उद्देश्य होता है. किसी तरह माल बनाया जाये. मौका मिलते हीं लगे अपना काम करने. अभी देख नहीं रहे ..... क्या हो रहा है? “टापर्स” मामले में. काम कीजिएगा तो कोई संत मिलेगा तो कोई महाशैतान. किसी का चेहरा देखकर कैसे पहचान सकते हैं कि वह क्या है? उसके मन में क्या चल रहा है. इसे कैसे समझ सकते हैं ? समाज में तरह- तरह के लोग हैं. तरह-तरह के “नटवरलाल” हैं. कब किसको कहाँ ठग लेंगे कहना मुश्किल है. पर हम बैठने वाले नहीं हैं. सभी गड़बड़ियाँ दूर करेंगे. कोई दोषी नहीं बचेगा. हम बैठक करके शिक्षामंत्री और अफसरों को निर्देश दे रहे हैं. इस समस्या को गंभीरता से लेना होगा. प्रबुद्ध लोगों को इसपर सोचना होगा. समाज में इक्के –दुक्के लोग हीं ये गड़बड़ हैं. ऐसे लोगों को पकड़ना होगा”.

मुख्यमंत्री के संबोधन से लगा जैसे कोई अक्षम मुख्यमंत्री जिसे अपने पर पश्चाताप होना चाहिए, नहीं बल्कि किसी संत का मोहमाया की गर्त में डूबे अपने भक्तों को उद्बोधन है जिसमें यह संत कह रहा है “ ऐ बिहारवासियों, नैतिकपतन की गर्त से बच्चा राय नहीं, लालकेश्वर प्रसाद सिंह नहीं, उषा सिन्हा नहीं, कोई सत्ताधारी नहीं, कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं, बल्कि तुम गिरे हो और हमारे पूरे प्रयास की बाद भी तुम इतने गलीच हो कि इस गर्त से ऊपर आ हीं नहीं पा रहे हो”. दूसरा कुतर्क देखिये : काम कीजियेगा तो कोई संत मिलेगा तो कोई महाशैतान. नहीं मुख्यमंत्री जी, आपका “काम” हीं है शैतानों से अपने को हीं नहीं प्रदेश की जनता को बचना. कोई अहसान नहीं है “काम करना”. दरअसल शैतानों को पहचानते हुए , उन्हें ख़त्म करते हुए और संतों को तलाशते हुए हीं काम करने की शर्त है.

विश्वास नहीं होता कि सभ्यसमाज के ७० साल के प्रजातंत्र के बाद किसी राज्य का अपेक्षाकृत “शिक्षित”  मुखिया जो ११ साल से शासन कर रहा हो इतना भोंडा तर्क अपनी अक्षमता को समाज की नालायकी बताते हुए देगा. यह राजतंत्र नहीं है जिसमें राजा अपने “इल्हाम” से लोगों को नापता है कि कौन नैतिक है और किसको पद देने चाहिए या किसको नहीं. आधुनिक शासन-प्रक्रिया में सिस्टम काम करता है मुख्यमंत्री का “इल्हाम” नहीं. सिस्टम अच्छा हो तो “टांग मारने वाले” या “मौका मिलते अपना काम करने वाले” स्वतः हीं सड़े अंडे की तरह अपनी बदबू से पहचाने जाते हैं. उषा सिन्हा का शिक्षा प्रमाणपत्र, लालकेश्वर प्रसाद के घर रोज बैठने और “धंधा” करने वाले बच्चा राय और उसके साथियों का आना जाना चिल्ला-चिल्ला कर बता रहा था लेकिन “राजा” भाव रखने वाले मुख्यमंत्री और मंत्रियों तक ये आवाजें नहीं पहुँचती. राजनीतिक दल चलाने वाले लोगों का नैतिक दायित्व होता है कि वे समाज से फीडबैक लें. अगर यह फीडबैक दलालों के जरिये आयेगा तो लालकेश्वर और बच्चा पहचाने नहीं जायेंगे बल्कि वे दिन-दूना रात –चौगुना धन बल में बढ़ेंगे और एक दिन “राजा-भाव” के मुख्यमंत्री के साथ जन-मंच से फोटो भी खिंचवा कर अपने कुकर्मों को संस्थागतरूप से महिममंडित करवा लेंगे. क्या राज्य की विधायिका चलाने के लिए इन नेताओं को उषा सिन्हा और मनोरमा देवी के अलावा कोई और नहीं मिलता? क्या मनोरमा देवी के पति का सर्व-विदित आचरण जानकार भी टिकट देना अपरिहार्य था. मनोरमा देवी के बेटे ने हाल हीं में सड़क पर एक युवा को गोली मर कर हत्या कर दी थी. उस समय नीतीश का मीडिया को नाराज़ तर्क था “क्या बेटे की गलती के लिए किसी विधायिका मान को सजा दी  जाये? क्या उषा सिन्हा का शिक्षा प्रमाण पत्र जो २०१० के चुनाव में हलफनामे में दिया गया था देखने के बाद भी टिकट दिया जा सकता था? उनके कौन रिश्तेदार और पति कितने सालों से कैसे शिक्षा माफिया बच्चा राय के साथ रोज की जगजाहिर “नजदीकियां” रखते हैं इसे जानने के लिए ११ साल का अनुभव काफी नहीं है?

“पर हम बैठने वाले नहीं” जुमला बोल कर “सुशासन बाबू”  क्या यह बताना चाहते हैं कि ११ साल वह सोते रहे और प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था सड़ती रही. शायद उन्हें तो यह भी नहीं मालूम होगा कि किस तरह शिक्षकों की तन्खवाह भी नहीं रिलीज़ होती जब तक ब्लाक और जिले के शिक्षाधिकारी पैसे नहीं लेते. शायद उन्हें यह भी नहीं मालूम कि “उत्प्रेरक” योजना में सारे पैसे कागज़ पर हीं खर्च दिखाए जाते हैं और हेडमास्टर से लेकर पूरा का पूरा शिक्षा विभाग पैसों की बन्दर बाँट वर्षों से कर रहा है और शिक्षा केवल कागजों पर बढ़ रही है.

यह धोखा है उन युवा छात्रों और छात्राओं के साथ जो भ्रष्टाचार के बेदी पर दम तोड़ रही  घटिया शिक्षा के कारण राष्ट्रीय प्रतियोगिता में नहीं खड़े हो पा रहे हैं. संस्था “असर” की पिछले पांच साल की रिपोर्ट पर भी बिहार के मुख्यमंत्री अगर नज़र डाल लें तो हकीकत पता चल जायेगी कि कक्षा ५ का ६२ प्रतिशत छात्र कक्षा २ का ज्ञान भी नहीं रखता. सन २०१४ में जब बोर्ड परीक्षा में दस टापर्स में से सात, बच्चा राय के स्कूल के निकले तो एक “सतर्क” मुख्यमंत्री या शिक्षा मंत्री के कान खड़े हो जाने चाहिए थे. राज्य खुफिया विभाग से बोर्ड अध्यक्ष और इस कॉलेज के मालिक बच्चा राय के सम्बन्ध के बाद इस परीक्षा परिणाम के कारण समझने के लिए आइंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिए.

“संत” और “महाशैतान” पहचानने के लिए कोई अलग विद्या की ज़रुरत नहीं हैं. अगर जेल में रहते हुए भी कोई अपराधी शहाबुद्दीन इतनी ताकत रखता है कि किसी आवाज उठाने वाले पत्रकार को मरवा दे तो महाशैतान को “शक्ति” कौन दे रहा है एक बच्चा भी बता सकता है. और फिर जब इस सजायाफ्ता खतरनाक अपराधी को वह पार्टी अपने राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य बनाती है जिसके साथ चुनाव लड़कर सत्तानशीन हुआ गया है तो यह संत भाव क्या होता है यह जानना मुश्किल नहीं होता. “मौका मिलते हीं अपना काम करते हैं” का आरोप कहाँ सही चस्पा होगा यह कुछ घटनाओं को देखकर समझा जा सकता है.

lokmat

Saturday 11 June 2016

कहीं चैनलों की बहस से दर्शक विमुख न हो जाये !





हम क्या देते हैं दर्शकों को हर शाम चार घंटों की बहस में. क्या हम सही मुद्दे जिनका जन-कल्याण से कोई सरोकार हो, चुनते हैं? अगर चुनते भी हैं तो ऐसे मुद्दे जिसमें होता है : “लात –जूता”, “तेरा नेता , मेरा नेता”, कुतर्क, अल्प ज्ञान से परोसे गए तर्क वाक्य, ऐसे संख्यात्मक तथ्य जो या तो विषय से दूर हैं या विषय के लिए काल-सापेक्ष नहीं हैं या फिर अर्ध-सत्य हैं. नतीजा यह होता है कि पूरी एक घंटे की बहस किसी कस्बे के नीम व्यस्त “चौराहे पर मदारी के करतब” दिखाने जैसा हो जाता है.

इसमें कोई दो राय नहीं कि देश के खबरिया चैनल जो एक समय प्राइम टाइम पर भी मनोरंजन, भूत-भभूत , सांप –बिच्छू दिखाया करते थे आज देश के तात्कालिक विषयों को लेते हैं और उन्हें बहस में उठा कर जनता को पक्ष-विपक्ष के तर्कों से हीं नहीं , परस्पर विरोधी तथ्यों से अवगत कराते हैं. जन संवाद के धरातल पर समाज के सामूहिक चिंतन को बेहतर बनाने का शायद इससे कारगर कदम कोई और नहीं हो सकता. इससे प्रजातंत्र की गुणवत्ता बढ़ती है. परन्तु क्या कभी हमने सोचा है कि विकास के मुद्दे , परियोजनाओं का जमीन पर आने पर हश्र और गरीबी की असली समस्या इन चर्चाओं का कितने प्रतिशत समय या स्थान ले पाते हैं ? क्यों जब सी ए जी की रिपोर्ट में बताया जाता है कि मनरेगा में दस साल पहले मरे आदमी के नाम पर काम दिखा कर अधिकारी पैसा हजम कर रहे हैं तो हम छोटी सी खबर देते हैं? क्या हम पहले हीं इस तथ्य को गाँव में जा कर दरयाफ्त नहीं कर सकते और क्या इस भ्रष्टाचार की वेदी पर दम तोड़ती  इस सार्थक योजना को लेकर जन-मत नहीं बना सकते?  

उदाहरण के तौर पर एक हीं दिन में हमारे पास कई खबरें होती हैं. एक: जिसमें कोई सामान्य समझ या कम सामाजिक प्रतिबद्धता वाला कोई तन्मय नाम का व्यक्ति किसी आइकॉन के बारे में एक फूहड़ टिपण्णी करता है. दूसरी और उतनी हीं बेहूदा टिपण्णी किसी साध्वी मंत्री द्वारा की जाती है जिसमें वह भारत को कांग्रेस –मुक्त के साथ मुसलमान-मुक्त करने का ऐलान करती है. पहला फूहड़पन की पराकाष्ठ है तो दूसरा अज्ञानता और घटिया धर्मान्धता की. लेकिन वहीं एक और खबर होती है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिक्षा प्रकल्प द्वारा संचालित स्कूल का छात्र सरफराज हुसैन पूरे असम में टॉप करता है. हम इसे स्थान नहीं देते। चौथी खबर होती है : देश में पिछले १५ सालों में एक प्रतिशत अमीरों की संपत्ति में बाकि ९९ प्रतिशत लोगों के मुकाबले १०० गुना इजाफा हुआ है. सन २००० में यह इजाफा ५८ प्रतिशत था, २००५ में ७५ प्रतिशत, सन २०१० में ९४ प्रतिशत था. अगर इस स्थिति पर नियंत्रण नहीं किया गया तो गरीब की चड्ढी भी इन एक प्रतिशत के पास पहुँच जायेगी. क्या किसी देश में सक्षम मीडिया का यह दायित्व नहीं बनता कि व्यापक जन –चेतना बनाई जाये ताकि सत्ता पर बैठे लोग पर इस असंतुलित विकास को बदलने का दबाव पड़े? पांचवीं खबर: देश के हिंदी भाषी क्षेत्र के सात राज्यों आज भी मानव विकास के तमाम पैरामीटर पर वहीं के वहीं है जहाँ १० साल पहले थे. बिहार में आज भी तीन में से दो परिवार बिजली का इस्तेमाल नहीं करता. इन सात राज्यों के ६० प्रतिशत लोग आज भी खुले में शौच जाते हैं. ये वही लोग हैं जिन्हें गाय को लेकर या भारत माता की जय न कहने वाले पर इतना गुस्सा आता है कि इनकी सामूहिक चेतना परवान चढ़ जाती है. क्या जरूरी नहीं कि मीडिया की बहस इन्हें तार्किकता की ओर अभिमुख करने में हो.

एक ताज़ा खबर है कि मुसलमानों में काम न करने वालों की प्रतिशत अन्य समुदायों के मुकाबले सबसे ज्यादा है. दूसरे स्थान पर जैन धर्म के लोगों का हैं. इन दोनों के अलग –अलग कारण हैं. संपन्न लोगों का वर्ग भी इस श्रेणी में आता है. जबकि आर्थिक विपन्नता वाले दलित, आदिवासी या पिछड़ी जाति के लोग “काम न करने वाले “ वर्ग में कम रहते हैं. लेकिन मुसलमान इस वर्ग में सबसे ज्यादा इसलिए है क्योंकि यह अपने घर की महिलाओं को काम के लिए बाहर नहीं भेजता, “पर्दानशीनी” की प्रथा के चलते. अगर हम “तीन तलाक “ की कुप्रथा पर मुस्लिम महिलाओं के लिए टीवी स्टूडियो में जार-जार आंसू गिराते हैं और कोई मुल्ला इस कुप्रथा को उचित बताता है तो यह भी मीडिया का दायित्व है कि वह मुसलमानों में यह चेतना विकसित करे कि वे अपनी औरतों को आर्थिक संबल देने के लिए पढ़ायें और काम पर भेजें. इसके बाद “तीन तलाक” की कुप्रथा स्वतः हीं दम तोड़ देगी.

मोदी सरकार ने नयी फसल बीमा योजना में पुरानी कमियों को ख़त्म कर दिया है और यह कृषि क्षेत्र में एक बड़े बदलाव का सबब बन सकता है. यह गलत है या सही, गलत है तो क्यों और सही है तो क्यों किसान इसे अंगीकार करे , दर्शक ये मुद्दे कभी बहस में नहीं पाए होंगे. एजुकेशन सिस्टम का निजीकरण गरीबों को शिक्षा से दूर ले जाएगा या एकल परिवार (न्यूक्लियर परिवार) और विदेश में नौकरियों के साथ बढ़ती जीवन प्रत्याशा (६५.४ साल) के कारण बूढ़े लोगों की तादात में बेहद वृद्धि हुई है और वह बूढा व्यक्ति इलाज़ और सुश्रुषा के अभाव में तिल-तिल मर रहा है. समय आ गया है कि राज्य अभिकरणों पर जन-मत का दबाव बनाने का ताकि सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को मजबूत बनाया जाये. क्या इस पर कभी बहस हो सकी है? इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो यह भी नहीं बताया कि वर्तमान सरकार इस दिशा में कुछ प्रयत्न कर भी रही है. वह कितना सार्थक है और कितना और करने की ज़रुरत है, यह शायद आज की मीडिया का विषय नहीं है. वह यह बता कर कि अमरीकी कांग्रेस में सांसदों नौ बार खड़े हो कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण पर तालियाँ बजाई, हीं खुश है. आज से तीन दिन पहले तक कोई पत्रकार यह नहीं जानता था कि “मिसाइल टेक्नोलॉजी कण्ट्रोल रेजीम” (एम् टी सी आर) क्या है लेकिन जब भारत इसका सदस्य बना और वाशिंगटन में विदेश विभाग के अधिकारियों ने इसकी ब्रीफिंग की तो हर चैनल इस पर घंटों हांफ-हांफ कर कसीदे काढ़ने लगा, बहस कराने लगा.      

दरअसल न्यूज़-रूम को इन मुद्दों के प्रति अपनी जानकारी बढानी होगी और साथ हीं संवेदना भी. कुल २५ करोड भारतीय परिवारों में से १९ करोड परिवारों के पास टीवी सेट्स हैं और “टैम”  मीटर्स की संख्या अब ८००० से बढ़ कर ३५,००० हो चुकी है और इनमें अधिकांश कस्बों में भी लग चुके हैं. इन कस्बों के लोगों में एक बड़ा वर्ग अभी गाँव से हीं आया है और खेती से जुड़ा है.

अगर बाजारू ताकतें मात्र कुछ वर्षों में उच्च से लेकर निम्न माध्यम वर्ग तक १० रुपये किलो का आलू “अंकल चिप्स” के नाम पर ४०० रुपये किलो बेंच सकती हैं (जिसे हर माँ अपने बच्चों के लिए होली में बनाया करती थी और जो कई महीने तक चाय के साथ चाव से खाया जाता था) तो क्या भारत की मीडिया गलत खेती के तरीकों, नयी सरकारी योजनाओं के प्रति जनता को सुग्राही नहीं बना सकता और क्या सरकार पर बढ़ती गरीब-अमीर की खाई पाटने का दबाव नहीं डाला जा सकता?    

बहस का मुद्दा बदलेगा तो राजनीतिक दलों का रुझान भी और समझ भी. “तेरे नेता-मेरा नेता की गला-फाड़“ झांव-झांव से हट कर ये दल भी पढ़े लिखे प्रवक्ताओं को भेजना शुरू करेंगे, एंकर-संपादक भी विषय पर अध्ययन करके आयेंगे और निष्पक्ष विश्लेषण की मान्यता बढेगी. वर्ना वह दिन दूर नहीं जब दर्शक बहस से यह कह कर मुंह मोड़ लेगा कि जब “मदारी का खेल हीं देखना है तो कपिल का शो क्या बुरा है”. और तब शायद हम अपनी पत्रकारिता की गरिमा से वंचित हो जायेंगें.            

lokmat

Friday 3 June 2016

दादरी कांड: पुलिस का झूठ व कुतर्क


@n_k_singh


मथुरा की फॉरेंसिक लैब ने जांच के बाद पाया कि दिल्ली से सटे गौतमबुद्ध नगर के बिसहरा गाँव में अखलाक हत्याकांड के बाद जिस गोश्त का नमूना भेजा गया था वह गाय या गौ-बंश का था. यह खबर राज्य में चुनाव के मात्र कुछ महीने पहले सत्ताधारी दल – समाजवादी पार्टी के--- लिए नुकसानदेह था लिहाज़ा प्रदेश के “बुद्धिमान” अधिकारी नुकसान कम करने के लिए तर्क ढूढने में जुट गए. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने राज्य के पुलिस प्रमुख का ताज़ा बयान उधृत किया जिसमें कहा गया था कि जिस मांस की जांच की गयी है वह अखलाक के घर से नहीं कुछ दूर पर रखे कूड़ेदान से लिया गया था. हालाँकि वह बयान दरअसल जिले के कप्तान का था. 


बचकानी लगती है पूरी लीपापोती की कोशिश. बयान की हवा तब निकल गयी जब एक अखबार ने वह तस्वीर छाप दी जिसमें एक पुलिस कर्मी मांस को पॉलिथीन के पैकेट में डाल रहा है. बगल में भगौना रखा हुआ है. यह मीडिया की सांप्रदायिक सौहार्द के प्रति संजीदगी है वर्ना उसके पास वह तस्वीर भी उपलब्ध है जिसमें मांस फ्रिज में भगौने में रखा हुआ है. फ्रिज में मांस पाने के बाद हीं हमलवार  भड़क गए. दरअसल एक जानवर का कटा पैर, और उसकी खाल भी घर से कुछ दूर पर गाँव वालों को मिला था. पुलिस ने भी इन्हें हासिल किया था. अखलाक और उनके बेटे से मार पीट के दौरान इस भीड़ में कुछ लोगों ने फ्रिज से उस भगौने को निकाल कर बाकि लोगों को दिखाना शुरू किया और पुलिस आने के दौरान मांस सहित उस भगौने को ट्रांसफार्मर के किनारे फेंक दिया. फर्द बरामदगी में तो पुलिस ने लिखा है कि इस मांस का अखलाक की हत्या से सबंध है लेकिन चार्जशीट में यह बात गायब है.



भारतीय साक्ष्य अधिनियम, १८७२ के सेक्शन ५ और सेक्शन ७ में तीन तरह के तथ्यों को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करने की बाध्यता है. पहला वह तथ्य जो सीधा मामले को लेकर हो याने अ ने ब को मारा. दूसरा सान्दर्भिक तथ्य मसलन मारने के पहले बकाया पैसे को लेकर धमकी दी थी. तीसरा साक्ष्य तथ्य वह होता है जो घटना का अवसर, कारण या परिणति हो. बिसहडा मामले में यह मांस और जानवर के अवशेष घटना की सान्दर्भिकता बताते थे और साथ हीं कारण भी थे. दूसरा, घटना के अगले दिन हीं अखलाक के परिवार की महिलाओं ने कहा कि जो गोश्त घर में था वह बकरे का था. याने गोश्त था. घटना के तत्काल बाद नॉएडा की सरकारी पशु-चिकित्सा लैब से आयी रिपोर्ट में कहा गया कि मांस बकरे का था लेकिन पुष्टि के लिए इसे मथुरा ऍफ़ एस एल लैब भेजा जाएगा. नॉएडा का लैब यह जांच करने में सक्षम नहीं है कि मांस किस जानवर का है. नमूना अक्टूबर ३, २०१५ (घटना के पांच दिन बाद) मथुरा लैब पहुंचता है और उसी दिन शाम को संयुक्त निदेशक के हस्ताक्षर से प्रमाणित किया जाता है कि मांस गाय या उसके वंशज का था. हकीकत यह है कोई सामान्य जानकार भी मात्र गोश्त देख कर बता सकता है कि वह किस जानवर का है. मथुरा लैब में तो त्री-स्तरीय जांच होती है और अंत में कैराटीन या यूरोफिन प्रोटीन स्ट्रक्चर के डिफरेंशियल्स के आधार पर यह पुष्टि की जाती है कि मांस किस जानवर का है.



उत्तर प्रदेश गौ-हत्या निरोधक अधिनियम, १९५५ के सेक्शन ३ में गौ या उसके वंशज की हत्या वर्जित है. सेक्शन २ (अ) में गौ मांस की परिभाषा “वह मांस जो गाय (या उसके वंशज) का हो लेकिन जो सील बंद डिब्बे में बहार से प्रदेश मीन आयातित न किया गया हो” है। अगर प्रदेश के डी जी पी की दलील मान ली जाये कि जांच अधिकारी (दरोगा) की समझ “सीमित” थी और उसने कूड़ेदान का मांस नमूने के तौर पर भेज दिया तो जांच की रिपोर्ट पता चलने के बाद से आज तक (आठ महीने बाद) भी अज्ञात लोगों के नाम गौ-कशी करने का ऍफ़ आई आर क्यों नहीं ? गोश्त गाय या बछड़े को बिना मारे पैदा करने की सलाहियत शायद उत्तर प्रदेश पुलिस में हो वैज्ञानिक रूप से तो संभव नहीं. राज्य पुलिस प्रमुख के अनुसार मांस किसका है, नमूना कहाँ से लिया गया है इससे अखलाक की हत्या से सम्बंधित केस का कोई लेने देना  नहीं है. कितना अजीब जवाब है. अपराध-न्यायशास्त्र में मेंस रिया (अपराध करने के समय अपराधी की मनोदशा)  का सिद्धांत हेनरी प्रथम के ज़माने में लाया गया और सन १११८ से आज तक अपराध-दोष सुनिश्चित करने का यह सबसे बड़ा आधार पूरी दुनिया में रहा है. गाय हिन्दुओं के लिए एक गहरा भावनात्मक मुद्दा ३००० साल से रहा है.    



गाँव के एक समुदाय के लोगों ने अखलाक के घर पर गोमांस पकाने के शक पर हमला किया और अखलाक को मार डाला था. देश हीं नहीं पूरे विश्व में इस घटना की निंदा की गयी. अगर कोई इस कानून का उल्लंघन करता है तो किसी अन्य समुदाय को कोई अधिकार नहीं कि कानून हाथ में ले और किसी की हत्या करे. लिहाज़ा अखलाक को मारा जाना कहीं से भी उचित नहीं है.



पर यहाँ एक प्रश्न और उठता है. भावनाओं के प्रश्न मात्र कानून से हल नहीं किये जाते क्योंकि कानून की प्रक्रिया दुरूह और भावना-शून्य होती है. गाँव की सामजिक सरचना को ध्यान में रखते हुए एक उदाहरण लें. गाँव या आस –पास से एक बछड़ा एक रात गायब होता है. अगले कुछ दिनों तक वह नहीं मिलता. क्या इस मामले को लेकर वह ग्रामीण थाने  में रिपोर्ट लिखवाए. और अगर यह रिपोर्ट लिखी भी जाती है तो क्या पुलिस इस बछड़े को उसी शिद्दत से ढूढेगी जिस शिदत से वह अपने एक मंत्री की भैंस ढूढने के लिए पूरी पुलिस लगा देती है? यहाँ कानून अनुपालन के अभिकरण याने पुलिस जन-अपेक्षा से हमेशा कमतर पायी जाती है. इस बीच अगर यह खबर मिलती है कि अमुक घर के आसपास किसी जानवर का  अस्थि-पंजर मिलता है तो जाहिर है आक्रोश बढेगा.



शहरों में लोग खासकर परिवार के बच्चे पालतू कुत्ते से एक भावनात्मक सम्बन्ध बना लेते हैं. उसी तरह गांवों में एक बछड़ा या गाय जब अपने मालिक, मालकिन या परिवार के बच्चे को देखर हुंकार भरते हैं या कुलांचे मारते हैं उस जानवर से एक जबरदस्त भावनात्मक सम्बन्ध बन जाता है. फिर एक सम्प्रदाय के लोगों का गाय और उसके वंश को लेकर धार्मिक सम्बन्ध भी है. वे गौ को माता मानते हैं. शायद यहीं कारण हैं जिससे देश के २९ में से २४ राज्यों में गौ –हत्या प्रतिबंधित है. जब यह शक होता है कि गाँव के हीं किसी व्यक्ति ने जो गौ के प्रति वैसा भाव नहीं रखता या जिसके लिए गौ मांस का सेवन वर्जना के स्तर तक नहीं है बछड़ा ग़ायब किया है तो उसकी प्रतिक्रिया जाहिर है उग्रता और छोभ के मिश्रण के रूप में होगी.



क्या ऐसे में जरूरी नहीं है कि गांवों में इस भावना का सम्मान करते हुए दूसरा वर्ग भी सुनिश्चित करे कि उसके वर्ग का कोई भी व्यक्ति ऐसी हरकत न करे जिससे किसी अन्य समुदाय में वैमनस्यता आसमान पर हो?



उत्तर प्रदेश के डी जी पी की तरह दिल्ली में बैठ कर हम निरपेक्ष विश्लेषक सिर्फ इस बात को संज्ञान में लेते हैं कि चूंकि देश में कानून का शासन है इसलिए किसी को भी कानून हाथ में लेने का हक नहीं है. लेकिन तब हम यह नहीं देखते कि स्वयं कानून की कमजोरियां क्या हैं, जो लोग कानून के अनुपालन की संस्थाओं से जुड़े हैं वे कितने कमजर्फ हैं या भ्रष्ट हैं या सबसे ऊपर कानून की संस्थाओं को किस तरह राजनीतिक स्वार्थों की सिद्धि के लिए इस्तेमाल किया जाता है. पुलिस की प्रतिक्रिया सत्ता में कौन बैठा है और उसका स्वार्थ किस बात में है इससे निर्धारित होती है. इसे समझने के लिए आइंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिए. आज के परिप्रेक्ष्य में ऐसी हीं किसी घटना पर उत्तर प्रदेश में पुलिस कैसे एक्शन लेगी, बिहार की पुलिस क्या करेगी और हरियाणा में क्या होगा इसे समझने के लिए हम “लाल-बुझक्कड़” विश्लेषकों को ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है.



कानून की सीमायें हैं. लेकिन व्यक्ति या समुदाय की समझ की नहीं. इसे विकसित किया जा सकता है. क्या यह उचित नहीं था कि विभिन्न समुदाय आपस में हीं यह चेतना विकसित करे कि अगर कोई व्यक्ति सौहार्द बिगाड़ने के लिए या स्वार्थवश किसी अन्य समुदाय की भावना से खिलवाड़ कर रहा है तो गाँव में उस समुदाय के सभी व्यक्ति उसके खिलाफ खड़े हों. अगर कोई बछड़ा या गाय गुम हुई है तो उस समुदाय का भी कर्तव्य बंनता है कि वह अपने समुदाय के एक –एक व्यक्ति के घर की जांच करे. शायद तभी इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं होगी.


jagran

Saturday 28 May 2016

यू पी चुनाव: फिर वही पुराने हथकंडे, विकास कहीं दूर खड़ा

@n_k_singh

दो साल पहले जब देश की बागडोर जनता ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथ में दी तो हमारे जैसे राजनीति-शास्त्र के विद्यार्थियों के मन में एक विश्वास पैदा हुआ कि प्रजातंत्र की गुणवत्ता बदलेगी और सामाजिक चेतना अतार्किक और पारस्परिक वैमनष्यतापूर्ण पहचान-समूहों से हट कर विकास की तार्किक समझ के आधार पर अपने फैसले लेगी. यह भी भरोसा बना कि दुनिया के वे सभी चिन्तक और राजनीतिक धुरंधर जिन्होंने आजाद भारत में ब्रितानी वेस्टमिन्स्टर मॉडल की शासन –पध्यति के अनुकरण करने के खिलाफ १८७० से १९४७ तक लगातार चेतावनी दी थी गलत साबित होंगे. पर वे सही निकले. पहले बिहार और अब उत्तर प्रदेश के चुनाव के पहले साफ़ दिखाई दे रहा है कि जातिवाद, साम्प्रदायिकता और छद्म सेक्यूलरवाद का बोलबाला हीं नहीं रहेगा बल्कि इसका नग्न तांडव भी हो सकता है.  

इस हफ्ते चार दिन के भीतर हीं सोशल मीडिया में दो खबरें आयीं जिन्हें जाहिर है चैनलों और अखबारों ने भी समय और जगह दी. पहली अयोध्या से थी और दूसरी देश की राजधानी दिल्ली से सटे नॉएडा से. ध्यान रहे कि ये विजुअल्स मीडिया के अपने प्रयासों से नहीं मिलते थे बल्कि आयोजकों के जानबूझ कर इन्हें लीक किया था. अयोध्या --जहाँ संघ परिवार राम मंदिर बनवाना चाहता है और जहां आज से २३ साल पहले बाबरी मस्जिद नामक विवादस्पद ढांचा गिराया गया था. बजरंग दल जो कि संघ परिवार का अनुषांगिक संगठन है इस शांत क़स्बे में हिन्दू युवाओं को शस्त्र प्रशिक्षण दे रहा है जिसमें लाठी और तलवार चलना हीं नहीं बन्दूक चलाना भी शामिल है. उद्देश्य है हिन्दुओं को आत्म-रक्षा के लिए और आतंकवाद के खिलाफ शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार करना. एक विजुअल में आतंकवादी हमले को नाकाम करने का माक -ड्रिल (छद्म अभ्यास) है. यहाँ तक तो ठीक है. अगर तलवार का लाइसेंस है (कुछ राज्यों में यह अनिवार्य है), बन्दूक उन्हीं के हाथ में है जो उसको रखने के कानूनी रूप से हकदार हैं और यह अभ्यास सार्वजनिक स्थल पर नहीं बल्कि निजी चाहरदीवारी के अन्दर किया जा रहा है तो यह कहीं से गैर-कानूनी नहीं है. लेकिन इस विजुअल में प्रदर्शित छद्म अभ्यास के आखिर में जिस "आतंकी" को मार गिराया गया है वह सर पर दोपल्ली टोपी और दाढ़ी (एक समुदाय विशेष का पहनावा) रखे दिखाया गया है. इस अभ्यास करने वाले बजरंग दल के नेता ने कैमरे पर कहा “जी हाँ, हम आतंकियों के खिलाफ हिन्दुओं को तैयार कर रहे हैं और जो कुछ मदरसों में हो रहा है वह नहीं चलने देंगे.

भारतीय दंड संहिता में १९७२ में एक संशोधन किया गया जिसके तहत सेक्शन १५३ अ (ग) लाया गया. उसके अनुसार ऐसा कोई भी अभ्यास, ड्रिल , आन्दोलन या ऐसी कोई अन्य गतिविधि जिसका आशय किसी अन्य समुदाय, नस्ल, भाषा या क्षेत्र के लोगों के खिलाफ हिंसा के लिए होने की आशंका हो, गैर-कानूनी है.  

उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार ने तत्परता दिखाई और अयोध्या के बजरंग दल के नेता को गिरफ्तार कर लिया. अगले तीन दिन मे नॉएडा में भी यही “अभ्यास” उसी बजरंग दल द्वारा किया गया. अगले दिन जब भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष से एक प्रेस वार्ता में पूछा गया कि यह क्या हो रहा है तो उनका कहना था “अगर ये अभ्यास गैर-कानूनी हैं तो उत्तर प्रदेश की सरकार कार्रवाई करे. उनका भाव चुनौती वाला था. यही वह पेंच है जो पूरे प्रजातंत्र के लिए मवाद भरे घाव का रूप ले रहा है. ६६ साल के प्रजातंत्र में हम यही तक पहुंचे हैं. किसी नितीश ने आतंकी इशरत जहाँ को बिहार की बेटी बताया तो किसी मुलायम ने गोरखपुर बम ब्लास्ट के आरोपियों के खिलाफ मुकदमा वापस लेने के उपक्रम किये और किसी लालू ने जेल में बंद अपराधी शहाबुद्दीन को अपनी पार्टी की कार्यकारिणी में मनोनित किया. मुलायम और लालू जब अपने समूचे परिवार को राजनीतिक पदों और लोकसभा और राज्यसभा में आसीन करवाते हैं तो वह लोहिया के सपनों को साकार करना बताया जाता है. प्रजातंत्र की विद्रूप चेहरा साफ़ दीखने लगता है. जाहिर है इस राजनीति का जिसमें शहाबुद्दीन की भूमिका हो या छोड़े जाने वाले आतंकी की भूमिका हो या चुनाव के समय मुख्यमंत्री मुसलमानों को आरक्षण दे डाली जो डंके की चोट पर संविधान का उल्लंघन है का प्रतिकार दूसरी विपक्षी पार्टी कैसे करेगी. लिहाज़ा भाजपा को अगर जिन्दा रहना है तो वह भी जहर को जहर से हीं काटेगी. लिहाज़ा बजरंग दल हिन्दुओं को “बचाएगा” , आतंकियों को ख़त्म करेगा और यह भी बताएगा कि आतंकी कौन से सम्प्रदाय से है. और जब यह सब कम लगेगा तो विजुअल्स मीडिया को लीक कर देगा और उसका नेता बताएगा कि मदरसों में क्या हो रहा है. सरकार को चुनौति दी जायेगी कि दम हो तो गिरफ़्तार करो। अखिलेश कर भी लेंगे क्योंकि उनके भी १८.५ प्रतिशत वोट पक्के। भाजपा भी हिन्दू ध्रुवीकरण के कारण ७९ प्रतिशत में चोंच मार सकेगी। घाटे में होंगी बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस जो इस खेल में अभी तक सेक्युलर -सेक्युलर हीं खेल पाये हैं । 

यहाँ प्रश्न यह है कि भारतीय संविधान ने कब से आतंकवादियों से हिन्दुओं को बचाने का ठेका किसी बजरंग दल को दे दिया है. क्या राज्य के अभिकरण, देश की लगभग १६ लाख केंद्र और राज्यों की पुलिस, १३.५ लाख सेना कम पड़ रहीं हैं और अगर ये कम हैं तो क्या मुट्ठी भर लाठी-भांजते लोग इसे रोक पाएंगे. क्या आशय सच में हिन्दुओं को बचाना है और है तो क्यों नहीं राज्य के अभिकरण के खिलाफ प्रजातान्त्रिक लड़ाई लड़ी जाती कि उत्तर प्रदेश की दो लाख पुलिस क्यों आतंकवादी पैदा होना बंद नहीं कर पा रही है.

दरअसल आतंकवादियों से लड़ने के लिए राज्य अभिकरण हीं होते हैं समाज के लोग भी अगर उसी भाव में आ गए तो हम आतंकवादियों के खिलाफ आतंकवादी पैदा करेंगे और तब समस्या का समाधान होने की जगह भारत सीरिया, बोस्निया और चेचेन्या बन जाएगा.

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने एक प्रेस वार्ता में इस मुद्दे पर दो  अच्छी सलाहें दीं. पहला , अगर बजरंग दल की गतिविधि गलत है तो उन पर कार्रवाई करे राज्य सरकार और दूसरा कि आप किसी संस्था ने क्या किया है पर ध्यान देने की जगह यह देखो कि सरकार (याने मोदी सरकार) क्या कह रही है और क्या कर रही है. पर अगर उनकी बात पर ध्यान दिया जाये तो मोदी सरकार के मंत्री हीं हर दूसरे दिन भारत माता की जय न बोलने वालों को “पापी” कहते हैं, हर तीसरे दिन ऐसे लोगों को पाकिस्तान भेजने की धमकी देते है” और हर चौथे दिन “न बोला तो कानून बनायेंगे “ का ऐलान करते हैं. क्या उनकी बात सुनीं जाये?

क्या अच्छा न होता कि मोदी की पार्टी कार्यकारिणी में की गयी अपील पर ध्यान देते हुए हर भाजपा , बजरंग दल , विश्व हिन्दू परिषद् और संघ परिवार का हर सदस्य नयी फसल बीमा योजना के लाभ, किसानों से जरूरत से अधिक यूरिया न इस्तेमाल करने की सलाह, और केंद्र के जन-कल्याण के अनेक कार्यक्रमों को जन-जन तक ले जाते ? इससे विश्व में भी संघ की साख बढ़ती और देश में समरसता भी.