Wednesday 28 October 2015

गाय पर विवाद के पीछे कई तर्क-शास्त्रीय दुराग्रह




देश की राजधानी दिल्ली से सटे दादरी में हिन्दुओं ने गाँव के हीं एक मुसलमान परिवार के घर पर हमला किया, परिवार के मुखिया को मार दिया और बेटे को गंभीर रूप से घायल कर दिया. उनका मानना था कि उस परिवार ने गौ मांस पकाया और सेवन किया है. इसके एक हफ्ते के भीतर हिमांचल में ट्रक में गौ लेकर जा रहे एक मुसलमान युवा लोगों ने पीटकर मार डाला. तीसरे हफ्ते  कर्नाटक के मंगलुरु के होसाबट्टू में पुजारी नाम के एक फूल विक्रेता को कुछ मोटरसाइकिल सवारों ने मार दिया. यह युवक बजरंज दल से जुड़ा था और गौ-ह्त्या और ख़ास कर वध-शालाओं को लेकर सक्रिय था. पूरे इलाके में उपद्रव शुरू हो गया. पूरे देश में गौ –हत्या और गौ-वंश के वध को लेकर एक अजीब उन्माद फैला हुआ है जो कहीं न कहीं भारत के विकास याने “स्किल इंडिया” , “मेक-इन इंडिया” या “डिजिटल इंडिया” की अवधारणा की ऐसी तैसी कर रहा है. हम विकास करने की जगह एक आदिम सभ्यता की ओर बढ़ते जा रहे हैं.      

गौ हत्या और गौ -मांस का सेवन किस काल-खंड में होता रहा है या नहीं होता रहा है, और अब इसके प्रति किस धर्मावलम्बियों की क्या भावना है और क्या इसे अन्य धर्मों के लोगों को आदर करना चाहिए, इस पर एक नया विवाद छिड़ गया है. लेकिन हर शोधकर्ता वह वामपंथी विचारधारा का हो या दक्षिणपंथी  विचार का, यह मानता है कि पिछले २५०० साल में हिन्दू धार्मिक ग्रंथों, परम्पराओं या नियमों ने इसे निषिद्ध किया और गाय को सम्मान का दर्ज़ा और गोवंश को आदर का भाव दिया. प्रश्न यह है कि अगर किसी समाज में ढाई हज़ार साल से एक आस्था विकसित हुई है तो क्या वह उस समाज के लिए कानून से बड़ा दर्ज़ा नहीं रखती? अगर किसी १३०० साल के धार्मिक आदेशों के सम्मान के लिए भारत के संविधान में समान नागरिक संहिता प्रभावकारी बनाने के लिए राज्य को शक्तियां नहीं दी गयी (और इसे नीति-निर्देशक तत्वों में रखा गया है)  तो क्या हिन्दुओं की इस आस्था के प्रति राज्य का कर्तव्य अलग हो जाता है ? और क्या अन्य धर्मों के लिए भी उतना हीं उचित नहीं कि इस आस्था का सम्मान करें ताकि कि पारस्परिक सहभाव व शांति बनी रहे?      

उधर तर्कशास्त्र की एक परेशानी है यह कि तर्क-कर्ता अगर निरपेक्ष न हो तो अपने मतलब का तथ्य लेकर उसे वजन दे कर अपनी अवधारणा को सिद्ध कर सकता है. ऐसा करना तब और आसन हो जाता है जब अपवाद स्वरुप कुछ तथ्य मिल जाएँ.  एकेडेमिक दुनिया में अपवाद को लेकर मूल अवधारणा को गलत करार देना और इसे शोध की संज्ञा देना सहज होता है बगैर यह जांचे हुए कि अपवाद का मूल कारण क्या था. “प्राचीन सत्य” को ढूँढने में एक अन्य समस्या यह है कि किस काल खंड का तथ्य तर्क-वाक्य में शामिल किया जाता है इसे भी देखना चाहिए. तीसरी प्रमुख समस्या है सामजिक –सांस्कृतिक व भावनात्मक मुद्दों पर अदालत के फैसले. अगर सन १९५९ में सुप्रीम कोर्ट ने १६ साल के ऊपर की गाय का वध इस आधार पर सही ठहराया कि यह अनुत्पादकता हो जाती है और चारा और अन्य संसाधनों पर भार पड़ता है तो सन २००५ में उसी अदलत ने इस फैसले को उलटते हुए गौ-हत्या पर पाबंदी लगाई. अदालत ने पशु सम्बंधित राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा “यह तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता कि १६ साल के उम्र के बाद गाय और बैल बेकार (यूजलेस) हो जाते हैं. वे जीवन –पर्यंत गोबर और मूत्र देते हैं जिससे बायो-गैस और खाद बनता है. एक बूढा बैल अपने इस काल में प्रतिवर्ष पांच टन गोबर और ३४३ पौंड मूत्र देता है जिससे २० ठेला कम्पोस्ट खाद बनाया जा सकता है”.        

इतिहासकार डी एन झा ने एक लेख में लिखा है कि वैदिक काल में गौमांस न केवल खाया जाता था बल्कि मेहमाननवाजी का चरम माना जाता था. उन्होंने याज्ञवल्क्य के कथन का हवाला दिया जिसमें (उनके अनुसार) ऋषि ने गौमांस अपनी पसंद बताई थी.

हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि उत्तर –मौर्य काल में इस पर पाबंदी लगने लगी और बाद में इसे पूर्ण  रूप से हिन्दुओं के लिए निषिद्ध किया गया.

           
                हिन्दुओं की चिंता सही पर हिंसा गलत
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हमारे देश में तीन तरह के बुद्धिजीवी हैं. एक जो भारत में हजारों साल पहले “विमान बनाने की क्षमता थी” या “गणेश जी के मुंह की ग्राफ्टिंग कर प्राचीन शल्य चिकित्सकों ने हाथी का सूंढ़ लगा दिया” के अतार्कि और अवैज्ञानिक “ (अंध?) विश्वास” को भारत पर थोपना चाहते हैं और अखंड भारत के रूप में इस देश का क्षेत्रफल फिर से ३२.८० लाख वर्ग किलोमीटर से बढा कर ८० लाख वर्ग किलोमीटर करने के लिए वर्तमान दुनिया के आठ देशों को भारत में समाहित करने के लिए तर्क और उत्साह पैदा कर रहे हैं याने पाकिस्तान, नेपाल , बर्मा, अफगानिस्तान सब अखंड भारत में मिलाने का ज़ज्बा लिए घूम रहे हैं. उन्हें मोदी के नए भारत के विकास से ज्यादा हिन्दू राष्ट्र बनाने की चिंता है. दूसरे बुद्धिजीवी वो हैं जो हिन्दू शब्द सुनकर हीं ऐसा भड़कते हैं जैसे सांड को लाल कपड़ा दिखा दिया गया हो. उनके लिए हिन्दू कुछ भी करे वह गलत है. गौ मांस खाना इस वर्ग का जन्म सिद्ध अधिकार है हिन्दुओं की भावना भड़के तो भड़के, लेकिन वहीं अगर कोई मुसलामनों के आराध्य मुहम्मद साहेब सलाल्लाहु अलहए वसल्लम का अक्स बना दे (जो उसकी सकारात्मक अभिव्यक्ति भी हो सकती है ) तो वह कट्टरवादी. इसी बीच एक तीसरा वर्ग बुद्धिजीवियों का है जो निरपेक्ष भाव से स्थिति का विश्लेषण करता है जैसे बसहरा गाँव में मुसलमान की हत्या को गलत बताता है तो वहीं इस्लाम में पुनर्समीक्षा के अभाव को इस्लामी कट्टरपंथ का मूल कारण बताता है. यह वर्ग ना तो संघ को ना हीं सत्ता पक्ष को सुहाता है ना हीं “सेकुलरवादी बुद्दिजीवियों को”.

 उत्तर-मौर्य काल में और खासकर तत्कालीन ब्राह्मण ग्रंथों में भोजन के लिए गौ हत्या को गलत ठहराना शुरू हुआ और धर्मग्रंथों ने गौ-हन्ता को समाज से बहिष्कार करना का प्रावधान किया. व्यास-स्मृति में इसे पूर्णरूप से निषिद्ध किया गया. मध्ययुगीन भारत में गौ –हत्या हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच तनाव का बड़ा कारण रहा. सैकड़ों सांप्रदायिक दंगे गोकशी को लेकर होते रहे.

अगर कोई लेखक यह स्वीकार करता है कि पिछले कम से कम ढाई हज़ार साल से गाय को पवित्र मानते हुए इसकी पूजा की जाने लगी और हत्या निषिद्ध की गयी तो फिर क्या यह उचित नहीं कि आज हिन्दुओं की इस भावना का सम्मान किया जाये? यहाँ पर किसी जस्टिस काटजू को या किसी शोभा डे को व्यक्तिगत आजादी की याद आ जाती है. देवी दुर्गा की नंगी पेंटिंग बनाना फ़िदा हुसैन की अभिव्यक्ति की आज़ादी का नमूना है लेकिन मुहम्मद साहेब का कार्टून बनाने पर फ़्रांस में हमला करना उचित हो जाता है.

आइन्स्टीन के अनुसार किसी समस्या को सोच के उसी स्तर पर सुलझाना जिस सोच के स्तर पर हमने इसे खड़ा किया था संभव नहीं. लिहाज़ा “उस वर्सेज देम (हम बनाम वो) के भाव से यह समस्या दूर नहीं हो सकेगी. लेकिन अगर दूसरा पक्ष पहले पक्ष की भावना की कद्र रंचमात्र भी नहीं करता तो पहला पक्ष उसे कब तक बर्दाश्त कर सकता है?  

मैंने ऋग्वेद पढ़ा और पाया पूरी ग्रन्थ में गौ को लेकर आदर का भाव है और इसकी हत्या या भोज्यता को वर्जना के भाव से देखा गया है. बल्कि कई जगह इसे स्पष्ट रूप से निषिद्ध भी किया गया. लेकिन चूंकि यह वेद कोई एक दिन या दस वर्ष में नहीं लिखा गया है बल्कि हजारों साल का सामाजिक , अभ्यास, सोच और दर्शन का संकलन है लिहाज़ा विश्लेषक को यत्र-तत्र वह सब भी मिल जाएगा जो वह अपनी बात खडी करने के लिए चाहता है. डा. अम्बेदकर हों या अन्य साम्यवादी विश्लेषक सभी ने इसी तर्क-दोष का सहारा लिया.

उदाहरण के लिए : ऋग्वेद, अथर्ववेड और यजुर्वेद तीनों में अश्वमेध हीं नहीं पुरुषमेध का ज़िक्र है. अब इसको लेकर कोई विश्लेषक कह सकता है कि वैदिल काल में न केवल अश्व की बलि बल्कि पुरुष की बलि भी दी  जाती थी. लेकिन पूरे काल में और बाद में एक भी ऐसी घटना नहीं है और दरअसल पुरुषमेध कर्मकांड में प्रतीक के रूप में था. महाभारत काल में स्थिति यहाँ तक आयी कि अहिंसा को सबसे बड़ा कर्तव्य और शाकाहार को सबसे बड़ी शिक्षा बताया गया”.

ऋग्वेद मंडल १० सूक्त (८६-१४) :
उक्षणो ही मे पञ्चदश साकं पचन्ति विन्शतिम,
(इंद्र कहते हैं ---इन्द्राणी द्वारा प्रेरित याज्ञिक मेरे लिए १५ या २० बैल पकाते हैं, उन्हें खाकर मैं मोटा होता हूँ ) केवल इतना हीं पढ़ कर कोई यह कह सकता है कि बैलों के मांस से इंद्रा को भजन का आह्वान किया जाता था. लेकिन अगर किओ भी इसकी संदर्भिता देखे तो वह पायेगा कि इस दशम मंडल के ८६वें सूक्त में सभी श्लोकों --ऋचा १ से लेकर २३ तक—में इंद्रा –इंद्राणी संवाद में इंद्राणी वृषाकपि के खिलाफ इंद्र से शिकायत कर रही हैं. यह उसी सन्दर्भ में है. इसी सूक्त में और इसी संवाद में इस बात पर चर्चा है कि मैथुन की क्षमता के लिए लिंग का स्वरुप कैसा होना चाहिए. ज़ाहिर है यह सब उस काल-खंड का और उस क्षेत्र का है जहाँ तथाकथित अ-वेदी समाज (जिसे राक्षस कहा गया है) रहता था और यह ऋगवेद में प्रक्षिप्त किया गया है या मूल आत्मा से भिन्न है.    

लेकिन उसी मंडल के आगे वाले याने ८७ वें सूक्त में अग्नि से प्रार्थना की गयी है कि मांस-भक्षी राक्षसों को काट कर अपने मुंह में रख लें”.

उसी मंडल के उसी सूक्त के श्लोक १७ वें में अग्नि देवता से प्रार्थना है कि राक्षसों को गाय के अमृत -तुल्य दूध को पीने पर उनके मर्मस्थल को जला दें.

ऋग्वेद के हीं मंडल ६, सूक्त २८ (१) को देखें :

आ गावो अग्मन्नुत भद्रमक्रन्त्सीदन्तु गोष्ठे रणयंत्वसमे.......
(गाय हमारे घर आवें और हमारा कल्याण करें , वे हमारी गौशाला में बैठें एवं हमारे ऊपर प्रसन्न हों”).

ऐसे में यह मान लेना को गौ मांस खाना वैदिक काल में प्रचलित था गलत होगा. हाँ चूंकि हजारों साल की परम्पराएँ और अभ्यास का समावेश ऋग्वेद में या अन्य वेदों में है लिहाज़ा किसी काल- या खंड विशेष में बैल- वध को मान्यता मिली देखी जा सकती है. लेकिन ऊपर का वर्ग इसे हमेशा वर्जित करता रहा है. और गौ को माता का दर्ज़ा अपने अपने रूप में देता रहा है. दरअसल जैसे जैसे वन्य क्षेत्र से समतल में बसना शुरू हुआ जीव हत्या से समाज दूर होने लगा और कृषि तक आते आते गौ वध पूर्णरूप से निषिद्ध हो गया. लेकिन चूंकि यह परिवर्तन हजारों साल में हुआ लिहाज़ा कहीं कहीं वेदों में गौ वध और गौमांस के प्रचालन का ज़िक्र मिल जाता है. लेकिन यह वैदिक काल की मूल आत्मा के अनुरूप नहीं बल्कि अपवाद स्वरुप है.   

अथर्ववेद की यह ऋचा (९-१५-४ ) देखें.

“उप ह्वये सुदुघाम धेनुमेता सुहस्तो गोधुगुत दोहदेनाम
श्रेष्ठं सवं सविता साविषन्नो अभीद्धो घर्मस्तदु षु प्र वोचत
(शोभन हाथों से गाय को दुहने वाला मैं सरलता से दुही जाने वाली गाय का दूध दुहता हुआ उसे अपने समीप बुलाता हूँ. सविता मुझे श्रेष्ठ गौ प्रदान करें. उसी में तेजस्वी धर्म का कथन भी है.)

अगले श्लोक में भी गाय को यजमान ने अपना सौभाग्य माना है. लिहाज़ा यह कहना कि गौ मांस वैदिक समाज में “प्रचलित” था, सत्य को नकारना होगा.        


स्वयं डॉ अम्बेडकर ने जिन्होंने एक लेख लिख कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि वैदिक काल में भी एक वर्ग गौ मांस खाता था का कहना ने कहा और इस लेखक ने भी उनकी तस्दीक की कि ऋग्वेद में गाय को रूद्र की माँ, वासु की पुत्री और आदित्य की बहन और अमृत का केंद्र कहा गया है. जब कि एक अन्य जगह गे को देवी की संज्ञा दी  गयी है और अघन्य माना गया है.    

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