Friday 17 May 2013

पाक आवाम की जम्हूरियत पसंदगी एक शुभ संकेत



पाकिस्तान में पहली बार चुनाव के जरिये सत्ता परिवर्तन और नवाज शरीफ का तीसरी बार प्रधानमंत्री बनना भारत में एक वर्ग में उत्साह और दूसरे वर्ग में संशयपूर्ण आशावादिता से देखा जा रहा है. दोनों भाव के यथोचित तार्किक कारण हैं. उत्साह इसलिए कि इस चुनाव में भारत-विरोध पूर्णतः गायब था, मुद्दा बिजली, स्वास्थ्य, भ्रष्टाचार और शिक्षा था, सेना को नागरिक प्रशासन के अधीन लाने का इन्तखाबी ऐलान था और ताकतवर तहरीक-ए-तालिबान –ए पाकिस्तान की चेतावनी के बावजूद (बलूचिस्तान और फाटा क्षेत्र को छोड़ कर) अच्छे प्रतिशत में मतदान हुआ. ये सारे संकेत पाकिस्तानी समाज की सोच में बदलाव की ओर इंगित करता है. मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा है जो नयी हवा में सांस लेना चाहता है, बारूद की गंध में नहीं. संशय इसलिए कि जिस मुल्क ने अकारण पडोशी से तीन युद्ध किये हों, जिस देश के सेना और आतंकी संगठनों ने मिलकर भारत में दहशतगर्दी के तीन दशक का इतिहास रचा हो वह क्या अचानक गुलाब का फूल हाथों में लेकर दिल्ली पहुंचेगा.  
मानव सभ्यता गवाह है कि सामूहिक जन-चेतना में उत्तरोत्तर गुणात्मक परिवर्तन होता है. गुलाम परंपरा ख़त्म हुई, सती प्रथा का अंत हुआ, स्त्री-प्रताड़ना अवसान पर है. साथ हीं जर्मनी एक हुआ, छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटे यूरोप का संगठन यूरोपियन यूनियन बना. आदमी तासीरन अमन पसंद होता है केवल कुछ स्थिति- व काल- विशेष कारक और कुछ सामूहिक सोच में सही-गलत पहचानने की क्षमता का अभाव उसे दो-दो विश्व युद्ध करने पर आमादा करते है. राजाओं ने अपने रियासत बचने या बढ़ाने के लिए जंग किये तो कभी मूंछ या महिला के लिए. लोकतंत्र की खूबी यही है कि इसमें सामूहिक सोच ना केवल फैसले लेती है बल्कि इस सोच में भी गुणात्मक बदलाव आता है.    
यह तर्क बिलकुल सही है कि जो देश ६६ साल में ३० साल फौजी हुकूमत में रहा हो और जिसमें पहली बार सत्ता परिवर्तन बन्दूक से नहीं बल्कि बैलट से हुआ हो उसमें दहशतगर्दों को आवाम की जम्हूरियत पसंदगी अच्छी लगेगी? पूरे विश्व में और खासकर पडोसी भारत में हर कोई यह सवाल पूछ रहा है और हकीकत यह है कि उसके मन में संशय है. चुनाव जीतने के बाद पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) के नेता और दो बार प्रधान मंत्री रहे नवाज शरीफ को अपनी पहली प्रतिक्रिया में कहना पड़ा कि वह भारत के साथ बेहतर सम्बन्ध बनायेंगे और भारत के लोगों को अमन का सन्देश भी दिया. उनकी जेहन से कश्मीर गायब था और पडोसी से बेहतर सम्बन्ध का जज्बा था. लेकिन यह भी उतना हीं सच है कि पंजाब सूबे से जीतने के लिए उन्हें और उनकी पार्टी को गुप्त रूप से कुछ आतंकी संगठनों –खासकर जमात-उद-दावा-- को साधना पड़ा है पिचले साल के पंजाब के बजट में अच्छा धन परोक्ष रूप से इन संगठनों की नज़र करना पड़ा है.  
यहाँ यह समझना भूल होगी कि एक प्रजातान्त्रिक चुनाव में नवाज शरीफ कोई क्रांति ला सकेंगे क्योंकि दशकों पुरानी जेहनियत व शासन का किरदार बदलने में वक्त लगता है. कुछ अवाम आगे आया कुछ सरकार (जिसे लगभग पूर्ण बहुमत मिला है ना कि बैसाखी पर चलने का  जनादेश). लेकिन एक मौक़ा है जब इस देश को भ्रष्ट सैन्य तंत्र-आई एस आई –दहशतगर्दी की शक्तिशाली गठजोड़ से निकाला जाये और पाकिस्तान को आधुनिक राज्य के रूप में विकास के रास्ते पर ले जाया जाये.
यह भी सच है कि पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति बेहद खराब है. वित्तीय घाटे का यह आलम है कि गत वर्ष यह ८.५ के आस –पास था. उद्योग ख़त्म हो गए है और शहरीकरण की दर केवल २० प्रतिशत है. याने ८० फीसदी लोग गाँव में रहते हैं जिनका देश के सकल घरेलू उत्पाद में योगदान मात्र २० प्रतिशत है. फाटा , नार्थ वजीरिस्तान, साउथ वजीरिस्तान  और बलूचिस्तान में आज भी दहशतगर्दों की साम्राज्य है , सेना या कानून का राज्य कहीं दूर-दूर तक नज़र नहीं आता. लेकिन इन सब के बावजूद अवाम में जो कुछ भी हो रहा है उसे लेकर बचैनी साफ़ मनर आती है. जनता अब तालिबानी ऐलानों से ऊब चुकी है. टी टी पी ने जिस तरह ऐलान किया कि लडकिय पड़ने घर से बहार नहीं जाएँगी और पुरुष डॉक्टर औरतों के शरीर को छूएंगे नहीं उससे महिलाओं की असमय मौत होने लगी. मलाला के किस्से ने पाकिस्तानी अवाम की चेतना को झकझोर दिया. कट्टरपंथी सोच पर तार्किक सोच हावी होने लगी.
 नवाज शरीफ के लिए देश को एक आधुनिक राज्य के रूप में बदलना कोई एक दिन का काम नहीं होगा. जो सेना पिछले कई दशकों से भारत –विरोध के नाम पर अमरीकी इमदाद हड़प रही थी वह  आसानी से हथियार डाल देगी यह सोचना गलत होगा. सेना, आई एस आई , कट्टरपंथी एक साथ मिल कर सरकार को झुकाने की कोशिश करेंगे. जिस सेना ने पिछले २००१ -२००८ के बीच अमरीकी इमदाद में आये ११८० करोड़ डॉलर या प्रति वर्ष कोई १२ हज़ार करोड़ पाकिस्तानी रुपये में से ८० प्रतिशत ना केवल हड़प ले रही हो बल्कि उसका कोई लेखा जोखा पाकिस्तानी संसद तक को ना देती हो वह नवाज की सरकार को आसानी से अपने वादे पूरा करने के लिए छोड़ देगी यह सोचना गलत होगा. पाकिस्तान में सेना के अफसरों का रहन-सहन भारत के किसी पुराने ज़माने के राजा से ज्यादा शानदार है.
 . पाकिस्तान एक असफल राज्य है. उसे खोने को कुछ नहीं है. औसतन हर रोज १० आदमी आतंकवादी हमलों में मारे जाते हैं, हर तीसरे दिन एक धमाका होता है, उद्योग-शून्यता के कारण बेरोजगार युवक आत्मा-घाती दस्तों का कच्चा माल बन रहे हैं, “फाटा” क्षेत्र में “आत्मघाती बेल्ट” बनाने के कुटीर उद्योग में बदल चुका है. पिछले ६५ सालों में शिक्षा दर ५२ प्रतिशत से मात्र ५६ प्रतिशत हुई है. बजट का ३० प्रतिशत रक्षा के नाम पर ताकतवर सेना उदरस्थ कर लेती है. सिंध-पंजाब झगडा, बलूच समस्या, मुहाजिर (जो भारत से गए हैं) के प्रति मूल पाकिस्तानियों का रवैया, शियाओं और अन्य सम्प्रदायों के प्रति हिंसा और सबसे बढकर फाटा (फेडरली एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरिया ) क्षेत्र से फैलते हुए तहरीक-ए-तालिबान का पाकिस्तान के अन्य भागों में खूंखार वर्चस्व आदि कुछ ऐसी समस्याएं हैं जिन्होंने इस देश के अंतर को खोखला कर दिया है.  नतीजा यह हुआ कि विकास की दौड़ में देश पीछे होता गया. आजादी से आज तक साक्षरता का स्तर मात्र पांच प्रतिशत हीं बढ़ सका. जाने-अनजाने में धर्म जिसे गैर-राजनीतिक सामाजिक सीमा क्षेत्र में होना चाहिए था राज्य का मूल मन्त्र बन गया और पाकिस्तान एक इस्लामिक देश हो गया.
ऐसा नहीं कि भारत में यह प्रवृति नहीं उभरी. इमरजेंसी, धार्मिक कट्टरवाद की कोशिशें यहाँ भी हुई पर वे परवान नहीं चढ़ पायीं. जन-भावना और संस्थागत मजबूती के तहत ऐसे ताक़तों को मुंहकी खानी पड़ी या यह अहसास हो गया कि यहाँ उन्हें दूर तक ज़िंदा रहने के कारक नहीं मिलेंगे. वह बहुसंख्यक अतिवाद हो या अल्पसंख्यक आतंकवाद जनता ने बैलट के जरिये हमेशा इन्हें ख़ारिज किया. चुनाव का आंकड़ा गवाह है कि बहुसंख्यक अतिवाद से स्वयं बहुसंख्यक हिन्दुओं को इतना परहेज़ था कि भारतीय जनता पार्टी को आज तक के इतिहास में सात मतदातायों में से मात्र एक ने हीं वोट दिया. सन्देश साफ़ था. मंदिर ह्रदय के पास है पर मस्जिद गिरा कर नहीं. जबकि  पाकिस्तान में इंन्होनें स्थाई भाव अख्तियार कर लिया. जनता को ना चाहते हुए भी इसमें बन्दूक के डर से लोगों को शरीक होना पडा. नतीजा यह रहा कि पूरे राज्य का चरित्र बदल गया.  
साथ हीं आधुनिक पाकिस्तान में कट्टरपंथ को दम तोड़ना हीं होगा ऐसे में जो लोग कट्टरवाद की दूकाने  चला रहे है और पूरे समाज को खोखला कर रहें है वे भी नयी सरकार के लिए अडचने पैदा करेंगे लेकिन जन-भावना का ताक़त और सोची-समझी कूटनीति के जरिये इन्हें काबू में लाया जा सकता है उसी तरह  जिस तरह भारत के पंजाब में आतंकवाद को काबू में कर लिया गया.  
हमें भूलना नहीं चाहिए कि भारत और पाकिस्तान के बीच एक अजीब प्यार और घृणा का मिश्रित सम्बन्ध है नवाज शरीफ के भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पाकिस्तान-स्थित पंजाब सूबे के है जबकि पाकिस्तान के भावी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ भारत –स्थित पंजाब प्रांत के हैं. पाकिस्तान एक जम्हूरियत के रूप में विकसित करे यह दोनों देशों के लिए कई मायनों में फायदेमंद रहेगा. 
sahara(hastakshep)   

Wednesday 15 May 2013

बुद्धिमानों की सजा है ---- बुरे लोगों का शासन





कांग्रेस के सेल्फ-गोल का नया नमूना है दिग्विजय-कपिल का न्यायपालिका पर आक्षेप
कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में यू पी ए -२ का शासन लगभग अवसान पर है. भ्रष्टाचार, कुशासन और संस्थाओं को तोड़ने-मरोड़ने के आरोपों के बीच इसके दो नेताओं – दिग्विजय सिंह और मंत्री कपिल सिब्बल में सेल्फ-गोल की अद्भुत क्षमता है. दोनों ने अबकी बार सुप्रीम कोर्ट को अपने निशाने पर लिया है –कुतर्कों के सहारे. दिग्विजय का कहना है कि सर्वोच्च न्यायलय ने अपनी टिप्पणियों के ज़रिये (तोता प्रकरण) सी बी आई जैसी संस्था का मनोबल नीचा किया है जबकि सिब्बल ने इस बात पर जोर दिया है कि न्यायपालिका में जनता का विश्वास और मजबूत करना होगा. मतलब यह कि फिलवक्त  न्यायपालिका में  जन-विश्वास अपेक्षित नहीं है. तर्क-शास्त्रीय रूप से इसका मतलब यह भी है कि कार्यपालिका और विधायिका में जनता का अपेक्षित विश्वास जनता का है.
क्या दोनों नेताओं का कथन हास्यास्पद नहीं है. सी बी आई का मनोबल तब गिरता है जब कमरे में बुलाकर मजमून बदलवाए जाते है और तब भी जब भ्रष्टाचार का आरोप दो-दो मंत्रियों पर हीं नहीं परोक्ष रूप से कार्यपालिका के सर्वोच्च पद –प्रधान मंत्री -पर लगता है. सिब्बल ने यह भी कहा कि कानून की प्रक्रिया आर्थिक विकास में बाधक नहीं होनी चाहिए. मतलब कि न्यायपालिका वर्तमान आर्थिक विकास की नीतियों में बाधक है. यानि राजा हो या बंसल, इन्हें खुली छूट होनी चाहिए “आर्थिक विकास करने देने की.  
कोई ढाई हज़ार साल पहले विख्यात दार्शनिक प्लेटो की  ताकीद थी “ बुद्दिमानों की सबसे बड़ी सजा यह होती है कि वे बुरे लोगों का शासन झेलें क्योंकि उन्होंने स्वयं शासन में भाग लेने से इनकार किया”. गाँधी ने इसे प्रकारांतर से कहा “ आप जिस तरह की दुनिया चाहते हैं उसके लिए स्वयं अपने को बदलें”.
इस प्रजातंत्र के मंदिर --लोक सभा-- में ५४३ सदस्यों में १६३ आपराधिक मुकदमों में फंसे हैं. ये लोग बन्दूक के बल पर नहीं आ गए हैं. ये जनता द्वारा चुने गए हैं. इनमें १०३ पर गंभीर किस्म के आरोप हैं और इनमे से ७४ पर जघन्य (हीनस) किस्म के. “एथिक्स” शब्द यूनानी मूल शब्द “एथिकोस” से बना है जिस का मतलब होता है “आदत से पैदा हुआ”. शायद हमारी आदत बदल गयी है. अन्यथा ९० वें दशक के पूर्वार्ध में हवाला काण्ड में केंद्र के सात मंत्री और एक नेता विरोधी दल (लोक सभा) एक झटके में इस्तीफा न देते. मामले का नतीजा अदालत में सिफर इसलिए रहा कि सी बी आई ने जांच में “अपेक्षित साक्ष्य” नहीं दिए और जिसके लिए सर्वोच्च न्यायलय ने सन १९९७ में सी बी आई को कड़ी फटकार हीं नहीं लगायी इसे सीधे केंट्रीय सतर्कता आयोग के अधीन काम करने को कहा और एक जबरदस्त दिशा- निर्देश भी दिए. यह फैसला अपने आप में कानून की ताक़त रखता था. लेकिन चूंकि आदत राज्य अभिकरणों को अंगूठे के नीचे रखने की थी इसलिए सुरमे कोर्ट के फैसले को रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिया गया. नैतिकता का पैमाना भी इस दौरान बदल गया इसलिए वह क़ानून खोजा जा रहा है जिसके तहत सरकार के कानून मंत्री को हीं नहीं आरोप में घिरे कोयला मंत्रालय और प्रधान मंत्री कार्यालय को भी यह अधिकार हो कि सी बी आई को आदेश दे सके. सर्वोच्च न्यायलय के आदेश के बावजूद  सी बी आई भी वहीं, संस्थाएं भी वहीं और समूची सरकार भी वहीं और ज़ाहिरन प्रधानमंत्री भी वहीं.
“आदत से पैदा हुआ भ्रष्टाचार” हमरे खून में शुरूआती दौर के “रिटेल में भ्रष्टाचार” से बढ़ सिस्टमिक भ्रष्टाचार” बनकर दौड़ता रहा. यह जीवन-पध्यती बन गया. भारत सरकार की २००७ की “शासन में नैतिकता” सम्बन्धी रिपोर्ट में इसे “कोल्युसिव” (मिलजुल कर) भ्रष्टाचार की संज्ञा दी. आज़ादी के प्रारंभ के कुछ दशकों तक यह भ्रष्टाचार “कोएर्सिव” (भयादोहन) के रूप में रहा जिसके तहत कमजोरों या गरीबों से उनके सही काम करने के पैसे लिए जाते थे यह कह कर कि “नहीं करेंगे तो क्या कर लोगे”. बाद में जब सत्ता के हाथ में “विकास” का कार्य आ गया और बजट के माध्यम से लाखों करोड़ रुपये आने लगे तो अफसर-नेता गठजोड़ को लगा “क्या मिलता है भोली-भाली जनता से चार-चार पैसे लूटने में और फिर हल्ला भी ज्यादा होता ”. और तब जन्म हुआ “कोल्युसिव” (मिल-जुल कर) किस्म के भ्रष्टाचार का. २-जी, सी डब्ल्यू जी, कोयला घोटाला इसी अफसर-नेता कोल्युसिव ज्ञान की उपज हैं. इस किस्म के भ्रष्टाचार में एक कमजोर या गरीब व्यक्ति नहीं बल्कि पूरा समाज हीं परोक्ष रूप से प्रभावित होता है लेकिन इसमें कोई एक व्यक्ति नहीं शिकार होता. चूंकि नार्थ ब्लाक के कार्यालय में (जहाँ परिंदा भी पर नीहें मार सकता) डीलें होती है इसलिए गवाह नहीं होता. हमारी अपराध न्याय प्रणाली गवाह, व साक्ष्य पर आधारित है और जज सत्य का खोज नहीं बल्कि अंपायर का काम ज्यादा करता है इसलिए भ्रष्टाचारी  मंत्री को मौका मिलता है “दूध का दूध” का जुमला फेंक कर पद बने रहने का.
सुशासन के सिद्धांतों में एक के अनुसार नैतिक मान-दंड अगर संस्थाओं का बल ना मिले तो धीरे-धीरे दम तोड़ देते हैं. चूंकि भारत का भ्रष्टाचार नए स्वरूप  --- कोल्युसिव – में फलने –फूलने लगा अतः यह ज़रूरी हो गया कि इन संस्थाओं को पंगु बनाया जाये. ये पंगु होंगे तो नैतिक मान-डंडों को सहारा देने वाला कोई नहीं होगा. नतीज़तन जजों को, आई बी और सी बी आई निदेशकों को, “बात-मानने के लिए विश्वसनीय” अफसरों को रिटायरमेंट के बाद पांच साल के लिए घोड़ा-गाडी और लाल-बत्ती के साथ हीं मोटी आय की व्यवस्था की जाने लगी. जब सर्वोच्च अदालत ने हवाला फैसले में “सिंगल डायरेक्टिव” (जिसके तहत सी बी आई संयुक्त सचिव या ऊपर के अधिकारी के खिलाफ जांच के पहले सरकार से अनुमति लेनी होती है) को गैर-कानूनी बताया तो तत्कालीन संसदीय समिति ने फिर से सी वी सी विधेयक में दुबारा इस प्रावधान को ला कर २००३ में कानून बना  दिया. सी बी आई फिर दन्त –विहीन संस्था हो गयी. मायावती के खिलाफ जांच के लिए सी बी आई की अपील पर तत्कालीन राज्यपाल ने अनुमति नहीं दी .      
हमने आज़ादी मिलने के साथ हीं व्यापक तौर पर ब्रिटेन के प्रजातंत्र व प्रशासनिक व्यवस्था का अनुकरण किया. लेकिन उनके समाज का “एथिक्स” या “आदत से पैदा हुई नैतिकता”  और हमारी “आदत से पैदा हुई नैतिकता में फर्क था और है. एक उदाहरण लें. कुछ साल पहले टोनी ब्लेयर की सरकार के दो मंत्रियों को महज इस आरोप पर इस्तीफा देना पड़ा कि एक मंत्री के कार्यालय से एक फ़ोन किया गया था जिसमें मंत्री के बच्चे की आया (दाई) को वीसा जल्दी देने की सिफारिश की गयी थी और दूसरे मंत्री के कार्यालय से यह सिफारिश की गयी थी कि एक व्यक्ति को जो सरकार के एक जनोपयोगी कार्यक्रम में चंदा देता था, उसे ब्रिटेन की नागरिकता दे दी जाये. इन मंत्रियों ने ना तो “दूध का दूध , पानी का पानी” होने का या  जांच रिपोर्ट का इंतज़ार किया ना हीं “अंतिम अदलत के फैसले का”, ना हीं “मैं स्वयं किसी भी जांच के लिए तैयार हूँ “ का भाव ले कर देश की छाती पर मूंग दलते रहे.
 ६२ साल पहले नेहरु ने एच जी मुद्गल को ना केवल संसद सदस्यता से निकाला बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि यह इस्तीफ़ा दे कर ना निकलने पाए. मुद्गल पर आरोप इतना हीं था कि उन्होंने पैसे लेकर सर्राफा व्यापारियों के लिए संसद में सवाल पूछा था.
इन ६२ सालों में देश का जी डी पी बढ़ता गया, कारें बदती गयी और आदतों से पैदा हुए  नैतिकता का अवसान और तज्जनित भ्रष्टाचार भी बढ़ता गया. “भारत महान” के कर्णभेदी नारे में गरीब की चीत्कार दबाती रही. शासन की गुणवत्ता तिरोहित होती गयी.
आज ज़रुरत है कि अच्छे लोग शासन प्रक्रिया से भागें नहीं बल्कि भाग लें ताकि बुरे लोगों को इससे छुटकारा दिलाया जा सके. 
bhaskar