Wednesday 19 June 2013

गठबंधन धर्म नहीं राजनीतिक लाभ का अनैतिक खेल



खेल का नियम पहले किसने बदला –नीतीश ने या भाजपा ने ?  
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तो डेढ़ दशक पुराना राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन एक बार फिर टूट ही गया. भारत की द्वि-ध्रुवीय बहु-दलीय राजनीतिक व्यवस्था एक बार फिर प्रश्नों के घेरे में आ गयी. गठबंधन के इस टूट-जोड़ के खेल को समझने के लिए हमें लोकतांत्रिक व्यवस्था के मूल में जाना होगा. क्या गठबंधन का कोई धर्म होता है जैसा भाजपा अक्सर कहती है या यह एक खेल है जिसमें कुछ “खेल के नियम” होते हैं और अगर एक वह नियम तोड़ता है तो दूसरे की मजबूरी होती है नियम को अपने हित में तोड़ना?

आखिर क्या हो गया है कि सन २००२ के गुजरात दंगों के बाद जब केन्द्रीय मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे कर राम बिलास पासवान गठबंधन से हटते हैं तो तत्कालीन रेल –मंत्री नीतीश कुमार उन्हें अवसरवादी व गठबंधन को कमज़ोर करने वाला बताते हैं और जब दंगे के बाद नरेन्द्र मोदी गुजरात का चुनाव जीतते हैं तो नीतीश और अकाली नेता इस अवधारणा को ख़ारिज कर देते हैं कि जीत का कारण सांप्रदायिक ध्रुवीकरण था. गुजरात सरकार के खिलाफ संसद में विपक्ष द्वारा लाये गए निंदा प्रस्ताव के  पक्ष में पासवान की पार्टी खड़ी होती है, फारूक अब्दुल्लाह, जो कि राजग में तब तक थे भी लगभग प्रस्ताव  के पक्ष में जाते हुए सदन से वाकआउट करते हैं. टी डी पी भी बेहद संयत स्वर में अपनी प्रतिक्रया देती है. लेकिन नीतीश कुमार पूरी तरह प्रस्ताव के पक्ष में खड़े रहते है. यहाँ तक की २००७ तक गुजरात, मोदी और दंगों को लेकर नीतीश का लगभग उदार रवैया रहता है.

लेकिन २००७ की मोदी की दुबारा जीत से स्थिति बदल जाती है. राजग सन २००४ का चुनाव हार चुकी होती है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भाजपा को एक बार फिर अपने नियंत्रण में ले लेता है. अटल बिहारी वाजपेयी स्वास्थ्य कारणों से सीन से धीरे –धीरे हटने लगते है और आडवाणी सन २००५ के जिन्ना प्रकरण के बाद संघ द्वारा अशक्त कर दिये जाते हैं. भाजपा संघ के इशारों पर चलने लगती है. सन २००९ के चुनाव में दोबारा हारने के बाद संघ आडवाणी को अवकाश  लेने की सलाह दे डालता है. इसी प्रक्रिया में संघ ना केवल पार्टी में एक अपेक्षाकृत छोटे कद के मराठी नितिन गडकरी को अध्यक्ष बनाता है बल्कि मोदी को उभारने लगता है. गठबंधन के “खेल के नियम” बदलने लगते हैं. मोदी का चेहरा और आक्रामक हिंदुत्व संघ की भाजपा नीति बनने लगती है.

इसी दौरान नीतीश अपनी जमीन तलाशने और जमीन का विस्तार करने के लिए एक प्रयोग करते हैं. मनिहारी चुनाव में मुसलमान मतदाता जद-यू के प्रत्याशी को वोट दे कर जीताता है. नीतीश को जमीन दिखाई देने लगती है. बिक्रमगंज उप-चुनाव में भी मुसलमान मतदाता नितीश पर अपना विश्वास प्रदर्शित करता है. नीतीश अली अनवर सरीखे पसमांदा मुसलमान नेता को तरजीह दे कर राज्य- सभा भेजते हैं. बाद में साबिर अली को भी पासवान से खींच कर अपने पाले में लाते हैं.

प्रश्न यह है कि खेल के नियम किसने पहले बदले. क्या यह सही नहीं है कि वाजपेयी -आडवाणी के सीन से हटने का बाद नियम स्वतः हीं बदल गए? क्या यह सच नहीं कि संघ का नियंत्रण स्वयं हीं खेल के नियम में तब्दील का आभास देता है? क्या यह सच नहीं कि मोदी को राज्य में सीमित रखना और मोदी को राष्ट्रीय सीन पर उभारना नियम बदलना है?

तो अगर नीतीश ने नियम बदले तो गलत क्यों?     

राजनीतिक दलों का गठबंधन कोई मानव-प्रेम से उद्भूत प्रक्रिया नहीं है. इसके मात्र दो उद्देश्य होते हैं –पहला भारतीय चुनाव प्रणाली , फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (ऍफ़ पी टी पी) याने जो जीता वही सिकंदर की खामियों का लाभ उठाना. इस पध्यती के तहत दलों के मिलकर चुनाव लड़ने से सीटों का संख्या में ज्यामितीय वृद्धि का लाभ मिलता है. दूसरा उद्द्यश्य होता है , सत्ता में साझेदारी. चुनाव-पूर्व गठबंधन पहले उद्देश्य से किया जाता है और अगर स्थितियां अनुकूल रहीं तो दूसरा उद्देश्य स्वतः ही सध जाता है, जैसे वर्तमान यू पी ए -२ का कांग्रेस –एन सी पी गठबंधन. चुनावोपरांत गठबंधन का उद्देश्य मात्र सत्ता का लाभ लेना है. एक तीसरा गठबंधन है जो अनौपचारिक है और जो कई बार परदे के पीछे के खेल के तहत होता है जैसे यू पी ए –समाजवादी पार्टी (या बहुजन समाज पार्टी) गठबंधन.

गठबंधन दरअसल गलत चुनाव पध्यती -- ऍफ़ पी टी पी—का अपरिहार्य प्रतिफल है. यह पध्यती समाज को अंतिम सामजिक पहचान चिन्ह तक विखंडित करती है. कांग्रेस के सर्वसमाहन के नाम पर सेकुलरवाद के नारे से लेकर भाजपा का आक्रामक हिन्दुवाद, पांच साल बाद मंडल के नाम पर अगड़ा-पिछड़ा और फिर विभिन्न जाति के दल और अंत तक आते-आते दलितों में भी महा-दलित खोजना इसी पध्यती की देन है. इसलिए १९९० की बाद से भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में गठबंधन एक अपरिहार्य कारक के रूप में आया और बना रहेगा.

लिहाज़ा गठबंधन का कोई धर्म नहीं होता. यह शुद्ध पंजे की लड़ाई है, दलों की स्वार्थ-सिद्धि का एक खेल है. इसकी पहली शर्त है--- अलग-अलग पहचान समूह में बंटे मतदातों का मूल रुझान बाधित ना होने का विश्वास. उदाहरण के तौर पर अगर आंध्र प्रदेश में भाजपा असदुद्दीन ओवैसी की मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुसलमीन से हाथ मिलाये तो दोनों का नुकसान होगा. लेकिन तेलुगु देशम पार्टी (टी डी पी) के साथ आने से दोनों को फायदा. यहाँ अंतर मात्र एक है जहाँ शिव सेना और भाजपा के मतदाताओं में गठबंधन को लेकर विश्वास का स्तर ज्यादा होगा, टी डी पी के मतदाता खासकर मुस्लिम और उदारवादी हिन्दू मतदाताओं को हमेशा गठबंधन को लेकर शक रहेगा और हर कुछ महीनों में टी डी पी को हिंदुत्व के स्थपित एवं आक्रामक मानदंडों को लेकर भाजपा के खिलाफ एक पोसचरिंग (ड्रामे में प्रदर्शित किया जाने वाला भाव) दिखाना पडेगा. 

राजनीति-शास्त्र के स्थापित सिद्धांतों के अनुसार सफल गठबंधन की तीन प्रमुख शर्तें होती हैं. पहला, झगड़े के कम से कम तत्व; दूसरा, झगडा निपटाने के लिए एक सुव्यवस्थित मैकेनिज्म; और तीसरा, गठबंधन में आने के ऊद्देश्यों के प्रति जनता में विश्वास. आडवाणी रहें या मोदी, गठबंधन की ये तीनों शर्तें हाल की घटनाओं ने तोड़ दी हैं. “मोदी भी रहेंगे और आडवाणी भी” का मतलब हुआ कि मोदी के प्रति गठबंधन के जिन दलों को ऐतराज़ है और जो शुरू से हीं एक संशय पाले रहें हैं उनका संशय बरकरार रहेगा. मोदी की दो तस्वीरें में से एक उन्हें सालती रहेंगी. ये दो तस्वीरें हैं --- सन २००२ के दंगों वाली और दूसरी है विकासकर्ता , प्रशासनिक दक्षता और ईमानदार नेता वाली. गठबंधन के उन दलों का  जो, हिंदुत्व की भावना से पैदा नहीं हुए हैं और जो अल्पसंख्यक वोटों के लिए भी लार टपकाते हैं, मोदी के आसपास दिखना स्थायीरूप से घाटे का सौदा है. नीतीश कुमार की पार्टी – जनता दल (यू ) इसी श्रेणी में आती है. ठीक इसके उलट कुछ दल ऐसे हैं जो कट्टर हिन्दुवाद की पैदाइश हैं जैसे शिव सेना. उन्हें मोदी के दूसरे इमेज से कोई आपत्ति नहीं है लेकिन मोदी के आक्रामक स्वभाव से जरूर गुरेज है. लिहाज़ा झगड़े के कम से कम तत्व वाली शर्त खारिज हो जाती है. “मोदी रहेंगे तो संघ रहेगा, संघ रहेगा तो कट्टर हिन्दुवाद दूर नहीं हो सकता और हिन्दुवाद रहेगा तो मुसलमान वोटों का क्या होगा” यह नीतीश की चिंता है.

गठबंधन की दूसरी शर्त है झगडे के निपटारे के लिए एक व्यवस्था. प्रश्न यह है कि मोदी के स्वछंद व्यक्तित्व के मद्दे नज़र क्या कोई इस तरह की व्यवस्था सफल हो सकती है जिसके निर्देश मोदी सरीखे लोगों के लिए बाध्यकारी हो? शायद नहीं.

तीसरी शर्त: क्या जनता को इस तरह पहले हीं से एक दूसरे के प्रति सशंकित दलों के गठबंधन के उद्देश्यों के प्रति विश्वास हो सकता है? यह स्पस्ट है कि जिस तरह मोदी के आने को लेकर नीतीश ने विरोधी स्वर मुखर किये है उससे गठबंधन के मूल उद्देश्यों की विश्वसनीयता को धक्का ज़रूर लगा है.        
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