किसी व्यक्ति को समझने और मूल्यांकन करने के दो
तरीके होते हैं. एक तरीका है आप उसके द्वारा किये गए कार्यों और उनके निष्पादन के
लिए हुआ बलिदान नज़र में रख कर बेबाक मूल्यांकन परिणाम को लक्ष्य में रखते हुए
करें, इस फॉर्मेट के विश्लेषण की शर्त है कि व्यक्तिकी उपलब्धियों को गौण माना
जाये. दूसरा तरीका है आप उसके जीवन में प्राप्त ऊँचाइयों को देखते हुए यह मान कर
चलें कि इतनी उंचाई हासिल करने वाला शख्स कोई सामान्य तो होगा नहीं और तब उसने
जो-जो किया उसे हीं सत्य और औचित्य का प्रतिमान मान लें और उसकी उपलब्धि के आधार
पर उसके कार्यों की विवेचना करें. यह दूसरा तरीका तर्क-निष्ठ नहीं होता और जिसकी
वजह से कई बार व्यक्ति का सही विश्लेषण या मूल्यांकन नहीं हो पाता.
नरेन्द्र भाई मोदी देश की सबसे बड़ी पार्टी,
भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित हो गए. जाने अनजाने में
जन –संवाद के धरातल पर चाय की दूकान से चौपाल तक और सी आई आई के एयरकंडीशंड मीटिंग
हॉल से टीवी चैनलों के स्टूडियो तक यह चर्चा हो रही है कि “मोदी माने क्या?”
प्रजातंत्र के लिए इससे अच्छा संकेत कोई हो हीं नहीं सकता. इस तरह के मूल्यांकन से
हम यह समझ पाते हैं कि अगर यह व्यक्ति पूर्व में ऐसा रहा है तो आगे क्या-क्या
करेगा. लेकिन कोई भी मूल्यांकन दिक्-काल-स्थिति – सापेक्ष होता है लिहाज़ा तज्जनित
पूर्वाग्रह दोष से ग्रसित होता है. कोशिश यह होनी चाहिए कि ये पूर्वाग्रह कम से कम
हों.
मोदी के व्यक्तित्व से चार अवधारणायें जुडी हैं.
“मोदी के आने से शासन में भ्रष्टाचारियों की तो शामत आ जायेगी”. “मोदी आये तो
आतंकियों को पाकिस्तान में हीं शरण के लिए जाना पड़ेगा”. “मोदी के शासन में अब तक
सुस्त प्रशासन की तो ऐसी-तैसी हो जायेगी”. और “ मोदी के ज़माने में विकास के पंख लग
जायेंगे”. याने मोदी के इमेज में चार पहलू “भ्रष्टाचार के खिलाफ जेहादी,
आतंकवादियों का नाशक , विकासकर्ता और अच्छा शासक” चस्पा हो गए हैं. और चस्पा भी
इसलिए हुए क्योंकि यू पी ए -२ की मनमोहन सरकार इन सभी मुद्दों पर असफल रही या ऐसा
जन-मानस में सन्देश गया. कई बार काम करने से ज्यादह उसके सार्थक प्रचार से सत्ता
पक्ष सन्देश भेजता है मनमोहन सरकार उसमें भी बुरी तरह असफल रही. कोयला घोटाला हीं
नहीं हुआ , घोटाले को लेकर जो “शून्य-सहिष्णुता” का सन्देश जाना चाहिए था उसकी जगह
सन्देश गया “ दोषियों को बचाने का” (सी बी आई निदेशक को बुलाकर जांच रिपोर्ट में
बदलाव करवाने से लेकर फाइलें गायब करने तक).
सत्ता पक्ष अगर अक्षम हो तो विपक्ष का काम कितना
सहज हो जाता है यह वर्तमान परिदृश्य साफ़ बताता है. ऐसा नहीं कि विकास नहीं हुआ या
जन-कल्याण के कार्य नहीं हुए. मनरेगा, सर्वशिक्षा, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य
योजना, मिड-डे मील अपने –आप में विश्व में अनूठे कार्यक्रम रहे हैं, खाद्य सुरक्षा
कानून, सूचना व शिक्षा का अधिकार किसी भी विकसित समाज में नागरिक सशक्तिकरण का
सर्वोत्तम जरिया होते हैं जो इस सरकार ने दिया. लेकिंज सन्देश यह गया कि यह सरकार
भष्ट और निकम्मी हीं नहीं है बल्कि इन दुर्गुणों को छुपाने के लिए संस्थाओं को
शक्तिहीन भी करना चाहती है.
ऐसे में मोदी का राष्ट्रीय जन धरातल पर आंकलन
होता है. अपने हीं पार्टी में बेहतर काम करनेवाले, विकास की अच्छी समझ रखने वाले
छत्तीसगढ़ के मुख्मंत्री पीछे छूट जाते हैं. नीतीश भी इसी इमेज बिल्डिंग के जरिये
विकासकर्ता की छवि लेकर बढ़ते हैं पर मोदी से टकराने पर एक विज्ञापन में सीमेंट
वाले हाथी की मानिंद चूर-चूर हो जाते हैं.
राजनीति- शास्त्र के सिद्धांत के अनुसार
अर्ध-शिक्षित व अल्प तर्क-शक्ति वाले समाज में भावनात्मक मुद्दे वास्तविक मुद्दों पर भारी पड़ जाते हैं और
ऐसे में नेताओं और पार्टियों का मूल्यांकन गलत हो जाता है. इसमें दो राय नहीं है
कि विकल्पहीनता की स्थिति में मोदी हीं देश की समस्या का जवाब हैं, राहुल उस
फॉर्मेट में आ सकते थे पर वह चुनौती स्वीकार नहीं कर रहे हैं.
पर मोदी को अपने नकारात्मक पहलू भी समझने होंगे.
यह मान लेना कि चाय की दूकान से रायसीना हिल्स चौराहा (प्रधानमंत्री कार्यालय के
पास का चौराहा) मात्र उनकी क्षमता और गुणों का परिणाम है गलत होगा. मोदी सन २००२
में उस दिन हीं राजनीतिक रूप से ख़त्म हो जाते जिस दिन दंगे भड़के लेकिन केंद्र में
भी भारतीय जनता पार्टी की सरकार ढाल बन गयी. मोदी उस दिन भी ख़त्म थे जिस दिन
वाजपेयी ने उन्हें जन मंच से “राजधर्म” निभाने की सलाह दी थी लेकिन अडवाणी ढाल बन
कर खड़े हो गए.
मोदी की इमेज जहाँ भ्रष्टाचार के खिलाफ “जोरे
टॉलरेंस” की है वहीं यह भी इमेज है कि अपनी बात के खिलाफ किसी भी आवाज़ के प्रति
उनमें “जीरो टॉलरेंस” (बर्दाश्त ना करना)
है. एक प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में नेता का विरोधी स्वर को लेकर जीरो
टॉलरेंस मात्र दुश्मन हीं पैदा करता है आज नहीं तो कल. मोदी का आगाज़ हीं विरोध से
हुआ है यह अच्छा नहीं है. देखने में चाहे कितना हीं गौण लगे और यह भाव मन में घर
करे कि आडवाणी को हैसियत दिखा दी गयी , मोदी को निर्विरोध (आडवाणी को छोड़ कर) चुना
गए, लेकिन यह आने वाले दिनों में यह सन्देश ज़रूर देगा कि मोदी “निर्विरोध” नेता
नहीं थे.
दूसरा, मीडिया के प्रति मोदी का भाव हमेशा
हिकारत का रहा है. जबकि यहाँ तक आने में जाने-अनजाने में मीडिया की बड़ी भूमिका रही
है. अहंकार और जन-अभिमत में नेता कई बार भूल जाते हैं कि मीडिया या ऐसी हीं कई
संस्थाओं का सत्ता विरोध शाश्वत भाव होता है और वह मोदी या मनमोहन में फर्क नहीं
करता. लिहाज़ा मोदी को यह सन्देश देना होगा कि उनके अहंकार में कमी आई है. अभी तक यह भाव देखने में नहीं आया
है. मोदी केशूभाई पटेल के यहाँ जीतने का बाद “आशीर्वाद” लेने जाते हैं.आडवाणी के
तब तक पैर-छूने नहीं जाते जब तक नाम की घोषणा नहीं की जाती. दरअसल यह विनम्रता
नहीं विनम्रता का ड्रामा होता है जिसमें प्रतिद्वंद्वी को चिढाने का भाव ज्यादा
होता है.
व्यक्तित्व के यह दोष नेता का सर्वमान्यता में
हमेशा बाधक बनते है. यही वजह है कि सुषम स्वराज को भी वही डर सता रहा है जो संघ
को. फिर भी संघ ने जुआ खेला है. साझा सरकार के इस युग में यही डर अन्य पार्टियों
को अपने साथ जोड़ने में मोदी को झेलना होगा. संघ और भारतीय जनता पार्टी का आडवाणी
के घर तीन दिन सजदा करना मात्र इसलिए था कि संघ को भी आडवाणी की ज़रुरत इसलिए है कि
जुए का दांव अगर गलत हो गया तो मोदी के बरअक्स खड़ा होने के लिए एक बड़े कद का नेता
चाहिए और वह कद सिर्फ आडवाणी का हीं है.
फिर भी आम जन का विश्वास है कि मोदी हीं देश को
ऊँचाइयों तक ले जा सकते हैं मोदी को इस विश्वास पर खरा उतरना एक बड़ी चुनौती
है.
rajsthan patrika