हम
अगर प्लेग, हैजा, चेचक और पोलियो ऐसी बीमारियों से निकल पाए हैं, खाना-बदोश जीवन,
गुलाम परंपरा या सती प्रथा से छुटकारा पा सके हैं, क्रूरतम शासकों के शोषक
व्यवस्था से निकल पाए है तो यह किसी भभूत बेंचने वाले बाबा की वजह से नहीं बल्कि
वैज्ञानिक-तार्किक सोच की वजह से. फिर क्या
वजह है कि बाबाओं की दूकान में न केवल अशिक्षित लोगों का बल्कि कुछ तथाकथित पढ़े
–लिखे लोगों का भी “सर्वस्व न्योछावर करने”
के भाव में जमवाड़ा लगा रहता है?
मेरे
ऑफिस का ड्राईवर एक दिन छुट्टी चाहता था, बच्चे के ईलाज के लिए. पूछा कि क्या
बीमारी है ताकि किसी परिचित अच्छे डॉक्टर से दिखवाया जा सके. उसने अन्यमनस्क भाव
से कहा “नहीं डॉक्टर से नहीं होगा, पडोसी ने कुछ कर दिया है एक ओझा के यहाँ ले
जाना है”. मुझे मालूम है कि इसके खिलाफ मैंने जो भी तर्क दिए वह उनसे मुतासिर नहीं
हुआ होगा. ओझा मेरे तर्कों पर भारी पड़ा होगा. लेकिन इस घटना के कुछ दिन बाद हीं
मैंने एक भारतीय प्रशासन सेवा के एक अधिकारी को एक बाबा के यहाँ नतमस्तक होते और
अपने बच्चे के ईलाज का उपाय पूछते देखा तब लगा शिक्षा और वैज्ञानिक सोच का कोई
अपरिहार्य सम्बन्ध नहीं होता. व्यक्तिगत स्वार्थ-सिद्धि के वशीभूत यहाँ आकर कम
पढ़े-लिखे ड्राइवर और अपेक्षाकृत शिक्षित अफसर में एक समभाव दिखाई देते है.
जिस
देश में तर्क-शास्त्र की एक परंपरा रही हो , जहाँ अद्वैतवाद से लेकर चार्वाक दर्शन
को समान रूप से प्रश्रय देते हुए तर्क की परम्परा को आगे बढाया गया हो उसमें समाज
के एक बड़े वर्ग में सामूहिक और व्यक्तिगत सोच इतनी कुंठित होना कहीं बीमारी की
जबरदस्त गहराई का संकेत देती है. ठीक है कि ईश्वर पर आस्था विज्ञान की उस कमजोरी
की परिणति है जिसके तहत हम एक सीमा से आगे नहीं बढ़ पाते. याने अगर एलोपैथी कैंसर
ठीक नहीं कर पा रहा तो निश्चित हीं लोग बाबा की ओर रुख करेंगे भले हीं उसका
वैज्ञानिक आधार हो या नहीं. अगर ईश्वर की सत्ता साइंस आज तक नकार नहीं पाया है और
दूसरी ओर उसके अस्तित्व पर दुनिया में व्याप्त शोषण के बरअक्स शेखों की अय्यासी के
किस्से, प्राचीन की गुलाम परम्परा, सती प्रथा या बलात्कार की चीत्कार प्रश्न चिन्ह
लगाते हैं. ऐसे में कम शिक्षा, तार्किक ज्ञान के अभाव ने भूत ,प्रेत और उनसे
झुटकारादिलाने वाले बाबाओं और मौलवियों को जन्म दिया.
नतीजा
यह हुआ कि डायन मानकर देश में पिछले १५ सालों में करीब २५०० महिलाओं की हत्या हुई याने हर
दूसरे दिन एक हत्या, जिनमें समूह में लोगों ने यह कुकृत्य किया यह मानते हुए कि यह
गाँव या घर को खाने आयी है. केवल झारखण्ड के पांच ब्लोकों में २००१-२००८ के बीच
४५४ महिलाओं को डायन समझ कर मारा गया याने हर पांच दिन में एक.
परन्तु
ईश्वर पर आस्था रखना, व्यक्तिगत जीवन में आध्यात्म की ओर झुकाव रखना एक बात है,
बाबा के कहने पर अपनी बेटी को उसके साथ अकेले छोड़ना ताकि यह बाबा उस पर आयी प्रेत
बाधा को दूर करे बिलकुल अलग. इस प्रक्रिया में हम अपनी आत्मा को और अपनी
तर्क-शक्ति को गिरवी रखते हैं, सोच को कुंठित होने देते हैं और अज्ञानता के उस
गर्त में गिरते चले जाते हैं जहाँ से हम तो बाहर निकलते हीं नहीं अपने परिवार को
भी नहीं निकलने देते. बड़ा होकर वह बच्चा भी अपने बच्चे को वहीं सोच रखने पर मजबूर
करता है.
जिस
देश में गीता ऐसा महान तार्किक ग्रन्थ हो जो आत्मोत्थान के हर आयाम को सपष्ट रूप
से निर्दिष्ट करता हो उस देश में बाबाओं की भरमार एक ऐसा सामाजिक-सांस्कृतिक
व्याधि है जो पूरे समाज को फिर उसी जड़ता की ओर ले जा रहा है जिसकी जकड में हम सारे
मानव विकास को खो रहे हैं.
महात्मा
गाँधी के करोड़ों अनुयाइयों ने देश की आज़ादी के लिए के लिए क़ुरबानी देने की कसम
खाई, हजारों ने दी. महर्षि दयानंद, विवेकानंद, नेहरु, इंदिरा सब के अनुयायी थे.
समाज में विभिन्न धरातलों के नेता होते हैं और उनके अनुयायी होते हैं. यह परम्परा
सनातन काल से चली आई है. हिटलर के भी अनुयाई थे, मार्क्स और लेनिन के भी. वर्तमान
में कुछ लोग सोनिया गाँधी को तो कुछ लोग मोदी को अपना नेता मानते हैं. मंदिर को
लेकर १९९२ में एक बड़ा जन सैलाब विश्व हिन्दू परिषद् के नेताओं, भारतीय जनता पार्टी
के नेताओं और गेरुआधारी साध्वियों को नेता मानने लगा था तो २०११ से एक जनसैलाब
भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के साथ हो लिया. आज भारत में कोई साईं बाबा का
भक्त है; कोई बाबा राम देव का और कोई श्री श्री रवि शंकर. एक अन्य वर्ग आसाराम
बापू को देख कर भगवत दर्शन मान लेता है तो एक अन्य वर्ग मोरारी बापू जहाँ से जाते
हैं उस रास्ते की धूल को माथे लगाता है.
इन
सब नेताओं और अनुयाइयों के बीच सम्बन्ध में मूल अंतर क्या है? इनमें नेताओं का
व्यापक तौर पर तीन वर्ग है. एक जो देश की आज़ादी या समाज की भलाई का सन्देश देता
है. गाँधी, विवेकानंद, दयानंद इस वर्ग में आते हैं. नेहरु और इंदिरा विकास का
सन्देश दे कर जन-मानस अपनी ओर करते हैं. हिटलर भी करता कुछ ऐसा हीं हैं पर मूल सोच
में व्यापक समाज नहीं एक पक्ष होता है जो अन्य पक्ष को ख़त्म करने तक की बात करता
है. कहने का मतलब यह कि जिनता व्यापक उद्देश्य उतनी हीं उसकी नैतिक व कानूनी
मान्यता. दूसरा वर्ग होता है उन संतों का जो प्रचलित भक्ति मार्ग पर लोगों को ले
जा कर भजन वगैरह करते हैं.
समस्या
तब आती है जब हम अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए “मुक़दमा जीतने, बेटा पाने, धन
अर्जित करने के लिए” किसी बाबा के दरबार में जाते हैं यह समझे बिना कि कैसे कोई
संत चाहे कितनी भी ईश्वरीय शक्ति रखता हो, यह काम नहीं कर सकता क्योंकि स्वयं ईश्वरीय
व्यवस्था ऐसा करने से ध्वस्त हो जायेगी जिसकी इजाज़त भगवान भी नहीं देगा. ना हीं इस
बाबा को इसकी इज़ाज़त मिलेगी कि भक्त मुकदमा जीत जाये और गैर-भक्त हार जाये (दोनों
उसी भगवान् के बनाये हैं). लिहाज़ा जब वह भक्त “दरबार” में जा कर व्यापार बढ़ने की
भीख मांगता है तो यह तथाकथित बाबा समझ जाता है कि इस “भक्त” के पास औसत तर्क-शक्ति भी नहीं हैं या स्वार्थ ने इसे
अँधा कर दिया है. बस फ़ौरन हीं वह भरे दरबार में उसे हरी चटनी के साथ समोसा खाने की
सलाह दे देता है. अगले बार यह दरबार कहीं और लगता है. कोई ३२.८० लाख वर्ग किमी के
और १२५ करोड़ आबादी वाले इस देश में बेवकूफ बनाना और आसान हो जाता है जब उसके
गुर्गे आने के पहले हीं इस स्वार्थ में अंधे भक्त का दरबार के गेट पर हीं ब्रेनवाश
कर चुका हो. इसके बाद किसी भक्त की जवान बीबी या जवान बेटी का भूत उतरना और उसके
लिए रात में अकेले बुलाना सहज हो जाता है.
आज
ज़रुरत है देश में वैज्ञानिक सोच समृद्ध करने की. यह सोच अगर विकसित हो गया तो ना
तो भक्त बनेगे ना बाबा रहेगा. बाबा बनने की शर्त होगी समाजोत्थान की बात करना
गाँधी, विवेकानंद की तरह ना कि वर्तमान में दूकान लगाये दर्ज़नों बाबाओं कि तरह कोई
भूत बाधा दूर करने का ठेका लेगा और फिर कुकर्म करेगा. यही सोच पूरे समाज को
भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े होने को मजबूर करेगी और जाति, धर्म , उपजाति के नाम पर
वोट ना देने को प्रेरित करेगी.
hindustan