Thursday 26 October 2017

टीपू का सच और कोविंद का राजपुरुष -भाव


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मोदी सरकार को भी इस भाव के लिए साधुवाद

ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित सत्य के अनुरूप राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने टीपू सुल्तान को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए जान देने वाला बतायाकर्णाटक विधान सभा के ६० साल पूरे होने के उपलक्ष्य में कर्नाटक विधान सौदा (विधान सभा भवनमें राज्य विधायिका के दोनों सदनों के संयुक्त सत्र में बोलते हुए उन्होंने ने पद की गरिमा अक्षुण्ण रखते हुए अपनी छवि एक स्टेट्समैन (राजपुरुषके रूप में स्थापित कीचूंकि भारतीय संविधान में राष्ट्राध्यक्ष के भाषण का विषयवस्तु केंद्र सरकार के माने जाते हैं लिहाज़ा मोदी सरकार को भी इस धन्यवाद का पात्र माना जाना चाहिएयह अलग बात है कि कर्णाटक भारतीय जनता पार्टी इस भाषण को लेकर सकते में है क्योंकि वह अभी तक जबरदस्त टीपू -विरोध में आन्दोलन करती रही है और हाल हीं में केंद्र सरकार के इस राज्य से आने वाले एक मंत्री ने तो टीपू को आतताई और बलात्कारी तक कहा और कर्नाटका सरकार को आगामी १० नवम्बर को सुल्तान का जन्म-दिवस न मनाने की ताकीद की थीउधर कांग्रेस राष्ट्रपति के इस उदगार पर बेहद खुश नज़र आ रही हैराष्ट्रपति के इस भाषण में सत्य के प्रति एक आग्रह और उनकी विद्वता की झलक भी देखी जा सकती हैइससे यह भी स्पष्ट होता है कि एक समुदाय से आने वाले प्रतिमानों को अतार्किक और बेजा दुराग्रह से नीचा दिखने के इस प्रयासों से न तो राष्ट्रपति खुश हैं न हीं मोदी और उनकी सरकार.
अब जरा ऐतिहासिक तथ्यों पर गौर करें जिन्हें तोड़ने -मरोड़ने की कोशिश की गयीटीपू सुलतान के बारे में उत्तर भारत के पाठ्यक्रमों में कुछ दशक पहले एक पाठ आया जिसमें यह बताया गया कि मैसूर में टीपू सुल्तान के धर्म-परिवर्तन अभियान के डर से तीन हज़ार ब्राह्मणों ने आत्महत्या कर लीइस पाठ के लेखक हरिप्रसाद शास्त्री थे जो उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष थेतत्कालीन प्रख्यात इतिहासकार बी डी पाण्डेय ने अचानक जब यह तथ्य पाठ्यक्रम में देखा तो उन्होंने प्रोफेसर शास्त्री को पत्र लिखकर जानना चाहा कि यह तथ्य उन्हें कहाँ से मिलाकई पत्र लिखने के बाद अंत में प्रोफेसर शास्त्री का जवाब आया कि उन्होंने यह जानकारी मैसूर गजेटियर से हासिल की हैप्रोफेसर पाण्डेय ने तब मैसूर विश्वविद्यालय के इतिहास के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर श्रीकान्तिया को पत्र लिख कर इस तथ्य के बारे में जानना चाहाजवाब आया “ऐसा कोई तथ्य मैसूर गजेटियर में उल्लिखित नहीं है”बल्कि पता यह चला कि टीपू सुल्तान का प्रधानमंत्री पुन्नैया नाम का एक ब्राह्मण था और सेनापति जेनरल कृष्णा राव भी एक ब्राह्मण थासाथ हीं प्रोफेसर श्रीकान्तिया ने १५६ ऐसे मंदिरों की लिस्ट भेजी जिनके रखरखाव के लिए टीपू शाही खजाने से हर माह पैसा मुहैया करवाता थायह भी जानकारी मिली कि तत्कालीन शंकराचार्य (श्रृंगेरी मठसे उनकी बेहद करीबी रिश्ते थेध्यान रहे कि गज़ेटीयर अंग्रोजों का बनाया हुआ है न कि मुसलमान शासकों का.प्रोफेसर शास्त्री का यह पाठ बिहार बंगाल असम तत्कालीन उड़ीसा उत्तर प्रदेश राजस्थान और मध्य प्रदेश के हाई स्कूल के पाठ्यक्रम में थाप्रोफेसर पाण्डेय जो उड़ीसा के राज्यपाल रहे और राज्यसभा के सांसद भी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के वाईस-चांसलर प्रोफेसर आशुतोष मुख़र्जी को पत्र लिख कर इन तथ्यों और सम्बंधित दस्तावेजों से अवगत करायातब जा कर यह पाठ तमाम राज्यों के पाठ्यपुस्तक से बाहर किया गयालेकिन सबसे ताज्जुब की बात यह थी कि कुछ साल बाद सन १९७२ में ब्राह्मणों के टीपू सुल्तान के शासनकाल में आत्महत्या का किस्सा फिर से उत्तर प्रदेश के पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गयाइस घटनाक्रम का जिक्र प्रोफेसर पाण्डेय ने राज्य सभा में किया जो आज भी संसद के रिकार्ड्स में दर्ज है.
राष्ट्रपति ने टीपू सुल्तान की शहादत और उनके युद्ध कौशल जिसका आज भी दुनिया में लोहा माना जाता है और जिसे प्रक्षेपास्त्र का दुनिया में जनक कहा जाता है की बात कह कर एक तरह से देश को इतिहास की निरपेक्ष समझ विकसित करने का आह्वान किया है.
हमने कभी भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि अंग्रेजों ने किस तरह मक्कारी से हिंदू और मुसलमानों के बीच तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश कियाउनकी मंशा की कुछ बानगी देखें :
14 जनवरी 1887 को लॉर्ड क्रॉस ने लॉर्ड डफरिन को पत्र लिखा “धर्म के आधार पर बंटवारा जो हमने किया है उससे हमें ज़बरदस्त फ़ायदा पहुंचा है और हमें उस दिन का इंतज़ार है जब भारत में शिक्षा एवं पाठ्यक्रम संबंधी इंक्वायरी कमिटी के कुछ अच्छे परिणाम मिलेंगे
…….. ब्रिटिश सेकेट्री ऑफ स्टेट(विदेश मंत्रीने 1862-63 के तत्कालीन गवर्नर जनरल एल्गिन को एक चिट्ठी लिखी थी। चिट्ठी में कहा गया था “हमने अपनी सत्ता भारत में इसलिए बरकरार रखी क्योंकि हमने सफलतापूर्वक मुसलमानों को हिंदुओं से लड़वाया। हमें यह सिलसिला जारी रखना होगा। तुमसे जो संभव बने सुनिश्चित करो कि दोनों समुदायों के बीच में मैत्री ना रहे
…….. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रह चुके रैम्से मेक्डोनल्ड ने भी अपनी एक पुस्तक में इस बात का जिक्र किया था कि “हिंदुस्तान में मुसलमानों को विशेष रियायत देने का मकसद दोनो समुदायों में फूट डालना था
   उपरोक्त तीन तथ्य इस बात की तस्दीक है कि सन्1857 की बगावत के बाद अंग्रेज़ शासकों ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत किस तरह हिंदू और मुसलमानों को अलग करने की सफल कोशिश की और अगले 80साल देश पर शासन करते रहे। लेकिन इस पूरी रणनीति के जो अन्य दो दुखद पहलू रहे वे यह कि भारत का बंटवारा हुआ और उससे भी बड़ा जख्म रहा भारत में ही हिंदू और मुसलमानों के बीच न पटने वाली खांई। अंग्रेजों ने इतिहास बदल दिया और तत्कालीन भारतीय इतिहासकारों का एक वर्ग उनके जाल में इस कदर फंसा कि आज तक उसका प्रभाव देखने को मिल रहा है।
   यहां कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि मुगल शासकों का एक वर्ग अतिवादी नहीं था या सोमनाथ मंदिर गजनवी ने नहीं तोड़ा था। या फिर मीर बाकी ने अयोध्या में मंदिर नहीं तोड़ा था। लेकिन अगर इन्हीं तथ्यों को पाठ्यक्रम का हिस्सा बना दिया जाए और अन्य सकारात्मक तथ्यों को दबा दिया जाए तब दो समुदायों के बीच जो दरार पड़ेगी वह शताब्दियों तक मिटना मुश्किल होगा और अंग्रेजों ने यही किया।
   आज जब हम पाकिस्तान बनने और आजादी हासिल करने के ७० साल बाद जब तथ्यों का विश्लेषण करते हैं तब भी कई बार हमारे दिलो-दिमाग से टीपू सुल्तान की गलत व्याख्या कहीं मन में अटकी रहती है। नतीजा यह होता है कि भारत में ही रहने वाले दो समुदायों के बीच में “अस वर्सेज़ देम” (हमारे बनाम उनकेका एक शाश्वत भाव बना रहता है।  
  क्या आज हमें यह तथ्य नहीं बताना चाहिए कि मध्यप्रदेश के सतना के नज़दीक मैहर में बाबा अलाउद्दीन खां मुसलमान होने के बावजूद नियमित रूप से माँ शारदा के मंदिर में जाने के बाद ही अपना रोज़मर्रा का काम शुरू किया करते थे। इतना ही नहीं उन्होंने अपने पोते का नाम ध्यानेश खां और आशीष खां रखा। बाबा अलाउद्दीन खां के शिष्यों में कई हिंदू शिष्य थेक्या संघ को यह नहीं मालूम कि मुस्लिम लीग के सम्मेलन में मुहम्मद इक़बाल ने जब अलग मुस्लिम राज्य की बात कही तब दारूल-उलूम से जुड़े मौलाना हुसैन अहमद मदनी इस बात का विरोध करने वाले शुरूआती व्यक्तियों में से एक थे। यही वजह थी कि गांधी जी के नमक सत्याग्रह में तकरीबन12 हज़ार मुसलमानों ने हिस्सा लिया था।
   भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास नामक पुस्तक में प्रोफेसर ताराचंद्र ने साफ लिखा है कि देवबंद के दारूल-उलूम ने हर उस आंदोलन का समर्थन किया जो भारत से अंग्रेज़ों को खदेड़ने के लिए चलाया गया था। दारूल उलूम के प्रमुख की ज़िम्मेदारी मौलाना महमूद-उलहसन को मिली तो उनकी ज़िन्दगी का मकसद भी देश की आज़ादी था।
   आज जरूरत इस बात की है कि भारतीय समाज को इतिहास का दूसरा पक्ष दिखाया जाए और समाज का दुराग्रह विहीन बुद्धिजीवी वर्ग आजादी के मकसद को कामयाब करने के लिए दो समुदायों के बीच नैसर्गिक एकता बहाल करने को उद्यत हों 

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