अपनों से हीं लड़ने वाले ये कौन ?
एक हीं दिन अख़बारों में तीन घटनाएँ छपी. हाथरस में संजय जाटव और शीतल जाटव अपनी प्रस्तावित शादी का जुलूस कस्बे के ठाकुर बहुल क्षेत्र से ले जाना चाहते हैं. ठाकुरों की न्यूज़ चैनलों के कैमरे पर धमकी थी कि अगर जुलूस इधर से निकला तो भविष्य में दलितों पर हमले को नहीं रोका जा सकता. सकते में आये प्रशासन का कहना है पहले कभी इस इलाके से कोई दलित शादी की बरात ले कर नहीं गया है लिहाज़ा अनुमति नहीं दी जा सकती. संविधान में अनुच्छेद १९(१) (द) में प्रदत्त “भारत में कहीं भी स्वतत्र रूप से घूमने का अधिकार” हर नागरिक को मौलिक अधिकार के रूप में दिया गया है इस अधिकार को राज्य जनहित में केवल “युक्तियुक्त निर्बंध” (रिज़नेबल रेस्ट्रिक्शन) से हीं बाधित कर सकता है. लिहाज़ा जाटव परिवार ने हाईकोर्ट में गुहार लगाईं है. दूसरी घटना बिहार के नालंदा जिले में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गाँव सिलाव की है. बजरंग दल पहली बार रामनवमी का जूलूस इस गाँव के मुस्लिम आबादी वाले इलाके से ले जाना चाहता था. जुलूस के मुहाने पर पहुँचने पर प्रशासन से झड़प और फिर जबरदस्त हिंसा हुई. संविधान में उन्हें भी वही अधिकार है जो दलितों को ठाकुर मोहल्ले में है. तीसरी खबर थी राजस्थान के करौली जिले के हिन्दुआन कस्बे से जहाँ दलितों ने कहा है कि वे इस्लाम धर्म अपनाएंगे क्योंकि हिंदू धर्म में उनके लिए कोई स्थान नहीं है. इस क्षेत्र में दलित संगठनों द्वारा आहूत भारत बंद के अगले दिन हजारों गैर -दलितों ने वहां के स्थानीय दलित विधायक भाजपा की राजकुमारी जाटव के घर पर हमला कर आगजनी की. उत्तर प्रदेश या बिहार के इस क्षेत्र में हीं नहीं भारत के तमाम भाग में ये बजरंग दल की नयी पैदायश और विस्तार है और इनमें बेरोजगार युवक से लेकर कोचिंग इंस्टिट्यूट के मालिक, स्थानीय ट्रेडर्स और राजनीति में जगह तलाशते माध्यम आयु के लोग शामिल हैं.
अगर हाथरस में दलित युवा संजय जाटव और उसकी भावी पत्नी बारात ठाकुर इलाके से निकालने में सफल होते हैं या इस प्रक्रिया में तनाव हिंसा में बदल जाता है तो इन दोनों को किसी मायावती , अखिलेश या राहुल गाँधी की पार्टी से टिकेट मिल सकता है और जीत भी हासिल हो सकती है. याने रातों रात विधायक या सांसद! अन्य दलितों के लिए बड़ा लुभान राजनीतिक चारागाह! उधर बिहार में रातोंरात बनी बजरंग दल की इकाई के लोग भी जानते हैं कि सत्ता “अपनी” है और “शांति भंग” और “बलवा” की धाराएँ वे डिग्रियाँ हैं जो उन्हें भाजपा का टिकेट दिलाएंगी और सत्ता सुख में हिस्सा. सत्ता के साथ होने या भविष्य में होने का केवल आभास मात्र हीं इन भावों को बुलंद परवाज बना देता है. राजनीति में बहुमत का शासन होता है. लेकिन बहुमत का मतलब आधे से ज्यादा नहीं बल्कि अन्य से ज्यादा होता है. लिहाज़ा एक नेता या दल अचानक किसी जाति विशेष को आरक्षण दिलाने का वादा करता है. अगर जाति में भी कोई उप जाति है तो उसे अलग से लाभ का विश्वास दिलाता है. अगर नहीं है तो जाति में हीं एक नयी उप-जाति पैदा कर देता है मसलन महादलित. अगर पहचान समूह है तो उसे धार्मिक अल्पसंख्यक बनाने का उपक्रम करता है जैसे लिंगायतों को हिन्दुओं से अलग एक नया धर्म समूह. यह सब कुछ संविधान के अनुच्छेद १५(४) और १६ (४) – पिछड़ों के लिए – या अनुच्छेद २६ से ३० तक धार्मिक अल्पसंख्यकों या उनके समूह को प्रदत्त अधिकारों के नाम पर. कोई ताज्जुब नहीं कि कल साईं बाबा के अनुयाइयों को अलग धर्म बताना राजनीतिक वर्ग का नया चारागाह बन जाये. यह सब क्यों हो रहा है. राजशाही में दंड का भय दिखा कर शोषण हीं नहीं धर्म परिवर्तन किया जाता रहा था तो अब बहुमत बैलट के जरिये. चूंकि बहुमत माने आधे से ज्यादा न होकर अन्यों से ज्यादा है इसलिए समाज बांटता जा रहा है. यहाँ तक कि न्याय भी बहुमत से होता है याने तीन बनाम दो से सर्वोच्च न्यायलय भी सत्य का फैसला करता है.
अब ज़रा निष्पक्ष विश्लेषण करें. जब प्रजातंत्र में सत्ता के साथ होने या भविष्य में होने का अहसास देश में इतनी अशांति पैदा कर सकता है तो देश में मुसलमान मात्र कुछ सौ साल तक शासन में थे.इस्लाम का विस्तार किन कारणों से हुआ इसे समझने के लिए आइंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिए. फिर अंग्रेजों ने किस तरह मुसलमानों का भारत को गुलाम बनाये रखने के लिए किस तरह इस्तेमाल किया यह भी समझना मुश्किल नहीं है. बाद में जब आजादी के बाद प्रजातंत्र आया तो धर्म-निरपेक्षता का कैसा स्वरुप बना यह सबने देखा. हैदराबाद की गोकुल बेकरी आतंकियों ने बम विस्फोट किया तो शहर का पुलिस आयुक्त इसी “सेक्युलर” मुख्यमंत्री के पास गया और साक्ष्य देते हुए एक मुस्लिम इलाके में छापा मारने की इजाजत चाही. जाहिर था आतंकवादियों को पनाह देने वाले विरोध करते और पुलिस बल प्रयोग भी कर सकती थी. लिहाज़ा मुख्यमंत्री ने उसे डांट कर भगा दिया यह कहते हुए कि चुनाव सर पर हैं और इस पुलिस अधिकारी को “धर्म निरपेक्षता “ की समझ नहीं है. गजनी से गोरी तक, औरंगजेब से आदिल शाह तक और लार्ड क्लाइव से लेकर लार्ड माउंटबेटन तक का इतिहास हिन्दुओं के दिमाग में कौंधता रहता है. तर्क-शास्त्र में एक दोष का जिक्र है ---- अपनी बात सिद्ध करने के लिए इतिहास के चुनिन्दा तर्क वाक्यों को हीं लेना और उसे वर्तमान पर चस्पा कर देना. याने अकबर को महान बताते हुए दीन-ए- इलाही से उसकी धर्मनिरपेक्षता साबित करना और यह बताना कि वर्तमान में भी हिन्दुओं को मुसलमान को उसी नज़र से देखा जाना चाहिए. यह नहीं बताया जाता कि औरंगजेब ने क्या किया और मुस्लिम शासन में नीचे तक के मुसलमान ओहदेदार हिन्दुओं पर क्या-क्या जुल्म ढाहते रहे और उन्हें जबरदस्ती धर्म-परिवर्तन करा कर “इस्लाम की सेवा” करते रहे. इतिहास की याद सिर्फ भारत के संविधान के “धर्म-निरपेक्ष” तक हीं महदूद नहीं रहती , महमूद गजनवी तक भी जाते है. फिर वर्तमान में जब यही हिंदू वाराणसी के संकटमोचन मंदिर, धनतेरस के दिन दिल्ली के पहाड़गंज या मुंबई के ताज होटल में जाता है यह समझ कर कि भारत में घूमने या मंदिर में पूजा करने की स्वतंत्रता है तो उसे किसी इस्लामिक आतंकवादी के बम विस्फोट का शिकार होना पड़ता है.
लिहाज़ा वर्तमान में हिन्दुओं का मुसलमानों के खिलाफ आक्रामक होना समझ में आता है. इतिहास गवाह है धर्म के आधार पर बनी समाज की परस्पर विरोधी इकाइयाँ एडजस्टमेंट करती हैं शक्ति दिखाकर. लेकिन यह मात्र शक्ति दिखाने तक हीं सीमित होना चाहिए. समाज के तटस्थ लेकिन तार्किक बुद्धिजीवियों को आक्रामकता की सीमा सुनिश्चित करनी चाहिए ताकि सभ्य समाज बनाने की ३००० साल की मेहनत व्यर्थ न जाये और फिर हम आदिम सभ्यता की ओर न चले जाएँ. मुसलमानों में भी ऐसे वर्ग को धार्मिक कट्टरपंथ को सुधारात्मक आन्दोलन तक जा बदलना होगा.
लेकिन अब जरा तस्वीर का दूसरा पहलू देखिये. इन ३००० सालों में दलितों पर अत्याचार हुए इसमें किसी को भी विवाद नहीं है. तो जब कुछ सौ साल के मुसलमान शासन में हिन्दुओं को इतने अत्याचार झेलने पड़े जिसका आज संगठित रूप से प्रतिकार न्यायोचित है तो अगर दलित हजारों साल की प्रताड़ना के प्रतिकार के रूप में एक “भारत बंद “ कर रहा है तो ठाकुर साहेब या पंडित जी की धमकी क्यों? आज भी अगर उसे घोड़े पर चढ़ कर ठाकुरों के मुहल्लें से बारात निकालने पर धमकियाँ मिले तो इसे हाथरस जिले में ठाकुर-बनाम -दलित की संज्ञा देना वैसा हीं कुतर्क होगा जैसा अकबर को धर्मनिरपेक्ष मान कर आज के मुसलमानों में भी धार्मिक कट्टरता न होने की बात कहना. क्या वैसा हीं उग्र प्रतिकार दलितों को नहीं करना चाहिए जैसे हिंदू किसी अख़लाक़ या किसी पहलू खान या किसी जुनैद को मार कर कर रहा है? क्यों न दलित समूह आज किसी ठाकुर , ब्राह्मण को “बाबा साहेब की जय “ न बोलने पर गैर -हिंदू करार दे? दरअसल उच्च वर्ग का दलितों के प्रति आज भी बरकरार दुराग्रह हिंदू धर्म का कोढ़ है जिसे तार्किक बुद्धिजीवियों को आन्दोलन के रूप में खड़ा करना होगा. अगर किसी दलित आई ए एस के बेटे को किसी गरीब ब्राह्मण के बेटे से कम नंबर मिलने पर भी आरक्षण के कारण आई ए एस बनाया जाता है तो समाज की वही तर्क चलेगा जो मुसलमानों के खिलाफ आज हिन्दुओं का है ---- जाति के आधार पर खडी समाज की इकाइयाँ एडजस्टमेंट कर रही है. और जहाँ तक उच्च जाति का यह दावा कि आरक्षण का लाभ किसी दलित आई ए एस के बेटे को न दे कर किसी गरीब दलित बेटे को मिले , यह मांग दलित वर्ग से आनी चाहिए. उच्च जाति के लोग केवल दलितों की इस मांग के साथ खड़े हो सकते हैं और वह भी तब जब दलितों की बारात अपने मोहल्ले से ख़ुशी से निकलने दें. हिंदू धर्म में (या जीवन पद्धति में ) सोच के स्तर पर उसी सुधार की ज़रुरत है जो मुसलमानों को सही इस्लाम को समझने के लिए सुधारात्मक आन्दोलन की है.