Tuesday 17 April 2018

हिंदू : देर हो इससे पहले पुनर्परिभाषित करें


अपनों से हीं लड़ने वाले ये कौन ?


एक हीं दिन अख़बारों में तीन घटनाएँ छपीहाथरस में संजय जाटव और शीतल जाटव अपनी प्रस्तावित शादी का जुलूस कस्बे के ठाकुर बहुल क्षेत्र से ले जाना चाहते हैंठाकुरों की न्यूज़ चैनलों के कैमरे पर धमकी थी कि अगर जुलूस इधर से निकला तो भविष्य में दलितों पर हमले को नहीं रोका जा सकतासकते में आये प्रशासन का कहना है पहले कभी इस इलाके से कोई दलित शादी की बरात ले कर नहीं गया है लिहाज़ा अनुमति नहीं दी जा सकतीसंविधान में अनुच्छेद १९() (में प्रदत्त “भारत में कहीं भी स्वतत्र रूप से घूमने का अधिकार” हर नागरिक को मौलिक अधिकार के रूप में दिया गया है इस अधिकार को राज्य जनहित में केवल “युक्तियुक्त निर्बंध” (रिज़नेबल रेस्ट्रिक्शनसे हीं बाधित कर सकता हैलिहाज़ा जाटव परिवार ने हाईकोर्ट में गुहार लगाईं हैदूसरी घटना बिहार के नालंदा जिले में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गाँव सिलाव की हैबजरंग दल पहली बार रामनवमी का जूलूस इस गाँव के मुस्लिम आबादी वाले इलाके से ले जाना चाहता थाजुलूस के मुहाने पर पहुँचने पर प्रशासन से झड़प और फिर जबरदस्त हिंसा हुईसंविधान में उन्हें भी वही अधिकार है जो दलितों को ठाकुर मोहल्ले में हैतीसरी खबर थी राजस्थान के करौली जिले के हिन्दुआन कस्बे से जहाँ दलितों ने कहा है कि वे इस्लाम धर्म अपनाएंगे क्योंकि हिंदू धर्म में उनके लिए कोई स्थान नहीं हैइस क्षेत्र में दलित संगठनों द्वारा आहूत भारत बंद के अगले दिन हजारों गैर -दलितों ने वहां के स्थानीय दलित विधायक भाजपा की राजकुमारी जाटव के घर पर हमला कर आगजनी कीउत्तर प्रदेश या बिहार के इस क्षेत्र में हीं नहीं भारत के तमाम भाग में ये बजरंग दल की नयी पैदायश और विस्तार है और इनमें बेरोजगार युवक से लेकर कोचिंग इंस्टिट्यूट के मालिकस्थानीय ट्रेडर्स और राजनीति में जगह तलाशते माध्यम आयु के लोग शामिल हैं.
अगर हाथरस में दलित युवा संजय जाटव और उसकी भावी पत्नी बारात ठाकुर इलाके से निकालने में सफल होते हैं या इस प्रक्रिया में तनाव हिंसा में बदल जाता है तो इन दोनों को किसी मायावती अखिलेश या राहुल गाँधी की पार्टी से टिकेट मिल सकता है और जीत भी हासिल हो सकती हैयाने रातों रात विधायक या सांसदअन्य दलितों के लिए बड़ा लुभान राजनीतिक चारागाहउधर बिहार में रातोंरात बनी बजरंग दल की इकाई के लोग भी जानते हैं कि सत्ता “अपनी” है और “शांति भंग” और “बलवा” की धाराएँ वे डिग्रियाँ हैं जो उन्हें भाजपा का टिकेट दिलाएंगी और सत्ता सुख में हिस्सासत्ता के साथ होने या भविष्य में होने का केवल आभास मात्र हीं इन भावों को बुलंद परवाज बना देता हैराजनीति में बहुमत का शासन होता हैलेकिन बहुमत का मतलब आधे से ज्यादा नहीं बल्कि अन्य से ज्यादा होता हैलिहाज़ा एक नेता या दल अचानक किसी जाति विशेष को आरक्षण दिलाने का वादा करता हैअगर जाति में भी कोई उप जाति है तो उसे अलग से लाभ का विश्वास दिलाता हैअगर नहीं है तो जाति में हीं एक नयी उप-जाति पैदा कर देता है मसलन महादलितअगर पहचान समूह है तो उसे धार्मिक अल्पसंख्यक बनाने का उपक्रम करता है जैसे लिंगायतों को हिन्दुओं से अलग एक नया धर्म समूहयह सब कुछ संविधान के अनुच्छेद १५(और १६ () – पिछड़ों के लिए – या अनुच्छेद २६ से ३० तक धार्मिक अल्पसंख्यकों या उनके समूह को प्रदत्त अधिकारों के नाम परकोई ताज्जुब नहीं कि कल साईं बाबा के अनुयाइयों को अलग धर्म बताना राजनीतिक वर्ग का नया चारागाह बन जायेयह सब क्यों हो रहा हैराजशाही में दंड का भय दिखा कर शोषण हीं नहीं धर्म परिवर्तन किया जाता रहा था तो अब बहुमत बैलट के जरियेचूंकि बहुमत माने आधे से ज्यादा न होकर अन्यों से ज्यादा है इसलिए समाज बांटता जा रहा हैयहाँ तक कि न्याय भी बहुमत से होता है याने तीन बनाम दो से सर्वोच्च न्यायलय भी सत्य का फैसला करता है.
अब ज़रा निष्पक्ष विश्लेषण करेंजब प्रजातंत्र में सत्ता के साथ होने या भविष्य में होने का अहसास देश में इतनी अशांति पैदा कर सकता है तो देश में मुसलमान मात्र कुछ सौ साल तक शासन में थे.इस्लाम का विस्तार किन कारणों से हुआ इसे समझने के लिए आइंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिएफिर अंग्रेजों ने किस तरह मुसलमानों का भारत को गुलाम बनाये रखने के लिए किस तरह इस्तेमाल किया यह भी समझना मुश्किल नहीं हैबाद में जब आजादी के बाद प्रजातंत्र आया तो धर्म-निरपेक्षता का कैसा स्वरुप बना यह सबने देखाहैदराबाद की गोकुल बेकरी आतंकियों ने बम विस्फोट किया तो शहर का पुलिस आयुक्त इसी “सेक्युलर” मुख्यमंत्री के पास गया और साक्ष्य देते हुए एक मुस्लिम इलाके में छापा मारने की इजाजत चाहीजाहिर था आतंकवादियों को पनाह देने वाले विरोध करते और पुलिस बल प्रयोग भी कर सकती थीलिहाज़ा मुख्यमंत्री ने उसे डांट कर भगा दिया यह कहते हुए कि चुनाव सर पर हैं और इस पुलिस अधिकारी को “धर्म निरपेक्षता “ की समझ नहीं हैगजनी से गोरी तकऔरंगजेब से आदिल शाह तक और लार्ड क्लाइव से लेकर लार्ड माउंटबेटन तक का इतिहास हिन्दुओं के दिमाग में कौंधता रहता हैतर्क-शास्त्र में एक दोष का जिक्र है ---- अपनी बात सिद्ध करने के लिए इतिहास के चुनिन्दा तर्क वाक्यों को हीं लेना और उसे वर्तमान पर चस्पा कर देनायाने अकबर को महान बताते हुए दीन-इलाही से उसकी धर्मनिरपेक्षता साबित करना और यह बताना कि वर्तमान में भी हिन्दुओं को मुसलमान को उसी नज़र से देखा जाना चाहिएयह नहीं बताया जाता कि औरंगजेब ने क्या किया और मुस्लिम शासन में नीचे तक के मुसलमान ओहदेदार हिन्दुओं पर क्या-क्या जुल्म ढाहते रहे और उन्हें जबरदस्ती धर्म-परिवर्तन करा कर “इस्लाम की सेवा” करते रहेइतिहास की याद सिर्फ भारत के संविधान के “धर्म-निरपेक्ष” तक हीं महदूद नहीं रहती महमूद गजनवी तक भी जाते हैफिर वर्तमान में जब यही हिंदू वाराणसी के संकटमोचन मंदिरधनतेरस के दिन दिल्ली के पहाड़गंज या मुंबई के ताज होटल में जाता है यह समझ कर कि भारत में घूमने या मंदिर में पूजा करने की स्वतंत्रता है तो उसे किसी इस्लामिक आतंकवादी के बम विस्फोट का शिकार होना पड़ता है.
लिहाज़ा वर्तमान में हिन्दुओं का मुसलमानों के खिलाफ आक्रामक होना समझ में आता हैइतिहास गवाह है धर्म के आधार पर बनी समाज की परस्पर विरोधी इकाइयाँ एडजस्टमेंट करती हैं शक्ति दिखाकरलेकिन यह मात्र शक्ति दिखाने तक हीं सीमित होना चाहिएसमाज के तटस्थ लेकिन तार्किक बुद्धिजीवियों को आक्रामकता की सीमा सुनिश्चित करनी चाहिए ताकि सभ्य समाज बनाने की ३००० साल की मेहनत व्यर्थ न जाये और फिर हम आदिम सभ्यता की ओर न चले जाएँमुसलमानों में भी ऐसे वर्ग को धार्मिक कट्टरपंथ को सुधारात्मक आन्दोलन तक जा बदलना होगा.
लेकिन अब जरा तस्वीर का दूसरा पहलू देखियेइन ३००० सालों में दलितों पर अत्याचार हुए इसमें किसी को भी विवाद नहीं हैतो जब कुछ सौ साल के मुसलमान शासन में हिन्दुओं को इतने अत्याचार झेलने पड़े जिसका आज संगठित रूप से प्रतिकार न्यायोचित है तो अगर दलित हजारों साल की प्रताड़ना के प्रतिकार के रूप में एक “भारत बंद “ कर रहा है तो ठाकुर साहेब या पंडित जी की धमकी क्योंआज भी अगर उसे घोड़े पर चढ़ कर ठाकुरों के मुहल्लें से बारात निकालने पर धमकियाँ मिले तो इसे हाथरस जिले में ठाकुर-बनाम -दलित की संज्ञा देना वैसा हीं कुतर्क होगा जैसा अकबर को धर्मनिरपेक्ष मान कर आज के मुसलमानों में भी धार्मिक कट्टरता न होने की बात कहनाक्या वैसा हीं उग्र प्रतिकार दलितों को नहीं करना चाहिए जैसे हिंदू किसी अख़लाक़ या किसी पहलू खान या किसी जुनैद को मार कर कर रहा हैक्यों न दलित समूह आज किसी ठाकुर ब्राह्मण को “बाबा साहेब की जय “ न बोलने पर गैर -हिंदू करार देदरअसल उच्च वर्ग का दलितों के प्रति आज भी बरकरार दुराग्रह हिंदू धर्म का कोढ़ है जिसे तार्किक बुद्धिजीवियों को आन्दोलन के रूप में खड़ा करना होगाअगर किसी दलित आई ए एस के बेटे को किसी गरीब ब्राह्मण के बेटे से कम नंबर मिलने पर भी आरक्षण के कारण आई ए एस बनाया जाता है तो समाज की वही तर्क चलेगा जो मुसलमानों के खिलाफ आज हिन्दुओं का है ---- जाति के आधार पर खडी समाज की इकाइयाँ एडजस्टमेंट कर रही हैऔर जहाँ तक उच्च जाति का यह दावा कि आरक्षण का लाभ किसी दलित आई ए एस के बेटे को न दे कर किसी गरीब दलित बेटे को मिले यह मांग दलित वर्ग से आनी चाहिएउच्च जाति के लोग केवल दलितों की इस मांग के साथ खड़े हो सकते हैं और वह भी तब जब दलितों की बारात अपने मोहल्ले से ख़ुशी से निकलने देंहिंदू धर्म में (या जीवन पद्धति में सोच के स्तर पर उसी सुधार की ज़रुरत है जो मुसलमानों को सही इस्लाम को समझने के लिए सुधारात्मक आन्दोलन की है.

Monday 16 April 2018

फेक न्यूज: सरकार तो पीछे हट गयी पर क्या मीडिया संजीदा है?



कहा जाता है कि संसाधनों पर उच्च वर्ग का हीं अधिकार होता है. लेकिन पिछले २ अप्रैल को दलित संगठनों द्वारा आहूत भारत बंद के दौरान झूठ प्रचारित कर दलितों को सड़क पर लाने के किये सोशल मीडिया का जबरदस्त इस्तेमाल किया. पहला मेसेज वायरल हुआ कि दलितों के आरक्षण के अधिकार ख़त्म किये जा रहे हैं और यह कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला उसी दिशा में एक पहल है. जबकि हकीकत यह है कि इस आदेश का आरक्षण से कोई लेना देना नहीं है. दूसरा: एक विडिओ वायरल हुआ जिसमें विलाप करती एक मां की गोद में एक घायल बच्ची है. बताया गया कि यह बच्ची पथराव में घायल हुई है और चूंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलित संख्य काफी है और वे ताकतवर भी है लिहाज़ा यह विडिओ इस इलाके में ज्यदा दिखा लेकिन हकीकत यह थी वह एक पुराना विडिओ था और बिहार के मुजफ्फरपुर में माडीपुर गाँव की एक घटना का था. तीसरा : इधर इस आन्दोलन के खिलाफ खड़े उच्च जाति के एक वर्ग ने एक विडिओ वायरल किया जिसमें हनुमान जी की खंडित मूर्ति दिखाई गयी थी यह बताते हुए कि दलितों ने इसे तोडा है. हकीकत यह थी कि यह विडिओ दक्षिण भारत के एक राज्य में हुआ २७ मई , २०१७ में हुए एक प्रदर्शन के समय का है. और इसका दलित -आहूत भारत बंद से कोई लेना देना नहीं था .
भारत के संविधान में अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के मौलिक अधिकार –अनुच्छेद १९() () के खिलाफ “युक्तियुक्त निर्बंध” (रिज़नेबल रेस्ट्रिक्शन) लगाने के कुल आठ आधार---अनुच्छेद १९() में वर्णित हैं और पिछले ७० साल में सरकारों ने इन निर्बंधों को तहत करीब तीन दर्जन कानून बनाये हैं जो मीडिया को अंकुश में रख सकते हैं. आज से एक दशक पहले तक देश में मोटेतौर पर केवल औपचारिक मीडिया ---- अखबार या न्यूज़ चैनल --- हुआ करते थे. इनका मूर्तरूप होता था, स्थायी पता होता था जिसकी सरकार को हीं नहीं पूरे समाज को जानकारी होती थी, मकबूल एडिटर और जाने माने मालिक हुआ करते थे. किसी भी खबर के कानून सम्मत न होने की स्थिति में इन पर कार्रवाई हो सकती थी. तकनीकी के विकास और शिक्षा एवं प्रति -व्यक्ति आय की वृद्धि के साथ हर नागरिक में हर विषय अपने को अभिव्यक्त करने की इच्छा परवान चढी और ट्विटर, फेसबुक और सोशल मीडिया के ज़माने में यह व्यक्ति अपने -अपने ज्ञान और तर्क शक्ति के मुताबिक अद्वैतवाद से अवमूल्यन तक हर विषय पर बोलने लगा. पूर जन-विमर्श अधकचरे ज्ञान पर आधारित हो गया. जो कमी थी वह टी वी स्टूडियो में “तेरे नेता , मेरा नेता “ के टीआरपी बटोरू एक्सरसाइज ने पूरी कर दी.
इधर चूंकि अधिकांश सोशल मीडिया या एकाउंट्स रातों रात अस्तित्व में आये जिनके असली कर्ताधर्ता का पता अक्सर गलत होता है और तथ्य के नाम पर फेक न्यूज परोस कर “हिट्स” बटोरते हैं और आर्थिक लाभ हासिल करते हैं, आज पूरे विश्व में एक नया संकट पैदा हो गया है. फेक न्यूज इसी प्रक्रिया की उत्पत्ति है. यह शब्द-युगल मात्र २० माह पहले व्यापक प्रचालन में आया. खासकर अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव में ट्रम्प को लेकर. आज यह दुनिया के प्रजातंत्र को लेकर एक बड़ा खतरा बन गया है. और देशों के बीच परस्परिक तनाव का सबब बन गया है. पेड न्यूज़ से तो भारत जूझ हीं रहा था लेकिन अब फेक न्यूज़ एक नयी समस्या के रूप में सामाजिक तनाव पैदा करने लगा है. फेक न्यूज़ की परिभाषा जानबूझ कर गलत जानकारी देना और भ्रामक प्रचार /वितंडावाद पैदा करके किसी व्यक्ति, संस्था या समूह के खिलाफ वैमनस्य पैदा करने के प्रयास के रूप में किया जा सकता है. इस प्रयास के खिलाफ भारत में अनेक कानून पहले से हीं अस्तित्व में हैं और औपचारिक मीडिया आमतौर पर इस कुप्रयास में नहीं पाया गया है लेकिन सोशल मीडिया में यह बीमारी तेजी से बढ़ रही है. औपचारिक मीडिया भ्रामक हेडलाइंस तो देता है जैसे एक अंग्रेज़ी अखबार का शीर्षक था “और फिर उन्होंने याकूब के गले में फांसी पर लटका दिया”. औपचारिक मीडिया का दृष्टिकोण और उस पर आधारित तथ्य तो चुनिन्दा हो सकते हैं “सेलेक्टिव अप्प्रोप्रिएशन ऑफ़ फैक्ट्स” के तर्क दोष के तहत लेकिन वे जानबूझ कर झूट को सच कह कर नहीं दिखा सकते.
फेक न्यूज पर भारत सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय को प्रधानमंत्री की पहल पर और मीडिया के दबाव में अपने कदम वापस लेने पड़े. प्रधानमंत्री जमीन से जुड़े होने के कारण सूक्षम और स्थूल प्रजातान्त्रिक मूल्यों की पहचान हीं नहीं हैं बल्कि उन्हें अक्षुण रखने समझ भी है. मीडिया संगठनों ने तत्काल हीं इस पहल के लिए नरेन्द्र मोदी को साधुवाद दिया. दरअसल फेक न्यूज की समस्या मूलरूप से औपचारिक मीडिया ---अखबार और न्यूज चैनलों --- की नहीं है. कारण यह है कि औपचारिक मीडिया मूर्तरूप में और कानूनी तौर स्थापित और सर्व-विदित रूप से विद्यमान रहता है और इसका मालिक या एडिटर समाज का जाना माना व्यक्ति होता है. मंत्रालय ने गलती यह की कि जिस औपचारिक संस्था के नाम यह आरोप मढ़ दिया वह वास्तव में सोशल मीडिया की समस्या है.
दरअसल फेक न्यूज की समस्या से भारत हीं नहीं पूरा विश्व खासकर सैकड़ों वर्ष पुराने ब्रिटेन, अमेरिका, फ़्रांस , जर्मनी भी काफी प्रभावी हो रहा है. त्रासदी यह है कि तथाकथित पढ़ेलिखे पश्चिमी समाज में भी लोग इससे काफी प्रभावित दीख रहे हैं. बज्जफीड के एक सर्वे के अनुसार सन २०१६ में अमरीकी चुनाव में जो सबसे ज्यादा प्रभावशाली २० सही ख़बरें जो १९ औपचारिक मीडिया संस्थाओं द्वारा रिलीज़ की गयी थी उनके मुकाबले २० फेक न्यूज़ जो फेसबुक के जरिये सामने आये थे उनको लोगों ने ज्यादा देखा और प्रभावित हुए.
पर क्या इसके बाद किसी भी मीडिया संगठन ने इस मुद्दे –फेक न्यूज – पर कोई संजीदा चर्चा की? इन संगठनों की प्रतिक्रिया क्या थी ---सरकार मात्र इस आधार पर कि “किसी खबर के फेक होने की शिकायत आयी है” किसी रिपोर्टर की मान्यता निलंबित नहीं कर सकती. लेकिन इससे क्या फेक न्यूज के भेड़िया का आना भी हमेशा के लिए टल गया. क्या यह सच नहीं है कि खबर के नाम पर अर्ध-सत्य परोसना, उतने हीं तथ्यों पर जोर देना जिससे एक पक्ष या दूसरे पक्ष की विचारधारा को बल मिले यह भी फेक न्यूज की श्रेणी में आता है.
तकनीकि के विकास का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है कि ज्ञान जो संपन्न वर्ग के परकोटे में विश्राम करता था और रईशजादों की चेरी हुआ करता था आज गरीब के मोबाइल में कैद किया जा सकता है-- याने ज्ञान का समाजवाद. भारत सरकार द्वारा चुनाव या बजट में किये गए वादे, बाबरनामा, ऋग्वेद काल में गाय की स्थिति, ट्रेन में नशे में पुलिस का हुडदंग मंत्री के व्हाट्स अप पर डालना – ये सभी किसी राजा या किसी रंक को सामान भाव से और लगभग शून्य- कीमत पर उपलब्ध हैं. कपास की खेती की या ड्रिप सिचाई की नयी तकनीक, बीमारियों के बारे में मौलिक जानकारी ताकि कोई डॉक्टर-नर्सिंगहोम शोषण न कर सके, कानून की ताज़ा स्थिति और नागरिक अधिकार यह सब कुछ व्यक्ति चंद मिनटों में जान व समझ सकता है. जानने के अधिकार के तहत हासिल तथ्यों से सोशल मीडिया के जरिये मुद्दों पर सामूहिक चेतना विकसित की जा सकती है.
भारत जैसे देश में जहाँ सामाजिक-धार्मिक पहचान समूह हजारों की तादात में हीं नहीं हैं बल्कि पारस्परिक शाश्वत द्वन्द के भाव में रहते हैं, ऐसे में भले हीं सरकार ने फेकन्यूज पर अपना कदम वापस ले लिया हो क्या औपचारिक मीडिया या संस्थाओं ने अपने को बेहतर करने के लिए एक भी बैठक कर चर्चा की.? क्या सोशल मीडिया के प्लेटफार्म आत्म-नियमन ले लिए कटिबद्ध हो सकेंगे. अगर नहीं तो यह भेडिया फिर आ सकता है.


jagran

नए भारत में अनपढ़ नौनिहाल : ताज़ा सरकारी सर्वे



देश कैसे बदल पायेगा ?

उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले के खेरागाँव प्राइमरी स्कूल के एक टीचर-इंचार्ज ओम प्रकाश पटेरिया ने अपने रिटायर होने के ठीक एक दिन पहले याने विगत ३० मार्च को स्कूल के एक कमरे में मिटटी का तेल डाल कर आत्महत्या कर ली. मरने के पहले कक्षा के ब्लैकबोर्ड पर मुख्यमंत्री के नाम एक सन्देश लिखा : “गाँव का प्रधान, एक शिक्षक और मध्याह्न भोजन का सरकारी इंचार्ज उनसे घूस की मांग कर रहे थे और न देने पर प्रताड़ना करने की धमकी दे रहे थे“. प्राइमरी स्कूलों में मध्याह्न भोजन की योजना इसलिए शुरू की गयी थी कि गरीब अपने बच्चों को कम से कम पढने के लिए भेजें. बिहार की सन २०१६ में शुरू की गयी एक योजना “उत्प्रेरण” का उद्देश्य था ड्राप-आउट रेट (पढाई छोड़ने की दर) कम करना. इसमें गरीबों के उन बच्चों को जिनके अभिभावकों ने पढाई से हटाकर खेती और अन्य कामकाज में लगा दिया था, नजदीक के हीं किसी नामित विद्यालय के छात्रावास में ११ महीने रख कर , मुफ्त भोजन , कपड़ा चप्पल, कम्बल -बिस्तर और हर जरूरत का सामान देते हुए फिर से पढने के लिए उद्धत करना ताकि वे फिर से पढाई कर सकें. जाँच में पाया गया कि करोड़ों रुपये खर्च के बाद भी यह योजना इसलिए फेल हो गयी कि यादव गरीबों को अपनी लड़कियों का दलित गरीबों की बेटियों के साथ रहना गवारा नहीं था, कुछ अपनी बेटियों को रात में छात्रावास में छोड़ने को तैयार नहीं हुए. यह सब देखकर मुखिया -शिक्षक भ्रष्ट गठजोड़ ने फर्जी उपस्थिति और व्यय दिखा कर सारी रकम हड़प ली. कल्याणकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार, योजनाओं के प्रति अज्ञानता व चिर-बदहाली निकलने की इच्छा की कमी, जातिवाद के आधार पर जीते जन-प्रतिनिधि की दबंगई और अंत में सामूहिक चेतना के अभाव में इस भ्रष्ट व्यवस्था को तोड़ने की शक्ति का न होना देश को आगे बढ़ने नहीं दे रहा है. नतीजतन “भारत की डेमोग्राफिक डिविडेंड” (सांख्यिकी लाभांश) दरअसल मात्र एक जुमला भर रह गया है. मानसिक जड़ता की वजह से जनता भी चुनावों में मंदिर -मस्जिद या जाति से ऊपर उठाकर यह नहीं सोच पा रही है कि अपने बच्चों का आगे के ६० से ८० साल का भविष्य अभाव की किन स्थितियों में गुजरेगा. राजनीतिक वर्ग के लिए इससे अच्छी स्थिति मिल नहीं सकती--- जन-प्रतिनिधि को विकास में “हिस्सा” और वोट कुछ किये बगैर.
राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण की पहली और ताज़ा रिपोर्ट में ये दोनों राज्य सबसे नीचे के पायदान पर पाए गए. यही नहीं “बीमारू” शब्द को चरितार्थ करते हुए मध्य प्रदेश, राजस्थान भी दक्षिण भारत या पश्चिम भारत के राज्यों के मुकाबले कहीं दूर-दूर तक खड़े नहीं दिखे. उधर शिक्षाविद चीख -चीख कर कहते हैं कि शिक्षा के मद में खर्च कम होने से यह सब हो रहा है और इसे जी डी पी का कम से कम ६ प्रतिशत करें (वर्तमान में यह मात्र ०.६ प्रतिशत है). लेकिन ऊपर के दो उदाहरण साफ़ बताते हैं कि पिछले ७० साल से सरकारी खर्च से मुखिया, शिक्षा विभाग का अमला और शिक्षक अपनी जेबें और भर लेते हैं. नौनिहाल गरीबी की उस शाश्वत-गर्त से नहीं निकल पाता. जरूरत है इन योजनाओं की ईमानदार अनुश्रवण (मोनिटरिंग) की और ज्यादा से ज्यादा मनुष्य की जगह टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल की.
विगत नवम्बर में राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण के नाम पर देश में बुनियादी शिक्षा की स्थिति पर एक अध्ययन कराया. देश भर के लगभग सभी ७०१ जिलों के १,१०,००० स्कूलों के लाखों बच्चों के ज्ञान की जाँच में तस्वीर कुछ और निकली. सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आदेश पर राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् (एन सी ई आर टी ) ने कक्षा ३, ५ और ८ के छात्रों का तीन स्तर पर मूल्यांकन किया. कक्षा ३ और ५ के छात्रों का मूल्यांकन तीन विषयों --- इनविरानमेंटल स्टडीज (पर्यावरण सम्बंधित ज्ञान), भाषा और गणित की समझ को लेकर किया जबकि कक्षा ८ के छात्रों का आंकलन भाषा , गणित , विज्ञान और सामाजिक विज्ञान की समझ के आधार पर किया गया.
रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश और बिहार की स्थिति सबसे ज्यादा खराब निकली जहाँ बच्चों की लर्निंग (अधिगम या सीखने की क्षमता) ऊँची कक्षाओं में घटती गयी. इस चार बीमारू राज्यों के बच्चे अन्य राज्यों के बच्चों के मुकाबले तो छोडिये राष्ट्रीय औसत से काफी नीचे पाए गए. राष्ट्रीय औसत पर कक्षा तीन के ६३ से ६७ प्रतिशत बच्चे पर्यावरण, भाषा और गणित में, कक्षा पांच के ५३-५८ प्रतिशत बच्चे और कक्षा आठ के मात्र ४० फीसदी बच्चे हीं इन विषयों पर सही समझ रखते थे. याने जैसे जैसे ऊपर की कक्षा में बच्चे जा रहे हैं उनकी समझ क्षीण होती जा रही है. भाषा की समझ के स्तर पर सबसे अच्छी उपलब्धि वाले राज्य त्रिपुरा, दमन और दिव, पुद्दुचेरी और मिजोरम थे , जबकि बिहार , राजस्थान , हरियाणा और छत्तीसगढ़ सबसे फिसड्डी रहे. कुल पैरामीटर्स पर बीमारू राज्यों के बच्चों का प्रतिशत राष्ट्रीय औसत से काफी कम रहा. शिक्षाविद इसका कारण बताते हैं उत्तर भारत के इन राज्यों में आज भी रटने की आदत. शिक्षक भी अपने आराम के लिए प्रश्नों को समझाने के बजाय उत्तर रटवाने पर बल देता है.
इसी साल आयी अंतर्राष्ट्रीय ख्याति- प्राप्त “असर” की रिपोर्ट के साथ अगर सरकार द्वारा कराये इस सर्वे को एक साथ मिलकर देखें तो यह भी पता चला कि गाँव के बच्चे शहरों के बच्चों से बेहतर और पिछड़ी जातियों के बच्चे सवर्ण बच्चों से अच्छी समझ रखते हैं. सबसे बुरी स्थिति दलित बच्चों की समझ को लेकर पाई गयी. सर्वे में यह भी देखा गया कि आधारभूत ज्ञान और संख्यात्मक गणित जैसे छोटे-छोटे गुणा-भाग की समझ न होने की वजह से बड़े क्लास में बच्चे खराब प्रदर्शन कर रहे हैं. मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध सर्वे में दिए गए नक़्शे से साफ़ पता चलता है कि भाषा की समझ में, मणिपुर, पश्चिम बंगाल, सिक्किम , मिजोरम, हिमाचल प्रदेश और नागालैंड को छोड़ कर समूचा समूचा उत्तर भारत राष्ट्रीय औसत से काफी नीचे है. गणित की समझ के स्तर पर भी बीमारू राज्य राष्ट्रीय औसत से बेहद नीचे हैं.
चिंता की बात यह है “सुशासन बाबू” एक दशक से ऊपर के शासन काल में भी बिहार शिक्षा के सभी पैमानों पर सबसे नीचे के पायदान पर पाया गया. कमोबेश यही स्थिति उत्तर प्रदेश सहित अन्य बीमारू राज्यों की रही.
उधर “असर” के सर्वे में पाया गया कि १४ से १८ साल के आधे से ज्यादा बच्चे घड़ी के अनुसार दो समय के बीच के अंतराल को नहीं बता पा रहे हैं जैसे अमुक व्यक्ति इतने बजे सोया और इतने बजे जागा तो वह कितने घंटे सोता रहा. असर की रिपोर्ट दो माह पहले आयी रिपोर्ट के अनुसार इन बीमारू राज्यों –खासकर उत्तर प्रदेश , बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान --में साक्षरता और अधिगम (लर्निंग) की स्थिति सबसे खराब है. उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश की साक्षरता मात्र ६९.७२ प्रतिशत है जो कि राष्ट्रीय औसत से पांच फीसदी कम है.
दावा तो यह है कि भारत दुनिया का सबसे युवा देश होगा और इसका सांख्यिकी लाभांश देश को विकास की पटरी पर फुल स्पीड दौडायेगा लेकिन बच्चा जैसे जैसे युवा बन रहा है ज्ञान और समझ खोता जा रहा है. अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तो छोडिये भारत में हीं उत्तर भारत और खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार के बच्चे शायद हीं “सेवा -योग्य” (एम्प्लोयबुल) माने जाएँ. बेरोजगार युवा या तो समाजके लिए बोझ होगा या भावनात्मक रूप से आसानी से प्रभावित किया जाने वाला “बारूद का ढेर” जो भविष्य में समाज के लिए ख़तरा बन सकता है. अगर देश इसके भरोसे सांख्यिकी लाभांश चाहता है इन योजनाओं को भ्रष्टाचार मुक्त करना होगा और शिक्षा को स्वच्छ भारत की तरह अभियान के रूप में लेना होगा ताकि सामाजिक चेतना किसी मुखिया को किसी टीचर -इंचार्ज से पैसे न उगाहे और लोग भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ तन के खड़े हों.


lokmat