Tuesday 16 May 2017

अविश्वसनीय राजनीतिक वर्ग फिर वोट देना मजबूरी क्यों ?



उनकी खता नहीं है ये मेरा क़ुसूर था !  
---  मिर्ज़ा ग़ालिब 
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एक नसीमुद्दीन अचानक एक  दिन खडा होता है और प्रेस कांफ्रेंस करके कई सी डी  जारी करता है जिसमें बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की मुखिया और उत्तर प्रदेश की कई बार मुख्यमंत्री  रही मायावती को पैसे के लिए गैर-कानूनी रूप से दबाव डालने की  बात कहते सुना गया. नसीमुद्दीन बसपा सरकार में न  केवल सबसे दमदार मंत्री रहा बल्कि दशकों तक मायावती के “हर काम में” दाहिना हाथ रहा. मीडिया के सामने अब उसका कहना है  कि मायावती टिकट के लिए पैसे लेती है और अन्य तरीकों से भी पैसे लेती है जो पार्टी के खाते में नहीं दिखाया जाता. अगले ३०  मिनट में बसपा सुप्रीमो  मायावती एक  प्रेस  कांफ्रेंस करती हैं जनता को यह बताने  के  लिए कि नसीमुद्दीन “लोगों की बातचीत की चुपचाप रिकॉर्डिंग करता है  और फिर  ब्लैकमेल  करता है"।उन्होंने आगे बताया  कि यह  आरोप पहले भी कार्यकर्ता लगा रहे थे लेकिन  तब उन्होंने विश्वास नहीं होता था. २४ घंटे में नसीमुद्दीन का अगला आरोप आता है "महारानी (मायावती) से बड़ा ब्लैकमेलर दुनिया में नहीं और यह धंधा मैंने उन्हीं से सीखा है"। लब्बो लुआब यह कि एक पूर्व –मत्री और एक पूर्व मुख्यमंत्री का एक  दूसरे पर भ्रष्टाचार और अपराध  का आरोप-प्रत्यारोप. इस पार्टी को कुछ हफ्ते पहले देश के सबसे बड़े  प्रदेश में  हुए चुनाव में लगभग २ करोड लोगों  ने वोट दिया था. कहना न होगा कि सन  २०१४ के  आम चुनाव  में इससे दस लाख कम वोट हासिल कर  अन्ना द्रमुक ने  लोक सभा की ३७  सीटें जीती थी  लेकिन बसपा ने एक  भी  नहीं. एक और  तथ्य: सन  २०१२ के प्रदेश चुनाव में अगर बसपा मात्र ३.१३ प्रतिशत (२४ लाख) और वोट पा जाती तो ३.४६ लाख करोड़ बजट  वाले इस राज्य पर यही मायावती और यही नसीमुद्दीन पांच साल शासन करते. कौन किसको ब्लैकमेल करता रहा है या क्या  दोनों मिलकर जनता को “ब्लैकमेल”  करते रहे हैं ? अगर दोनों के आरोप सच हैं तो ख़तरा,  अगर दोनों के आरोप गलत हैं तो भी ख़तरा और एक सही है और दूसरा गलत  तो  यह  दोनों पिछले ३० साल से जन जीवन में एक दूसरे के साथ कैसे  टिके थे.  

यह सवाल किसी  एक  मायावती या  नसीमुद्दीन का  नहीं है. आप पार्टी के  नेता , अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के आन्दोलन की उपज और देश की राजधानी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल  पर अचानक उनका सबसे वफादार मंत्री कपिल  मिश्र दो करोड रुपये घूस लेने का आरोप लगता है यह कहते हुए  कि उसने अपनी आँख से देखा  है. अरविन्द के लोग इस आरोप  के जवाब में एक प्रति-आरोप लगते हैं  कि यह भारतीय जनता पार्टी का एजेंट है. क्या अरविन्द का  इंटेलिजेंस इतना खराब है एक प्रतिद्वंदी पार्टी  की  एजेंट  उनके साथ  वर्षों  तक रहता  है और उसे वह मंत्री  बनाते हैं लेकिन कभी यह पता नहीं चल पाता. क्या कपिल मिश्रा मानसिक रूप से इतना पंगु है कि उसे अपने नेता के बारे में वर्षों तक  पता  नहीं चल पाता?

इन दोनों आरोपों में एक कॉमन फैक्टर है. दोनों ने ये  आरोप अपने नेता पर तब लगाये जब  उन्हें  नेता ने हाशिये पर ला दिया  या पद छीन लिया. उत्तर प्रदेश चुनाव में हार के बाद मायावती को इस मुसलमान नेता से वितृष्णा हुई और उसे मध्य प्रदेश का प्रभारी बना दिया जहाँ अल्पसंख्यक राजनीति है हीं नहीं और जहाँ पार्टी की अस्तित्व भी  नाम  मात्र का है. कपिल ने अरविन्द केजरीवाल में, जिनकी वह दशकों से “सदाचार की प्रतिमूर्ति” मान कर  पूजा  करते थे, भ्रष्टाचार का  दानव उन्हें मंत्री पद से हटाये  जाने  के अगले २४  घंटे बाद दिखाई दिया.

एक  तीसरा मामला देखिये. उत्तर प्रदेश  चुनाव  में जब बेटे  अखिलेश ने  बाप मुलायम सिंह  से बगावत की और कांग्रेस से हाथ मिलाया तो  मुलायम सिंह  ने एक सभा में कहा “ कांग्रेस मेरा मुंह न खुलवाए वरना कई  चेहरे बेनकाब हो जायेंगे”. यह बात कांग्रेस के साथ गठबंधन में रह  कर मंत्री  बने रहते हुए नहीं  पता चला इस समाजवादी नेता को. ना हीं तब जब सी  बी आई  उनके आय से  अधिक संपत्ति की जांच कर रही थी और उसने देश  की सर्वोच्च  अदालत में छः बार मुलायम के खिलाफ  अपना रुख बदला. तब भी  नहीं , जब यू  पी  ए  -१  की सरकार परमाणु  समझौते के खिलाफ कम्युनिस्ट पार्टियों  द्वारा लाये गए अविश्वास प्रस्ताव पर  लगभग  गिरने जा  रही थी और तब उनकी  पार्टी ने  समर्थन दिया क्योंकि सी  बी आई  संपत्ति जांच के मामले में लगभग चार्जशीट तैयार कर चुकी  थी. तब भी नहीं जब  उनकी पार्टी के  नेता अमर सिंह भाजपा के लोगों को पैसे दे कर तोड़ रहे थे.  

अगर इन मायावतियों,  नसीमुद्दीनों, मुलायमों, अर्विन्दों, अमरों और कपिलों की समझ इतनी खराब है कि यह अपने नेता या अनुयायियों को दशकों तक नहीं पहचान पाते और उन्हें लूटने  की  शक्ति देते रहते हैं तो क्या इन्हें जन  जीवन में रहना  चाहिए?  मायावती को किसने अधिकार दिया  कि एक तथाकथित “ब्लैकमेलर”  को मंत्री बनाये या नसीमुद्दीन अगर  यह जानता था कि मायावती  सत्ता में आने के बाद पैसे की उगाही करती हैं तो क्या उसपर आपराधिक  मुकदमा नहीं चलना चाहिए.  इन सभी  ने पद पर आने के पहले संविधान में निष्ठा की शपथ ली थी. फिर अब कोई मुलायम यह क्यों  कह रहा है  कि मुंह खोला  तो सत्ता के कई  तत्कालीन चहरे बेनकाब होंगे. क्या इन सभी पर संवैधानिक शपथ को भंग करने  का मुकदमा नहीं चलना चाहिए? क्या इन सब घटनाओं  से जनता का विश्वास पूरे प्रजातंत्र  और संवैधानिक  व्यवस्था में नहीं टूटेगा ?  

समस्या इस राजनीतिक वर्ग में अनैतिकता और आपराधिकता  का नहीं  है. ना हीं  हम  यह कह कर बच सकते हैं कि चूंकि राजनीति में यही वर्ग आ रहा है लिहाज़ा जनता के पास विकल्प नहीं है. दरअसल जाति, सम्प्रदाय, रोबिनहुड इमेज ( जिसके तहत हम खूंखार  अपराधी  शहाबुद्दीन को चार बार इस प्रजातंत्र  के मंदिर लोक  सभा में अपने  प्रतिनिधि के  रूप  में भेजते है इसलिए  कि बड़ा अपराधी  है और हमें  छोटे अपराधियों से  बचाएगा) ने हमारी  सामूहिक विवेचना शक्ति छीन ली है .  हम अगर इन कुत्सित भावनाओं से बच  भी गए तो यह नहीं  तलाशते कि राज्य या देश  की विकास किसने  किया  या नहीं किया. वास्तव में विकास जन-विमर्श का कभी भी मुद्दा बन हीं न सका। राजनीति शास्त्र का सिद्धांत  है : अल्प-शिक्षित  या अर्ध-शिक्षित समाज में भावनात्मक मुद्दे  तार्किक  और सर्व- समाज के लिए उपादेय मुद्दों  पर भारी पड़ जाते हैं. हमें इससे  जल्द निकलना  होगा . दरअसल कौन सा वर्ग राजनीति में आकर हमारा भाग्य विधाता बने यह तो हमें तय करना था। ग़ालिब ने यूँ ही नहीं कहा था : उसकी खता नहीं है ये मेरा क़ुसूर था ।                                                                                                                      

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