Monday 23 June 2014

अटल-आडवाणी की जन स्वीकार्यता और मोदी के प्रति जन-विश्वास में अंतर है !



जिन्ना प्रकरण के बाद लाल कृष्ण आडवाणी के नेपथ्य में चले जाने के कुछ दिनों बाद की बात है. एक भारतीय जनता पार्टी के नेता जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नज़दीक थे, संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी से मिलने पहुंचे. बातचीत में उन्होंने उस पदाधिकारी से कहा “कुछ भी कहिये, पार्टी को इस उंचाई तक पहुँचाने में आडवाणी जी का बड़ा योगदान है”. पदाधिकारी ने त्वरित प्रश्नरूपी जवाब दागा “और आडवाणी को आडवानी बनाने में किसका योगदान है?
श्रेय देने की प्रक्रिया कई बार जटिल होती है सफलता के पीछे की बहुत सारे तथ्य आम जनता तो छोडिये जानकार लोग भी नहीं समझ पाते हैं. लिहाज़ा संगठन में पीछे से कार्य करने वाले उपादान, सोच और व्यक्ति गौण हो जाते हैं. ताजमहल तामीर करने वाले कारीगर को कोई नहीं जानता लेकिन शाहजहाँ को सभी जानते हैं. कई बार सफलता पर आधारित श्रेय पाने वाला यह समझ लेता है कि वह ना होता तो यह सफलता ना होती और यहीं से शुरू होता है संगठन और व्यक्ति में विभेद.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भाजपा के पदाधिकारियों को संबोधित किया. कुछ विश्लेषकों ने माना कि यह पार्टी पर प्रभुत्व की बेजा कोशिश है. यहाँ विश्लेषण इस बात का करना है कि अटल-आडवाणी की जन स्वीकार्यता और मोदी को मिले जन-समर्थन में कई गुणात्मक अंतर हैं. भाजपा, अटल बिहारी वाजपेयी या लाल कृष्ण आडवाणी की जन –स्वीकार्यता १९८४ में शुरू किये गए राम मंदिर आन्दोलन की उपज है. यह मुद्दा विशुद्ध रूप से भावनात्मक है. दिक्- काल-सापेक्ष है याने समय बदला , जगह बदला तो भावना तिरोहित हुई और भावना नहीं रही तो स्वीकार्यता ख़त्म. शिक्षा, तर्क-शक्ति का विकास , सामाजिक सोच में बदलाव , प्रति-व्यक्ति आय में वृद्धि से पैदा हुई उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण यह भावना दुबारा परवान नहीं चढ़ पाई. वही वाजपेयी-आडवाणी की जोड़ी जब १९९८ में पार्टी को सर्वोच्च जन स्वीकार्यता की स्थिति (लेकिन तब भी कांग्रेस से कम मत प्रतिशत) में ले गयी लेकिन उसके बाद जैसे –जैसे भावना का ज्वार कम होने लगा पार्टी के वोट कम होने लगे. बाद के चुनाव जैसे १९९९ , २००४ और २००९ तक मत प्रतिशत लगातार गिरता गया जब कि २००९ के चुनाव में आडवाणी को पार्टी ने प्रधानमंत्री का प्रत्याशी भी घोषित किया था.
तात्पर्य यह कि मंदिर-जनित हिंदुत्व की लहर की मियाद थी और इसका श्रेय अगर दिया जाना था तो संघ के अन्य घटकों जैसे विश्व हिन्दू परिषद् , बजरंग दल या उन सभी को जो इसमें शामिल थे. दरअसल आडवाणी की रथ-यात्रा को मिला जन –समर्थन भी उसी प्रयास का बाई - प्रोडक्ट था. अर्थात संघ ना होता , तो परिषद् ना होता , परिषद् ना होता तो मुद्दा हिन्दुओं की भावना में ना बदलता और भावना ना होती तो आडवाणी की राम रथ -यात्रा पर कन्याकुमारी से कश्मीर तक उनका मनस उद्वेलित ना होता. या यहाँ एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि जो भीड़ आडवाणी की रथ यात्रा में उमड़ी वह मुरली मनोहर जोशी की यात्रा में नहीं. यहाँ व्यक्ति के राष्ट्र –व्यापी स्वीकार्यता को नज़रंदाज़ करना आडवाणी के साथ अन्याय होगा.
लेकिन नरेन्द्र मोदी की जन स्वीकार्यता एक ऐसे समय में हुई जब मीडिया की तथ्यों को जनता तक पहुँचाने की शक्ति का फैलाव निर्बाध था. अतः जनता की तर्क-शक्ति बढ़ी , अपेक्षाएं भावनात्मक ना होकर वास्तविक हुईं. मोदी किसी भावना की उपज नहीं थे. कोई उन्माद नहीं था जनता में बल्कि एक तार्किक सोच से पैदा हुई सामूहिक चेतना थी.
यहाँ कोई यह तर्क दे सकता है कि मोदी को क्या संघ ने नहीं एक मकाम दिया? ज़रूर दिया और उन्हें गुजरात का मुख्यमंत्री बनाया. यहाँ यह भी कहा जा सकता है कि जिस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात दंगों के बाद राजधर्म निभाने की सलाह दी थी उस समय अगर आडवाणी उनके समर्थन में ना आये होते तो आज मोदी शायद यहाँ ना पहुंचते. लेकिन उसके बाद मोदी की यात्रा उनकी अपनी थी, किसी व्यक्ति या भावना कि मोहताज़ नहीं.
इन दस वर्षों में मोदी ने अपने व्यक्तित्व में जिन चार विशेषताओं का समाहन किया वे थे – कुशल प्रशासक, सक्षम विकासकर्ता, भ्रष्टाचार के प्रति शून्य-सहिष्णुता और आतंकवाद का विनाशक. मोदी में ये गुण वास्तविक हैं या परसेप्शन , इस पर विवाद हो सकता है लेकिन आम जनता ने ऐसा माना और उनमें मोदी के प्रति ऐसा विश्वास जगा जो दो दशकों की जाति –आधारित राजनीति को तोड़ता गया. इसमें फैलाव भी था (बंगाल से केरल तक) और गहराई भी (उच्च वर्ग से दलित तक) . अगर उच्च वर्ग ने कमल को वोट दिया तो किसी मंदिर पर नहीं विकास की अपेक्षा के साथ. उत्तर प्रदेश और बिहार के दलितों ने अगर वोट दिया तो इसलिए मोदी रोजी-रोटी की स्थिति बेहतर करेंगे. लालू, मुलायम और माया के लोग अगर पाला बदले तो यह मान कर कि जाति से बड़ा है विकास और वह विकास केवल और केवल मोदी कर सकेंगे. इसमें भाजपा या संघ को उतना हीं श्रेय जाता है जितना एक सामान्य बाप को अपने प्रखर बेटे की सफलता के लिए. यह तर्क नहीं दिया जा सकता कि अगर बाप ने पढ़ाई में एडमिशन के लिए पैसे नहीं दिए होते तो बेटा यह सफलता नहीं हासिल कर पाता.
लिहाज़ा आज जब मोदी पार्टी के पदाधिकारियों की बैठक में कुछ आदेशरूपी सलाह देते हैं तो वह औचित्यपूर्ण इसलिए है क्योंकि जनता ने मोदी पर अपना दांव लगाया है. वहीं भाजपा है, वही संघ है वही आडवाणी २००४ और २००९ में भी थे. आज मोदी अगर उन जन अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए पार्टी को माध्यम बनाना चाहते हैं तो इसे पार्टी पर प्रभुत्व की संज्ञा देना अतार्किक हीं नहीं हैं अनैतिक भी है.
बहरहाल संघ शायद यह बात समझता है और यही कारण है कि आज संघ भी यह मानने लगा है कि सफल राजनीति खासकर गवर्नेंस की पहली शर्त है प्राथमिकताओं को पहचानना. अगर मोदी सफल रहे तो संघ को भी अपने विस्तार हीं नहीं व्यापक स्वीकार्यता का अच्छा वातावरण मिलेगा और वह अपने व्यापक और अद्भुत संगठन की बूते पर अपनी सार्थक पैठ बना पायेगा और सामाजिक समरसता बहाल हो सकेगी. ना केवल हिन्दू जातियों की बीच बल्कि अन्य धर्मों के लोगों में भी.

lokmat