Wednesday, 28 August 2013

नेता, बाबा और जनता : गलत कौन ?

गोवा के एक डांस-बार कुछ बार-बालाओं के साथ रंगरेलियां मानते हुए जो विधायक पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया वह “लोहिया के सिद्धांतों को मानने वाली” राजनीतिक पार्टी का था. वह चार बार विधायक का चुनाव जीत चुका है. समझ में नहीं आता कि लोहिया से चूक हुई या सिद्धांत पर अमल करनेवालों से या फिर वोट देने वाली जनता से. कर्नाटक विधान- सभा में कुछ माह पहले जब गरीब किसानों को मदद देने के मुद्दे पर बहस चल रही थी तो उस सरकार के तीन मंत्री (मात्र विधायक नहीं) मोबाइल पर पोर्नो फिल्म (नंगी फिल्म) देख रहे थे. लगता है संविधान निर्माताओं से कहीं चूक हुई कि केन्द्रीय व राज्य विधायिकाओं को प्रजातंत्र का मंदिर बना दिया. या तो मंदिर की परिभाषा बदलनी पड़ेगी या प्रजातंत्र की. एक संत पर आरोप लगा है कि उसने किसी अपने भक्त परिवार की नाबालिग लड़की से अनैतिक छेड़-छाड़ की. यह संत जब भगवान् के बारे में बोलता है तो हजारों की तादाद में लोग श्रद्धा से आँख बंद कर लेते हैं और परिवार सहित (जिसमें अबोध बच्चे भी हैं) उसके चरणों में समर्पित हो जाते हैं. चूंकि उनकी मान्यता है कि ऐसे संत में भगवान् का हीं रूप होता है और भगवान तो गलत होता नहीं लिहाज़ा संत के लिए सब कुछ समर्पित करने को तैयार रहते हैं. शक होता है आदिकाल से चली आ रही संत नामक संस्था पर. प्रश्न उठता है कि आज संत कैसे बनते हैं? कैसे लोग अपने परिवार के साथ अपने संत तय करते हैं?

देश के अधिकांश लोग अब एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ए डी आर) की उस रिपोर्ट से वाकिफ हैं जिसमें बताया गया है कि वर्तमान लोक-सभा में १६२ सदस्य ऐसे हैं जिन पर आपराधिक मुकदमें हैं. यह भी मालूम होगा कि इनमें ७६ ऐसे हैं जिनपर जघन्य अपराध के मुकदमें हैं. लेकिन शायद यह नहीं मालूम होगा कि जिस २००९ के चुनाव में ये जीते थे उसका एक और सत्य है. वह यह कि आम उम्मीदवारों के मुकाबले इस चुनाव में अपराध के आरोपी उम्मीदवारों का जितने का प्रतिशत दूना था. मतलब यह कि अगर आप अपराध के आरोपी हैं तो जनता आपको अधिक चुनना चाहेगी. यह है हमारा प्रजातंत्र. लिहाज़ा अगर चुना हुआ व्यक्ति संसद या विधान सभा में जा कर पोर्नो देखता है तो दोष किसका? अगर उम्मीदवार के अपराध आरोप (जो उसे जन धरातल पर घोषित करना हीं होता है) के बारे में जानते हुए भी मतदाता उसको चुनता है तो यह समझने में मशक्कत करने की ज़रुरत नहीं होगी कि देश किस किस्म का प्रजातंत्र चाहता है. फिर ऐसे में जब कोई शासन में बैठे भ्रष्ट नेता लाखों करोड़ का चूना देश को लगा जाते हैं तो विलाप क्यों?

एक मशहूर कहावत है “ अगर कोई एक बार धोखा देता है तो भगवान उसे माफ़ कर देते हैं, अगर दुबारा हमें धोखा देता है दयालु भगवान उसे फिर भी माफ़ कर देते हैः लेकिन अगर तीसरी बार भी वह हमें धोखा देता है तो भगवान् उसे तो माफ़ कर देते हैं पर मुझे नहीं”. ६६ साल के प्रजातंत्र में हमने १५ आम चुनाव के अलावा दर्ज़नों विधान सभा चुनावों में मत दे कर सरकारें बनाई हैं, उन सरकारों की उपादेयता का अहसास किया है. कहा जाता है प्रजातंत्र एक जटिल परन्तु अभी तक की उपलब्ध व्यवस्थाओं में सबसे अच्छी शासन व्यवस्था हीं नहीं है यह व्यक्ति का सम्यक विकास भी करती है. यह भी मान्यता है कि समय के साथ प्रजातंत्र मजबूत होता है क्योंकि जनता में तर्क –शक्ति बदती है , मीडिया के जरिये तथ्य हासिल कर उन्हें विश्लेषित करने की सलाहियत बढ़ती है लेकिन केंद्र व राज्य की विधायिकाओं को देखने से यह अवधारणा गलत साबित होने लगे है. आज जो राजनीतिक वर्ग हम देख रहे हैं या जिनसे हम प्रभावित हो रहे हैं उसे देख कर लगता नहीं कि अच्छे लोग इस प्रक्रिया में आयेंगे और अगर आये तो हम उन्हें अपराध के आरोपी से ज्यादा तवज्जह देंगें.

यह समाज में तार्किक सोच के आभाव का हीं नतीजा है कि एक बाबा जब समोसे के साथ हरी चटनी खाने का ईश्वरीय आदेश देता है और आश्वस्त करता है कि हमारा कल्याण हो जाएगा तो हम श्रद्धा –भाव से आंखे बंद कर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण कर लेते हैं. बाबा ईश्वर का स्वरुप बन जाता है. ईश्वर ने हमें भेजा था दिमाग देकर, सोचने की शक्ति दे कर, तर्क करने की क्षमता दे कर जो उसने चौपायों को नहीं दिया था. लेकिन हमने तर्क को किनारे छोड़ कर धर्मं , जाति, उपजाति के आधार पर अपने को बाँट लिया नेता चुना , बाबा चुना और अज्ञानता की गर्त में हीं प्रजातंत्र को भी खींच लाये.

६६ साल के प्रजातंत्र में यह अपेक्षा की जाती थी कि प्रजातंत्र की गुणवत्ता बेहतर होगी, सिद्धान्तविहीन राजनीति का अंत होगा लेकिन हुआ ठीक इसके उल्टा। यह सही है कि नेहरू ने भारतीय लोकतंत्र की जो कल्पना की थी वह यूरोप के आयातित सिद्धान्तों पर आधारित थी और जिसमें पिरामिड संरचना शीर्ष से आधार की तरफ आती थी जबकि गांधी की परिकल्पना आधार से शीर्ष की तरफ जाने की थी। नतीजा यह हुआ कि शुरुआती दौर से ही राजनीतिक वर्ग चालाकी भरे संदेश में विश्वास रखने लगा और समाज की सोच समुन्नत होने के बजाय जाति, धर्म, उपजाति में बटती रही। राजनीतिक पार्टियाँ और उनके तथाकथित नेता इन्हीं आधार पर फलते-फूलते रहे और स्थिति यहां तक बिगड़ी कि नेता भ्रष्टाचार एक –दूसरे के पर्याय बन गए.

बिहार में हर दूसरे सप्ताह एक मनोविकार से ग्रस्त महिला को इंटों-पत्थरों से गाँव के लोग मार देते है यह सोच कर कि “डायन है पूरे गाँव को खाने आई है”. इस समझ वाला वर्ग चुनाव में अपना सांसद  भी चुनता है. और इसी के मत से प्रजातंत्र की भव्य इमारत दिल्ली में संसद के रूप में खड़ी कर दी जाती है यह कह कर कि सब कुछ संविधान के अनुरूप चल रहा है.

ऐसा नहीं है कि देश में प्रजातंत्र आयातित है यह तब से है जब यूरोप के लोग जंगल में रहते थे और हम वैशाली में जनमत के आधार पर शासन चलाते थे. लेकिन शायद संविधान निर्माता यह भूल गए कि छोटी ग्रामीण स्तर की संस्थाएं पहले बनायी जाये फिर प्रजातंत्र का भव्य मंदिर –संसद. जो डायन कह कर विक्षिप्त महिला को पत्थरों से मार देते हों उनकी समझ को बेहतर किये बिना प्रजातंत्र की इमारत तामीर करने का नतीजा है कि लालबत्ती लगाने वाला हत्या करता है, मंत्री जेल में रहता है और भ्रष्टाचार उजागर करने वाले सी ए जी को कटघरे में खडा करने को कोशिश की जाती है.        
rajsthan patrika