हर
साल की तरह इस साल का भी विश्व
भूख सूचकांक गुरुवार को जारी
हुआ है. पिछले
२५ सालों में देश के गरीबों
और उनके बच्चों को भूख से निजात
दिलाने में हम बागलादेश,
नेपाल
और रवांडा से भी पीछे हो गए
हैं. अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर मकबूल संस्था
अन्तर्राष्ट्रीय खाद्य नीति
शोध संस्थान के मुताबिक दुनिया
के ११९ देशों में हमारा नंबर
१००वां है. जबकि
तमाम गरीब मुल्क इस दौरान अपने
लोगों को भूख से उबारने में
काफी सफल रहे हैं. इस
भूख को नापने के चार आधार होते
हैं --- कुपोषण,
बाल
मृत्यु दर, बच्चों
का कद छोटा होना और उनका वजन
आयु के हिसाब से कम होना.
इन चारों
आधार पर माना जाता है कि जिस
समाज में भूख का स्तर खराब है
उस समाज के बच्चे शारीरिक हीं
नहीं मानसिक, नैतिक
और आध्यात्मिक रूप से भी कमजोर
होते है। शायद भारत में व्याप्त
भ्रष्टाचार और सत्ता वर्ग की
समाज के प्रति आपराधिक उदासीनता
इस तथ्य के आधार पर समझी जा
सकती है.
जरा
गौर करें. सन
२०१४ में यू पी ए -२
की मनमोहन सरकार ने चुनाव के
चंद दिनों पहले खाद्य सुरक्षा
कानून बनाया और हर गरीब (भूखों)
को मुफ्त
में ३५ किलो ग्राम राशन देने
का ऐलान किया. यह
योजना आज अमल में है. अगर
यह योजना धरातल पर सही अमल में
होती तो आज भूख में भारत की
स्थिति रवांडा से भी पीछे न
होती. लेकिन
शायद भ्रष्टाचार का दंश यहाँ
भी गुल खिला रहा है. हाल
हीं में प्रधानमंत्री मोदी
ने अधिकारियों की एक बैठक में
उन अधिकारियों की क्लास ली
जिन्होंने आंकड़े पेश करते
हुए बताया कि कार्यक्रमों पर
अमल की स्थिति बेहतर है.
“आप के
आंकड़ों के अनुसार तो भारत में
स्वर्णिम युग आ गया है लेकिन
फिर मीडिया में जो हकीकत है
वह तो कुछ और बयां कर रही है.
कृपया
यह सब बदलें और परिणाम पर ध्यान
दें”. जाहिर
है शायद मोदी को भी यह समझ में
आ गया है कि आंकड़े और हकीकत
में कितना बड़ा अंतर है.
अगर खाद्य
सुरक्षा के तहत हर गरीब परिवार
को मुफ्त ३५ किलो राशन मिल रहा
है तो बच्चे कम वजन के क्यों
हो रहे हैं और अगर जननी सुरक्षा
योजना अपनी जगह पर दुरुस्त
है तो बाल मृत्यु और मातृ मृत्यु
दर में अपेक्षित बदलाव क्यों
नहीं आ रहा है?
हम
अपने को दुनिया का सबसे बड़ा
प्रजातान्त्रिक देश होने का
दावा करते हैं. याने
तंत्र प्रजा के अनुरूप और उसकी
इच्छा से चलता है. तो
कौन है जो इन २२ करोड़ गरीबों
के मुंह में निवाला न पहुँचाने
का सबब बन रहा है. क्या
बाकि १०० करोड ? क्या
वे उदासीन हैं इस समस्या को
लेकर क्योंकि उन्होंने रोटी
जीत ली है. क्या
यही वजह है कि आज मुद्दा रोटी
न होकर “गाय और गौ मांस” हो गए
हैं. क्या
यह वही वर्ग है जो किसी अखलाक
के यहाँ कौन सा मांस पका है
इसे देख कर या किसी गौ व्यापारी
पहलू खान को ट्रक पर गाय ले
जाते पकड़ता है और फिर गुस्से
में उन्हें मार देता है,
या वन्दे
मातरम न कहने वालों को पाकिस्तान
भेजने को उद्धत हो जाता है .
या फिर
वह वर्ग जो ड्राइंग रूम में
चिप्स खा कर राष्ट्रवाद की
नयी पहचान बनाते हुए “भारत
को महान “ बता रहा है.
कुछ
आंकड़े देखें. सन
१९९२ में भूख की समस्या को
लेकर घाना, वियतनाम
, म्यांमार
, मलावी
, बांग्लादेश
, नेपाल
, नाइजीरिया,
लाओ (पी
डी आर ), कैमरून
, माली
और रवांडा भारत के समकक्ष खड़े
थे लेकिन २५ सालों में घाना
ने इस सूचकांक को ४१. ९
से घटाकर १६.२
किया, वियतनाम
ने ४०.२
से १६, बगल
के अपेक्षाकृत कमजोर माने
जाने वाले म्यांमार ने ५५.६
से २२.६
, मलावी
ने ५८.२
से २२.६
, बांग्लादेश
ने (जिसकी
पैदाइश हीं ४५ साल पुरानी है
) ५३.६
से २६.५
, पडोसी
नेपाल ने (जो
एक संविधान नहीं बना पा रहा
है) ४२.५
से २२ , अफ्रीकी
देश (जो
गरीबी और भूखमरी के लिए बदनाम
माने जाते थे ) – निजीरिया
, कैमरून
और रवांडा ने क्रमशः ४८.५
से २५.५
; ४०
से २०.१
और ५३.३
से ३१.३१.४
किया. इसके
ठीक अलग भारत के प्रजातान्त्रिक
रूप से चुनी हुई सत्ता में
बैठे लोगों की आपराधिक उदासीनता
का यह आलम है कि इन २५ वर्षों
में देश अपनी भूख के इस सूचकांक
को ४६.२
से मात्र ३१.४
तक हीं ला पाया. फिर
भी हम भारत महान की बांग दे कर
२२ करोड भूखों को रात में सोने
को मजबूर करते रहे हैं.
आखिर
क्यों नहीं हमें अपने पर कोफ़्त
होती है इन रिपोर्टों को देख
कर. भूख
पर हर साल रिपोर्ट देने वाली
यह संस्था तो किसी विपक्षी
पार्टी की नहीं है. न
हीं उन लोगों की जो मोदी की
निंदा करके रात में आराम से
सोते हैं ? हाँ
सत्ता वर्ग यह सूचना दे कर
नींद को और गहरा कर सकता है कि
पाकिस्तान और अफगानिस्तान
हमसे पीछे है. लेकिन
हम यह नहीं बताते कि चीन ने इस
भूखमरी पर काबू पते हुए अपने
को २९ वें स्थान पर पहुँचाया
है.
दूसरी
ओर पिछले ५५ साल में हमारे
राजनेताओं ने हर चुनाव में
“गरीबी हटाओ” का लगातार नारा
देकर हमारे वोट हासिल कर सत्ता
पर कब्ज़ा जमाया. सन
१९७१ में तत्कालीन प्रधानमंत्री
इंदिरागांधी ने गरीबी हटाओ
का नारा दिया और तब से यह सिलसिला
आज तक चलता रहा. यहाँ
तक कि वर्तमान प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी ने भी पिछले
साल की जून ७ को अमरीका के
उद्योगपतियों के बीच बोलते
हुए कहा कि भारत दुनिया की
अर्थ-व्यवस्था
का इंजन बन चुका है. इस
बात को वित्त मंत्री ने भी
लगभग एक साल बाद समृद्ध देशो
वाले जी -२०
के सम्मेलन में दोहराया.
विरोधाभास
यह कि २.५३
ट्रिलियन डॉलर के सकल घरेलू
उत्पाद के साथ हम आज दुनिया
के सात बड़ी अर्थ-व्यवस्था
वाले समूह में हो कर अपनी मूंछें
ऐंठ रहे हैं और शायद इसीलिए
हम अपने को दुनिया की ११७
ट्रिलियन डॉलर की कुल अर्थ-व्यवस्था
का इंजन समझने लगे हैं.
समझ में
नहीं आता कि विश्व अर्थ-व्यवस्था
में मात्र २ प्रतिशत का योगदान
दे कर इंजन कैसे बन सकते हैं
. ऐसा
तो १६ वीं और १७वीं सदी में जब
हम विश्व अर्थ-व्यवस्था
में ३२ प्रतिशत योगदान करते
थे तब भी किसी बादशाह अकबर ने
नहीं कहा था. न
हीं किसी सम्राट अशोक ने ३००
ईसा पूर्व ऐसा दावा किया था.
अभिजात्य
वर्ग और अक्सर मध्यम वर्ग को
बुलेट ट्रेन अच्छी लगती है ,
दुकानों
की जगह माल विकास की चुगली
खाते दीखते हैं और हमारे
प्रधानमंत्री का दुनिया के
बड़े देशों में स्वागत और गले
मिलना अपने बढ़ते कद का अहसास
देता है पर तब एक दन्त कथा की
याद आती है कि मोर अपनी खूबसूरत
पंखों को फैला कर झूम उठता है
पर जब अपनी पतली टांगों पर नज़र
जाती है तो सर जमीन पर पटक देता
है . शायद
हम अपने विकास की वरीयता भूल
गए हैं. बेहतर
होगा कि बुलेट ट्रेन भी आये,
शापिग
काम्पलेक्स भी बने पर वरीयता
इस भूख को मिटने की हो
lokmat