राष्ट्र के विकास में बहुत
कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि तत्कालीन समाज की सामूहिक सोच के गति व दिशा क्या
थी. इसी सोच के आधार पर राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण होता है, संस्थाएं बनती हैं
और सम्यक विकास होता है. जापान परमाणु के मलवे से फिर उठ खड़ा होता है दुनिया की
बड़ी ताकतों में शुमार करा लेता है. चीन भी उसी समय साम्यवाद अपनाता है. बड़े देशों
की कतार में खड़ा हो जाता है. भारत और
पाकिस्तान भी लगभग उसी समय आज़ाद होते है और प्रजातंत्र की राह पकड़ते हैं. भारत में
प्रजातंत्र की पकड़ मजबूत होती है. विकास होता है पर धीमी गति से नतीजतन गरीबी बनी
रहती है. पाकिस्तान एक असफल राष्ट्र होने के रास्ते पर चल पड़ता है. आज़ादी के कुछ
हीं समय बाद से प्रजातंत्र हिचकोले लेने लगती है. ६६ साल में ३३ साल सैनिक शासन का
कब्ज़ा होता है. ऐसा नहीं है कि भारत में सामाजिक विविधताएँ और तज्जनित वैमनष्यतायें
पाकिस्तान से कम थी या है. लेकिन बात राष्ट्र के सामूहिक सोच की थी जिसने दोनों
में अंतर किया. भारत में एक बार आपातकालीन स्थिति भी लगाई गयी लेकिन राष्ट्र की
सोच ने इसे इस तरह नकारा कि आज किसी शासक की हिम्मत नहीं कि दुबारा इसके बारे में
सपने में भी सोचे.
भारत के मुकाबले पाकिस्तान
काफी बेहतर राष्ट्र बन सकता था. उस देश की भौगोलिक स्थिति पर गौर करें. विशेषज्ञों
का मानना है कि पाकिस्तान की स्थिति दुनिया में शायद सबसे बेहतर है. अरब सागर की खाड़ी के मुहाने पर स्थित होने के कारण यह व्यापर और
वाणिज्य विश्व का केंद्र हो सकता था. परा-महादेशीय उर्जा ट्रांसपोर्ट का हब बन
सकता था. चीन से बाहरी दुनिया के बीच लिंक का सबब बन सकता था. यहाँ तक की भारत के
लिए भी निवेश का बेहतर जरिया हो सकता था और साथ हीं भारत और एशिया के कई देशों के
लिए आदान-प्रदान का माध्यम बन सकता था. हालांकि इसके पास प्राकृतिक संसाधन जैसे
तेल नहीं थे फिर भी इस भौगोलिक विशेषता के कारण जो इसकी आमदनी का बड़ा साधन होती,
एशिया महाद्वीप का संपन्न देश हो सकता था.
लेकिन पाकिस्तान की नियति
कुछ और हीं थी. यह बन गया दुनिया का परमाणु जखीरा रखने वाला चौथा मुल्क. अगर
हथियार की भूख बनी रही तो यह ब्रिटेन के परमाणु बम से ज्यादा बम रखने वाला देश
अगले दो वर्षों में बन जाएगा.
इस मुल्क का ३० प्रतिशत बजट
सेना को चला जाता है. गरीबी और अशिक्षा का यह आलम है कि आजादी के समय यहाँ ५२
प्रतिशत लोग साक्षर थे (भारत से ज्यादा) लेकिन ६६ साल बाद भी आज मात्र ५6 प्रतिशत लोग हीं साक्षर हैं जबकि भारत
में ७४ प्रतिशत. सेना फैसला लेती है कि जम्हूरियत रहेगी या फौजी शासन. आतंकवादी तय
करते हैं कि चुनाव कैसे होगा और कौन शासन करेगा. हाल के रिपोर्ट बताती है नवाज
शरीफ प्रधानमंत्री इसलिए हैं कि उन्हें तहरीक-ए-तालिबान और जमात को भरी पैसा ना
केवल पंजाब प्रान्त के बजट से बल्कि अन्य स्रोतों से भी दिया है और वादा किया है
उनको ना छेड़ने का.
दंत कथाओं में एक किस्सा
है. शेर जब भी शिकार करता है तो गीदड़ पीछे –पीछे दौड़ता है. जब शेर शिकार मार कर
पेट भर कर हट जाता है तो गीदड़ भी बचे-खुचे से अपना पेट भरता है. एक बार एक शेर एक
हिरन का शिकार कर ने के लिए दौड़ा. डर से हिरन जान ले कर भागा. करीब आधे घंटे की इस
दौड़ के बाद हिरन शेर के कब्जे में नहीं आया और निकल गया. गीदड़ ने चुटकी लेता हुआ
शेर से पूछा “सरकार, आप तो जंगल के राजा हैं , सबसे ताकतवर हैं फिर यह १० किलो का
हिरन आपके पंजे से कैसे निकल गया? शेर हंसा और बोला “इतनी भी बात नहीं समझ सके.
दोनों के “स्टेक” में अंतर था. अगर में उसे पकड़ लेता तो मेरा एक जून का खाना हो
जाता लेकिन वह अगर पकड़ा जाता तो उसकी मौत होती.”
फाटा में आत्मघाती बेल्ट कुटीर
उद्योग
भारत और पाकिस्तान की
पारस्परिक स्थिति को मूंछों की लड़ाई से हट कर देखें तो दोनों के स्टेक में अंतर
है. पाकिस्तान एक असफल राज्य है. उसे खोने को कुछ नहीं है. औसतन हर रोज १० आदमी
आतंकवादी हमलों में मारे जाते हैं, हर तीसरे दिन एक धमाका होता है, उद्योग-शून्यता
के कारण बेरोजगार युवक आत्मा-घाती दस्तों का कच्चा माल बन रहे हैं, “फाटा” क्षेत्र
में “आत्मघाती बेल्ट” बनाने के कुटीर उद्योग में बदल चुका है. सिंध-पंजाब झगडा,
बलूच समस्या, मुहाजिर (जो भारत से गए हैं) के प्रति मूल पाकिस्तानियों का रवैया,
शियाओं और अन्य सम्प्रदायों के प्रति हिंसा और सबसे बढकर फाटा (फेडरली
एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरिया ) क्षेत्र से फैलते हुए तहरीक-ए-तालिबान का पाकिस्तान
के अन्य भागों में खूंखार वर्चस्व आदि कुछ ऐसी समस्याएं हैं जिन्होंने इस देश के
अंतर को खोखला कर दिया है.
शासन के स्तर पर तीन-तीन
इदारे (संस्थाएं) मसलन नागरिक प्रशासन, सेना (जिसमे आई एस आई भी है), धार्मिक
कट्टरपंथी एक –दूसरे के खिलाफ खून-खराबे में लगे है. ना तो प्रधानमंत्री (तथाकथित
नागरिक प्रशासन) की बात सेना सुनती है ना सेना की बात का जन-भावना से कोई लेना
देना है. सेना और कट्टरपंथी एक साथ मिल कर बाहर से धर्म का नाम पर या सरकार को
विकास के लिए दी जाने वाली इमदाद पर गिद्ध दृष्टि लगाये रहते है. सी आई ए की एक
ताजा रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका ने २००१-१० के बीच दो लाख करोड़ रुपये पाकिस्तान को
दिए (याने २० हज़ार करोड़ रुपये हर साल) लेकिन इसका ८० प्रतिशत भाग सेना की नज़र चढ़
गया जिसका हिसाब ना तो पाकिस्तान की संसद को मिला ना सेना से माँगने की हिम्मत
सरकार को हुई.
पाकिस्तान ने भारत पर चार
युद्ध थोपे हैं जिनका शायद हीं कोई औचित्य था. दरअसल ये युद्ध जनता की इच्छा पर
बहीं बल्कि सेना अपने हित को साधने कि लिए करती रही है. उसे हर साल पाकिस्तानी बजट
का तीस प्रतिशत चाहिए. (भारत का रक्षा बजट मात्र ११ प्रतिशत होता है). उसे अमरीका
और खाड़ी के देशों से मिलाने वाले इमदाद का ८० प्रतिशत उदरस्थ करना है जिसका कोई
हिसाब –किताब नहीं होता. लिहाज़ा उसे आतंकवादियों से साथ-गांठ करना मजबूरी है.
दोनों मिलकर देश को खोखला कर रहे है, धर्मं का नाम पर अज्ञानता परोस कर बच्चो को
आत्मघाती दस्तों में डाल कर उन्हें बेचने का धंधा कर रखा है.
अगर भारत के लोग इन तथ्यों
को समझ जाये तो सीमा पर से होने वाले हमलों का कारण भी समझ जायेंगे. यह सही है कि
भारत में पाकिस्तान की हरकतों को लेकर एक स्वाभाविक गुस्सा है. लेकिन ड्राइंग-रूम
आउटरेज से यह समस्या हल करना घातक होगा. कहीं जाने अनजाने हम भी पाकिस्तान के
आत्मघाती रास्ते पर खड़े होंगे.
आत्मघाती दस्तों में बच्चे
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भारत में एक वर्ग युद्ध की
भाषा बोलता है. “एक बार में हीं सेना लेकर ख़त्म कर दो” या फिर “बंद करो वहां के
प्रधानमंत्री को दावत खिलने के लिए विदेशमंत्री को भेजना”. ये दोनों समाधान शायद
आज के दौर में नामुम्किल-उल-अम्ल हैं. आज के ज़माने में सेना लेकर किसी छोटे से
छोटे देश को ख़त्म करना संभव नहीं है. और वह भी तब जब दूसरा देश पडोस का हो और उसके
पास हमसे ज्यादा परमाणु बम हों, और जिसकी मदद के लिए चीन जैसा एक और पडोसी मुल्क
तैयार बैठा हो.
फिर हम किसको ख़त्म करना
चाहते हैं? एक ऐसे समाज को जिसमें आतंकवादी गरीब बच्चों को इस्लाम के नाम पर पैसे
देकर माँ-बाप से ले जाते हैं फिर उन्हें आत्मघाती दस्ते की रूप में फिल्ड कमांडरों
को पैसे लेकर बेंच देते हैं? हम किसे सबक सिखाना चाहते हैं? नागरिक प्रशासन को,
सेना को, आई एस आई को, कट्टरपंथियों को या फिर वहां कि जनता को? संभव है कि जैसे
करगिल युद्ध में प्रधान मंत्री को नहीं पूछा गया था वैसे हीं आई एस आई कब किस को
कहाँ भेज रही है ना मालूम हो. आतंकी पाकिस्तान में रक्तबीज की तरह हैं और वह अपने
देश को हीं खा रहा हैं उनसे लड़ने की क्षमता वहां की सेना में भी नहीं है (फाटा में
उनकी हार से यह सिद्ध हो चुका है). सेना को खत्म करने के लिए हमें युद्ध करना होगा
और वह युद्ध परमाणु युद्ध की हद तक जा सकता है. क्या हम तैयार है इस महंगे सौदे कि
लिए और वह भी एक ऐसे पडोसी से जो अपने हीं विरोधाभासों से मर रहा है.
देश अपने पडोसी चुनते नहीं
हैं. वह ऐतिहासिक घटनाओं की दें होती हैं. हमें एक पडोसी मिला है. इस पडोसी की
संप्रभुता शुरू से हीं विखंडित रही है. यह संप्रभुता कभी सैन्य-नागरिक गठजोड़ में
तो कभी सैन्य-आतंकी समझौते में तो कभी पूर्ण सैन्य संस्थाओं में महदूद रहता है
शायद हीं कभी ऐसा हुआ हो जब पूर्ण नागरिक शासन सम्पूर्ण स्वायत्तता से चला हो. ऐसे
में हम किस पर हमला करने , किस से दाऊद को छिनने और किसको मिटाने की सोचते हैं?
अगर हमें पाकिस्तान को
सबक सिखाना हीं है तो इतने उलझे राष्ट्र को कमजोर करना गैर-कूटनीतिक अनौपचारिक
तरीकों से भी हो सकता है. पाकिस्तान अगर हमारे एक कमजोर नस (कश्मीर में आतंकवाद)
को इस कदर दबा सकता है कि हम चीख दे तो हम तो उसके पूरे जिस्म को तार-तार कर सकते
हैं मुस्कुराते हुए बशर्ते हमारे राजनीतिक वर्ग में वह दृढ –संकल्प हो. और जब वह
पूरी तरह टूट जाये तो हम औपचारिक रूप से उसकी मदद को आगे बढ़ें और उसे अपने पैरों
पर सभी समाज की मानिंद खड़े होने में मदद करें. लिहाज़ा पाकिस्तान का मसला ड्राइंग
रूम आउटरेज से नहीं बल्कि एक सधे बड़े मुल्क की रूप में मुस्कुराते हुए लेकिन दृढ
संकल्प के साथ करें तो साप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी. sahara (hastakshep)