Friday 16 August 2013

अगर पडोसी एक असफल, बेलगाम व डूबता राज्य हो तो क्या करें?



राष्ट्र के विकास में बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि तत्कालीन समाज की सामूहिक सोच के गति व दिशा क्या थी. इसी सोच के आधार पर राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण होता है, संस्थाएं बनती हैं और सम्यक विकास होता है. जापान परमाणु के मलवे से फिर उठ खड़ा होता है दुनिया की बड़ी ताकतों में शुमार करा लेता है. चीन भी उसी समय साम्यवाद अपनाता है. बड़े देशों की कतार में खड़ा हो जाता है.  भारत और पाकिस्तान भी लगभग उसी समय आज़ाद होते है और प्रजातंत्र की राह पकड़ते हैं. भारत में प्रजातंत्र की पकड़ मजबूत होती है. विकास होता है पर धीमी गति से नतीजतन गरीबी बनी रहती है. पाकिस्तान एक असफल राष्ट्र होने के रास्ते पर चल पड़ता है. आज़ादी के कुछ हीं समय बाद से प्रजातंत्र हिचकोले लेने लगती है. ६६ साल में ३३ साल सैनिक शासन का कब्ज़ा होता है. ऐसा नहीं है कि भारत में सामाजिक विविधताएँ और तज्जनित वैमनष्यतायें पाकिस्तान से कम थी या है. लेकिन बात राष्ट्र के सामूहिक सोच की थी जिसने दोनों में अंतर किया. भारत में एक बार आपातकालीन स्थिति भी लगाई गयी लेकिन राष्ट्र की सोच ने इसे इस तरह नकारा कि आज किसी शासक की हिम्मत नहीं कि दुबारा इसके बारे में सपने में भी सोचे.

भारत के मुकाबले पाकिस्तान काफी बेहतर राष्ट्र बन सकता था. उस देश की भौगोलिक स्थिति पर गौर करें. विशेषज्ञों का मानना है कि पाकिस्तान की स्थिति दुनिया में शायद सबसे बेहतर है. अरब सागर  की खाड़ी  के मुहाने पर स्थित होने के कारण यह व्यापर और वाणिज्य विश्व का केंद्र हो सकता था. परा-महादेशीय उर्जा ट्रांसपोर्ट का हब बन सकता था. चीन से बाहरी दुनिया के बीच लिंक का सबब बन सकता था. यहाँ तक की भारत के लिए भी निवेश का बेहतर जरिया हो सकता था और साथ हीं भारत और एशिया के कई देशों के लिए आदान-प्रदान का माध्यम बन सकता था. हालांकि इसके पास प्राकृतिक संसाधन जैसे तेल नहीं थे फिर भी इस भौगोलिक विशेषता के कारण जो इसकी आमदनी का बड़ा साधन होती, एशिया महाद्वीप का संपन्न देश हो सकता था. 

लेकिन पाकिस्तान की नियति कुछ और हीं थी. यह बन गया दुनिया का परमाणु जखीरा रखने वाला चौथा मुल्क. अगर हथियार की भूख बनी रही तो यह ब्रिटेन के परमाणु बम से ज्यादा बम रखने वाला देश अगले दो वर्षों में बन जाएगा.

इस मुल्क का ३० प्रतिशत बजट सेना को चला जाता है. गरीबी और अशिक्षा का यह आलम है कि आजादी के समय यहाँ ५२ प्रतिशत लोग साक्षर थे (भारत से ज्यादा) लेकिन ६६ साल बाद भी आज मात्र ५6  प्रतिशत लोग हीं साक्षर हैं जबकि भारत में ७४ प्रतिशत. सेना फैसला लेती है कि जम्हूरियत रहेगी या फौजी शासन. आतंकवादी तय करते हैं कि चुनाव कैसे होगा और कौन शासन करेगा. हाल के रिपोर्ट बताती है नवाज शरीफ प्रधानमंत्री इसलिए हैं कि उन्हें तहरीक-ए-तालिबान और जमात को भरी पैसा ना केवल पंजाब प्रान्त के बजट से बल्कि अन्य स्रोतों से भी दिया है और वादा किया है उनको ना छेड़ने का.     

दंत कथाओं में एक किस्सा है. शेर जब भी शिकार करता है तो गीदड़ पीछे –पीछे दौड़ता है. जब शेर शिकार मार कर पेट भर कर हट जाता है तो गीदड़ भी बचे-खुचे से अपना पेट भरता है. एक बार एक शेर एक हिरन का शिकार कर ने के लिए दौड़ा. डर से हिरन जान ले कर भागा. करीब आधे घंटे की इस दौड़ के बाद हिरन शेर के कब्जे में नहीं आया और निकल गया. गीदड़ ने चुटकी लेता हुआ शेर से पूछा “सरकार, आप तो जंगल के राजा हैं , सबसे ताकतवर हैं फिर यह १० किलो का हिरन आपके पंजे से कैसे निकल गया? शेर हंसा और बोला “इतनी भी बात नहीं समझ सके. दोनों के “स्टेक” में अंतर था. अगर में उसे पकड़ लेता तो मेरा एक जून का खाना हो जाता लेकिन वह अगर पकड़ा जाता तो उसकी मौत होती.” 

             फाटा में आत्मघाती बेल्ट कुटीर उद्योग   

भारत और पाकिस्तान की पारस्परिक स्थिति को मूंछों की लड़ाई से हट कर देखें तो दोनों के स्टेक में अंतर है. पाकिस्तान एक असफल राज्य है. उसे खोने को कुछ नहीं है. औसतन हर रोज १० आदमी आतंकवादी हमलों में मारे जाते हैं, हर तीसरे दिन एक धमाका होता है, उद्योग-शून्यता के कारण बेरोजगार युवक आत्मा-घाती दस्तों का कच्चा माल बन रहे हैं, “फाटा” क्षेत्र में “आत्मघाती बेल्ट” बनाने के कुटीर उद्योग में बदल चुका है. सिंध-पंजाब झगडा, बलूच समस्या, मुहाजिर (जो भारत से गए हैं) के प्रति मूल पाकिस्तानियों का रवैया, शियाओं और अन्य सम्प्रदायों के प्रति हिंसा और सबसे बढकर फाटा (फेडरली एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरिया ) क्षेत्र से फैलते हुए तहरीक-ए-तालिबान का पाकिस्तान के अन्य भागों में खूंखार वर्चस्व आदि कुछ ऐसी समस्याएं हैं जिन्होंने इस देश के अंतर को खोखला कर दिया है. 

शासन के स्तर पर तीन-तीन इदारे (संस्थाएं) मसलन नागरिक प्रशासन, सेना (जिसमे आई एस आई भी है), धार्मिक कट्टरपंथी एक –दूसरे के खिलाफ खून-खराबे में लगे है. ना तो प्रधानमंत्री (तथाकथित नागरिक प्रशासन) की बात सेना सुनती है ना सेना की बात का जन-भावना से कोई लेना देना है. सेना और कट्टरपंथी एक साथ मिल कर बाहर से धर्म का नाम पर या सरकार को विकास के लिए दी जाने वाली इमदाद पर गिद्ध दृष्टि लगाये रहते है. सी आई ए की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका ने २००१-१० के बीच दो लाख करोड़ रुपये पाकिस्तान को दिए (याने २० हज़ार करोड़ रुपये हर साल) लेकिन इसका ८० प्रतिशत भाग सेना की नज़र चढ़ गया जिसका हिसाब ना तो पाकिस्तान की संसद को मिला ना सेना से माँगने की हिम्मत सरकार को हुई.          

पाकिस्तान ने भारत पर चार युद्ध थोपे हैं जिनका शायद हीं कोई औचित्य था. दरअसल ये युद्ध जनता की इच्छा पर बहीं बल्कि सेना अपने हित को साधने कि लिए करती रही है. उसे हर साल पाकिस्तानी बजट का तीस प्रतिशत चाहिए. (भारत का रक्षा बजट मात्र ११ प्रतिशत होता है). उसे अमरीका और खाड़ी के देशों से मिलाने वाले इमदाद का ८० प्रतिशत उदरस्थ करना है जिसका कोई हिसाब –किताब नहीं होता. लिहाज़ा उसे आतंकवादियों से साथ-गांठ करना मजबूरी है. दोनों मिलकर देश को खोखला कर रहे है, धर्मं का नाम पर अज्ञानता परोस कर बच्चो को आत्मघाती दस्तों में डाल कर उन्हें बेचने का धंधा कर रखा है.  

अगर भारत के लोग इन तथ्यों को समझ जाये तो सीमा पर से होने वाले हमलों का कारण भी समझ जायेंगे. यह सही है कि भारत में पाकिस्तान की हरकतों को लेकर एक स्वाभाविक गुस्सा है. लेकिन ड्राइंग-रूम आउटरेज से यह समस्या हल करना घातक होगा. कहीं जाने अनजाने हम भी पाकिस्तान के आत्मघाती रास्ते पर खड़े होंगे.

            आत्मघाती दस्तों में बच्चे

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भारत में एक वर्ग युद्ध की भाषा बोलता है. “एक बार में हीं सेना लेकर ख़त्म कर दो” या फिर “बंद करो वहां के प्रधानमंत्री को दावत खिलने के लिए विदेशमंत्री को भेजना”. ये दोनों समाधान शायद आज के दौर में नामुम्किल-उल-अम्ल हैं. आज के ज़माने में सेना लेकर किसी छोटे से छोटे देश को ख़त्म करना संभव नहीं है. और वह भी तब जब दूसरा देश पडोस का हो और उसके पास हमसे ज्यादा परमाणु बम हों, और जिसकी मदद के लिए चीन जैसा एक और पडोसी मुल्क तैयार बैठा हो.

फिर हम किसको ख़त्म करना चाहते हैं? एक ऐसे समाज को जिसमें आतंकवादी गरीब बच्चों को इस्लाम के नाम पर पैसे देकर माँ-बाप से ले जाते हैं फिर उन्हें आत्मघाती दस्ते की रूप में फिल्ड कमांडरों को पैसे लेकर बेंच देते हैं? हम किसे सबक सिखाना चाहते हैं? नागरिक प्रशासन को, सेना को, आई एस आई को, कट्टरपंथियों को या फिर वहां कि जनता को? संभव है कि जैसे करगिल युद्ध में प्रधान मंत्री को नहीं पूछा गया था वैसे हीं आई एस आई कब किस को कहाँ भेज रही है ना मालूम हो. आतंकी पाकिस्तान में रक्तबीज की तरह हैं और वह अपने देश को हीं खा रहा हैं उनसे लड़ने की क्षमता वहां की सेना में भी नहीं है (फाटा में उनकी हार से यह सिद्ध हो चुका है). सेना को खत्म करने के लिए हमें युद्ध करना होगा और वह युद्ध परमाणु युद्ध की हद तक जा सकता है. क्या हम तैयार है इस महंगे सौदे कि लिए और वह भी एक ऐसे पडोसी से जो अपने हीं विरोधाभासों से मर रहा है.

देश अपने पडोसी चुनते नहीं हैं. वह ऐतिहासिक घटनाओं की दें होती हैं. हमें एक पडोसी मिला है. इस पडोसी की संप्रभुता शुरू से हीं विखंडित रही है. यह संप्रभुता कभी सैन्य-नागरिक गठजोड़ में तो कभी सैन्य-आतंकी समझौते में तो कभी पूर्ण सैन्य संस्थाओं में महदूद रहता है शायद हीं कभी ऐसा हुआ हो जब पूर्ण नागरिक शासन सम्पूर्ण स्वायत्तता से चला हो. ऐसे में हम किस पर हमला करने , किस से दाऊद को छिनने और किसको मिटाने की सोचते हैं?
अगर हमें पाकिस्तान को सबक सिखाना हीं है तो इतने उलझे राष्ट्र को कमजोर करना गैर-कूटनीतिक अनौपचारिक तरीकों से भी हो सकता है. पाकिस्तान अगर हमारे एक कमजोर नस (कश्मीर में आतंकवाद) को इस कदर दबा सकता है कि हम चीख दे तो हम तो उसके पूरे जिस्म को तार-तार कर सकते हैं मुस्कुराते हुए बशर्ते हमारे राजनीतिक वर्ग में वह दृढ –संकल्प हो. और जब वह पूरी तरह टूट जाये तो हम औपचारिक रूप से उसकी मदद को आगे बढ़ें और उसे अपने पैरों पर सभी समाज की मानिंद खड़े होने में मदद करें. लिहाज़ा पाकिस्तान का मसला ड्राइंग रूम आउटरेज से नहीं बल्कि एक सधे बड़े मुल्क की रूप में मुस्कुराते हुए लेकिन दृढ संकल्प के साथ करें तो साप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी.    
sahara (hastakshep)

Thursday 15 August 2013

पी एम बनाम मोदी: दो भाषणों के आधार पर राय बनाना अनुचित


आपके सामने एक तथ्य दो तरह से रखे जा रहे है. एक व्यक्ति दबी , थकी दीखने वाली आवाज में  कहता है “आज मिड-मील कार्यक्रम में ११ करोड़ स्कूली बच्चों को दोपहर का भोजन दिया जा रहा है”. दूसरा बुलंद आवाज में तन कर कहता है “आज मिड-डे मील का भोजन देश के नैनिहालों की थाली में हीं नहीं जाता बल्कि उनके दिमाग में को भी मजबूत करके उन्हें शिक्षा की ओर ले जाता है”. कहना नहीं है कि कौन जनता में ज्यादा अपील करेगा.

यही है प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गुजरात के मुख्मंत्री नरेन्द्र मोदी (भारतीय जनता पार्टी के भावी प्रधानमंत्री?) के भाषणों का मूल अंतर. एक भाव –शून्य है दूसरे में भावना का अतिरेक. मीडिया में आजकल एक जुमला चलता है “जो बिकता है वो दिखता है “ . चुनावी राजनीति में यह जुमला आज दोनों भाषणों के बाद चलेगा --- जो दीखता है वह वोट भी लाता है.

प्रश्न दो हैं. प्रजातंत्र की कुछ मर्यादाएं हैं. स्वतन्त्रता दिवस और गणतंत्र दिवस ऐसे अवसर हैं जिन पर राजनीति कम से कम उसी दिन “उसका सुनो और फिर मेरा सुनो” के भाव में नहीं की जाती. २४ घंटे बहुत ज्यादा नहीं होते. लेकिन मोदी ने एक दिन पहले हीं ताल ठोकना शुरू कर दिया. और एक घंटे बाद हीं अपने भाषण में “उनका और मेरा” का द्वन्द परवान चढ़ गया. देश को मोदी ने अपील किया लेकिन प्रजातंत्र की गरिमा पर आंच आई. भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवानी ने इसे अच्छा नहीं माना क्योंकि ६६ साल की राजनीतिक मर्यादा का उन्हें भान था. लेकिन कहा गया मोदी की सफलता से उखाड़े हुए हैं.

देश की जनता को अपनी तर्क शक्ति और बेहतर करना होगा. लच्छेदार भाषण जिस में तार्किक दोष हों लेकिन जो भावातिरेक पैदा करनेवाले शब्दों के जरिये उबाल लाता हो, से बचना जरूरी है. हम परिपक्व हो रहे हैं. प्रजातंत्र में तथ्यों को अगर हम आज भी उसके फेस वैल्यू पर लेते रहेंगे तो कहीं मंदिर-मस्जिद, “छप्पन इंच छाती” “दूध में दरार नहीं ” “सीमापार वालों सुन लो “ सरीखे जुमले हमें बहा ले जायेंगे. और हम स्थतियों की  सम्यक विवेचना नहीं कर पाएंगे. और तब कोई लालू चरवाहा बताकर कोई मुलायम “परिंदा पर नहीं मार सकता” कह कर और कोई मायावती “तिलक –तराजू “ या “चार जूते” की बात कह कर हमें बरगलाते रहेंगे.

तर्क-शास्त्र में एक और दोष का वर्णन है. संवाद में “अपने मतलब का तर्क –वाक्य लेना और बाकी सब छोड़ देना”. मोदी ने मनमोहन सिंह पर आक्षेप लगते हुए इसका तार्किक दोष का भरपूर उपयोग किया है. उदाहरण के तौर पर उनका कहना “नेहरु से मनमोहन सिंह ने आज तक उन्हीं कमजोरियों का जिक्र किया है . क्या किया कांग्रेस ने इतने सालों तक? ”. तथ्य यह है कि प्रधान मंत्री ने नेहरु के समय आधुनिक भारत, इंदिरागांधी के समय हरित क्रांति , राजीव गाँधी के समय टेक्नोलॉजी , नरसिंह राव के समय आर्थिक उदारीकरण और वर्तमान में मंनरेगा आदि का भी जिक्र किया. वह मोदी के तर्क का भाग नहीं बना. उसी तरह मोदी ने कहा कि अगर प्रधानमंत्री वैश्विक मंदी को आज की भारत की आर्थिक विकास की धीमी गति का कारण मानते हैं तो राज्यों में हो रही दिक्कतों के लिए भी केंद्र जिम्मेदार है”. बिलकुल सही पर अगर प्रधानमंत्री यह भी बता रहे हैं कि देश में २५.९ करोड़ टन खाद्यान का रिकॉर्ड उद्पादन हो रहा है तो श्रेय किसी मोदी या अन्य चीफ मिनिस्टर को हीं क्यों जाना चाहिए? फिर मोदी क्यों गुजरात में होने वाले कृषि विकास के लिए केवल अपनी पीठ ठोक रहे हैं? मनमोहन सिंह ने तो यह भी कहा कि देश में बाल मृत्यु दर और मातृ-मृत्यु दर कम हुआ है क्या मोदी यह भी अपनी चर्चा में लायेंगे कि उनके यहाँ ये दरें राष्ट्रीय औसत से कम क्यों रही हैं?

मोदी मंच के जादूगर हैं. शब्दों का चयन, भावातिरेक , विपक्षी के तर्क-वाक्यों से अपने मतलब के वाक्य उठा कर उन पर खेलने में उनका मुकाबला नहीं है.

यहाँ कहने का मतलब यह नहीं है कि देश में सब कुछ अच्छा हो रहा है. लेकिन जनमत अगर एक ८० साल के भाषण कला में अनिपुण मनमोहन के भाषण और दूसरी तरफ एक भाषण कला में पारंगत तथाकथित युवा दिखने वाले मोदी के बरअक्स करके बनने लगेगा तो खतरा दूसरा है. हिटलर भी अपने भाषणों से जन मानस उद्वेलित करता था. नतीजा सबके सामने है.

खाद्य सुरक्षा कानून की बात लें. यह एक एनेबलिंग प्रोविजन  (जनता को खाद्य का अधिकार देने वाला कानून है). जिसका फ़ायदा ८१ करोड़ गरीब जनता को मिलेगा. जनता दावे से कह सकती है कि सस्ता भोजन हमारा कानूनी अधिकार है. इसमें गरीबी की सीमा रेखा के नीचे रहने वालों (बी पी एल) और उसके ऊपर के लोगों (ए पी एल) का अंतर ख़त्म कर दिया गया है.  इसकी खामियों को उजागर करना बिलकुल ठीक है पर इतने बड़े जन-हित के कानून में, जो दुनिया में इतने व्यापक स्तर पर पहला है)  बुराई महज इस आधार पर करना क्या उचित है कि इसमें परिवार को इकाई न मान कर व्यक्ति को माना गया है या इसमें मात्र पांच किलो अनाज से गरीब का पेट नहीं भरेगा? पहले शुरू तो हो और पहले बिना भ्रष्टाचार के यह अमल में तो आये. इस कानून के बारे में यह कहना कि यह “गरीबों की खाली  थाली में नमक और तेज़ाब डाल रहा है” राजनीतिक कुतर्क से अधिक कुछ भी नहीं.      

इसका यह भी मतलब नहीं है कि मोदी में अच्छे शासक के गुण नहीं हैं. मोदी विकास के सभी आयामों से पूरी तरह से वाकिफ हीं नहीं है उन्हें अमल में लाने की क्षमता भी रखते हैं. मोदी की ईमानदार छवि पर अभी तक कोई आंच नहीं आई है और आज की जन-आकान्छाओं में सबसे बलवती है “राजनीतिक व्यक्ति की ईमानदार छवि”. साथ हीं जनता सक्षम नेतृत्व (जिसका मनमोहन सिंह में अभाव रहा है), विकास का संवाहक और “भ्रष्टाचार के खिलाफ शून्य –सहिष्णुता” अपने नेता में देखना चाहती है. वह यह भी चाहती है कि आतंकवाद और पाकिस्तान की हरकतों के खिलाफ जबरदस्त प्रहार की क्षमता नेतृत्व में होना चाहिए. दरअसल इन चारों का नितांत आभाव मनमोहन सिंह के नेतृत्व में उसे दिखा. ये चारों अपेक्षाएं उसे वर्तमान राजनीतिक वर्ग में सिर्फ मोदी में मिलती हैं.

लेकिन एक समुन्नत प्रजातंत्र में फैसला महज दो नेताओं के पक्ष-विपक्ष के भाषण से लेना खतरनाक हो सकता है. जनता को अपनी तर्क-शक्ति का , भाव-शून्य तथ्यों का और नेताओं और पार्टियों का ट्रैक-रिकॉर्ड देख कर किया जाना चाहिए. 

Tuesday 13 August 2013

सत्ताधारियों का यह कैसा कुतर्क


 
गीता के अध्याय २ के ६२वें और ६३ वें श्लोकों में व्यक्ति के पतन की आठ चरणों में (ध्यायतो ....... बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ) क्रमवार विवेचना की गयी है और आखिरी श्लोक में कहा गया है कि जब अंत में उसकी बुद्धि का ह्रास होने लगे तो पतन सन्निकट होता है. भारतीय राजनीतिक वर्ग, खासकर सत्ताधारी समूह में लगता है बुद्धि का लोप हो रहा है. तुलसी ने प्रभुता पाने पर मदांध होने की बात तो कही थी लेकिन बुद्धि का लोप क्यों होता है इसे समझने के लिए गीता को देखना होगा. यह अलग बात है कि  मदांध होना और बुद्धि खोना एक हीं सिक्के के दो पहलू हैं. देश में हाल में हुई कुछ घटनाओं में सत्ता पक्ष या उससे जुड़े पार्टियों व् नेताओं ने जिस तरह अहम् मुद्दों पर अपने भौंडे तर्क से अपने को सही सिद्द करने की कोशिश की है उससे लगता है जनता के प्रजातंत्र पर विश्वास का आखिरी अवलंबन भी टूट रहा है.

कुछ ताज़ा उदाहरण लें. जम्मू राज्य के किश्तवार साम्प्रदायिक दंगे होते हैं. राज्य का गृह राज्य मन्त्री चंद क़दमों की दूरी पर होता है. हिंसक भीड़ घरों व दूकानों को जलाती है लोगों को हत्या करती है और सेना बुलाने की घंटों बाद भी कोई कोशिश मंत्री महोदय नहीं करते. मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्लाह महज इस मंत्री से इस्तीफा लेकर विजयी भाव से ट्वीट करते हैं मैंने तो इतना कर दिया लेकिन गुजरात के दंगों के बाद वहां के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने क्या किया? गुजरात में तीन दिन तक क्यों सेना नहीं बुलाई गयी?”. लगता है कि यह कर कर उन्होंने अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली. इस का यह भी भाव है कि अगर मोदी गलत हैं तो ओमर साहेब को भी जन्म-सिद्ध अधिकार मिल जाता है कि अपने यहाँ भी वही सब कुछ होने दें. जब इस कुतर्क से मन नहीं भरा तो सत्तावर्ग  ने आगे कहा वहां जो कुछ भी हो रहा है वह भारतीय जनता पार्टी राजनीतिक लाभ के लिए करा रही है”. अगर मुख्यमंत्री या इस्तीफा देने वाले गृह-राज्य मंत्री किचलू की बात को सत्य भी माना जाये तो क्या इसका मतलब यह नहीं निकलता कि अगर कोई राजनीतिक पार्टी दंगे करा रही है तो क्या सरकारों का दामन साफ़ हो जाता है और लाशों के खून का कोई भी छींटा उनके दामन को छू भी नहीं सकता. यह अलग बात है कि उनका आरोप बेहद झूठा तब साबित होता है जब देश के पूर्व गृहमंत्री चिदंबरम स्वयं संसद में अपने बयान में कहते हैं कि कुछ लोग भारत विरोधी नारे लगते नमाज़ पढने जा रहे थे जिस पर यह घटना घटी. अब चिदंबरम साहेब का अगला बयान देखिये. उन्होंने कहा ऐसे नारे कुछ गुमराह और गर्म-दिमाग के लोग अक्सर वहां  पहले भी लगाते रहे हैं”. प्रश्न यह है कि अगर इस तरह के राष्ट्र विरोधी नारे अक्सरलगते रहे हैं तो वहां का शासक वर्ग क्या कभी कोई सख्त कदम उठा सका है. अगर नहीं तो किसकी गलती है?

एक अन्य उदहारण लें. बिहार के नवादा जिले में दंगे हो रहे हैं. राज्य का सत्ताधारी दल फिर उसी कुतर्क का सहारा ले कर आरोप लगा रहा है कि एक षड्यंत्र है और एक राजनीतिक पार्टी राज्य में सम्प्रदाय के आधार पर ध्रुवीकरण करना चाहती है”. इनका इशारा भारतीय जनता पार्टी की ओर है. अगर भारतीय जनता पार्टी दंगे करने वाली पार्टी है तो १७ साल तक जनता दल (यू) इसका कंधे पर बैठ कर क्यों चुनाव लडती रही और शासन करती रही? फिर अगर कोई राजनीतिक पार्टी दंगे करा रही है तो जम्मू में या नवादा में इनके लोगों को अभी तक जेल क्यों नहीं भेजा गया. पूरी पुलिस, राज्य की खुफिया एजेंसी और केंद्र का इंटेलिजेंस ब्यूरो क्या कर रहा था. क्या शासक का कर्तव्य सिर्फ इतना हीं है कि दंगा होने का बाद वह यह बताये कि दंगा किस राजनीतिक पार्टी ने कराया?

यह वही बिहार है जहाँ के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और शिक्षा मंत्री पी की साही ने मिड-डे मील खाकर मरने वाले २३ बच्चों की घटना पर चार घंटे में हीं ऐलान कर दिया जिसने खाने में जहर डाला है वह राष्ट्रीय जनता दल का कार्यकर्ता है. याने कि अगर अगर कोई कार्यकर्ता हत्यारा है तो राज्य की भूमिका इस तरह के अपराध में नहीं रह जाती है?

अपराध-शास्त्र का एक मूल सिद्धांत है आरोप का जवाब आरोप नहीं होता”. मतलब अगर चोर से यह पूछा जाये कि तुमने चोरी क्यों की तो वह यह कह कर नहीं बच सकता कि दूसरे चोर ने चोरी क्यों की? यहाँ सत्ता वर्ग इसी तार्किक दोष का इस्तेमाल लगातार कर रहा है. वह चाहे किस्तवार में दंगा हो या बिहार में बच्चों की मौत की घटना हो. 

एक और घटना लें. कांग्रेस नेता और देश की सबसे ताकतवर महिला सोनिया गाँधी के दामाद पर जमीन के फर्जी खरीद-फरोख्त में करोड़ों का वारा-न्यारा करने का आरोप लगा है. संसद में हंगामा हो रहा है क्योंकि इस घोटाले की जाँच नहीं कराई जा रही है. कांग्रेस के रणनीतिकार इसका जवाब देने की जगह इस बात की खोजबीन कर रहे है कैसे कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी के शासन काल में खदानों के बंटवारे में घोटाला हुआ था ताकि विपक्ष को मुहतोड़जवाब दिया जा सके.

क्या हो गया है सत्ता में बैठे लोगों को? इतने बड़े-बड़े घोटालों और निष्क्रियता-जनित या आपराधिक उनीदेपन से पैदा हुई हिंसा को इस तरह उसकी कमीज़ मेरे कमीज़ से ज्यादा गन्दी हैरुपी कुतर्कों के सहारे सही सिद्ध किया जाएगा?

वाड्रा पर जमीन घोटाले के मामले में बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती का तर्क सुनिए. मुझे लगता है कि सोनिया गाँधी पर आरोप लगना गलत है. जिसने गलती की है उसके खिलाफ कार्रवाई तो ठीक है पर कोई रिश्तेदार अगर राजनीति में है तो इसका मतलब यह नहीं कि उस पर हीं आरोप लगाया जाये”. याने अगर मायावती के भाई और अन्य रिश्तेदार घपला करें तो मायावती उसमे दोषी नहीं. तब फिर मुलायम पर यह आरोप क्यों कि इनके बेटे और बहु के पास ज्ञात स्रोतों से अधिक पैसा है तो मुलायम दोषी. फिर क्यों चारा घोटाले में फंसे लालू यादव ठीक तब जब वर्षों बाद फैसला आने की घडी होती है तो सर्वोच्च न्यायलय में गुहार लगाते हैं कि चूंकि जज राज्य के एक मंत्री का रिश्तेदार है लिहाज़ा नयी अदालत गठित की जाये क्योंकि इन्हें उस जज से न्याय नहीं मिलेगा. यह अलग बात है सर्वोच्च अदालत ले उनकी अपील ख़ारिज कर दी है.  

सीमापार से हुई हिंसा में भारतीय सैनिकों की मौत होती है, कुछ दिन पहले सर काटा जाता है. संसद में जब मुद्दा उठाता है तो मनमोहन सरकार आंकड़े लेकर विजयी भाव से यह बताने लगती है उसका भारतीय जनता पार्टी के शासन काल में कितने सैनिक मरे या कितने घटनाएँ सीमा पार से हुई जो कि उनके हिसाब से वर्तमान शासन में होने वाली सैनिकों की हत्याओं से ज्यादा हैं. जैसे वर्तमान यू पी ए सरकार को कोई लाइसेंस मिल गया हो और वह यह समझती हो कि जब तक संख्या वाजपेयी सरकार के संख्या तक नहीं पहुंचती सीमा पर से होने वाली गोलीबारी से भारतीय सैनिकों के मरने पर कोई चिंता की बात नहीं है. संख्या बढ़ेगी तब देखेंगे. जब समूचे देश का जनमानस जबरदस्त ढंग से उद्वेलित हो इस तरह का सरकारी बचाव तीन हीं स्थितियों में हो सकता है. एक; वर्तमान सत्ता वर्ग प्रजातान्त्रिक शर्म-ओ-हया व संसदीय जवाबदेही को भूल गया हो, दो; वह देश की जनता की समझ को ठेंगा दिखा कर यह सोच रहा हो कि क्या कर लोगे?” और तीसरा : उसकी बुद्धि का पूरी तरह ह्रास हो रहा हो यानि मरने की कगार पर हो.

आज ख़तरा यह नहीं है कि सत्ता उसकी और अपनी कमीज़ की गन्दगी) के आधार पर सत्ता में बने रहने का दुरौचित्य सिद्ध कर रहा है. ख़तरा यह है कि इस पूरे प्रजातान्त्रिक व्यवस्था पर जिसे संविधान में हम भारत के लोगसे शक्ति मिली है देशवाशियों का विश्वास तिल-तिल कर के टूट रहा है.
rajsthan patrika

पाकिस्तान को लेकर क्या मीडिया उन्माद पैदा करता है ?



मीडिया पर आरोप लगना इस बात का प्रमाण है कि प्रजातंत्र में इसकी भूमिका बढ़ रही है. आम जनता का शिक्षा स्तर, आर्थिक मजबूती और तार्किक शक्ति बढ़ने पर डिलीवरी करने वाली संस्थाओं से, वे औपचारिक हो या अनौपचारिक, अपेक्षाएं भी बढ़ती हैं. ऐसे में लाज़मी है कि जब संस्थाएं जन-अपेक्षाओं पर उतनी खरी नहीं उतरतीं तो आरोप लगते हैं. जो ताज़ा आरोप मीडिया पर लग रहें हैं उनमें प्रमुख है भारत-पाकिस्तान सीमा पर हुई ताज़ा घटनाओं पर न्यूज़ चैनलों में होने वाले स्टूडियो डिस्कशन को लेकर. यह माना जा रहा है कि मीडिया पाकिस्तान को लेकर जनाक्रोश को हवा दे रही है और देश को युद्ध के कगार पर धकेल रही है याने यह भाव पैदा कर रही है कि जो इस आक्रोश में शामिल नहीं वह राष्ट्रीयता के खिलाफ है.

भारत की मीडिया पर आरोप पहले भी लगते रहे हैं और हकीकत यह है कि मीडिया इन आरोपों का संज्ञान भी लेती रही है भले हीं इसका प्रचार वह ना करती हो. मीडिया में एक सुधारात्मक प्रक्रिया बगैर किसी शोर –शराबे के चल रही है. यही वजह है कि आज से चार साल पहले जो न्यूज चैनल शाम को भी प्राइम टाइम में ज्योतिषी , भूत-भभूत और भौडे मनोरंजन के कार्यक्रम परोश रहे थे आज जन-मुद्दों को उठा रहे हैं , उनपर डिस्कशन करा रहे है. उनका यह हौसला तब और बढ़ने लगा जब  दर्शकों के एक वर्ग ने मनोरंजन के भौंडे कार्यक्रमों से हट कर इन स्टूडियो चर्चा को देखना शुरू किया. दरअसल इस परिवर्तन के लिए दर्शक स्वयं बधाई के पात्र हैं.

ऐसे में मीडिया की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने बेहद जनोपादेय स्टूडियो डिस्कशन को गुणात्मक तौर पर बेह्तार करे. प्रजातंत्र में इन चर्चाओं के जरिये मीडिया जन चेतना को बेहतर करती है लोगों की पक्ष-विपक्ष के तर्कों को सुन कर फैसले लेने की क्षमता बढाती है और जन-धरातल में मूल-मुद्दों पर भावना-शून्य पर बुद्धिमत्तापूर्ण संवाद का मार्ग प्रशस्त करती है. प्रजातंत्र में शायद मीडिया की ऐसी  भूमिका पहले देखने को नहीं मिलती थी.

लेकिन एक डर जरूर इन आरोपों को निरपेक्ष भाव से देखने पर मिलता है. कहीं मीडिया इन मुद्दों पर परस्पर विरोधी तथ्यों को देने के नाम परस्पर-विरोधी राजनीतिक दलों के लोगों को बैठा कर खाली “तेरे नेता, मेरा नेता, तेरा शासन मेरा शासन “ का तमाशा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री तो नहीं मान ले रही है? अगर ऐसा है तो जो दर्शक मनोरंजन का भौंडा मजाक छोड़ कर न्यूज़ चैनलों को तरफ मुड़े है वे जल्द हीं मानने लगेंगे कि अगर यही देखना है तो “द्व्यार्थक भौंडे मजाक में क्या बुराई है”. लिहाज़ा मीडिया में स्टूडियो डिस्कशन को लेकर खासकर इसके फार्मेट को लेकर एक बार गहन विचार की ज़रुरत है. शालीन, तर्क-सम्मत, तथ्यों से परिपूर्ण चर्चा किसी शकील-लेखी झांव-झांव से बेहतर होगी. फिर यह भी सोचना होगा  कि क्या जिन राजनीतिक लोगों को इन चर्चाओं में बुलाया जाता है वे स्वयं अपनी पार्टी की नीति और तथ्यों से पूरी तरह वाकिफ होते भी हैं या वे केवल लीडर –वंदना कर अपने नेता की नज़रों में अपना नंबर बढाने आते हैं.

दूसरा क्या जिन विषयों का चुनाव किया जाता है वे उस दिन के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे होते हैं. क्या यह सच नहीं कि गरीबी , अभाव, अशिक्षा और राज्य अभिकरणों के शाश्वत उनींदेपन को लेकर ग्रामीण भारत की समस्याएँ इन चर्चाओं का मुख्य मुद्दा बनाने चाहिए? मोदी ने क्या कहा, मुलायम कब पलट गए सरीखे मुद्दों से ज्यादा ज़रूरी है कि सत्ता पक्ष को यह बताया जाये कि देश में शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति इतनी दयनीय क्यों है और क्यों जहाँ विश्व में धनाढ्य लोगों की लिस्ट में भारत के लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है वहीं गरीबी –अमीरी की खाई भी.     

लेकिन इसका यह मतलब यह नहीं कि मीडिया की वर्तमान भूमिका को सराहा न जाये. क्या यह सच नहीं है कि अन्ना आन्दोलन पर मीडिया की भूमिका सामूहिक जन-चेतना में गुणात्मक परिवर्तन लाने के लिए अप्रतिम रही? क्या यह सच नहीं कि शीर्ष पर बैठे सत्ता पक्ष के भ्रष्टाचार के मामलों को उजागर करने में मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण रही? क्या बलात्कार को लेकर सरकार के उनीदेपन से झकझोरने में मीडिया की भूमिका नज़रअंदाज की जा सकती है?  

लेकिन तब आरोप लगता है कि मीडिया “कैंपेन पत्रकारिता” कर रही है जिसका मतलब वह “बायस्ड” है. दरअसल आरोप लगने वाले यह भूल जा रहे हैं कि एक ऐसी शासन व्यवस्था, जो जन-संवादों को ख़ारिज करने का स्थाई भाव रखती हो, को जगाने में शुरूआती दौर में ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है.

सीमा-पार से हुई हाल की घटनाओं को लें. यह बात सही है कि पडोसी देश को लेकर भारत में एक अलग संवेदना है. इसके पीछे १९४७ से लेकर आज तक के अनचाहे युद्ध का इतिहास रहा है. क्या यह सच नहीं है कि १९८० से लेकर आज तक पाकिस्तान छद्म लेकिन निम्न तीव्रता (लो इंटेंसिटी ) का युद्ध करता रहा है और पाकिस्तान इंटेलिजेंस एजेंसी -- आई एस आई --भारत में आतंकी घटनाओं का जिम्मेदार आज भी है? स्वयं इस एजेंसी के मुखिया जावेद अशरफ काजी ने पाकिस्तान के सीनेट में सन २००३ में कबूला कि कश्मीर में हीं नहीं भारत में के पार्लियामेंट पर हमले में, विदेशी पत्रकार डेनियल पर्ल की हत्या में और मुशर्रफ पर हमले में जैस और जमात का हाथ रहा है. इसका उल्लेख स्वयं पाकिस्तान के लेखक अहमद रशीद ने अपनी किताब “पाकिस्तान, पतन के कगार पर” में बे लाग-लपेट किया है.

पाकिस्तान को लेकर हाल में चैनलों में हुई चर्चाओं को लेकर कहा गया कि मीडिया स्वयं “युद्ध की भाषा” बोलने लगा. दरअसल यह आरोप इसलिए लगा कि कुछ एंकर तटस्थता का भाव न रख कर स्वयं एक पक्ष के वकील होते दिखे. शायद मीडिया से अपेक्षा यह रहती है कि एंकर किसी पक्ष का नहीं होता बल्कि वार्ता को आगे बढाने की हीं भूमिका में होता है, बगैर अपना संयम और धैर्य खोते हुए. लेकिन ध्यान रखे कि हाल हीं में सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कई बार सत्य उजागर कराने के लिए भी जज उग्र भाव या ऐसे आक्षेप एक या दूसरे पक्ष पर मौखिक रूप से लगाते हैं. इसका मतलब यह नहीं होता कि वे फैसला दे रहे हैं. फिर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इन चर्चाओं में सभी पक्ष के लोगों का समावेश होता है. लिहाज़ा दर्शकों को हर पक्ष का तर्क परोस दिया जाता है. फैसला उन पर छोड़ दिया जाता है.
अगर सीमा पर हुई गोलीबारी में भारत के पांच सैनिक मारे जाते है और फिर भी देश के प्रतिरक्षा मंत्री संसद में अपने बयान में सेना के औपचारिक बयान को बदल कर “पाकिस्तानी सैनिकों की वर्दी पहने” के भाव में रहते हैं तो मीडिया को कुछ “एक्स्ट्रा मील” चलना पड़ता है शासक वर्ग को सचेत करने और जन-भावना से अवगत करने के लिए. इसका मतलब यह नहीं होता कि मीडिया युद्ध कराने में दिलचस्पी रखता है. यह इसलिए होता है कि अन्ना-आन्दोलन को लेकर सरकार शुरू में “जंतर –मंतर पर ऐसे आन्दोलन तो रोज हीं होते हैं” के भाव में रही या दिसम्बर १६ के बलात्कार को लेकर पहले दिन  “डिनायल मोड” में रही. यह मीडिया का दबाव या “कारपेट कवरेज” था जिसने सरकार को रवैया बदलने को मजबूर किया.    

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