भारतीय समाज में एक बड़ा भ्रम-द्वन्द चल रहा है.
एक भारत है जिसमें अशिक्षा, अज्ञानता, गरीबी, अतार्किकता और इन सबसे पैदा हुआ
मनोविकार सामाजिक व्याधि का भयंकर स्वरुप ले रहा है और दूसरी और उन्मुक्ति की बयार
के तहत नारि-स्वतन्त्रता से उद्भूत तर्क यहाँ तक आ गया है कि कम कपडे पहनने से अगर
कामुकता बढ़ती है तो वह देखने वाले का दोष है. जावेद अख्तर साहेब ने संसद में
पश्चिमी देशों की संस्कृति का हवाला देते हुए यह सवाल दागा कि वहां के खुलेपन से
बलात्कार की घटनाएँ क्यों नहीं बढ़ती हैं. जावेद साहेब के तर्क में एक दोष यह है कि
बदलाव को जरूरी नहीं कि हर समाज एक हीं भाव से ले. गाँव से नौकरी करने आया
अशिक्षित युवा अपराध करके जब अपने गाँव में किसी रिश्तेदार के यहाँ छिपता है तो
उसे लगता है कि अब कोई पकड़ नहीं सकता क्योंकि जिस शहर में उसने अपराध किया है वहां
शायद हीं कुछ लोग उसे पहचानते है और बिरले हीं उसके घर का पता जानते हैं. उसे नहीं
मालूम कि मीडिया, शहरी जनाक्रोश और इस तरह के अपराध के प्रति जबरदस्त प्रतिक्रया
स्थिति को कितना गंभीर बना देगी.
इस समस्या को दो तरह से देखने की ज़रुरत है. पहला,
क्या देश में अपराध न्याय प्रणाली ठीक काम कर रही है? दूसरा, क्या सामाजिक व्याधि
का स्वरुप धारण करने वाली इस समस्या को महज क़ानून और न्याय –पध्यति की समस्या मान
कर समाधान किया जा सकता है या नैतिक-मूल्यों की पुनर्स्थापित का जबरदस्त प्रयास करने की ज़रुरत आ पड़ी है. शायद
दोनों बातें एक साथ अमल में लाने से हीं समस्या का निदान संभव है.
उदाहरण के तौर पर लें. पिछले ४० सालों में
बलात्कार के मामले में सजा की दर ४७ प्रतिशत से घट कर २३ प्रतिशत पर आ गयी है.
याने हर चार बलात्कार के आरोपियों में से
तीन छूट जाते हैं. ध्यान देने की बात यह है कि चूंकि भारत में बलात्कार कलंक के
रूप में लिया जाता है इसलिए बलात्कार की शिकार महिलायों में से बेहद कम हीं अदालत
का दरवाजा खटखटाती हैं. जब चार में तीन बलात्कारी छूट जायेंगे तो इन महिलाओं और
उनके परिवार की क्या स्थिति होगी यह समझना मुश्किल नहीं है.
जस्टिस मलिमथ समिति की रिपोर्ट में और सर्वोच्च
न्यायलय के कई फैसलों में कहा गया है कि इस किस्म के अपराधों में जजों को अपना
नज़रिया बदलना होगा और “तार्किक सन्देह से
परे दोष-सिद्धि” (प्रूफ बियॉन्ड रिज़नेबल डाउट) के सिद्धांत की जगह “संभाव्यताओं का
बाहुल्य” (प्रेपोंडेरेंस ऑफ़ प्रोबबिलिटीज) के सिद्धांत को अंगीकार करना होगा.
जस्टिस मलिमथ ने एक बीच का रास्ता सुझाया और वह था --- “स्पष्ट और सुगम” (क्लीन
एंड कन्विन्सिंग) का सिद्धांत. लेकिन शायद अदालतों ने अभी भी पुराने सिद्धांत पर
हीं चलना जारी रखा. नतीजा यह हुए कि बलात्कार की शिकार महिला और उसके परिवार का
विश्वास इस सिस्टम से उठता गया और दूसरी और बलात्कारी भी यह समझने लगा कि मामा के
घर चला जाएगा तो कौन पकड़ पायेगा या पकड़ा
भी गया तो मेडिकल सर्टिफिकेट लगा कर या गवाहों को धमका कर बच जायेगा.
देश की राजधानी में हुए घृणित बाल-बलात्कार
काण्ड के साथ कुछ और अपराध पर नज़र डालें. दिल्ली में हीं पुलिस के एक कांस्टेबल ने
रोज-रोज के झगड़े से तंग आ कर गुस्से में पहले अपने बाप को और फिर बचाने आई माँ को
चाकू से मार कर बगल के प्लाट में फ़ेंक दिया. मेरठ के पास एक कस्बे में दो रुपये के
लिए एक दुकानदार को एक व्यक्ति ने गोली मार दी. दिल्ली में एक कार दूसरी कार से
आगे निकल गयी तो पीछे वाले ने दौड़ा कर उस कार वाले को रोका और साथियों के साथ मिल
कर जम कर पिटाई की. बिहार में एक मानसिक रूप से बीमार औरत को डायन मान कर
गांववालों ने पत्थरों से मार कर ख़त्म कर दिया था क्योंकि उन सभीं का मानना था कि
यह डायन पूरे गाँव को खाने आई है.
भारतीय समाज बीमार है. सेक्स-हिंसा की घटनाएँ
कोई अचानक नहीं बढ़ गयीं हैं. केवल इसका जन धरातल पर आना और इसके प्रति जागरूकता
(मीडिया के कवरेज की वजह से) बढ़ गया है. जो कांस्टेबल अपने माँ-बाप को चाकू से मार
कर बगल के प्लाट में फ़ेंक देता है उसे भारतीय दंड संहिता (आई पी सी) के धारा ३०२
के बारे में मालूम था. उसे यह भी मालूम था कि बगल के प्लाट में शवों को फेंकने से
वह बाख नहीं सकता. दो रुपाई के लिए गोली मारने वाला भी जानता था कि गोली की कीमत
तीस रुपये से कम नहीं है. पत्थर मारने वाले ग्रामीणों को कहीं नहीं लगा कि वे कोई
गलती कर रहे है. शायाद वो गाँव को “बचा” रहे थे डायन से. अगर सहज में हीं शराब और आसानी से मोबाइल में पोर्नो फिल्म
मोबाइल पर डाउनलोड की जा सकती है तो उसकी परिणति गीता के श्लोक पढने में नहीं होगी
यह बात उन लोगों भी मालूम होनी चाहिए जो कड़े कानून बनाने की बात कर रहे हैं.
समाज की बीमारी के लिए भी सरकार को दोष देना,
राज्य-अभिकरणों को कोसना और कानून-दर –कानून बना कर उसका हल खोजना अभिजात्य वर्ग
की आदत हो गयी है. और यह रास्ता इस वर्ग के लिए आसान भी पड़ता है कि इंडिया गेट पर
कुछ मोमबत्ती जलाओ, नारे लगाओ और पुलिस “हाय-हाय” करो. हर घर में नैतिक शिक्षा की
बात और गाँधी पैदा करने की सलाह देने का माद्दा ना तो राजनीतिक वर्ग में है ना हीं
इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलने वालों में. क्योंकि तब तो उन्हें भी अपने को बदलना
पडेगा. लेकिन कहने का आशय यह नहीं है कि
सिस्टम पर दबाव ना बनाया जाये और पुलिस को दो हज़ार रुपये दे कर मामले को दबाने की
छूट दे दी जाये. इंडिया गेट पर जो हो रहा है वह बिलकुल सही है पर सिर्फ उससे या
बलात्कारी को फांसी देने के प्रावधान बना देने से समस्या का निदान नहीं हो सकता.
अगर होता तो घरेलू झगडे में कांस्टेबल माँ-बाप की चाकू से ह्त्या ना करता ना हीं
दो रुपये के झगडे में दुकानदार की जान जाती.
एक पुराने आंकलन के अनुसार दुनिया में तीन करोड़
तीस लाख कानून हैं और हर साल कुछ हज़ार कानून और जुड़ जाते है पर ह्त्या, बलात्कार
या अन्य हिंसा की घटनाएँ घटी नहीं बल्कि बढ़ी हैं.
विज्ञापन में जब एक ख़ास पाउडर लगाये युवक के
पीछे अर्ध-नग्न युवतियां भागती हैं तो शहर में तथ्य को समझाने वाला युवक पाउडर
खरीदता है पर गाँव से आया कम जानकारी रखने वाला युवक लड़कियों को “ऐसे होती हैं
यहाँ की लड़कियां” के भाव में देखने लगता है और तब अगर वह कंडक्टर या ड्राइवर या
खलासी है तो इन्हें “शिकार” समझ लेता है. दो अलग-अलग समझ व वैल्यू सिस्टम के बीच इस खाई
को जल्द पाटना होगा. कानून का खौफ और नैतिक शिक्षा दोनो की जरूरत है और साथ हीं इस
दो संस्कृतियों के तहत पनपने वाली समझ (परसेप्शन) के बीच की खाई को भी पाटना होगा.
bhaskar