Thursday 8 May 2014

मोदी को व्यापक व्यक्तित्व का स्वामी होना पडेगा


अगर मीडिया मैं हिम्मत हो तो राहुल गाँधी से अमेठी के विकास के बारे में सवाल पूछे”. “ये तो न्यूज़ ट्रेडर” हैं”. “चुनाव आयोग की निष्पक्षता संदिग्ध है” . “जितने दिग्गज पत्रकार बैठे थे निहथ्थे होगये जब मेरी छोटी बहन स्मृति ईरानी ने अमेठी के बारे में तथ्य देना शुरू किया”. “आपकी गलती नहीं है ये न्यूज़ ट्रेडर की मानसिकता है”.
उपरोक्त कुछ वक्तव्य भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रधानमंत्री के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी के हैं. इनमें मोदी ने देश की दो संस्थाओं --मीडिया और चुनाव आयोग – की नीयत पर कीचड़ उछाला और उन्हें बौना दिखाया.
भाषण और वितंडावाद (डेमागागी) में अंतर होता है. चौराहे पर मदारी का खेल दिखने वाला “पापी पेट के वास्ते” का इमोशनल तर्क दे कर जमूरे की नाच का औचित्य ठहराता है. और दर्शकों ना केवल बंधे रहता है बल्कि खेल के बाद पैसे भी लेता है. मोदी ने अमेठी में कहा “ मैं यहाँ किसी को बुरा –भला कहने नहीं आया हूँ. अमेठी का ऐसा विकास करूंगा कि गुजरात के इंस्टिट्यूट यहाँ सीखने आयेंगे”. “भाइयों और बहनों , क्या गरीब माँ के गर्भ में पैदा होना गुनाह है?”. “अरे, अमेठी के लोगों को कम से कम एक शौचालय तो दे देते”. “चालीस साल से तीन की तीन पीढियां बर्बाद हो गयी और उनके सपनों को चूर-चूर करदिया”. “कहती हिं स्म्मृति कौन है?” भारत माँ के लाल से यह पूछने का तुम्हें किसने दिया अधिकार”?”
तर्क -शास्त्र में दो तरह के दोष होते हैं –औपचारिक और अनौपचारिक. मोदी ने दोनों का बखूबी इस्तेमाल किया अपने भाषणों में. अमेठी में एक दर्ज़न से ज्यादा देश के प्रमुख संस्थान और कारखाने केंद्र की मंज़ूरी और धन से लगाए गए हैं पर मोदी एक शौचालय को लेकर जार-जार रोये. उन्होंने कहा कि वह किसी की बुराई करने नहीं आये पर ४५ मिनट के वितंडावाद रुपी भाषण में ३० मिनट तक सोनिया, राहुल, प्रियंका और स्वर्गीय राजीव गाँधी की लानत-मलानत करते रहे.
संस्थाओं को ढाहना और उन पर इतनी कालिख पोत देना कि उसका असली चेहरा नज़र ना आये यह तथाकथित सामाजिक न्याय की बांग देने वाली पार्टियों का शगल रहा है. इस किस्म की राजनीति का अभ्युदय सन १९९० मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने का बाद या यू कहिये कि १९८४ में कांशी राम के बहुजन समाज पार्टी बनाने के बाद हुआ. दरअसल इससे एक झूठी सशक्तिकरण की चेतना उस वर्ग में अचानक विकसित होती है जो सदियों से दबा –कुचला रहा है. इसके लिए पार्टियों को ना तो सिद्धांत पर टिकने की प्रतिबद्धता की दरकार होती है ना हीं कैडर –सृजन के लिए मेहनत करने की जहमत लेनी होती है. लालू यादव का चरवाहा स्कूल, ज़िला पुलिस कप्तान को सार्वजनिकरूप से अपमानित करना, मुख्य सचिव स्तर के अधिकारी से अपने कार्यकर्ताओं के बीच खैनी बनाने की फरमाइश करना इसी श्रेणी में आते हैं. मायावती का उच्च जाति के अफसरों से पैर छुवाना भी इसी किस्म की राजनीति है. दलित वर्ग या पिछड़ा समूह यह समझता है कि हमारा नेता सामाजिक न्याय दिला रहा है कप्तान को अपमानित कर के . एक नशा सा इस वर्ग में छ जाता है. वह भूल जाता है कि इस नौकरी, विकास , सड़क, शिक्षा उसकी पहली ज़रुरत है. नेता राज करता रहता है.
परन्तु जब भारतीय जनता पार्टी के नेता, गुजरात के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री पद के सबसे प्रबल दावेदार नरेन्द्र मोदी दिन में चार बार मीडिया को “न्यूज़ ट्रेडर” कह कर या चुनाव आयोग ऐसी सफल संस्था की निष्पक्षता को सार्वजनिकरूप से चुनौती देते हैं तब डर लगता है. कांशी राम , मायावती या लालू प्रसाद देश के प्रधानमंत्री नहीं हैं. पूरे देश की जनभावनाओं के किसी काल खंड में संबल भी नहीं रहे हैं. उनके बारे में मालूम है कि दोषपूर्ण फर्स्ट-पास्ट--पोस्ट चुनाव पध्यती के कारण वह दलित-मुस्लिम या दलित-ब्राह्मण या फिर यादव-मुस्लिम या कुर्मी-उच्च जाति या कुर्मी-मुस्लिम गठजोड़ बना कर २० से ३० प्रतिशत वोटों पर कब्ज़ा ज़माने के कारण सीट हासिल करते हैं और हर बार चुनाव में यही आसन खेल फिर शुरू कर देते हैं. लेकिन जब मोदी मीडिया को न्यूज़ ट्रेडर कहते हैं ---वह मीडिया जिसके बारे में कांग्रेस सहित अन्य दलों का आरोप हैं कि वह मोदी की गोद मैं बैठा है—तब लगता है कि लालू, माया या मुलायम ब्रांड की राजनीति और मोदी की राजनीति में कोई मौलिक भेद नहीं है.
मीडिया में सब कुछ अच्छा हो यह कहना गलत होगा. लेकिन क्या कोई व्यक्ति यह कह सकता है कि सत्ताधारी कांग्रेस को मीडिया ने कभी भी बक्शा है? आज सत्ता पक्ष के खिलाफ अगर जनमत बना है तो यह केवल मोदी के तथाकथित और अतिशय प्रचारित गुजरात माडल का कमाल नहीं है. लेकिन कांग्रेस ने तो कभी भी मीडिया को “खबरों के सौदागर” (न्यूज़ ट्रेडर) नहीं कहा. मीडिया के बारे में चाहे जो भी आरोप लगे यह ना तो मोदी ना हीं राहुल गांधी या अन्य कोई यह आरोप लगा सकता है कि वह किसी को बक्श देता है. यह भारतीय मीडिया के डी एन ए के खिलाफ है. किसी को ज्यादा , किसी को कम हाईलाइट करना यह मीडिया के व्यक्तिगत पसंद- नापसंद पर ज़रूर होता है पर मीडिया किसी की खबर जो नकारात्मक और गंभीररूप से जनसरोकार वाली हो, ना दिखाए यह संभव नहीं है क्योंकि दर्शक या पाठक अगले दिन हीं उसे ख़ारिज कर देगा.
न्यूज़ ट्रेडर है कह कर मोदी यह बताना चाहते हैं कि मीडिया का उद्देश्य जन सरोकार नहीं सौदागरी है. ब्राडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन या न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन की लगभग पांच साल के जीवन काल में शायद हीं कभी इतना घिनौना आरोप सत्ता पक्ष ने लगाया हो.
अभी तक भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी का व्यक्तित्व का आक्रामक होना स्थितियों को देखते हुए समीचीन था. उनकी व्यग्यात्मक शैली, उनका संस्थाओं पर प्रहार और “शहजादा”, माँ-बेटे “ की सरकार, “दामाद श्री” “दिल मांगे मोरे” और “न्यूज़ ट्रेडर्स” के फॉर्मेट में हमला भी प्रतिद्वान्दात्मक प्रजातंत्र का अपरिहार्य कारक मान कर नज़रंदाज़ किया जा सकता था. इसकी भी अनदेखी की जा सकती है कि देश के प्रधानमंत्री पद के प्रबलतम दावेदार ने चुनाव आयोग पर जबरदस्त आरोप लगाये हैं निष्पक्षता को लेकर. लेकिन इतने बड़े राष्ट्र को सक्षमरूप से चलाने के लिए एक ऐसे व्यक्तित्व की ज़रुरत है जो सर्व-समाहन का भाव रखता हो. जिसमें प्रतिशोध की जगह सर्व-समाहन की व्यापकता हो.
मीडिया में हिम्मत हो तो गाँधी परिवार से सवाल करें अमेठी और रायबरेली के विकास को लेकर”. पूरा देश जानता है कि मीडिया ने किस तरह यूपीए-२ और मनमोहन सरकार को एक क्षण भी नहीं बक्शा. और शायद मोदी के राष्ट्री परिदृश्य में उभरने का यह एक बड़ा कारण रहा है. लिहाज़ा मीडिया की हिम्मत को चुनौती देने और उसे “न्यूज़ ट्रेडर” बताना उसी वितंडावाद का हिस्सा है.

हाल के दो हफ़्तों में मोदी ने इंटरव्यू देना शुरू किया. इस दौरान जब भी उनकी प्रशस्ति के अलावा असहज करने वाले सवाल कुछ पत्रकारों ने पूछे तो मीडिया को लेकर उनकी जुगुप्सा और पत्रकारों के प्रति घृणा छलक कर बाहर आ जाती थी. शायद भविष्य में मीडिया पर अंकुश लगाने के लिए एक ऐसा वातावरण मोदी की स्कीम में है.

lokmat