राजनीति शास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार, जैसे
जैसे समय बढ़ता है देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था बेहतर होती है क्योंकि प्रक्रिया,
पद्द्यती एवं उन्हें चलने वाली संस्थाएं, अंतर-संस्था संवाद की गुणात्मकता और
खासकर जन-चेतना बेहतर होती है. इन सबका नतीजा यह होता है कि प्रजातंत्र के संवाहक
के रूप में कार्य करने वाली राजनीतिक पार्टियों की सोच व वैचारिक प्रतिबद्धता भी
बदलती है. जहाँ अशिक्षित या अर्ध-शिक्षित
समाज में भावनात्मक मुद्दे संवैधानिक-तार्किक मुद्दों पर भारी पड़ जाते है वहीँ
बेहतर रूप से शिक्षित समाज में जन-मत सत्य,
तर्क व बेहतरी के असली मुद्दों के आधार पर
बनाते हैं.
वर्तमान भारत की हाल कि स्थितियों पर गौर करें. अगर
भारत-पाक युद्ध या ऐसी हीं कोई बेहद बड़ी घटना न हुई तो सन २०१४ के आम चुनाव के
प्रमुख मुद्दे क्या होंगे? भ्रष्टाचार, महंगाई या दोनों को मिलाकर “गुड गवर्नेंस”
(सुशासन) के बारे में जन-अवधारणा. देश की मात्र दो राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों
में हाल हीं में कुछ असाधारण बदलाव हुए है. सत्ता का लगभग नौ साल से नेतृत्व कर
रही इंडियन नेशनल कांग्रेस ने अपना नेतृत्व नेहरु-गाँधी परिवार के युवा और पार्टी
अध्यक्ष सोनिया गाँधी के पुत्र राहुल गाँधी को औपचारिक रूप से सौंप दिया. इस
परिवर्तन के दो सन्देश थे. राहुल गाँधी ने आत्मालोचना करते हुए और यह बताते हुए कि
राजनीतिक वर्ग में शीर्ष पर बैठे लोगों जुगाड़ से वहां पहुंचे है जिसकी वज़ह से जनता
का सिस्टम पर विश्वास ख़त्म हो रहा है. यह वेदना किसी अन्य के लिए नहीं बल्कि स्वयं
कांग्रेस को लेकर थी क्योंकि यही एक १२२ साल पुरानी पार्टी जो आज़ाद भारत के ६५
सालों में लगभग ५५ साल शासन में रही है.
लेकिन एक शक है. राहुल ने गरीबों खासकर
कलावातियों को लेकर ऐसे उदगार पहले भी व्यक्त किये थे लेकिन अमल के स्तर पर इसका
मकाम कुछ दलितों के यहाँ खाना खाने या बना बिस्तर चारपाई पर सोने के आगे नहीं बढ़
पाया. इसका विद्रूप चेहरा तब सामने आया जब राहुल के करीबी दिग्विजय सिंह १९८०वे
दशक की राजनीति फिर शुरू करते हुए कभी मुंबई हमले में भी हिन्दू “आतंकी संगठनो” का
हाथ बताना तो कभी बाटला केस में पुलिस के आलोचना करना और राहुल गाँधी को आतंकी
घटनाओं के आरोपी मृत आजमगढ़ के मुसलमान युवाओं के गाँव ले जाना, कभी संघ को आतंकी
बताना और कभी हाफिज सईद को “साहब” शुरू किया.
“चिंतन-शिविर” के नाम पर आयोजित इस टीम दिवसीय
सम्मलेन में चिंतन कम राहुल-वंदना ज्यादा थी. और सबसे ज्यादा निराशा तो तब हुई जब
महाराष्ट्र से कांग्रेसी नेता व भारत के गृह-मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने मंच से यह
कहा किउनके पास रिपोर्ट है कि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने
कैम्पों में हिन्दू आतंकवादियों को प्रशिक्षण दे रहा है. दिग्विजय, मणिशंकर या ऐसे
हीं कुछ अन्य कांग्रेसियों ने मुह्जोरी करते हुए राहुल के सारे प्रयासों पर पानी
फेर दिया यह कहते हुए कि “गृह-मंत्री ने कुछ भी गलत नहीं कहा. यहाँ तक कि गृह-सचिव
से भी कहलवाया गया कि यह सच है कि कुछ आतंकी घटनाओ में ऐसे लोग शामिल थे जिनका संघ
से सम्बन्ध रहा है.
गृह-सचिव के बयान में तर्कशास्त्रीय दोष है.
किसी विचारधारा से प्रभावित होना और उस प्रभाव में अतिरेक तक जा कर आतंकी गतिविधि
में शामिल होना बेहद अलग-अलग बाते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने इसी आधार पर विनायक सेन
को छोड़ा था. तर्क-शास्त्र के अदना छात्र भी जानता है कि गृह-मंत्री का यह कहना कि
भाजपा हिन्दू आतंकियों के लिए ट्रेनिंग कैंप चलाती है और उनके गृह सचिव का कहना कि
कुछ आतंकवादियों का संघ से सम्बन्ध रहा है सामान नहीं है.
अगर राहुल के काल में इस भाव की प्रबलता या
दिग्विजय-टाइप लोगों का सिक्का चला तो कांग्रेस के लिए महँगा पड़ सकता है क्योंकि
एक भावनात्मक या संकीर्ण आधार पर बंटे समाज में प्रतिक्रिया और प्रति-प्रतिक्रिया
होती है. अगर अल्प-संख्यक की राजनीति की जाएगी तो प्रतिक्रिया में भाजपा को
बहुसंख्यक की राजनीति करने से कैसे रोका जा सकेगा?
और हुआ भी यही. बड़े झंझावात को पार करते हुआ
भारतीय जनता पार्टी एक संकट से निकली. दो कदन ताकतवर संघ पीछे हटा और दो कदम पूर्व
में उतने हीं ताकतवर रहे पार्टी के पितामह लालकृष्ण आडवानी. जहाँ दो दो दिन पहले
तक दोनों खेमों ने तलवार तान रखी थी –संघ ने भ्रष्टाचार के आरोप को ठेंगा दिखाते
हुए और “खूंटा वहीँ गड़ेगा “ का भाव लेते हुए नितिन गडकरी को हीं फिर से पार्टी का
अध्यक्ष बनाने का बीड़ा उठाया वहीँ अडवाणी के इशारे पर यशवंत सिन्हा ने गडकरी के
खिलाफ खड़ा होने का ऐलान किया. अडवाणी ने समझौते के रूप में सुषमा या वैकैया का नाम
सुझाया जो संघ को अमान्य था और संघ ने विकल्प के रूप में लगभग उतने हीं
“आज्ञाकारी” राजनाथ सिंह का नाम सुझाया. आडवानी ने राजनाथ को सुषमा स्वराज की जगह लोक सभा में नेता विरोधी दल बनाये जाने की
पेशकश की ताकि सुषमा भाजपा के अध्यक्ष बनायीं जा सकें पर संघ अबकी बार एक पैर पड़
खड़ा हो गया. एक वक्त ऐसा भी आया कि संघ ने स्थायी तौर पर अडवाणी को उनकी हैसियत
दिखने के लिए चुनाव करने का मन बना लिया था.
लेकिन जहाँ जयपुर मंथन से निकले राहुल गाँधी और
विष के रूप में दिग्विजय-ब्रांड सांप्रदायिक राजनीति वहीँ अडवाणी-संघ टकराव से
निकले राजनाथ. और साथ निकला – गृहमंत्री के बयान के खिलाफ देश-व्यापी आन्दोलन का
राजनाथी ऐलान.
क्या कहते है पिचले चुनावी सत्य
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शायद ना तो कांग्रेस के राहुल-दिग्विजय और ना
हीं हिंदुत्व के झंडे के स्व-नियुक्त अलमबरदार संघ और भारतीय जनता पार्टी के नए
नेता राजनाथ सिंह कुछ तथ्य से वाकिफ है. मंदिर –मस्जिद के भाव को शिखर पर ले जाने
के बाद भी भारतीय जनता पार्टी की स्वीकार्यता कांग्रेस से हमेशा कम रही. ढांचा
गिराने की बाद भी (भाजपा) २५.६३ प्रतिशत (१९९८ में ) से ज्यादा मत नहीं हासिल कर
सकी जबकि कांग्रेस कभी भी २७ प्रतिशत से कम नहीं हो सकी. कहने का मतलब हिन्दुओं का
एक बड़ा वर्ग उदारवादी है और वह कम्युनल कार्ड को घृणा की नज़र से देखता है. इसीलिए
अटल बिहारी वाजपेयी के परिदृश्य से हटाने के बाद आडवाणी भाजपा का उदार चेहरा दिखाना
चाहते थे –जिन्ना को लेकर उनकी टिपण्णी भी उसी प्रयास का एक हिस्सा थी. लेकिन संघ
अपने मानसिक जड़ता से निकल नहीं सका और आडवाणी हाशिये पर सट गए.
आज वस्तु-स्थिति यह है कि जहाँ कांग्रेस लगातार
दूसरे कार्यकाल में (२००९ का चुनाव) भी अपनी धरातल बरक़रार रख सका वहीँ बहुसंख्यक
समुदाय की राजनीति का दावा करने वाली भाजपा १९९८ से २००९ के बीच में जबरदस्त ढंग
से घटा है. इस दौरान लगभग हर तीसरे मतदाता ने भाजपा का साथ छोड़ दिया और किसी
सिद्धांत-विहीन जाति-आधारित क्षेत्रीय दल को समर्थन देना लगा.
दरअसल कमज़ोर बहर्टिया जनता पार्टी हुई है न कि
कांग्रेस. आज एक मौक़ा था जब कि साम्प्रदायिकता की राजनीति से ऊपर उठा कर दोनों
पार्टियाँ राष्ट्रीय स्तर पर अपनी उपादेयता सिद्ध कराती और देश के ६५ साल
पुराने प्रजातंत्र को अपनी परिपक्वता से
और बेहतर करती पर शायद अच्छी राजनीति के लिए अच्छे लोगों की राजनीति में ज़रुरत है
और यह दिग्विजय या राजनाथ से संभव नहीं है.
आध्यात्म के मनीषी श्री औरोबिन्दो घोष ने काफी
पहले कहा था और जिसे भाषांतर से ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ग्लेडस्टोन ने भी संसद
में व्यक्त किया था. दोनों का मानना था कि व्यस्क मताधिकार पर आधारित प्रतिनिधि
प्रजातंत्र में ऐसे मीडियाकर लोगों का
वर्चस्व हो जाता है जो औसत चालाकी, स्वार्थ-सिद्धि , आत्मा-छलावा और अहंकार के
प्रतिमूर्ति होते हैं और जिनमे मानसिक अयोग्यता, नैतिक –शून्यता , भीरुता और
दिखावा कूट-कूट कर भरी होती है. बड़े से
बड़े मुद्दे इनके पास आते हैं पर ये उन्हें अपेक्षित गरिमा से नहीं बल्कि अपने
छोटेपन से हीं निपटाते हैं.
शायद देश की दोनों सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों
की सोच “औसत” से ऊपर नहीं बाद पायी है जिसका नतीजा देश को साम्प्रदायिकता के दंश
के रूप में अभी और झेलना पड़ सकता है.
sahara 26-01-13