Saturday 26 January 2013

दोनों राष्ट्रीय पार्टियों ने मुखिया बदला और फिर खेलने लगे “कम्युनल कार्ड” !


राजनीति शास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार, जैसे जैसे समय बढ़ता है देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था बेहतर होती है क्योंकि प्रक्रिया, पद्द्यती एवं उन्हें चलने वाली संस्थाएं, अंतर-संस्था संवाद की गुणात्मकता और खासकर जन-चेतना बेहतर होती है. इन सबका नतीजा यह होता है कि प्रजातंत्र के संवाहक के रूप में कार्य करने वाली राजनीतिक पार्टियों की सोच व वैचारिक प्रतिबद्धता भी बदलती है. जहाँ अशिक्षित या  अर्ध-शिक्षित समाज में भावनात्मक मुद्दे संवैधानिक-तार्किक मुद्दों पर भारी पड़ जाते है वहीँ बेहतर रूप  से शिक्षित समाज में जन-मत सत्य, तर्क व बेहतरी के असली मुद्दों  के आधार पर बनाते हैं.
वर्तमान भारत की हाल कि स्थितियों पर गौर करें. अगर भारत-पाक युद्ध या ऐसी हीं कोई बेहद बड़ी घटना न हुई तो सन २०१४ के आम चुनाव के प्रमुख मुद्दे क्या होंगे? भ्रष्टाचार, महंगाई या दोनों को मिलाकर “गुड गवर्नेंस” (सुशासन) के बारे में जन-अवधारणा. देश की मात्र दो राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों में हाल हीं में कुछ असाधारण बदलाव हुए है. सत्ता का लगभग नौ साल से नेतृत्व कर रही इंडियन नेशनल कांग्रेस ने अपना नेतृत्व नेहरु-गाँधी परिवार के युवा और पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी के पुत्र राहुल गाँधी को औपचारिक रूप से सौंप दिया. इस परिवर्तन के दो सन्देश थे. राहुल गाँधी ने आत्मालोचना करते हुए और यह बताते हुए कि राजनीतिक वर्ग में शीर्ष पर बैठे लोगों जुगाड़ से वहां पहुंचे है जिसकी वज़ह से जनता का सिस्टम पर विश्वास ख़त्म हो रहा है. यह वेदना किसी अन्य के लिए नहीं बल्कि स्वयं कांग्रेस को लेकर थी क्योंकि यही एक १२२ साल पुरानी पार्टी जो आज़ाद भारत के ६५ सालों में लगभग ५५ साल शासन में रही है.
लेकिन एक शक है. राहुल ने गरीबों खासकर कलावातियों को लेकर ऐसे उदगार पहले भी व्यक्त किये थे लेकिन अमल के स्तर पर इसका मकाम कुछ दलितों के यहाँ खाना खाने या बना बिस्तर चारपाई पर सोने के आगे नहीं बढ़ पाया. इसका विद्रूप चेहरा तब सामने आया जब राहुल के करीबी दिग्विजय सिंह १९८०वे दशक की राजनीति फिर शुरू करते हुए कभी मुंबई हमले में भी हिन्दू “आतंकी संगठनो” का हाथ बताना तो कभी बाटला केस में पुलिस के आलोचना करना और राहुल गाँधी को आतंकी घटनाओं के आरोपी मृत आजमगढ़ के मुसलमान युवाओं के गाँव ले जाना, कभी संघ को आतंकी बताना और कभी हाफिज सईद को “साहब” शुरू किया.
“चिंतन-शिविर” के नाम पर आयोजित इस टीम दिवसीय सम्मलेन में चिंतन कम राहुल-वंदना ज्यादा थी. और सबसे ज्यादा निराशा तो तब हुई जब महाराष्ट्र से कांग्रेसी नेता व भारत के गृह-मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने मंच से यह कहा किउनके पास रिपोर्ट है कि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने कैम्पों में हिन्दू आतंकवादियों को प्रशिक्षण दे रहा है. दिग्विजय, मणिशंकर या ऐसे हीं कुछ अन्य कांग्रेसियों ने मुह्जोरी करते हुए राहुल के सारे प्रयासों पर पानी फेर दिया यह कहते हुए कि “गृह-मंत्री ने कुछ भी गलत नहीं कहा. यहाँ तक कि गृह-सचिव से भी कहलवाया गया कि यह सच है कि कुछ आतंकी घटनाओ में ऐसे लोग शामिल थे जिनका संघ से सम्बन्ध रहा है.
गृह-सचिव के बयान में तर्कशास्त्रीय दोष है. किसी विचारधारा से प्रभावित होना और उस प्रभाव में अतिरेक तक जा कर आतंकी गतिविधि में शामिल होना बेहद अलग-अलग बाते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने इसी आधार पर विनायक सेन को छोड़ा था. तर्क-शास्त्र के अदना छात्र भी जानता है कि गृह-मंत्री का यह कहना कि भाजपा हिन्दू आतंकियों के लिए ट्रेनिंग कैंप चलाती है और उनके गृह सचिव का कहना कि कुछ आतंकवादियों का संघ से सम्बन्ध रहा है सामान नहीं है.
अगर राहुल के काल में इस भाव की प्रबलता या दिग्विजय-टाइप लोगों का सिक्का चला तो कांग्रेस के लिए महँगा पड़ सकता है क्योंकि एक भावनात्मक या संकीर्ण आधार पर बंटे समाज में प्रतिक्रिया और प्रति-प्रतिक्रिया होती है. अगर अल्प-संख्यक की राजनीति की जाएगी तो प्रतिक्रिया में भाजपा को बहुसंख्यक की राजनीति करने से कैसे रोका जा सकेगा?
और हुआ भी यही. बड़े झंझावात को पार करते हुआ भारतीय जनता पार्टी एक संकट से निकली. दो कदन ताकतवर संघ पीछे हटा और दो कदम पूर्व में उतने हीं ताकतवर रहे पार्टी के पितामह लालकृष्ण आडवानी. जहाँ दो दो दिन पहले तक दोनों खेमों ने तलवार तान रखी थी –संघ ने भ्रष्टाचार के आरोप को ठेंगा दिखाते हुए और “खूंटा वहीँ गड़ेगा “ का भाव लेते हुए नितिन गडकरी को हीं फिर से पार्टी का अध्यक्ष बनाने का बीड़ा उठाया वहीँ अडवाणी के इशारे पर यशवंत सिन्हा ने गडकरी के खिलाफ खड़ा होने का ऐलान किया. अडवाणी ने समझौते के रूप में सुषमा या वैकैया का नाम सुझाया जो संघ को अमान्य था और संघ ने विकल्प के रूप में लगभग उतने हीं “आज्ञाकारी” राजनाथ सिंह का नाम सुझाया. आडवानी ने राजनाथ को सुषमा स्वराज की  जगह लोक सभा में नेता विरोधी दल बनाये जाने की पेशकश की ताकि सुषमा भाजपा के अध्यक्ष बनायीं जा सकें पर संघ अबकी बार एक पैर पड़ खड़ा हो गया. एक वक्त ऐसा भी आया कि संघ ने स्थायी तौर पर अडवाणी को उनकी हैसियत दिखने के लिए चुनाव करने का मन बना लिया था.
लेकिन जहाँ जयपुर मंथन से निकले राहुल गाँधी और विष के रूप में दिग्विजय-ब्रांड सांप्रदायिक राजनीति वहीँ अडवाणी-संघ टकराव से निकले राजनाथ. और साथ निकला – गृहमंत्री के बयान के खिलाफ देश-व्यापी आन्दोलन का राजनाथी ऐलान.     
                      
      क्या कहते है पिचले चुनावी सत्य
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शायद ना तो कांग्रेस के राहुल-दिग्विजय और ना हीं हिंदुत्व के झंडे के स्व-नियुक्त अलमबरदार संघ और भारतीय जनता पार्टी के नए नेता राजनाथ सिंह कुछ तथ्य से वाकिफ है. मंदिर –मस्जिद के भाव को शिखर पर ले जाने के बाद भी भारतीय जनता पार्टी की स्वीकार्यता कांग्रेस से हमेशा कम रही. ढांचा गिराने की बाद भी (भाजपा) २५.६३ प्रतिशत (१९९८ में ) से ज्यादा मत नहीं हासिल कर सकी जबकि कांग्रेस कभी भी २७ प्रतिशत से कम नहीं हो सकी. कहने का मतलब हिन्दुओं का एक बड़ा वर्ग उदारवादी है और वह कम्युनल कार्ड को घृणा की नज़र से देखता है. इसीलिए अटल बिहारी वाजपेयी के परिदृश्य से हटाने के बाद आडवाणी भाजपा का उदार चेहरा दिखाना चाहते थे –जिन्ना को लेकर उनकी टिपण्णी भी उसी प्रयास का एक हिस्सा थी. लेकिन संघ अपने मानसिक जड़ता से निकल नहीं सका और आडवाणी हाशिये पर सट गए.
आज वस्तु-स्थिति यह है कि जहाँ कांग्रेस लगातार दूसरे कार्यकाल में (२००९ का चुनाव) भी अपनी धरातल बरक़रार रख सका वहीँ बहुसंख्यक समुदाय की राजनीति का दावा करने वाली भाजपा १९९८ से २००९ के बीच में जबरदस्त ढंग से घटा है. इस दौरान लगभग हर तीसरे मतदाता ने भाजपा का साथ छोड़ दिया और किसी सिद्धांत-विहीन जाति-आधारित क्षेत्रीय दल को समर्थन देना लगा.
दरअसल कमज़ोर बहर्टिया जनता पार्टी हुई है न कि कांग्रेस. आज एक मौक़ा था जब कि साम्प्रदायिकता की राजनीति से ऊपर उठा कर दोनों पार्टियाँ राष्ट्रीय स्तर पर अपनी उपादेयता सिद्ध कराती और देश के ६५ साल पुराने  प्रजातंत्र को अपनी परिपक्वता से और बेहतर करती पर शायद अच्छी राजनीति के लिए अच्छे लोगों की राजनीति में ज़रुरत है और यह दिग्विजय या राजनाथ से संभव नहीं है.                   
आध्यात्म के मनीषी श्री औरोबिन्दो घोष ने काफी पहले कहा था और जिसे भाषांतर से ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ग्लेडस्टोन ने भी संसद में व्यक्त किया था. दोनों का मानना था कि व्यस्क मताधिकार पर आधारित प्रतिनिधि प्रजातंत्र में ऐसे मीडियाकर लोगों  का वर्चस्व हो जाता है जो औसत चालाकी, स्वार्थ-सिद्धि , आत्मा-छलावा और अहंकार के प्रतिमूर्ति होते हैं और जिनमे मानसिक अयोग्यता, नैतिक –शून्यता , भीरुता और दिखावा कूट-कूट कर भरी होती है. बड़े  से बड़े मुद्दे इनके पास आते हैं पर ये उन्हें अपेक्षित गरिमा से नहीं बल्कि अपने छोटेपन से हीं निपटाते हैं.
शायद देश की दोनों सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों की सोच “औसत” से ऊपर नहीं बाद पायी है जिसका नतीजा देश को साम्प्रदायिकता के दंश के रूप में अभी और झेलना पड़ सकता है. 

sahara 26-01-13

Monday 21 January 2013

राहुल की वेदना : राजनीति में साधारण लोगों ने प्रतिभा को ब्लाक किया


     कैडर के लिए राहुल का स्पष्ट सन्देश: तुम काम करो कुर्सियां खाली होंगी

जब किसी १२७ साल पुरानी और देश का आज भी सबसे बड़ी पार्टी जो लगभग ६३ साल पुरानी गणतांत्रिक व्यवस्था में पांच दशक से ज्यादा शासन में रही हो, का नवनियुक्त युवा नेता ने सिस्टम के दोष गिनाये और यह बताये  कि इस सिस्टम में बुद्धिमत्ता की जगह  सामान्यतावाद (मीडियोक्रिटी) हावी हो गयी है जिसके तहत मुट्ठी भर लोग सत्ता पर कब्ज़ा जमा कर करोड़ों लोगों की आवाज़ पर भारी पड़ रहे हैं, तो इसे समान्य भाषण की श्रेणी में रख कर विश्लेषण नहीं किया जा सकता. कांग्रेस पार्टी के नवनियुक्त उपाध्यक्ष और सेकंड-इन-कमांड राहुल गाँधी ने आगे कहा  “दिल्ली में बैठे मंत्री पंचायत द्वारा किया जाने वाला काम कर रहे है और मुख्य-मंत्री अध्यापक की नियुक्ति कर रहे हैं. पार्टी कोई भी हो क्यों मुट्ठी भर लोग समूची राजनीतिक धरातल घेरे हुए हैं”.
नेहरु-गाँधी परिवार के इस उत्तराधिकारी की बेबाकी, जिसमें पीड़ा ज्यादा थी, पारंपरिक उपदेश नादातर, जिसमे आत्म-मंथन से निकले स्व-शुद्धिकरण के उन्माद का भाव ज्यादा था और “हमारे-बनाम उनके” का छदम आरोप कम, ने कम से कम गिरते हुए राजनीतिक संवाद का स्तर एक बार फिर उठाने की कोशिश की. उनका दर्द कोई उलाहना नहीं था बल्कि यथार्थ पर आधारित तार्किक सोच का नतीजा था. लोग राहुल के भाषण में भावनात्मक विवरण को भले हीं नकारात्मक भाव से देखें लेकिन यह उस यथार्थ को बताता है जो सत्ता में मोह के साथ जुडी है. यही कारण था कि इस युवा नेता ने निर्लिप्त-भाव से सत्ता को जन सेवा का माध्यम बनाने की बात कही.
विचारधारा-विहीन राजनीतिक पार्टी की यह मूल-समस्या है. कैडर प्रतिबद्ध नहीं होता बल्कि सत्ता के मोह में आता है. उसमें प्रतिबद्धता का भाव लाने के लिए नेता को उन्हें कैडर संरचना को भविष्य में क्या-क्या मिल सकता है, का प्रलोभन देना होता है. याने कैडर को “इंसेंटिवाइज़” करना होता है. “हमें ४०  से ५० ऐसे लोग  तैयार करने है जो इस देश को चलाएंगे. ऐसे हीं हर राज्य में पांच से दस लोक ऐसे चाहिए जो मुख्य-मंत्री बनाने की काबिलियत रखते हों. सत्ता का विकेंद्रीकरण करना ज़रूरी है. आज यह बात महत्व नहीं रखती कि आप कितने योग्य है, महत्व इस बात का है कि आप सत्ता में कहाँ बैठे हैं.” सपष्टरूप से राहुल गाँधी ने कैडर को उसका भविष्य बताया और उन्हें भी जो मंच पर जुगाड़ कर के बैठे हैं या बैठे रहे हैं.
राहुल का दर्द अकारण नहीं था. हाल की कुछ बड़ी एवं ऐतिहासिक घटनाओं पर जिस तरह सरकार का रख रहा या जिस तरह औसत दर्जे की प्रतिक्रिया से ऊपर सरकारी अमला नहीं बढ़ पाया उस पर गौर करने की ज़रुरत है.
इसी मंच से देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे का कहना कि भारतीय जनता पार्टी और आर एस एस के आतंकवादियों को ट्रेनिंग देने के कैंप हैं उसी मीडियोक्रिटी (सामान्यतावाद) की ओर चिल्ला –चिल्ला कर इंगित कर रहा है. एक भ्यारत ऐसे देश के गृहमंत्री को अगर भाषाई शालीनता ना मालूम हो, द्वंदात्मक प्रजातंत्र में संवैधानिक स्थितियों का ज्ञान ना हो और जो कानूनी तथ्य और मीडिया रिपोर्ट में अंतर ना जनता हो उसे मीडियाकर से नीचे का हीं मना जा सकता है. एक ऐसे मंच से जिसका उद्देश्य चिंतन हो , पोलिटिकल बकवास किया जाना वह भी सड़क छाप, अपने आप में किसी भी भावी नेता की वेदना का कारण हो सकता है.       
राहुल ने जो कुछ कहा वह आध्यात्म का मनीषी श्री औरोबिन्दो घोष ने काफी पहले कहा था और जिसे भाषांतर से ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ग्लेडस्टोन ने भी संसद में व्यक्त किया था. दोनों का मानना था कि व्यस्क मताधिकार पर आधारित प्रतिनिधि प्रजातंत्र में ऐसे मीडियाकर लोगों  का वर्चस्व हो जाता है जो औसत चालाकी, स्वार्थ-सिद्धि , आत्मा-छलावा और अहंकार के प्रतिमूर्ति होते हैं और जिनमे मानसिक अयोग्यता, नैतिक –शून्यता , भीरुता और दिखावा कूट-कूट कर भरी होती है. बारे से बारे मुद्दे इनके पास आते हैं पर ये उन्हें अपेक्षित गरिमा से नहीं बल्कि अपने छोटेपन से हीं निपटाते है.
कांग्रेस-नेत्रित्व वाली यू पी ए -२ ने कुछ बहुत हीं अच्छे जन-कल्याण के कार्यक्रम शुरू किये लेकिनचूँकि उनका क्रियान्वयन राज्य अभिकरणों के हाथ में था इसलिए वे सारे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए. इनमें मंरेगा, सर्व शिक्षा अभियान, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन और आने वाला खाद्य सुरक्षा कानून है. शायद विश्व के किसी अन्य विकसित या विकासशील देश में (ब्राज़ील, मैक्सिको सरीखे कुछ को छोड़ कर) इनते अच्छे कार्यक्रम नहीं हैं पर ना तो कांग्रेस का कैडर संरचना ऐसी थी कि वह राज्य सरकारों के भ्रष्टाचार से इसे ख़त्म ना होने दे ना हीं सरकार जनता के बीच अपेक्षित सामूहिक चेतना विकसित कर पाई.
भरष्टाचार के खिलाफ जन चेतना को यू पी ए सरकार ने “जो भ्रष्टाचार विरोधी खेमे में वह सरकार विरोधी” का भाव ले लिया लिहाज़ा सन्देश यह गया कि सरकार भ्रष्टाचार की पोषक है. उसी तरह बलात्कार कांड में भी पुलिस ऐसी लीपा-पोती करना चाहती थी जिससे यह लगा कि सरकार महिलाओं के बारे में संजीदा नहीं है.
राहुल के आने का अगर यह मतलब है कि अतार्किक रूप से भारतीय जनता पार्टी या संघ को आतंकवादी बताने वाले गुट जिसका नेतृत्व राहुल के चहेते दिग्विजय सिंह करते है हावी रहा तो कांग्रेस को हराने के लिए दिग्विजय-मणिशंकर-शिंदे की तिकड़ी काफी होगी. कांग्रेस को किसी भी दुश्मन की ज़रुरत नहीं होगी. ऐसा माना जा रहा है कि सोनिया के करीब लोगों का वर्चस्व घटेगा , अहमद पटेल कमज़ोर होंगे और अल्प-संख्यकों को लुभाने वाले या यूं कहें कि बहुसंख्यको को अनायास हीं एकत्रित करने वाले बयान और ज्यादा प्रमुखता से आयेंगे.
कम से कम राहुल के भाषण का एक सबसे बड़ा असर कैडर पर यह पड़ा है कि उसे अपना भविष्य काम करने में ना की चाटुकारिता करने में नज़र आ रहा है. लेकिन देखना होगा कि राहुल ने यह भाषण दिल से पढ़ा है या दिग्विजय-मणि-पित्रोदा टाइप जन-धरातल से दूर रहे नेताओं का तोता-रटंत भर है.
बहरहाल भाषण पर अगर अमल हो तो कांग्रेस भ्रष्टाचार से गिरी प्रतिष्ठा को एक बार फिर हासिल कर सकता है अपने जन कल्याणकारी कार्यक्रमों के ज़रिये खासकर प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून किससेदेश के ६७ फ़ीसदी लोगों को पांच किलो अनाज (तीन रु किलो चावल और दो रु गेहूं) मिलेगा.   
 ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार देश का २२ मिलियन टन गेहूं गोदाम के आभाव (और ४० प्रतिशत फल व सब्जी रखाव, शीत-यातायात के ना होने से)  में बर्बाद हो जाता है जबकि इस स्कीम के लिए मात्र ६० मिलियन टन अनाज की ज़रुरत है. क्या अब भी समझाने की ज़रुरत है कि सत्ता में बैठे लोग मीडियाकर हैं. शायद राहुल गाँधी की यही चिंता भाषण में झलक रही थी.

bhaskar