देश की अजीब स्थिति है. अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के मौलिक अधिकार का सटोरिये से सांसद तक, गाँव के घुरहू से घंटाघर के घनश्याम सेठ तक और चौपाल से चर्चगेट तक खुल कर इस्तेमाल हो रहा है. हर मुद्दे पर हर एक की अपनी राय है. सही राय बनाने की पहली शर्त होती है कि सम्पूर्ण तथ्यों की जानकारी न भी हो तो इतनी हो जिससे तर्क-वाक्य से निष्कर्ष तक पहुंचा जा सके, तर्क –वाक्यों को निरपेक्ष भाव से गढ़ने की बौद्धिक सलाहियत हो और सोच में दुराग्रह न हो. अगर इन सबके बगैर अपना मत बनाने लगें तो निष्कर्ष हमेशा गलत होगा. आज अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को पंख लग गए जब से सोशल मीडिया मोबाइल के जरिये सबके पास पहुँच गया और हर व्यक्ति अद्वैतवाद से अवमूल्यन तक हर टॉपिक पर अधकचरा और दुराग्रहपूर्ण राय रखने लगा. नतीजा यह कि पूरे देश में कंफ्यूजन का माहौल है. देश में शाम को टी वी चैनल स्टूडियो में चार राजनीतिक पार्टियों के तथाकथित घोषित या स्वयंभू प्रवक्ता बैठा कर “मुंहचोथौव्वल” करने लगे. ये प्रवक्ता न तो तथ्य समझते हैं न हीं सत्य के प्रति कोई प्रतिबद्धता है. उसे सिर्फ एक बात मालूम है कि अगर किसी दूसरे प्रवक्ता ने उसके नेता और पार्टी को कुछ कहा तो फेफड़े की पूरी ताकत से दूसरे पक्ष के नेता और पार्टी की लानत-मलानत करनी है. नहीं तो उसके नंबर कट जायेंगे. एडिटर-एंकर भी कभी राष्ट्रभक्ति के नए भाव में सबको चुप करते हुए अपनी बात खड़ी करता है तो कभी देश के खिलाफ मानवाधिकार का अलमबरदार बन जाता है.
जिस समाज में तर्क-शक्ति अच्छी न हो और सत्य की खोज के प्रति आदतन प्रतिबद्धता क्षीण हो उसमें जन-संवाद तूफ़ान से घिरी नाव की तरह इधर-उधर डोलता रहता है कई बार डूब भी जाता है. इसकी एक बानगी देखिये. एक चैनल पर हेडली की इशरत जहाँ को फिदायीन बताने पर चर्चा हो रही थी. जनता दल (यू) का एक प्रवक्ता का तर्क था : हेडली खुद एक आतंकवादी और अपराधी है और केंद्र सरकार उस अपराधी की बात पर इतना विश्वास कर रही है लेकिन वहीं उत्तर प्रदेश कैबिनेट के दूसरे नंबर के मंत्री आज़म खान के इस आरोप पर कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के घर पर गुप्त रूप से दाउद इब्राहिम से मिले थे, पर विश्वास नहीं कर रही है. अब इस कुतर्क का क्या कोई जवाब हो सकता है?
तर्क शास्त्र का मूल सिद्धांत है कि तर्क-वाक्य यूनिवर्स ऑफ़ डिस्कोर्स (संवाद की दुनिया) की सीमा में होना चाहिए. तर्क-सदृश्यता (लॉजिकल पैरिटी) रखने की भी कुछ शर्तें हैं. अगर क़त्ल के आरोपी से पूछा जाये कि हत्या के दिन वह मृतक के मोहल्ले में क्यों गया था तो उसका जवाब यह नहीं हो सकता क्योंकि जज साहेब उस दिन लाल कमीज़ पहने थे. अगर मुद्दा पाकिस्तान से भारत में किये जा रहे आतंकवाद को लेकर है तो उसमें जो लोग लिप्त रहे हैं उन्हीं की गवाही ली जा सकती है उन्हीं गवाहियों पर सत्य के खोज की बुनियाद खडी की जा सकती है. इशरत जहाँ की हकीकत लखनऊ में बैठे किसी फिजिक्स के प्रोफेसर की गवाही कर के नहीं हासिल की जा सकती. फिर पिछले २५ सालों से पाकिस्तान के आई एस आई द्वारा भारत में कराई जा रही आतंकी घटनाओं पर उस संस्था के पैसे पर आतंकवाद में भूमिका अदा करने वाले ने अगर यह बात कही है (जो पहले भी कह चुका है पर तब इस पर कोई विवाद नहीं हुआ था क्योंकि यूपी ए -२ की सरकार थी ) तो अपराध न्याय शास्त्र में इसका साक्ष्य –मूल्य तो बढ़ हीं जाती है कॉमन सेंस से भी लगता है कि २५ साल से कही बात एक बार फिर पुख्ता हुई. लेकिन भारत में एक बड़ा वर्ग है तथाकथित वाम बुद्धिजीवियो का और एक वर्ग –विशेष के वोट पाने को लालायित राजनीतिक दलों का कुनबा डिनायल मोड़ में आ जाता है बगैर यह सोचे हुए कि वह जाने-अनजाने में पाकिस्तान के घिनौने कृत्य को समर्थन दे रहा है.
इस प्रवक्ता का यह कहना कि आज़म खान का प्रधानमंत्री पर दाऊद से मिलने का आरोप भी ज्यादा बड़ा सत्य है एक बीमार मानसिकता दिखता है. आज़म खान तब भी प्रदेश शासन में दूसरे नंबर के मंत्री थे जब उन्होंने कहा था कि समाजवादी पार्टी नेता मुलायम सिंह का जन्म दिन मनाने के लिए उन्हें दाऊद इब्राहिम से पैसे मिले थे. इस प्रवक्ता ने तब यह मांग नहीं की कि इसको आपराधिक कॉन्फेशन माना जाये और मुकदमा चलाया जाये. आज़म खान के दो स्टेटमेंट हैं. एक में कैमरे पर स्पष्ट कथन है और दूसरे में मात्र आरोप (जो प्रशानिक अज्ञानता का या राजनीति में हल्केपन का ध्योतक है) लगाया गया है.
लेकिन जनता दल (यू) के इस प्रवक्ता को भौंडी तार्किक सदृश्यता दे कर अपने नेता को खुश करना था.
कुतर्क की एक अन्य बानगी देखिये. एक अन्य स्टूडियो डिस्कशन में एन सी पी के एक प्रवक्ता ने कहा “मुंबई के खालसा कॉलेज के रिकॉर्ड में, जहाँ इशरत जहाँ बी एस सी की छात्रा थे, कभी भी क्लास में अनुपस्थित नहीं थी, लिहाज़ा वह आतंवादी तो हो हीं नहीं सकती फिदायीन होना तो दूर की बात है”. हम सब जानते हैं कि अपराधी यह सुनिश्चित करता है कि घटना के समय वह अपनी उपस्थिति कहीं और दिखाए. यह सामान्य एलबाई –अपराध करके बचने का एक खास किस्म का बहाना) है. फिर हेडली उर्फ़ दाऊद गिलानी से सरकारी वकील उज्जवल निकम ने पूछा “महिलाओं आतंकवादियों में किसी का नाम याद है” तो हेडली ने कहा नहीं लेकिन जब यह पूछा गया “कोई नाम जैसे नुसरत, इशरत या मुमताज़” तो उसने कहा शायद दूसरा नाम. यह बयान इतना नेचुरल था कि कोई भी इसकी विश्वसनीयता पर प्रश्न-चिन्ह नहीं लगाएगा.
एक तीसरा उदहारण देखें. एक टीवी चैनल पर जे एन यू का छात्र यूनियन का नेता बैठा था. इस विश्वविद्यालय में भारत –विरोधी और कश्मीर की आज़ादी के समर्थन में नारे लगे और वह भी यूनियन के तत्वावधान में. उस छात्र नेता से पूछा गया कि क्या वह कश्मीर की आजादी के समर्थन में भारत के टुकडे करने के पक्ष में है और क्या यह राष्ट्र-द्रोह नहीं है? उसका जवाब के रूप में प्रति-प्रशन था “कश्मीर में जनमत (प्लेबिसाईट) की बात क्या बाबा साहेब अम्बेडकर और जवाहर लाल नेहरु ने नहीं कही थी. उन पर भी राष्ट्र –द्रोह का मुकदमा चलाइये? उसने अधकचरे ज्ञान के आधार पर यह नहीं जानने की कोशिश की कि नेहरु ने हीं अपने शासन काल में चीन युद्ध के दौरान जब ऐसे हीं कुछ धुर मार्क्सवादी कम्युनिस्टों ने भारत छोड़ चीन की हिमायत करनी शुरू की तो संविधान में १६ वाँ संशोधन करते हुए अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता रोकने के लिए “भारत की संप्रभुता और अखंडता “ जोड़ा.
आज भारत की सरकार को उसी संविधान के इस प्रावधान को सख्ती से अमल में लाने की ज़रुरत है. इन गुमराह छात्रों को यह भी नहीं मालूम को भारत के टुकडे होंगे तो जे एन यू नाम की केन्द्रीय यूनिवर्सिटी भी नहीं रहेगी और नहीं इन देश के दुश्मनों की पौध खडी हो पायेगी.