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Tuesday, 16 February 2016

अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य तो ठीक पर कुतर्क से देश की हानि न करें


देश की अजीब स्थिति है. अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के मौलिक अधिकार का सटोरिये से सांसद तक, गाँव के घुरहू से घंटाघर के घनश्याम सेठ तक और चौपाल से चर्चगेट तक खुल कर इस्तेमाल हो रहा है. हर मुद्दे पर हर एक की अपनी राय है. सही राय बनाने की पहली शर्त होती है कि सम्पूर्ण तथ्यों की जानकारी न भी हो तो इतनी हो जिससे तर्क-वाक्य से निष्कर्ष तक पहुंचा जा सके, तर्क –वाक्यों को निरपेक्ष भाव से गढ़ने की बौद्धिक सलाहियत हो और सोच में दुराग्रह न हो. अगर इन सबके बगैर अपना मत बनाने लगें तो निष्कर्ष हमेशा गलत होगा. आज अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को पंख लग गए जब से सोशल मीडिया मोबाइल के जरिये सबके पास पहुँच गया और हर व्यक्ति अद्वैतवाद से अवमूल्यन तक हर टॉपिक पर अधकचरा और दुराग्रहपूर्ण राय रखने लगा. नतीजा यह कि पूरे देश में कंफ्यूजन का माहौल है. देश में शाम को टी वी चैनल स्टूडियो में चार राजनीतिक पार्टियों के तथाकथित घोषित या स्वयंभू प्रवक्ता बैठा कर “मुंहचोथौव्वल” करने लगे. ये प्रवक्ता न तो तथ्य समझते हैं न हीं सत्य के प्रति कोई प्रतिबद्धता है. उसे सिर्फ एक बात मालूम है कि अगर किसी दूसरे प्रवक्ता ने उसके नेता और पार्टी को कुछ कहा तो फेफड़े की पूरी ताकत से दूसरे पक्ष के नेता और पार्टी की लानत-मलानत करनी है. नहीं तो उसके नंबर कट जायेंगे. एडिटर-एंकर भी कभी राष्ट्रभक्ति के नए भाव में सबको चुप करते हुए अपनी बात खड़ी करता है तो कभी देश के खिलाफ मानवाधिकार का अलमबरदार बन जाता है.

जिस समाज में तर्क-शक्ति अच्छी न हो और सत्य की खोज के प्रति आदतन प्रतिबद्धता क्षीण हो उसमें जन-संवाद तूफ़ान से घिरी नाव की तरह इधर-उधर डोलता रहता है कई बार डूब भी जाता है. इसकी एक बानगी देखिये. एक चैनल पर हेडली की इशरत जहाँ को फिदायीन बताने पर चर्चा हो रही थी. जनता दल (यू) का एक प्रवक्ता का तर्क था : हेडली खुद एक आतंकवादी और अपराधी है और केंद्र सरकार उस अपराधी की बात पर इतना विश्वास कर रही है लेकिन वहीं उत्तर प्रदेश कैबिनेट के दूसरे नंबर के मंत्री आज़म खान के इस आरोप पर कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के घर पर गुप्त रूप से दाउद इब्राहिम से मिले थे, पर विश्वास नहीं कर रही है. अब इस कुतर्क का क्या कोई जवाब हो सकता है?

तर्क शास्त्र का मूल सिद्धांत है कि तर्क-वाक्य यूनिवर्स ऑफ़ डिस्कोर्स (संवाद की दुनिया) की सीमा में होना चाहिए. तर्क-सदृश्यता (लॉजिकल पैरिटी) रखने की भी कुछ शर्तें हैं. अगर क़त्ल के आरोपी से पूछा जाये कि हत्या के दिन वह मृतक के मोहल्ले में क्यों गया था तो उसका जवाब यह नहीं हो सकता क्योंकि जज साहेब उस दिन लाल कमीज़ पहने थे.  अगर मुद्दा पाकिस्तान से भारत में किये जा रहे आतंकवाद को लेकर है तो उसमें जो लोग लिप्त रहे हैं उन्हीं की गवाही ली जा सकती है उन्हीं गवाहियों पर सत्य के खोज की बुनियाद खडी की जा सकती है. इशरत जहाँ की हकीकत लखनऊ में बैठे किसी फिजिक्स के प्रोफेसर की गवाही कर के नहीं हासिल की जा सकती. फिर पिछले २५ सालों से पाकिस्तान के आई एस आई द्वारा भारत में कराई जा रही आतंकी घटनाओं पर उस संस्था के पैसे पर आतंकवाद में भूमिका अदा करने वाले ने अगर यह बात कही है (जो पहले भी कह चुका है पर तब इस पर कोई विवाद नहीं हुआ था क्योंकि यूपी ए -२ की सरकार थी ) तो अपराध न्याय शास्त्र में इसका साक्ष्य –मूल्य तो बढ़ हीं जाती है कॉमन सेंस से भी लगता है कि २५ साल से कही बात एक बार फिर पुख्ता हुई. लेकिन भारत में एक बड़ा वर्ग है तथाकथित वाम बुद्धिजीवियो का और एक वर्ग –विशेष के वोट पाने को लालायित राजनीतिक दलों का कुनबा डिनायल मोड़ में आ जाता है बगैर यह सोचे हुए कि वह जाने-अनजाने में पाकिस्तान के घिनौने कृत्य को समर्थन दे रहा है.

इस प्रवक्ता का यह कहना कि आज़म खान का प्रधानमंत्री पर दाऊद से मिलने का आरोप भी ज्यादा बड़ा सत्य है एक बीमार मानसिकता दिखता है. आज़म खान तब भी प्रदेश शासन में दूसरे नंबर के मंत्री थे जब उन्होंने कहा था कि समाजवादी पार्टी नेता मुलायम सिंह का जन्म दिन मनाने के लिए उन्हें दाऊद इब्राहिम से पैसे मिले थे. इस प्रवक्ता ने तब यह मांग नहीं की कि इसको आपराधिक कॉन्फेशन माना जाये और मुकदमा चलाया जाये. आज़म खान के दो स्टेटमेंट हैं. एक में कैमरे पर स्पष्ट कथन है और दूसरे में मात्र आरोप (जो प्रशानिक अज्ञानता का या राजनीति में हल्केपन का ध्योतक है) लगाया गया है.
लेकिन जनता दल (यू) के इस प्रवक्ता को भौंडी तार्किक सदृश्यता दे कर अपने नेता को खुश करना था.

कुतर्क की एक अन्य बानगी देखिये. एक अन्य स्टूडियो डिस्कशन में एन सी पी के एक प्रवक्ता ने कहा “मुंबई के खालसा कॉलेज के रिकॉर्ड में, जहाँ इशरत जहाँ बी एस सी की छात्रा थे, कभी भी क्लास में अनुपस्थित नहीं थी, लिहाज़ा वह आतंवादी तो हो हीं नहीं सकती फिदायीन होना तो दूर की बात है”. हम सब जानते हैं कि अपराधी यह सुनिश्चित करता है कि घटना के समय वह अपनी उपस्थिति कहीं और दिखाए. यह सामान्य एलबाई –अपराध करके बचने का एक खास किस्म का बहाना) है. फिर हेडली उर्फ़ दाऊद गिलानी से सरकारी वकील उज्जवल निकम ने पूछा “महिलाओं आतंकवादियों में किसी का नाम याद है” तो हेडली ने कहा नहीं लेकिन जब यह पूछा गया “कोई नाम जैसे नुसरत, इशरत या मुमताज़” तो उसने कहा शायद दूसरा नाम. यह बयान इतना नेचुरल था कि कोई भी इसकी विश्वसनीयता पर प्रश्न-चिन्ह नहीं लगाएगा.

एक तीसरा उदहारण देखें. एक टीवी चैनल पर जे एन यू का छात्र यूनियन का नेता बैठा था. इस विश्वविद्यालय में भारत –विरोधी और कश्मीर की आज़ादी के समर्थन में नारे लगे और वह भी यूनियन के तत्वावधान में. उस छात्र नेता से पूछा गया कि क्या वह कश्मीर की आजादी के समर्थन में भारत के टुकडे करने के पक्ष में है और क्या यह राष्ट्र-द्रोह नहीं है? उसका जवाब के रूप में प्रति-प्रशन था “कश्मीर में जनमत (प्लेबिसाईट) की बात क्या बाबा साहेब अम्बेडकर और जवाहर लाल नेहरु ने नहीं कही थी. उन पर भी राष्ट्र –द्रोह का मुकदमा चलाइये? उसने अधकचरे ज्ञान के आधार पर यह नहीं जानने की कोशिश की कि नेहरु ने हीं अपने शासन काल में चीन युद्ध के दौरान जब ऐसे हीं कुछ धुर मार्क्सवादी कम्युनिस्टों ने भारत छोड़ चीन की हिमायत करनी शुरू की तो संविधान में १६ वाँ संशोधन करते हुए अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता रोकने के लिए “भारत की संप्रभुता और अखंडता “ जोड़ा.

आज भारत की सरकार को उसी संविधान के इस प्रावधान को सख्ती से अमल में लाने की ज़रुरत है. इन गुमराह छात्रों को यह भी नहीं मालूम को भारत के टुकडे होंगे तो जे एन यू नाम की केन्द्रीय यूनिवर्सिटी भी नहीं रहेगी और नहीं इन देश के दुश्मनों की पौध खडी हो पायेगी. 
jagran
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Sunday, 14 February 2016

जे एन यू विवाद: खतरा और बड़ा है !


भारत –विरोधी और पाकिस्तान समर्थक या कश्मीर की “आजादी” के लिए जवाहर लाल यूनिवर्सिटी (जे एन यू) के कुछ छात्रों द्वारा खुले-आम लगाये गए नारे देश की अखण्डता और संप्रभुता” के लिए ख़तरनाक हैं. कश्मीर में कुछ युवाओं द्वारा राज्य के श्रीनगर या कुपवाड़ा में भारत –विरोधी नारे लगना, और देश की राजधानी दिल्ली के केन्द्रीय विश्वविध्यालय परिसर में खुले-आम  समूह बना कर ऐसे नारे लगाना--- दोनों में गुणात्मक फर्क है. पहली घटना का कारण पिछले ६८ साल से कुछ किलोमीटर दूर बैठे पाकिस्तान का नापाक मंसूबा रहा है लेकिन देश की राजधानी के प्रमुख विश्वविद्यालय में हुई घटना का गलत सन्देश देश और वैश्विक स्तर पर जाता है जिसे किसी भी संप्रभु राज्य को बर्दाश्त नहीं करना चाहिए. जे एन यू की  इस घटना ने अब यह ज़रूरी कर दिया है कि भारत “सॉफ्ट स्टेट” की अपनी छवि तत्काल ख़त्म करे खासकर आई एस आई एस सरीखे संगठनों के मंसूबों के मद्दे नज़र. अगर इसे अप्रतिम सख्ती से नहीं निपटा गया तो देश में विघटनकारी शक्तियों को बढ़ावा तो मिलेगा हीं पूरी दुनिया में सन्देश जाएगा कि भारत में राज्य शक्ति की क्षमता घटी है और संप्रभुता पर कहीं प्रश्न चिन्ह लगेगा.

प्रश्न यह नहीं है कि जो गिरफ्तार किया गया वह अपराध में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से था या नहीं. अगर नहीं था तो गिरफ्तारी का कोई कारण हीं नहीं है और इसकी खिलाफत ज़रूर हो. आज के दौर में फुटेज देखने के बाद इस तरह की गलतियों की गुंजाइश कम हीं रहती है. लेकिन हमारे देश का राजनीतिक वर्ग शायद आपराधिक रूप से जडवत या दुराग्रही हो गया है. बानगी के रूप में सी पी एम् नेता सीताराम यचूरी को वामपंथी ए आई एस ऍफ़ से सम्बद्ध छात्र यूनियन के अध्यक्ष की गिरफ्तारी में आपातकाल की याद आ गयी लेकिन इसी शिद्दत से उस घटना की निंदा करना वह भूल गए. इस छात्र यूनियन के अध्यक्ष को अपनी गिरफ्तारी के बाद “न्यायपालिका पर पूरा भरोसा” हो गया लेकिन जब देश की संप्रभुता के खिलाफ नारे लगे तो संविधान पर विश्वास नहीं जगा. न हीं यचूरी को और ना हीं इस छात्र नेता को यह याद आया कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने हीं अपने शासन काल में चीन युद्ध के दौरान जब ऐसे हीं कुछ धुर मार्क्सवादी कम्युनिस्टों ने भारत छोड़ चीन की हिमायत करनी शुरू की तो संविधान में १६ वाँ संशोधन करते हुए अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता रोकने के लिए “देश की संप्रभुता और अखंडता “ जोड़ा. आज उन संगठनों ने, जिन्होंने अखलाक के मरने पर “असहिष्णुता” के नाम पर सड़कों पर प्रदर्शन के रूप में अपनी आमद दर्ज की और कई बुद्धिजीवियों ने अपने पुरस्कार लौटाए, क्या एक बार भी कहा कि राज्य को असली “असहिष्णुता” और “जीरो टॉलरेंस “ अब दिखानी चाहिए? 

आज भारत की सरकार को उसी संविधान के प्रावधान को सख्ती से अमल में लाने की ज़रुरत है. इन गुमराह छात्रों को यह भी नहीं मालूम को भारत के टुकडे होंगे तो जे एन यू नाम की केन्द्रीय यूनिवर्सिटी भी नहीं रहेगी और नहीं इन देश के दुश्मनों की पौध खडी हो पायेगी. 

भारत जैसे द्वान्द्दत्मक प्रजातंत्र में हम सरकार की खिलाफत किसी हद तक (संविधान की सीमा में रहते हुए) कर सकते हैं. पर संप्रभुता को चुनौती नहीं दे सकते ना हीं उस अखंडता को जो हमारे संविधान की उद्देशिका का मूल है.

भारत के संविधान की उद्देशिका में प्रारंभ में हीं लिखा है “हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए... एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं”. अर्थात भारत की एकता और संप्रभुता अक्षुण्ण है”. साथ हीं इस अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के मौलिक अधिकार (अनुच्छेद १९ (१) को बाधित करने वाले आठ युक्तियुक्त निर्बंध (अनुच्छेद १९ (२) में एक है “भारत की संप्रभुता और अखण्डता के हितों में”. अर्थात इस छात्रों ने जो कुछ किया वह देश के साथ संभवतः सबसे बड़ा अपराध है. ये छात्र गुमराह नहीं है और तथाकथित रूप से “पढ़े –लिखे” वर्ग में आते हैं (परास्नातक और पी एच डी के छात्र थे) और जो कुकृत्य इन्होने किया वह होशो-हवाश में किया. भारत को तोड़ने की कोई भी अभिव्यक्ति अशोचनीय और अकल्पनीय है.

लिहाज़ा “राज्य अगर इसे प्रभावी रूप से हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म करने के लिए जो भी कदम उठाये वह उचित होगा, इसलिए नहीं कि इन मुट्ठी भर छात्रों का कृत्य संविधान सम्मत नहीं है बल्कि इसलिए कि आई एस आई एस भारत में युवाओं को गुमराह करने का जबरदस्त कुचक्र शुरू कर चुका है और राज्य की तरफ से किसी किस्म की ढिलाई से एक वर्ग –विशेष के कुछ गुमराह युवाओं को एक बौद्धिक वैधानिकता का सन्देश जा सकता है और वे यह सोच सकते हैं  कि जब आम छात्र भी भारत की अखंडता के खिलाफ हीं नहीं पाकिस्तान और कश्मीर के समर्थन में नारे लगा कर आराम से रह सकते हैं तो हम भी यह सब कुछ कर सकते हैं जो आई एस चाहता है.  और आई एस चाहता क्या है --- भारत और अन्य देशों में “खालिफा शासन” स्थापित करना.

देश या समाज के जीवन काल में ऐसे क्षण आते हैं जब उन्मुक्तता और उसकी सीमाओं में एक द्वन्द होता है. उन्मुक्तता, समय के साथ समाज के सोच की उत्कृष्टा को देखते हुए बढ़ायी जा सकती है लेकिन उसकी भी एक शाश्वत शर्त है और वह है --- देश की सम्प्रभ्ता अक्षुण्ण बनाये रखने की. अगर देश टूट गया तो न तो संविधान रहेगा, न हीं अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य. और तब हम फिसल कर एक आदिम युग में जा चुके होंगे. पाकिस्तान, सीरिया और विश्व के तमाम अन्य मुल्क इसके गवाह हैं. 
 
nai duniya
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