Wednesday 23 March 2016

विकास बनाम “राष्ट्रवाद”


         भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी में सीधी सोच का अभाव


हम सीधे नहीं सोचते. देश की राजनीतिक पार्टियाँ तो बिलकुल हीं नहीं. नतीजा यह होता है कि एक पार्टी या नेता दलित का विकास करने लगता है तो दूसरा पिछड़ों का याने पिछड़ी जातियों का. तीसरा पीछे क्यों रहे तो वह कोई अन्य पहचान समूह तलाशता है. मिल गया तो ठीक वर्ना स्थापित पहचान समूह में से हीं एक नया पहचान समूह खड़ा करता है मसलन अति-पिछड़ा (अर्थात अति-पिछड़ी जातियां) या महा –दलित. अगर सीधे सोचने की ईमानदारी होती तो हम “गरीबों” का विकास करते. सीधी सोच न होने का मुख्य कारण हमारी चुनाव पध्यति है जो इन राजनीतिक पार्टियों को उकसाती हैं कि वे पहचान समूह की राजनीति करें. नतीजा यह रहा कि ७० साल के प्रजातंत्र में हमने भारतीय समाज को अनेक टुकड़ों में बाँट दिया. 

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का ताज़ा बैठक में भी इस सीधी सोच का अभाव साफ़ दिखा. एक ऐसे समय जब मोदी सरकार तमाम नए व अपेक्षाकृत जनोपदेय कार्यक्रम ले कर आयी है इस दो-दिवसीय कार्यकारिणी के सन्देश से कार्यकर्त्ता कंफ्यूज रहा. देश के प्रधानमंत्री ने इस कार्यकारिणी में इन कार्यकर्ताओं से अपील तो की कि वे सरकार की नयी नीतियों को पहुँचाने के लिए सरकार और जनता के बीच संवाहक का कार्य करें लेकिन अन्य नेताओं ने राष्ट्रवाद का डोज़ पिलाते हुए कहा कि राष्ट्रवाद (भाजपा-ब्रांड) पर कोई समझौता नहीं होगा. सन्देश साफ़ था. अखलाक की हत्या, जे एन यू प्रकरण और रोहित वेमुला चलते रहेंगे. झारखण्ड में भी गौ –कसी के संदेह में लोगों को मारा जाता रहेगा और हर व्यक्ति को “भारत माता की जय” कहना राष्ट्रवाद की पहचान होगी. जाहिर है कि किसी ओवैसी को इससे अच्छा मौका फिर नहीं मिलेगा अपनी दूकान चमकाने के लिए. अगले हीं दिन “जय हिन्द” शुरू होगया.

हम कहाँ ले जा रहे हैं देश के जन-संवाद को? क्या सार्थक बहस यह नहीं होनी चाहिए कि भ्रष्टाचार के खिलाफ एक जबरदस्त जन-अभियान शुरू किया जाये ताकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नयी मनरेगा किसी राज्य सरकार के भ्रष्ट तंत्र की चौखट पर फिर न दम तोड़े? क्या चर्चा यह नहीं होनी चाहिए कि नयी फसल बीमा योजना जिसमें पुरानी खामियों को काफी हद तक सुधार लिया गया है को किसानों तक पहुंचा कर इसे अमल में लाने के लिए ग्रामीण भारत में एक सार्थक सामूहिक चेतना का विकास किया जाये ताकि फिर कोई किसान अति-वृष्टि या आना-वृष्टि के कारण किसी आम के पेड़ से लटकर या कीटनाशक मैलाथियान खा कर दुनिया से कूच न करे? क्यों स्किल इंडिया कार्यक्रम को जमीन पर फलीभूत करने के लिए दो साल के शासन काल में कुछ भी नहीं हो पाया लेकिन गौ-मांस खाने के शक पर किसी अख़लाक़ को मारने में एक वर्ग की सामूहिक चेतना में इतना उबाल आ जाता है? क्यों किसी विश्वविद्यालय में देश विरोधी नारे राष्ट्र के एक बड़े वर्ग की सामूहिक सोच को इतना झकझोर देते है कि अगले कई महीनों तक सब कुछ ठहर जाता है और देश की एक बड़ी पार्टी में राष्ट्रवाद दो-दिवसीय चर्चा का हीं नहीं राजनीतिक प्रस्तावना का प्रमुख अंग बन जाता है?   

पार्टी का मानना है कि विकास और राष्ट्रवाद में कोई पारस्परिक विभेद नहीं है अर्थात राष्ट्रवाद विकास साथ-साथ चल सकते हैं और दोनों के बीच प्रतिलोमानुपाती सम्बन्ध नहीं है. भाजपा का यह भी मानना है राष्ट्रवाद कहीं न कहीं विकास की प्रक्रिया को मजबूत हीं करता है. शायद उन्हें यह इल्म नहीं है कि तर्क-शास्त्र में संदर्भिता और काल-सापेक्षता का बड़ा महत्व रहा है. उदाहरण के लिए पूरे देश में अगर बाजारू ताकतें भारत के युवाओं को “पश्चिमी खान-पान” याने बर्गर पिज़ा, डांस और क्रिकेट के नशे में डाल दे तो भी विकास नहीं रुकता बल्कि इसे भी सांस्कृतिक बदलाव कह कर प्रोमोट किया जा सकता है. लेकिन क्या यह किसी गरीबी और भ्रष्टाचार से जूझ रहे समाज की प्राथमिकता हो सकती है? क्या आज पिछले दो साल में जो माहौल इस राष्ट्रवाद को लेकर बना है या “हम बनाम वो” का वातावरण तैयार हो रहा है उसमें किसानों को बता सकते हैं कि अधिक नाइट्रोजन खाद डालने की जगह पहले अपने खेत की मिटटी की जांच कराये क्योंकि लगातार नाइट्रोजन के अधिक प्रयोग से जमीन की उर्वरा शक्ति खत्म होती जा रही हैं और जमीन अम्लीयता बढ़  गयी है?

स्किल इंडिया मोदी सरकार का ड्रीम प्रोजेक्ट है लेकिन इस मद में आये पैसे का मात्र ३० प्रतिशत हीं सम्बंधित मंत्रालय पिछले दिसम्बर तक खर्च कर पाया है. स्किल इंडिया अपने आप में बेहद सार्थक स्कीम है जिसके तहत कमजोर ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था से इन अनुत्पादक और बेरोजगार युवाओं को निकाल कर रोजगारपरक कौशल (दक्षता) की ट्रेनिंग दी जानी है. ठीक बगल में “मेक इन इंडिया “ और “स्टार्ट-अप इंडिया”  जैसी योजनायें इन “दक्ष” युवाओं को रोजगार के अवसर प्रदान करेंगी. आबादी का दबाव ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था से कम होगा तो किसान खुशहाल होगा और युवाओं को रोजगार मिलेगा तो व्यय करने की शक्ति बढेगी और आद्योगिक सेक्टर में उछाल आयेगा. देश में विकास होगा. इस प्रक्रिया को समझने के लिए आइंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिए. आज भारत में दक्ष ड्राइवरों की कमी ३१ प्रतिशत है. यहाँ तक कि जो इलेक्ट्रीशियन और फिटर भी हमरे घरों में काम करते हैं उन्हें उपयुक्त ट्रेनिंग नहीं होती. फिर क्या वजह है कि राष्ट्रभक्ति के नाम पर इन युवाओं को घर-घर घुस कर कौन क्या खा रहा है देखने को कहा जाता है?

आखिर इसमें नुकसान किसका है? जिस दिन देश के प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना लांच कर रहे थे पूरा देश जे एन यू प्रकरण में उलझा था यहाँ तक कि भाजपा का पूरा तंत्र भी. दिल्ली में भाजपा एक विधायक एक “राष्ट्रविरोधी” को सड़क पर पीट रहा था और मीडिया के कैमरे पर बता रहा था कि अगर उसके पास बन्दूक होती तो वह इन “राष्ट्रविरोध की बात करने वालों को गोली भी मार देता”. भाजपा के इस विधायक और उसके के साथ के कुछ राष्ट्रवादी वकीलों ने उपद्रव करके किसका नुकसान किया--- –मोदी सरकार के इस बेहतरीन कार्यक्रम का अर्थात भारत के किसानों का या यूं कहें कि विकास का. लिहाजा भाजपा ब्रांड राष्ट्रवाद की इस समय प्राथमिकता पर आना देश के विकास को रोक रहा है. 

क्या यह उचित नहीं होता कि कम से कम अगले तीन साल तक केवल विकास और सम्बंधित कार्यक्रमों को जन-जन में ले जाने का कार्य भाजपा कार्यकर्ताओं को दिया जाये? लेकिन शायद सीधे सोचना ज्यादा मुश्किल होता है. मोदी देश के लिए भगवान् का वरदान हों इसके लिए जरूरी है कि पार्टी, उसके कार्यकर्ता उनकी स्कीमों को समझें और उन्हें जन-मानस तक ले जाकर उनके प्रति सुग्राह्य्ता बढाएं. फिर अगर भाजपा –ब्रांड राष्ट्रीयता भी सर्व-स्वीकार्य करवानी है तो इसे जबरदस्ती भारत माता की जय बोलवा कर नहीं भारत माता के प्रति सभी वर्गों का सम्मान बढ़ाने  वाला “आग्रह” किया जाना चाहिए. “माता” के प्रति सम्मान का एक खास भाव बल प्रयोग करके नहीं लाया जा सकता. और आग्रह के लिए गाँधी जैसी आध्यात्मिक शक्ति की जरूरत होती है, अख़लाक़ को मारने वाले हाथों की नहीं.   
 
jagran
/lokmat