किसे दोष दे? बलात्कारी डॉक्टर और सिपाहियों को, कानून को , पुलिस को, न्यायपालिका को या फिर सारी व्यवस्था को. और अंत में समाज को. मनोविज्ञान में आत्महत्या एक मानसिक बीमारी है. पर अगर एक ऐसी स्थिति अपरिहार्य है जिसमें लड़ाई लड़ने पर हारना हीं है, जिसमें तिल –तिल कर अपमानित जीवन केवल खुद ताउम्र नहीं जीना है बल्कि पूरे परिवार को भी वह जीवन जीने के लिए मजबूर होना है, तो विकल्प क्या है?
यह सुसाइड नोट पीडित छात्रा ने अदालती कारवाई चलने के एक साल बाद (जब पुलिस फिर उसके घर सम्मन लेकर पहुँची) खुद पंखे से लटक कर जान देने के पहले लिखा. मामला जून , २०१४ का है जब छात्रा अपने चेहरे के इलाज के लिए भिलाई –स्थिति लाल बहादुर शास्त्री अस्पताल गयी थी. आरोप है कि नशे का इंजेक्शन दे कर उसके साथ पहले डॉक्टर ने और फिर वहां तैनात दो सिपाहियों ने बलात्कार किया. और तब से लगातार अगले छः माह तक उससे विवस्त्र फोटो को सार्वजनिक करने के खौफ दिखा कर ये तीनों बलात्कार करते रहे. छात्रा का बाप किसी संस्थान में गार्ड के रूप हाल हीं में में सेवा-निवृत हुआ है. दो कमरे के किराये के मकान में यह परिवार रहता है. जब बालिका को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ तो अपने परिवार को बताया. छात्रा के भाई के अनुसार थाने में पीडिता को मार गया लेकिन जब मामला दबाना मुश्किल हो गया तो येनकेन प्रकारेण ऍफ़ आई आर लिखी गयी. चूंकि मामला और तूल पकड़ गया लिहाज़ा पुलिस ने डॉक्टर और दोनों सिपाहियों को गिरफ्तार कर जेल भेजा और अदालत ने भी जमानत नहीं दी. एक साल की पेशी के दौरान हर तारीख पर छात्रा और उसका भाई मौजूद रहे लेकिन जब मरने की बाद अदालत का रिकॉर्ड देखा गया तो ये हमेशा अनुपस्थित दिखाए गए.
यहाँ यह नहीं देखा गया कि अदालत, कानून, पुलिस की औपचारिकता के बीच कुछ अनौपचारिक भी होता है. वह है पैसे और ताकत का खौफ. पुलिस लगातार इस परिवार को धमकाती रही. लेकिन इसकी कोई लिखा –पढी नहीं होती. उसे वैश्या कह कर कह सरे आम अपमानित करती रही अदालत में भी और मोहल्ले में भी. इसकी भी कोई सनद नहीं होती. पीड़ित व्यक्ति अदालत में है लेकिन फ़ाइल में लिखा जा रहा है कि वे अनुपस्थित हैं. एक दिन इसी आधार पर “दूध-पानी “ (नीर-क्षीर) विवेक का इस्तेमाल करते हुए अदालत या तो आरोपियों को छोड़ देती या नाराज़ हो कर पीडिता को गैर-जमानती वारंट जारी करती हुए पुलिस से पकड़वायेगी. कोई ताज्जुब नहीं कि पुलिस रास्ते में फिर वही करती जो पहले उसके साथ हो चुका था. पीडिता इन सब का कोई सबूत नहीं दे पाती. चूंकि अदालत सबूत के बिना कुछ नहीं करती लिहाज़ा पीडिता हीं अंत में “पानी” ले कर आ जाती दूध आरोपियों के हाथ लगता. सिस्टम यथावत चलता रहता और डॉक्टर और सिपाही किसी और मरीज पर यही नुस्खा आज़माते.
और किसी भी संभ्रांत बौद्धिकता वाले व्यक्ति की तरह राज्य के मुख्यमंन्त्री ने इस मामले पर प्रतिक्रिया देते हुए मनोवैज्ञानिक व्याख्या का हीं सहारा लिया. उनका भी कहना था “लगता है वह बालिका मानसिक अंतर्द्वंद में थी वर्ना पुलिस ने आरोपियों को बंद कर दिया. वे जेल में हैं. मामला अदालत के विचाराधीन है”. याने पीडिता को सिस्टम पर भरोसा रखना चाहिए वैसे हीं जैसे नक्सालियों के शिकार लोग पीढी दर पीढी रखते हैं. और नक्सली रक्त बीज की तरह बढ़ते जाते हैं.
तकनीकी रूप से देखें तो सब ने अपना काम किया भले हीं देर से. पुलिस ने ऍफ़ आई आर लिखा. आरोपियों को जिनमें दो सिपाही भी थे, गिरफ्तार भी किया. अदालत ने भी अपना काम किया उनकी जमानत की अर्जी ख़ारिज कर जेल में रखते हुए. कानून और सिस्टम तो इतना हीं कर सकता है. पर अगर साथ के सिपाही उसे रास्ते में “वेश्या” कहते है या मोहल्ले में इस बात को अन्य को बताते हैं ताकि पूरा मोहल्ला सिपाहियों पर विश्वास करते हुए उसे वैश्या मान ले तो इसमें कानून क्या करेगा? अगर जेल से या जेल के बाहर आरोपियों के गुर्गों द्वारा मोबाइल पर धमकी मिल रही है तो इसमें कौन सा गुनाह एक कमजोर परिवार लगा सकता है?
कितना सहज है संप्रभु सत्ता की गोद में पूर्ण सुरक्षा का कवच पहने कमजोरों के लिए काल बने सिस्टम पर भरोसा रखने की ताकीद करना. यह नहीं देखा गया कि किसी थानेदार का पहले उस पीडिता से मार-पीट करना, फिर बमुश्किल तमाम ऍफ़ आई आर लिखना फिर हर तीसरे दिन आरोपियों से मिलकर पीडिता को पुलिस द्वारा धमकाना, उसके पेशी के दिन अदालत जाने पर उसे “वैश्या” कहना. सबने नज़रंदाज़ किया कि आरोपी भले हीं जेल में हों, उनके गुर्गे जिनमें पुलिस भी थी किस तरह से उसे पिछले एक साल से केस वापस लेने के लिए धमकाते रहे. ये तथ्य जो छात्रा ने सुसाइड नोट में लिखा है सत्ता में बैठे लोगों के लिए गौण हो जाता है अगर वे खूबसूरती से यह स्थापित कर सकें कि “पीडिता मानसिक अंतर्द्वंद की शिकार थी” याने मेंटल केस थी. सत्ता के प्रतिनिधियों का सीधा जवाब है “पुलिस ने आरोपियों को गिरफ्तार किया, याने कानून ने अपना काम किया, न्यायपालिका में केस सुना जा रहा है. अंत में “दूध का दूध” वाला जुमला फेंकते हुए सत्ता उस दूध से मलाई निकालने लगता है.
सुसाइड नोट में बी एस सी की इस छात्रा ने मौत को गले लगने के पहले लिखा था “ मम्मी, पापा, मुझे माफ़ करना. मुझे न्याय नहीं मिलेगा और आगे जिन्दगी जीना मुश्किल होगा. अगर मैं मर गयी तो आगे कोई भी हमें वैश्या नहीं कहेगा......... मैं जब भी तारीख पर अदालत जाती थी मुझसे कहा जाता था कि मजिस्ट्रेट साहेब नहीं हैं. मुझे न्याय प्रणाली पर भरोसा नहीं है”.
पूरा केस देखने पर साफ़ दिखाई देता है कि भारतीय अपराध न्याय-शास्त्र में जबरदस्त कमियां हैं जो पीड़ित की अनौपचैरिक (साक्ष्य-विहीन) प्रताड़ना या उसका भय संज्ञान में नहीं लेता क्योंकि न्याय की देवी के आँखों पर पट्टी है. वह यह भी नहीं देख पाती कि कोर्ट क्लर्क हाज़िर को गैर-हाज़िर बना देता है.
lokmat