Friday 5 February 2016

और उसने फांसी लगा ली, क़ानून देखता रहा


किसे दोष दे? बलात्कारी डॉक्टर और सिपाहियों को, कानून को , पुलिस को, न्यायपालिका को या फिर सारी व्यवस्था को. और अंत में समाज को. मनोविज्ञान में आत्महत्या एक मानसिक बीमारी है. पर अगर एक ऐसी स्थिति अपरिहार्य है जिसमें लड़ाई लड़ने पर हारना हीं है, जिसमें तिल –तिल कर अपमानित जीवन केवल खुद ताउम्र नहीं जीना है बल्कि पूरे परिवार को भी वह जीवन जीने के लिए मजबूर होना है, तो विकल्प क्या है?

यह सुसाइड नोट पीडित छात्रा ने अदालती कारवाई चलने के एक साल बाद (जब पुलिस फिर उसके घर सम्मन लेकर पहुँची) खुद पंखे से लटक कर जान देने के पहले लिखा. मामला जून , २०१४ का है जब छात्रा अपने चेहरे के इलाज के लिए भिलाई –स्थिति लाल बहादुर शास्त्री अस्पताल गयी थी. आरोप है कि नशे का इंजेक्शन दे कर उसके साथ पहले डॉक्टर ने और फिर वहां तैनात दो सिपाहियों ने बलात्कार किया. और तब से लगातार अगले छः माह तक उससे विवस्त्र फोटो को सार्वजनिक करने के खौफ दिखा कर ये तीनों बलात्कार करते रहे. छात्रा का बाप किसी संस्थान में गार्ड के रूप हाल हीं में में सेवा-निवृत हुआ है. दो कमरे के किराये के मकान में यह परिवार रहता है. जब बालिका को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ तो अपने परिवार को बताया.  छात्रा के भाई के अनुसार थाने में पीडिता को मार गया लेकिन जब मामला दबाना मुश्किल हो गया तो येनकेन प्रकारेण ऍफ़ आई आर लिखी गयी. चूंकि मामला और तूल पकड़ गया लिहाज़ा पुलिस ने डॉक्टर और दोनों सिपाहियों को गिरफ्तार कर जेल भेजा और अदालत ने भी जमानत नहीं दी. एक साल की पेशी के दौरान हर तारीख पर छात्रा और उसका भाई मौजूद रहे लेकिन जब मरने की बाद अदालत का रिकॉर्ड देखा गया तो ये हमेशा अनुपस्थित दिखाए गए.

यहाँ यह नहीं देखा गया कि अदालत, कानून, पुलिस की औपचारिकता के बीच कुछ अनौपचारिक भी होता है. वह है पैसे और ताकत का खौफ. पुलिस लगातार इस परिवार को धमकाती रही. लेकिन इसकी कोई लिखा –पढी नहीं होती. उसे वैश्या कह कर कह सरे आम अपमानित करती रही अदालत में भी और मोहल्ले में भी. इसकी भी कोई सनद नहीं होती. पीड़ित व्यक्ति अदालत में है लेकिन फ़ाइल में लिखा जा रहा है कि वे अनुपस्थित हैं. एक दिन इसी आधार पर “दूध-पानी “ (नीर-क्षीर) विवेक का इस्तेमाल करते हुए अदालत या तो आरोपियों को छोड़ देती या नाराज़ हो कर पीडिता को गैर-जमानती वारंट जारी करती हुए पुलिस से पकड़वायेगी. कोई ताज्जुब नहीं कि पुलिस रास्ते में फिर वही करती जो पहले उसके साथ हो चुका था. पीडिता इन सब का कोई सबूत नहीं दे पाती. चूंकि अदालत सबूत के बिना कुछ नहीं करती लिहाज़ा पीडिता हीं अंत में “पानी” ले कर आ जाती दूध आरोपियों के हाथ लगता. सिस्टम यथावत चलता रहता और डॉक्टर और सिपाही किसी और मरीज पर यही नुस्खा आज़माते.    
    
और किसी भी संभ्रांत बौद्धिकता वाले व्यक्ति की तरह राज्य के मुख्यमंन्त्री ने इस मामले पर प्रतिक्रिया देते हुए मनोवैज्ञानिक व्याख्या का हीं सहारा लिया. उनका भी कहना था “लगता है वह बालिका मानसिक अंतर्द्वंद में थी वर्ना पुलिस ने आरोपियों को बंद कर दिया. वे जेल में हैं. मामला अदालत के विचाराधीन है”. याने पीडिता को सिस्टम पर भरोसा रखना चाहिए वैसे हीं जैसे नक्सालियों के शिकार लोग पीढी दर पीढी रखते हैं. और नक्सली रक्त बीज की तरह बढ़ते जाते हैं.  

तकनीकी रूप से देखें तो सब ने अपना काम किया भले हीं देर से. पुलिस ने ऍफ़ आई आर लिखा. आरोपियों को जिनमें दो सिपाही भी थे, गिरफ्तार भी किया. अदालत ने भी अपना काम किया उनकी जमानत की अर्जी ख़ारिज कर जेल में रखते हुए. कानून और सिस्टम तो इतना हीं कर सकता है. पर अगर साथ के सिपाही उसे रास्ते में “वेश्या” कहते है या मोहल्ले में इस बात को अन्य को बताते हैं ताकि पूरा मोहल्ला सिपाहियों पर विश्वास करते हुए उसे वैश्या मान ले तो इसमें कानून क्या करेगा? अगर जेल से या जेल के बाहर आरोपियों के गुर्गों द्वारा मोबाइल पर धमकी मिल रही है तो इसमें कौन सा गुनाह एक कमजोर परिवार लगा सकता है?  

कितना सहज है संप्रभु सत्ता की गोद में पूर्ण सुरक्षा का कवच पहने कमजोरों के लिए काल बने सिस्टम पर भरोसा रखने की ताकीद करना. यह नहीं देखा गया कि किसी थानेदार का पहले उस पीडिता से मार-पीट करना, फिर बमुश्किल तमाम ऍफ़ आई आर लिखना फिर हर तीसरे दिन आरोपियों से मिलकर पीडिता को पुलिस द्वारा धमकाना, उसके पेशी के दिन अदालत जाने पर उसे “वैश्या” कहना. सबने नज़रंदाज़ किया कि आरोपी भले हीं जेल में हों, उनके गुर्गे जिनमें पुलिस भी थी किस तरह से उसे पिछले एक साल से केस वापस लेने के लिए धमकाते रहे. ये तथ्य जो छात्रा ने सुसाइड नोट में लिखा है सत्ता में बैठे लोगों के लिए गौण हो जाता है अगर वे खूबसूरती से यह स्थापित कर सकें कि “पीडिता मानसिक अंतर्द्वंद की शिकार थी” याने मेंटल केस थी. सत्ता के प्रतिनिधियों का सीधा जवाब है “पुलिस ने आरोपियों को गिरफ्तार किया, याने कानून ने अपना काम किया, न्यायपालिका में केस सुना जा रहा है. अंत में “दूध का दूध” वाला जुमला फेंकते हुए सत्ता उस दूध से मलाई निकालने लगता है.            

सुसाइड नोट में बी एस सी की इस छात्रा ने मौत को गले लगने के पहले लिखा था “ मम्मी, पापा, मुझे माफ़ करना. मुझे न्याय नहीं मिलेगा और आगे जिन्दगी जीना मुश्किल होगा. अगर मैं मर गयी तो आगे कोई भी हमें वैश्या नहीं कहेगा......... मैं जब भी तारीख पर अदालत जाती थी मुझसे कहा जाता था कि मजिस्ट्रेट साहेब नहीं हैं. मुझे न्याय प्रणाली पर भरोसा नहीं है”.  

पूरा केस देखने पर साफ़ दिखाई देता है कि भारतीय अपराध न्याय-शास्त्र में जबरदस्त कमियां हैं जो पीड़ित की अनौपचैरिक (साक्ष्य-विहीन) प्रताड़ना या उसका भय संज्ञान में नहीं लेता क्योंकि न्याय की देवी के आँखों पर पट्टी है. वह यह भी नहीं देख पाती कि कोर्ट क्लर्क हाज़िर को गैर-हाज़िर बना देता है.
    
lokmat

Sunday 31 January 2016

क्यों नहीं मिटता भारत से भ्रष्टाचार !

हर साल की तरह इस साल भी २७ जनवरी को ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट आयी. भ्रष्टाचार के वैश्विक पैमाने पर भारत अंकों के आधार पर वहीं खड़ा है. पिछले हफ्ते ऑक्सफैम सहित दुनिया की तीन आर्थिक विश्लेषण संस्थाओं ने बताया कि भारत में  विगत २५ सालों में गरीब –अमीर की खाई खतरनाक रूप से बढ़ती जा रही है. गरीब और गरीब होता जा रहा है और अमीर और अमीर. विश्वास नहीं होता कि बापू के देश में यह सब कैसे. हमने तो बापू के सम्मान में अपने नोटों पर उनकी तस्वीर भी छापी फिर आखिर क्या वजह है कि वे नोट भ्रष्टाचार के रास्ते धन-पशुओं की तरफ जाते रहे. हमने कानून बनाये. हमने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकारें गिरायीं और सरकारें बनायी. अन्ना ने आन्दोलन किया. पूरा देश उससे प्रभावित होकर कई दिन अनशन –स्थल पर गया या अपने-अपने जिलों में जलूस निकाला. यहाँ तक कि भ्रष्ट लोग भी आन्दोलन में नज़र आये. लगा कि देश की सामूहिक चेतना में गुणात्मक परिवर्तन हो गया और अब भ्रष्टाचार आखिरी सांस लेगा.
 
लेकिन ताज़ा खबर के मुताबिक देश की सेना के दो मेजर –जनरल के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति को लेकर सी बी आई जांच के आदेश दिए गए हैं. यह भी खबर है कि सेना में प्रमोशन के लिए घूस देने की आशंका है. इसके पहले दो लेफ्टिनेंट –जनरल के खिलाफ भी कुछ ऐसा हीं मामला चला था. प्रधानमंत्री ने हाल में अधिकारियों की मीटिंग में कस्टम्स और उत्पाद कर विभाग में भ्रष्टाचार को लेकर सख्त ताकीद की. याने देश के राजस्व को चुना लगाया जा रहा है. कहने की जरूरत नहीं कि अगर सेना के शीर्ष अधिकारियों को भी यह बीमारी है तो हम कितने महफूज़ रह सकते हैं. अगर देश की सर्वोच्च अफसरशाही –आई ए एस – जिसे सिस्टम पलक –पांवड़े बिछा कर ताउम्र “माई-बाप” मानता है--- भी कफनचोर निकले तो समाज की चिंता बचैनी में बदल जाती है. मीडिया के खिलाफ आरोप आम जन की जुबान पर लगातार रहा है. हाई कोर्ट तो छोडिये सुप्रीम कोर्ट के कुछ मुख्य न्यायाधीशों भी इस आंच से नहीं बचे. हाई कोर्ट के एक मुख्य न्यायाधीश ने सुप्रीम कोर्ट के एक जज पर अपनी बहन को जज बनाने का दबाव डालने का आरोप लगाया और भारत के मुख्य न्यायाधीश को भेजा गया अपना शिकायत पत्र मीडिया को दे कर सार्वजनिक किया. कुल मिलकर प्रजातंत्र की तीनों औपचारिक संस्थाएं और चौथी अनौपचारिकसंस्था –मीडिया—सभी हम्माम में दिखे.
 
आखिर जाता क्यों नहीं हमारे देश से यह रोग. ट्रांस्पैरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार हमेशा क्यों पूरा यूरोप इस बीमारी से लगभग अछूता है. अमरीका में भी यह आम जन को प्रभावित नहीं करता. अगर सम्पन्नता इसका कारण है तो हमने पिछले २५ सालों में जबरदस्त छलांग लगाई है सकल घरेलू उत्पाद में. और ५० वें नंबर से नवें नंबर पर आ गए हैं. यह अलग बात है कि मानव विकास सूचकांक पर हम इस दौरान वहीं के वहीं रहे.
 
सोशल मीडिया में एक फोटो वाइरल हुआ जिसमें इजराइल के प्रधानमंत्री और उनकी पत्नी अपने बेटे को सेना में भर्ती होने पर भाव-भीनी बिदाई दे रहे थे. कभी भारत के किसी बड़े नेता के बेटे को आपने सेना में भर्ती होते सुना है. वह भी देश की सेवा करता है पर पार्टी का टिकट लेकर या पिछले दरवाजे से राज्य सभा में आ कर या फिर पिता के नाम पर चुनाव जीतकर और अगर पिता या पति ज्यादा दमदार हुआ तो मुख्यमंत्री या उप-मुख्य मंत्री बन कर. एक अन्य चित्र भी वाइरल हुआ जिसमें स्वीडेन के प्रधानमंत्री बस में टिकट लेकर संसद के गेट पर उतरते हुए. भारत में क्या यह संभव है?
 
लेकिन नेता का आचरण व्याधि का कारण नहीं अभिव्यक्ति है. अगर लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव के माध्यम से हम अपने रहनुमा चुनते हैं तो दोष हमारा है. अगर कानून है पर काम नहीं कर रहा है, अगर अफसर और सेना में भी यह भ्रष्टाचार व्याप्त है तो शायद हमने अच्छे इंसान पैदा करने बंद कर दिए हैं. लोकपाल (याने एक और संस्था)  इस का इलाज़ नहीं है. इस दुनिया में तीन करोड तीस लाख कानून हैं. परन्तु हत्या , बलात्कार और भ्रष्टाचार के आंकड़े बढ़ते गए.
 
दरअसल भ्रष्टाचार नैतिकता और मूल्यों से जुड़ा प्रश्न है और इसका समाधान कानून और औपचारिक संस्थाओं में ढूढना हीं गलत है. समाज के इकाई के रूप में व्यक्ति कानून के डर से नहीं अपने स्वयं के डर से नैतिक बनता है. और व्यक्ति को नैतिक बनाने वाली संस्थाएं कानून या कोर्ट नहीं होतीं. व्यक्ति नैतिक बनाता है माँ की गोद में, स्कूल में अपने अध्यापक के आचरण को देख कर. पडोसी के बच्चे को देख कर. पास के लोगों के नैतिकता के प्रति निष्ठा और प्रतिबद्धता को देख कर. अपने प्रतिमानों को देख कर. दुर्भाग्यवश हमने प्रतिमान बनाने बंद कर दिए और अगर बनाये भी तो बाजारी ताकतों की वजह से गलत प्रतिमान. सब्जी बेचने वाले की बेटी देश की सबसे कठिन आई आई टी की प्रवेश परीक्षा में पास करती है लेकिन वह आइकॉन नहीं बनती परन्तु “डांस इंडिया डांस” में प्रथम आने वाला लड़का देश के शहरों में घुमाया जाता है और जनता उसे देखने के लिए टूट पड़ती है.      
      
अगर हम आत्ममुग्ध होने के लिए “गिलास आधा भरा है” भाव से देखना चाहें तो कह सकते हैं कि भ्रष्टाचार पिछले एक साल में  बढा नहीं. हम यह भी कह सकते हैं कि पाकिस्तान तो छोडिये चीन भी हमसे बदतर है. पर यह “सुतुर्मुर्गी भाव” उस समय टूट जाता है जब रिपोर्ट यह कहता है कि कि पाकिस्तान पिछले एक साल में अंकों के आधार पर बेहतर हुआ है यानी भ्रष्टाचार कम हुआ है. चीन के विकास के अन्य हमें हमेशा शर्मिंदा करते रहे है.
 
एक गैर सरकारी संस्थान ने कुछ माह पहले अपने अध्ययन में पाया कि एक औसत ग्रामीण
राशन,स्वास्थ्य,शिक्षा और जलापूर्ति जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए औसतन
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रुपए घूस हर साल देता है। यानि हर एक ग्रामीण परिवार से लगभग एक हजार
रुपए सालाना। अध्ययन में ये भी पता लगा कि सबसे ज्यादा घूस बगैर कागज़ के
फर्ज़ी बी.पी.एल कार्ड बनाने के मद में जा रहा है,लगभग 800 रुपया। लेकिन यह वह भ्रष्टाचार नहीं जो देश को खा रहा है. असल भ्रष्टाचार गरीब या विकास के नाम पर बहने वाले फण्ड को लेकर है जो हमारी बजट का बड़ा हिस्सा है. इसी को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक तीखी टिप्पड़ी में सरकारी वकील से पूंछा था क्या नौकरशाहों को मसूरी(जहां आई.ए.एस प्रोवेशनर्स की ट्रेनिंग होती है)में दिए जाने वाले प्रशिक्षण में यह भी शामिल होता है कि भ्रष्टाचार पर कैसे लीपापोती करें और कैसे अपने साथी को बचाएं  
एक ग्रीक कहावत है- फिश राट्स फ्राम द हेड फर्स्टयानि  मछली पहले सिर से सड़ना शुरू होती है। भारत का तंत्र भी शीर्ष से सड़ना शुरू कर रहा है। मुश्किल ये है कि हम इसमें पूंछ के पास सड़ांध महक रहे हैं।
 
lokmat