झारखण्ड के किसी
पत्रकार मित्र ने मुझे सन २०१२ की राज्य सरकार की डायरी दी. इस डायरी के अंत में
राज्य का नक्शा दिया गया है जो उलटा है. राज्य का क्षेत्रफल ७९ हज़ार किलोमीटर दिया
है (जो पढ़ने में ७९.७२३ किलो मीटर लगता है और वर्ग शब्द गायब है). राज्य के हीं
जिले पलामू का क्षेत्रफल इस डायरी में ८४ हज़ार किलोमीटर. याने राज्य से ज्यादा
जीजे का क्षेत्रफल. इसमें भी वर्ग शब्द
नदारत है. यह डायरी अन्य राज्यों की डायरी से ज्यादा महंगी दिखाई देती है. यह
उदाहरण महज इस बात का परिचायक है कि राज्य अभिकरण अपने काम के प्रति कितना
गैर-ज़िम्मेंदाराना रवैया रखते हैं.
किसी राजनीतिक –सामाजिक
विश्लेषक के लिए झारखण्ड की वर्तमान स्थिति एक अबूझ पहेली है. जन-चेतना के स्तर पर
देखा जाये या सामूहिक क्रियाशीलता के स्तर पर परखा जाये तो शायद इस क्षेत्र के
आदिवासी किसी भी पड़े –लिखे और तज्जनित अधिकार के प्रति सजग अन्य भारतीय समाज से
ज्यादा आगे दिखाई देंगे. अंग्रेजों के खिलाफ और गैर-जनजाति लोगों द्वारा शोषण के
खिलाफ बिरसा मुंडा के आन्दोलन से लेकर सिबू सोरेन के पृथक राज्य के आन्दोलन तक इस
आदिवासी समाज में अद्भुत चेतना का मुजाहरा होता है. लेकिन फिर कहाँ फंस गया इस
क्षेत्र की विकास ?
झारखण्ड को पृथक राज्य
बने आज १४ साल हो गए. इसे पृथक राज्य बनाने के पीछे एक लम्बा इतिहास है. या यूं
कहें कि अगर भारत में कोई एक क्षेत्र अपनी अस्मिता (जिसमें पृथक राज्य बनाने की
मांग भी शामिल है) के लिए सबसे लम्बी लड़ाई लड़ा और सबसे ज्यादा कुर्बानी दी तो वह
झारखण्ड था. सम्माजिक-सामूहिक चेतना के स्तर पर १४ साल पहले आज के दिन हीं जिन दो
अन्य क्षेत्रों को राज्य का दर्ज़ा मिला वे थे छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड. छत्तीसगढ़ और
झारखण्ड में काफी समानता है. दोनों आदिवासी क्षेत्र है दोनों में नक्सलवाद अपनी
चरम सीमा पर है. पर दोनों के विकास में जबरदस्त असमानता है. झारखण्ड में औसतन हर
दो साल पर मुख्यमंत्री बदल जाता है और एक जबरदस्त राजनीतिक अस्थिरता का माहौल है,
जबकि जबकि छत्तीसगढ़ में रमन सिंह सरकार अपना तीसरा कार्यकाल पूरा कर रही है. मानव
विकास सूचकांक में भी दोनों राज्यों में जमीन- आसमान का अंतर है. इस राज्य में १४
साल में १२ बार सरकारें बदली, तीन बार राष्ट्रपति शासन रहा और तीन-तीन बार शिबू
सोरेन और अर्जुन मुंडा ने अपनी पारी खेली और बाकी समय बाबू लाल मरांडी, मधु कोड़ा
और हेमंत सोरेन के बीच राज्य अस्थिरता में झूलता रहा. याने कोई भी एक शासन औसतन
साल भर हीं रह पाया. मधु कोड़ा और सिबू सोरेन पर भ्रष्टाचार और अन्य आपराधिक मामले
भी रहे हैं. नए राज्य की रूप में जन्म से आज तक इस राज्य में केवल आदिवासी हीं
मुख्यमंत्री बने हैं या फिर अस्थिरता की वजह से राष्ट्रपति शासन रहा है.
राजनीति-शास्त्र की
सामान्य अवधारणा है कि किसी अशिक्षित और मुख्यधारा से कटे समाज के तीव्र विकास के
लिए बेहतर होता है उन्हें स्व-शासन देना. भारत की आज़ादी के पीछे भी मूल तर्क यही
था. जंगल या आदिवासी समाज को स्व-शासी बनाने के पीछे भी यही तर्क रहता है यह मानते
हुआ कि अन्य वर्ग से आया शासक उसका शोषण करता है. आदिवासी शासक उनकी मूल-समस्या से
वाकिफ होता है और तब शोषण की संभावना क्षीण हो जाती है.
लेकिन शायद आदिवासी
चेतना की गुणवत्ता को समझने में भूल हुई. १५० साल पहले का १५ साल लंबा बिरसा मुंडा
का आन्दोलन जो सन १९०० तक चला वह “बिरसा भगवान्” के प्रति आदिवासियों की निष्ठां
का आक्रामक प्रगटीकरण था. अभी हाल तक कुछ इलाकों में शीबू सोरेन में भी ईश्वरीय
अंश वहां के आदिवासियों के एक वर्ग देखता है. “शीबू भगवान की माया है कभी गाँव में
दिखाई देते है तो कभी उसी समय दिल्ली में”, इस तरह के किस्से आम हैं अपने नेता के
बारे में. राजा में ईश्वरीय गुण प्रतिष्ठापित करना प्रजा के सिस्टेमेटिक शोषण का
पहला सोपान होता है. लिहाज़ा कोई सोरेन या कोई कोड़ा अगर सभी समाज के पैरामीटर से
भ्रष्टाचार का दोषी मन जाता है तो गलती ना तो किसी सिबू या कोड़ा की है ना हीं अपने
लीडर में भगवान् का अंश देखने वाले आदिवासी की. समस्या है उस उस राजनीतिक वर्ग की
जो आज तक उस आदिवासी समाज को मुख्यधारा से जोड़ नही पाया या जोड़ना नहीं चाहता और
उनके वोटों से जीते किसी मुंडा, किसी सोरेन या किसी कोड़ा को अपने स्वार्थ सिद्धि
के लिए इस्तेमाल करता रहा है. कोई भ्रष्ट कोड़ा उसके लिया फायदे का सौदा है क्योंकि
वह कमज़ोर होगा कोई अपेक्षाकृत ईमानदार
बाबू लाल मरांडी उसके सिस्टम को रास नहीं
आता.
यही कारण है कि पूरे
जंगल में रहने वाले आदिवासियों की तमाम पहचान समूहों में बाँट दिया गया है और फिर
कोशिश यह की गयी है कि कोई बिरसा मुंडा जैसी सर्व-स्वीकार्यता न हासिल कर पाए.
लिहाज़ा मुंडा आदिवासियों का अलग पहचान समूह बन गया तो उराओं पहले हीं से अलग कर
दिए गए. अब मांग यह उठ रही है कि अगर राज्य में मात्र २९ प्रतिशत हीं आदिवासी है
तो फिर आदिवासी हीं मुख्यमंत्री क्यों? शेष ७२ प्रतिशत (उसमें बाहरी वर्ग के तर्क
के हिसाब से १२ प्रतिशत और १३.५ प्रतिशत मुसलमान भी शामिल है) तो गैर-आदिवासी है.
भारतीय जनता पार्टी के यशवंत सिन्हा आदि इसे तर्क पर अपने मुख्यमंत्री पद के दावे
को हवा दे रहा हैं.
कहना ना होगा कि जिस
आधार पर यह राज्य बना था और जिन लोगों की कुर्बानियों से बना था उसके आसपास भी यह
बाहरी वर्ग नहीं था बल्कि दरअसल इन्हीं के शोषण के खिलाफ समूचा आदिवासी आन्दोलन
था. लिहाज़ा ज़रुरत यह नहीं है कि गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री बने बल्कि आदिवासियों में
हीं नए युवा और अच्छी छवि के नेता उभारे जाएँ. वे ऐसे नेता हों जो विकास और
‘भ्रष्टाचार –जनित व्यक्तिगत “विकास” में अंतर समझ सकें और भ्रष्टाचार को कानूनी
हीं नहीं नैतिक अपराध भी समझें, दल –बदलने के लिए पैसा ना लें. याने अभी भी
आदिवासी समाज में और उनके नेतृत्व में चेतना की गुणवत्ता बढानी होगी ताकि वे समझ सकें कि पैसे ले कर पार्टी
नहीं बदली जाती या राज्य सभा के प्रत्याशी को वोट नहीं दिया जाता (हालांकि कि
इसमें आदिवासी विधायकों से ज्यादा गैर-आदिवासी विधायक शामिल हैं). नक्सलवाद जो इस
चेतना को जगाना तो दूर शोषण का एक नया पर्याय बन गया है , से निपटने के लिए राज्य-अभिकरणों का नेतृत्व करने
वाले लोगों में, जो मुख्यरूप से आदिवासी समाज से हों एक नयी इच्छा –शक्ति और नयी
समझ की ज़रुरत है. नेतृत्व की इच्छा –शक्ति, राज्य-शक्ति का साथ और आदिवासियों का
विश्वास हीं नक्सली दंश को ख़त्म कर सकेगा. समझ इसलिए कि अफसरशाही डायरी को भी
अन्यमनस्क ढंग से ना छपे और सरकारी पैसे की क़द्र समझे.
lokmat
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