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योजनाओं को समग्रता में देखने की ज़रुरत
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किसी भी देश में समग्र विकास के लिए अच्छी नीति और योजनाएं तब सफल होती हैं जब वे दिक्- व काल सापेक्ष हों और उन पर अमल करने में राज्य अभिकरण अपनी पूरी प्रतिबद्धता दिखाए. भारत में इस प्रतिबद्दता के आड़े एक तो भ्रष्टाचार आता है और दूसरा लाभार्थियों को लेकर सही पहचान के लिए विश्वसनीय दस्तावेजों का अभाव. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू एन डी पी) ने दो सप्ताह पहले अपने आंकलन में बताया कि रोजगार गारंटी की विश्व भर में जारी योजनाओं में मनरेगा , जो सन २००६ में यू पी ए-२ शासन काल में शुरू की गयी थी, सबसे बेहतरीन है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता में आने के साथ इस योजना को "यूपीए सरकार की यादगार असफलता " बताया था लेकिन अब इसके तारीफ़ में क़सीदे काढ़ रही है। मोदी की इस माह चार राज्यों मे होने वाली किसान रैलियाँ मनरेगा और नयी फ़सल बीमा योजना को ले कर होगी। इस योजना का अगर कोई कमी थी तो वह यह कि कार्यक्रम में राज्य सरकारों के तंत्र में इच्छा –शक्ति का अभाव था और अमल के स्तर पर यह कुछ हद तक भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ता रहा. सालों पहले मरे हुए व्यक्ति के नाम पर काम दिखा कर राज्य अभिकरणों के भ्रष्ट कर्मचारियों ने पैसा हड़प लिया.
मोदी सरकार की नयी योजनाओं का अगर निरपेक्ष आंकलन किया जाये तो पाएंगे कि कोई आधा दर्ज़न नयी योजनाओं, जिसमें पुरानी योजनाओं का विस्तार भी है, एक दूसरे की पूरक हैं. साथ हीं तकनीकी के सामाजिक स्तर पर फैलाव व प्रयोग के कारण भ्रष्टाचार पर भी काफी हद तक अंकुश लग सकता है. लगभग २० करोड बैंक खाते खुलवाना, यूरिया पर नीम की परत चढाने से इसे नाइट्रोजन-आधारित उद्यमों के गैर –वाजिब इस्तेमाल से रोकना ताकि इस मद की सब्सिडी का लाभ सिर्फ किसानों को हीं मिले, मृदा –स्वास्थ्य कार्ड का अभियान ताकि किसान जरूरत के मुताबिक हीं नाइट्रोजन, फास्फेट और पोटाश का प्रयोग करे, नयी फसल बीमा योजना जिसमें पहले की तीन योजनाओं की अधिकांश कमियों को दूर किया गया है यह सब उसी व्यापक कृषि नीति पर सरकार के वैज्ञानिक, तार्किक और क्रियात्मक सोच का परिणाम है. इनमें से कोई भी कड़ी हटा ली जाये तो हर योजना अमल की दहलीज़ पर दम तोडती दिखाई देगी.
इनमें से कोई भी योजना ऐसी नहीं है जिसको बनाने में राकेट साइंस के ज्ञान की ज़रूरत है. अगर जरूरत है तो समस्या के सही समझ की और उसे दूर करने की इच्छा –शक्ति की. यह इसी इच्छा –शक्ति का प्रतीक था कि बैंकों के तमाम ना-नुकुर करने की बावजूद प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी के दबाव के चलते घुरहू-पतवारू के खाते खुले. इसका लाभ उस समय तो नहीं समझ में आया पर अब जब अन्य योजनाओं का लाभ सीधे इनका खाते में पहुंचेगा राज्य के भ्रष्ट अभिकरणों को धता बताते हुए तब समझा जा सकता है कि “डायरेक्ट कैश बेनिफिट” (नकद धन लाभ) क्या है.
फौरी तौर पर और अलग-अलग देखने पर “स्किल इंडिया”, “मेक इन इंडिया” और “स्टार्ट उप इंडिया” समझ में नहीं आ सकता. इन्हें समग्रता में और समेकित करके देखना होगा. एक ओर ग्रामीण बेरोजगार युवाओं के लिए यह वरदान हो सकता है वहीं नए उद्यमियों के लिए यह जबरदस्त उत्प्रेरक भी होगा. इसमें कोई दो राय नहीं है कि ३६५ व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर के आबादी घनत्व वाले भारत में कृषि से युवाओं को निकलना सबसे जरूरी कार्य है. अगर वे निकल कर अन्य रोजगार में लगें तो कृषि पर दबाव कम होगा निवेश ज्यादा होगा और कृषि का अपेक्षित किफायती मशीनीकरण सार्थक होगा. किसानों के जेब में ज्यादा पैसा होगा तो खपत बढ़ेगी और उद्योग बढेंगे. लेकिन जब हम पाते हैं कि देश में ३२ प्रतिशत स्किल्ड (प्रशिक्षित ) ड्राइवरों की कमी है जिससे वाहनों में ईंधन अधिक लगता है और दुर्घटनाएँ होती हैं तो समस्या का अहसास होता है. एक तरफ बेरोजगारी और दूसरी तरह ड्राइवरों का टोटा. अजीब विरोधाभास. आपके घर में जो बिजली ठीक करने इलेक्ट्रीशियन आता है उसे सही पेंचकश घुमाना नहीं आता (हर एक पेंच के लिए एक खास साइज़ का स्क्रू ड्राइवर चाहिए और वह भी एक खास कोण पर निश्चित बल की ज़रुरत होती है) लिहाज़ा गलत पेंच घुमाने से खांचे कट जाते हैं और पूरा उपकरण दो-चार बार में खराब हो जाता है. अगर इन ग्रामीण युवाओं को स्किल इंडिया के तहत गाँव से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्किल (दक्षता) की ट्रेनिंग मिले और फिर ये “स्टार्ट अप इंडिया” कार्यक्रम के तहत नए उद्यमियों के छोटे-छोटे उद्यमों से लेकर “मेक इन इंडिया” के बड़े उद्योगों में नियोजित हों तो क्या यह क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं लायेगा? दुनिया की सभी अर्थ-व्यवस्थाओं में विकास के विभिन्न स्तर पर योजनाएं बनती हैं. भारत की समस्या हीं ग्रामीण युवाओं को कृषि से बाहर निकल कर उन्हें उद्योगों में नियोजित करने की योग्यता/दक्षता मुहैया कराने की हैं.
बात सिर्फ सत्ता में बैठ कर सही सोचने की है. देश में पिछले ३० सालों से किसान कृषि शिक्षा के अभाव में पागलपन की हद तक यूरिया (नाइट्रोजन) का इस्तेमाल करता रहा है. नतीज़तन जमीन का पी एच (हाइड्रोजन आयन कंसंट्रेशन) बदलता रहा है और उर्वरता घटती रही है. ७० साल पुराने कृषि विस्तार अभिकरण जैसे खंड विकास कार्यालय किसानों को यह नहीं बता पाए. उनकी नज़र किसानों के दिए जाने वाले फण्ड पर हीं रही. नतीजा यह रहा कि सन १९७० तक जहाँ भारत में प्रति हेक्टेयर १२ क्विंटल गेहूं पैदा होता था वहीं चीन में १० क्विंटल जबकि आज भारत में ३२ क्विंटल गेहूं होता है और चीन में ६० क्विंटल. मृदा स्वास्थ्य कार्ड बनाने के साथ हीं केंद्र सरकार सस्ती किटें बनवा रही है ताकि हर फसल के पहले किसान को यह जानकारी मिल सके कि रासायनिक खादों में से कौन सा और कितना इस्तेमाल करना है. सहीं फसल बोने की जानकारी न होने और कमज़ोर फसलों को लेकर सर्व-स्वीकार्य फसल बीमा के अभाव का नतीजा यह रहा कि देश में दलहन का रकबा घटता रहा , उत्पादन कम होता रहा. सन १९७० में जहाँ भारत में प्रति-व्यक्ति दाल की उपलब्धता ६४ ग्राम थी आज ३६ ग्राम है. दाल गरीबों के लिए प्रोटीन का एक मात्र सस्ता साधन था लेकिन वह २०० रुपये प्रति किलो से ऊपर जा ठहरा.
दरअसल इन कार्यक्रमों से तो यह साफ़ झलकता है कि देश की वर्तमान सरकार को समस्याओं की सही पकड़ है, उनका हल निकालने की लगन और सलाहियत भी है और उन्हें अमल में लाने की क्षमता भी है. परन्तु तीन दुश्वारियां अभी भी हैं. अर्ध-संघीय संवैधानिक ढांचे की वजह से राज्य की सरकारें केंद्र की योजनाओं को सफल बनाकर वोट लेने के बजाय उन्हें असफल कर केंद्र में बैठी सरकार का वोट कम करने की नीति अपनाती हैं. यू पी ए -२ के साथ भी यही हुआ और आज भी यही हो रहा है. राज्य सरकारों का तंत्र भी शासकीय प्रतिबद्धता न होने से खुले आम भ्रष्टाचार करता है और स्कीमें असफल हो जाती हैं. रेवेन्यु रिकॉर्ड राज्य सरकारें ठीक नहीं कर रहीं हैं लिहाज़ा जिस फसल बीमा का लाभ बटाईदार को मिलना चाहिए वह नॉएडा और दिल्ली में ए सी कमरे में बैठे जमीन के मालिक को मिल जाता है. मोदी सरकार ने इस का समाधान कुछ हद तक ड्रोन और स्मार्ट फ़ोन का इस्तेमाल करने की योजना बना कर किया है.
केंद्र की वर्तमान योजनाएं तभी सफल होंगी जब सामाजिक स्तर पर जनता की सकारात्मक सोच हो. लेकिन हर तीसरे दिन अगर कोई एक या दूसरा भावनात्मक मुद्दा देश के जन-संवाद के धरातल पर छाया रहेगा तो सामूहिक सोच सार्थक और विकासपरक नही हो सकेगी. यही कारण है कि नयी क्रांतिकारी फसल बीमा योजना जन संवाद के धरातल पर आयी हीं नहीं जबकि रोहित वेमुरी की आत्महत्या एक सप्ताह तक देश के चेतना को झकझोरता रहा.
lokmat