सांप ट्रेनिंग नहीं मानता. बीन की धुन पर फन हिलाने का दृश्य धंधे के लिए मदारी करता है. दरअसल सांप के कान हीं नहीं होते तो सुनेगा कैसे, बीन हो चाहे बांसुरी? तीन साल पहले अक्टूबर, २०११ में अमरीकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने पाकिस्तान के शीर्ष अधिकारियों से एक बैठक में कहा था कि अपने आँगन में सांप पालोगे और चाहोगे कि “ वह केवल पडोसी (भारत) को (अच्छे तालिबानी की तरह) काटे, यह संभव नहीं है”. सांप बढ़ते गए. पाकिस्तान की गली , मोहल्ले. चौराहे इनसे पटे पड़े हैं. पाकिस्तान की आर्मी अगर पांच लाख सैनिकों की है तो देश में आतंकवादी २.५० लाख से ऊपर पहुँच चुके हैं. इसके तीन गुना सक्रिय समर्थक हैं. बाकि लोग दहशत में इनके सामने सज्दारेज़ हैं.
राष्ट्र और उसके समाज की सम्यक उन्नति की एक शर्त है कि वह कुछ खास लम्हों में सामूहिक सोच में गुणात्मक परिवर्तन करे और संयुक्तरूप से तन के खड़ा हो. इस सोच को विकसित करने में शिक्षा, तर्क-शक्ति, तथ्यों का जन-संवाद के धरातल में पूर्णरूप से आना जरूरी होता है. उधर आतंकवाद के जिंदा रहने की एक हीं शर्त है—व्यकतिगत भय. पेशावर बाल नरसंहार के बाद आज जब थोडा बहुत सामूहिक प्रतिकार की जन चेतना का भाव बनने लगा है तो तहरीक-ए-तालिबान-ए-पाकिस्तान ने ताज़ा धमकी दी है कि वे राजनेताओं और सैनिक अधिकारियों के बच्चों को निशाना बनायेंगे. सामान्य आदमी तो छोडिये, जज, सेनाधिकारी, राजनेता, पुलिस अधिकारी सब के परिवार है, बच्चे हैं और रिटायरमेंट हैं. सांप घर में हीं फुफकारने लगा है.
आज़ादी के पहले २५ सालों यह मात्र छिटपुट कट्टरपंथ के रूप में रहा. लेकिन उसके बाद धीरे-धीरे यह बढ़ता गया. राज्य अभिकरणों ने इसका इस्तेमाल करना शुरू किया. सैनिक शासकों ने इसका इस्तेमाल भारत और अफ़ग़ानिस्तान के खिलाफ किया तो राजनेता भुट्टो ने एक कदम आगे बाद कर. पाकिस्तान का संविधान १९७३ में औपचारिकरूप से धर्मनिरपेक्ष से धर्म-सापेक्ष हुआ और इसे एक इस्लामिक राज्य बना दिया गया. एक कदम और बढ़ाते हुए मदरसा शिक्षा को राज्य के नियंत्रण से बाहर कर दिया गया. सैनिक शासक जिया क्यों पीछे रहते. उन्होने मदरसे के शिक्षा हासिल करने वालों को एम् ए के समकक्ष डिग्री की मान्यता देदी. आतंकवाद की पौध लगने लगी. मदरसों की संख्या जो पाकिस्तान की आज़ादी के समय मात्र २४५ थी वह पाकिस्तान के शिक्षा मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार सन २००० में ६७६१ हो गयी. आज एक अनुमान के अनुसार आज पाकिस्तान में करीब १२,००० मदरसे हैं जिनमें से ६००० केवल पंजाब सूबे में हैं. विडम्बना यह है कि आज़ादी के ६५ साल में पाकिस्तान की साक्षरता में मात्र १० प्रतिशत की हीं वृद्धि हुई है.
तालिबानीकरण की प्रक्रिया में पहले तो गरीब अपने बच्चों को इस लिए मदरसा भेजता था क्योंकि वहां खाना भी मिलता था और रहने को भी जो सरकार के नियंत्रण वाले औपचारिक विद्यालयों में नहीं उपलब्ध था. सन २००४ में एक बार सरकार ने चाहा कि सरकारी मदद इन मदरसों को बढा दी जाये बशर्ते इनमें अन्य विषयों की शिक्षा भी उपलब्ध हों. मदरसों ने इसे ख़ारिज कर दिया. आज ये मदरसे ना केवल आतंकियों की पौध लगते हैं बल्कि उन्हें एक उद्योग के रूप में तालिबानियों को बेंच कर पैसे कमाते हैं. उधर फाटा क्षेत्र में और उत्तरी एवं दक्षिणी वजीरिस्तान गाँव में सुसाइड बम की बेल्ट बनाने का कुटीर उद्योग बन गया है और इन बेल्टों से लैस आत्मघाती बाल दस्तों को अन्य आतंकी संगठनों को बेंच रहे हैं.
जब सब संस्थाएं ढहने लगती हैं तो एक उम्मीद होती है न्यायपालिका से. लेकिन पाकिस्तान में वह शुरू से हीं कमजोर और मौकापरस्त रही. १९५८ में जब पहली बार गें अय्यूब खान के शासन की वैधता को लेकर मशहूर “दोषी” केस सुप्रीम कोर्ट में आया तो इसे कोर्ट ने बेशर्मी की हद तक जाते हुए इसे “क्रांतिकारी वैधानिकता का सिद्धांत” बताते हुए सही ठहराया. मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि अगर क्रांति सफल हो जाती है तो इसकी वैधानिकता स्वतः सिद्ध हो जाती है”. जनरल याहिया खान के सत्ता हथियाने को भी अदालत ने १९६९ में “राज्य की ज़रुरत के सिद्धांत” के आधार पर सही माना. जनरल जिया और जनरल मुशर्रफ भी सुप्रीम कोर्ट के हिसाब से सही थे. हल्लंकी की बाद में इस शीर्ष कोर्ट का शिकंजा मुशर्रफ पर कसने लगा.
इस परिप्रेक्ष्य में एक हाल की घटना लें. आसिया बीबी जामुन से छोटा जंगली फल फालसे चुनने वाली एक मजदूर थी. लाहौर के ३० किलोमीटर दूर के एक गोंव के अकेली ईसाई परिवार की सदस्य थी. पडोसी मुसलमान महिला जो साथ में हीं फल चुन रही थी उससे बैर भाव रखती थी. वैसे भी अल्पसंख्यक ईसाई हे दृष्टि से देखे जाते थे. काम के दौरान कुएं से पानी निकाल कर लाने को कहा गया. उसने पानी निकला और पास के बर्तन से उस पानी से थोडा पी लिया. झगडा हुआ कि वह छोटे धर्म को मानने वाली होकर भी पानी के लिए बर्तन कैसे जूठा कर सकती है. बैर रखने वाली महिला ने कहा कि इसने मुहम्मद साहेब की शान में अपशब्द कहे. पाकिस्तान की दंड संहिता की धारा २९५ (ग) जो ईशनिंदा को लेकर बनाया गया है के तहत उसे फांसी की सजा निचली अदालत से हुई. लाहौर उच्चन्यायलय ने इस सजा को बरकरार रखा हालांकि पूरे विश्व के नेताओं ने आसिया को छोड़े जाने की अपील की. उधर एक करोड़ पाकिस्तानियों ने कहा अगर मौका मिला तो आसिया बीबी को वह खुद मौत के घाट उतरेंगे.
अब गौर करें. पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर ने आसिया बीबी की सजा को गलत माना और उससे मिलने जेल चले गए. कुछ दिन में हीं उनके सुरक्षा गार्ड मुमताज़ कादरी ने उनकी गोली मारकर हत्या कर दी और मौके पर हीं पकड़ा गया. जज ने उसे फांसी की सजा तो दे दी लेकिन वह इसका अंजाम जानता था लिहाज़ा उसी दिन डर के मारे पाकिस्तान छोड़ कर परिवार के साथ अन्य मुल्क में बस गया. पूरे देश के मुसलामानों का और वकीलों का बड़ा वर्ग कादरी की सजा के खिलाफ खड़ा हो गया. कादरी को हीरो माना जाने लगा. इस्लामाबाद और रावलपिंडी के वकीलों के एक वर्ग ने ऐलान किया कि जिस किसी जज ने इस सजा को बहाल रखा वह ज़िंदा नहीं रहेगा. जब कादरी अदालत में पेश होने जा रहा था तो एक वकील ने कादरी को चूमा. वह वकील कुछ दिन बाद जज बना दिया गया है. आज वह फैसला करता है.
आसिया बीबी को मारने की हसरत रखने वाले, तासीर को मारने वाले, कादरी को हीरो बनाने वाले, पेशावर में स्कूली बच्चों को गोली से भूनने वाले, ईसा मसीह को सूली पर चढाने वाले, सुकरात को ज़हर देने वाले और गलेलिओ को खगौलिक खोज के लिए जेल में डालने वाले – ये सभी एक हीं मानसिकता के रहे हैं, केवल सोच को अमल में लाने के जज्बे का अंतर है. और ये अपने कृत्य को गलत तो छोडिये एकदम दिल से सही मानते हैं. उन्हें लगता है कि एक बड़ा पुण्य का काम किया जा रहा है उनके द्वारा.
आम- जन तो छोडिये, पाकिस्तान के संविधान, १९७३ के अनुच्छेद ६२ (च) के अनुसार वही मुसलमान सांसद हो सकता है जो इस्लाम की यथोचित शिक्षा रखता हो याने अगर चुनाव अधिकारी उससे किसी कुरान-ए-पाक की आयत बोलने को कहे और वह न जानता हो तो उसका नामांकन हीं रद्द कर सकता है.
ऐसे में एक हीं चारा बचता है भरपूर जनसमर्थन के साथ सैनिक प्रतिष्ठान का दृढ-संकल्प के साथ इसे नेस्तनाबूद करना क्योंकि वही इस तरह के हिंसक उन्माद का मुकाबला कर सकता है. एक बार अगर यह शुरू हो गया तो बाकि संस्थाएं भी तनब कर खडी हो सकती हैं.
lokmat
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