Saturday 28 April 2018

दुनिया में प्रजातन्त्र अंतिम सांसें ले रहा है ?




एकल नेतृत्व से विश्व -शांति खतरे में

समाजशास्त्रीय व राजनीतिक सिद्धांतों के अनुसार समय के साथ समाज अपने को बेहतर ढंग से संगठित करता है, भावनात्मक सोच पर वैज्ञानिक समझ को तरजीह दे कर बेहतर संस्थाएं तैयार करता है. तर्क पर आधारित विकास के सही पैमानों पर जनमत तैयार करता है और व्यक्तिगत स्वातंत्र्य के साथ समतामूलक समाज बनाते हुए बेहतर जीवन की और बढ़ता है. इसीलिए जंगल राज से जहाँ शक्ति हीं सत्य होता था, हम कबायली संस्कृति से होते हुए, सामंतवादी व्यवस्था और फिर राजशाही और अंत में आज प्रजातंत्र तक पहुंचे, जिसके तहत शासन कौन करे, इसके चुनाव में सैधांतिक रूप से राजा और रंक में भेद मिटा और दोनों की राय से शासन चलने लगा. लेकिन अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में हाल की कुछ घटनाओं से लगने लगा है कि दुनिया में प्रजातंत्र फेल होने लगा है. एकल, गैर-प्रजातान्त्रिक नेतृत्व का वर्चस्व बढ़ रहा है और लगातार प्रजातान्त्रिक अनौपचारिक हीं नहीं औपचारिक संस्थाएं --- जैसे संसद या न्यायपालिका या स्वस्थ और निरपेक्ष जन-विमर्श के धरातल (हैबरमास के शब्दों में स्फिअर्स ऑफ़ पब्लिक डिस्कोर्स) कमजोर पड़ते जा रहे हैं या मात्र ताली बजाने की भूमिका तक महदूद हो गए हैं. हाल के वर्षों में संसद का हफ़्तों न चलना इसकी एक बानगी है. इन संस्थाओं के लगातार सिकुड़ने से आज पृथ्वी पर तीसरे विश्व युद्ध का संकट मंडरा रहा है. जाहिर है कि अगर ऐसा होता है तो यह ७८ साल पहले हुए दूसरे विश्व युद्ध से अलग होगा जिसमें तमाम छोटे बड़े देशों में परोक्ष या प्रत्यक्ष नाभिकीय क्षमता की वजह से दुनिया का बचना मुश्किल होगा.
पिछले १३ अप्रैल को अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने बगैर अपने देश की कांग्रेस (संसद) की अनुमति के सेना को सीरिया पर अटैक करने के आदेश दिए. अमरीकी संविधान ने बिना किसी लाग-लपेट के अपने पहले अनुच्छेद () () () में युद्ध घोषित करने की शक्तियां मात्र कांग्रेस (संसद) में निहित की है. राष्ट्रपति सेना के मुख्य कमांडर के रूप में यह आदेश तभी दे सकता है जब संसद उसे पारित कर दे. लेकिन गलती केवल ट्रम्प की हीं नहीं है पिछले ७७ वर्षों में (द्वितीय विश्व युद्ध में राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने जापान पर हमले के पहले अनुमोदन लिया था) किसी भी अमरीकी राष्ट्रपति ने संसद से युद्ध प्रस्ताव पर पूर्व-अनुमोदन नहीं लिया. अगर किसी राष्ट्रपति ने कभी अपनी उदारता दिखाते हुए संसद को सूचित किया भी तो मात्र “सहयोग” के लिए न की “पूर्व-अनुशंसा” के लिए. अमरीकी कांग्रेस पिछले तमाम दशकों में हुए दर्ज़नों हमलों के दौरान एक बार भी अपनी शक्ति (संवैधानिक दायित्व) के लिए तन कर नहीं खडी हुई. निक्सन ने वियतनाम युद्ध में जब इसे नज़रंदाज़ किया तो संसद कुछ हरकत में आयी और एक १९७३ में नियम पारित किया कि अगर आपात जैसे स्थिति हो तो राष्ट्रपति युद्ध शुरू करने के ६० दिन में संसद की अनुशंसा हासिल करे वरना युद्ध ख़त्म करे. उधर अमरीकी राष्ट्रपतियों का कहना है कि संविधान के अनुच्छेद २ ने उन्हें सेना का मुख्य कमांडर बनाते हुए और विदेश नीति और दौत्य सम्बन्ध की जिम्मेदारी देते हुए उन्हें विदेशी जमीन पर अमेरीकी हित की रक्षा में निर्बाध शक्तियां दी हैं. लेकिन हकीकत यह है कि अमरीकी संविधान निर्माताओं ने दोनों के बीच एक संतुलन बनाया था. संविधान जेम्स मेडिसन ने कांग्रेस की शक्तियों की व्याख्या करते हुए थॉमस जेफरसन को एक पत्र में बताया : कार्यपालिका शक्ति का वह संकाय है जो युद्ध में ज्यादा दिलचस्पी रखता है और इसके लिए हमेशा तत्पर रहता है. इसीलिए बहुत अध्ययन के बाद यह शक्ति विधायिका में निहित की गयी है”. संविधान बनने के करीब ६० साल (१८४८ मे) तत्कालीन युवा सांसद अब्राहिम लिंकन ने इस मुद्दे पर अपने विचार देते हुए कहा था : राजाओं ने हमेशा युद्ध में झोंक कर जनता को गरीब किया है और इसे न्यायोचित ठहराने के लिए इसे जनता के हित में बताया है. यही वजह है कि संविधान ने यह शक्ति किसी एक व्यक्ति में निहित नहीं होने दी” . ट्रम्प को जनता का मत इसलिए नहीं मिला था कि उनकी प्रजातान्त्रिक मूल्यों में बेहद आस्था थी बल्कि इसलिए कि वह राष्ट्रवाद की एक नयी परिभाषा गढ़ रहे थे युवाओं को रोजगार दिलाने के और इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ अपने कड़े रुख के कारण.
हाल में रूस में पुतिन की लगातार २० सालों में चौथी जीत पर नज़र डालें. पुतिन ने अपने प्रमुख विरोधी की उम्मेदवारी को ठीक चुनाव के पहले ख़ारिज करवा दिया. चुनाव प्रचार के दौरान उनका एक छोटा भाषण देशवासियों के मन को भाया जब उन्होंने कहा “रूस की नाभिकीय क्षमता दुनिया में सर्वश्रेष्ठ है पर दुनिया हमें सम्मान नहीं दे रही है. लेकिन अब उन्हें रूस को सम्मान देना पड़ेगा”. जाहिर है यह एक धमकी थी परमाणु युद्ध के दम पर अपनी चौधराहट हासिल करने की. जनता ने इसे भी पसंद किया. आज सीरिया को लेकर पुतिन अमरीका के खिलाफ जंग के लिए कभी भी कदम बढ़ा सकते हैं. और तब विश्व युद्ध को रोकना मुश्किल होगा.
चीन में माओत्से तुंग के बाद पहली बार तमाम अन्य संस्थाओं को ठेंगा दिखाते हुए शी जिनपिंग ने आजीवन पद पर रहने के लिए संविधान बदला. कहीं एक भी प्रदर्शन नहीं हुआ. इसका कारण था विरोध के स्वर को खत्म करना. एक उदाहरण : मानव अधिकार के अलमबरदार और अधिवक्ता यू वेन्शेंग ने राष्ट्रपति जिनपिंग को एक खुला पत्र लिखा जिसमें उन्होंने राष्ट्रपति के अधिनायकवादी शासन की निंदा की और अन्य राजनीतिक सुधार और सही प्रजातंत्र की बहाली की वकालत की. अगले दिन वह अपने बच्चे को स्कूल छोड़ने के लिए पैदल जा रहे थे कि पुलिस की एक जीप उन्हें उठा कर ले गयी. उनका आज तक पता नहीं चला. एक आवाज भी इसके खिलाफ नहीं उठी और एक आन्दोलन भी एकल नेतृत्व के अधिनायकवाद के खिलाफ आज तक नहीं हुआ. जन-शासन के नाम पर ७८ साल पहले आये साम्यवाद की या यूं कहें कि एक नए तरह के प्रजातंत्र की ऐसी परिणति कि जनता के बीच से “उफ़” की कराह भी न निकले यह सोचने वाली बात है. जनता इस बात से खुश है कि विश्व मानचित्र में चीन का परचम हीं नहीं लहरा रहा है बल्कि उसके समर्थन से उत्तर कोरिया और पाकिस्तान आज दुनिया के लिए ख़तरा बन गए हैं.
टर्की में हिंसा, सरकारी दहशत और विरोधियों पर जुल्म करते हुए अर्दोगन ने फिर चुनाव जीत लिया. इस नेता ने संविधान की ऐसी -तैसी करते हुए न केवल चुनाव जीता बल्कि प्रजातंत्र ख़त्म करते हुए संसद की संस्था और प्रधानमंत्री का पद ख़त्म किया , स्वयं कानून बनाने का अधिकार प्राप्त करते हुए न्यायपालिका पर नियंत्रण का फैसला लिया. यह तानाशाह अब २०३४ तक सत्ता में बना रह सकता है.
चुनाव जीतने के लिए अर्दोगन ने धुर -राष्ट्रवादी पार्टी एम् पी एच तक से हाथ मिलाया. टर्की के इस तानाशाह का कहना था “प्रजातंत्र एक ट्रेन की तरह है जिससे यात्री अपने गंतव्य पर पहुँच कर उतर जाता है और फिर पलट कर देखता भी नहीं “. शायद उसका धुर-राष्ट्रवादियों का साथ लेना ट्रेन से गंतव्य तक पहुँचने की मानिंद था.
समस्या क्या है? शायद जनता अपनी सामूहिक चेतना की गुणवत्ता नहीं बढ़ा पा रही है प्रजातंत्र के बावजूद और धुर -राष्ट्रवाद और राष्ट्र को ताकत के दम पर दुनिया में लोहा मनवाने की भावना के साथ एकल नेतृत्व को स्वीकार कर रही है नतीजतन संसद , न्यायपालिका या अन्य प्रजातान्त्रिक संस्थाएं जो नेता को अधिनायक बनने से रोकती हैं लगभग ख़त्म होती जा रही है. राष्ट्रवाद जरूरी है पर उसके लिए एकल नेतृत्व का विकल्प आज दुनिया को विश्व युद्ध की आग में झोंकने की स्थिति में आता जा रहा है. क्या प्रजातंत्र एकल नेतृत्व के लिए एक ट्रेन बन कर रह जाएगा ?


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