Wednesday 15 June 2016

“टापर” घोटाला और नीतीश का कुतर्क



-------------------------------------------

जो छात्र या छात्रा अपने विषय का उच्चारण भी ठीक से न कर पाये फिर भी वह बिहार बोर्ड में टॉप करे तो यह शिक्षा में भ्रष्टाचार को संस्थागत दर्ज़ा दिलाने, सिस्टम की असफलता और “गवर्नेंस” में पैदा हुए सडांध की ओर इंगित करता है. इस “टॉपर” घोटाले में अगर किसी स्कूल के मालिक बच्चा राय के साथ बिहार बोर्ड का अध्यक्ष लालकेश्वर प्रसाद सिंह भी आकंठ डूबा हो, तो बीमारी के लक्षण साफ़ दीखने लगते हैं. और अगर बोर्ड अध्यक्ष की पत्नी उषा सिन्हा एक समय सत्ताधारी दल की विधायक हो और अगर बच्चा राय की तस्वीर जन-मंचों पर किसी खिलखिलाते नीतीश या किसी कृतज्ञ लालू यादव के साथ छपे तो यह राज-काज में कैंसर के उस स्टेज को बताता है जिसे “मेटास्टेसिस” कहते है याने शरीर के हर अंग बीमारी का फैलना.

घटना के उजागर होने के तीन दिन बाद एक सार्वजनिक मंच से प्रदेश के मुख्यमंत्री की  “निश्छल (?)” स्वीकारोक्ति मिश्रित बचाव देखिये. “हम बच्चों को किसी तरह स्कूल लाने की योजना पर काम कर रहे हैं. लेकिन हमारी कोशिशों में टांग लगने वालों की कमी नहीं है. उनका एक हीं उद्देश्य होता है. किसी तरह माल बनाया जाये. मौका मिलते हीं लगे अपना काम करने. अभी देख नहीं रहे ..... क्या हो रहा है? “टापर्स” मामले में. काम कीजिएगा तो कोई संत मिलेगा तो कोई महाशैतान. किसी का चेहरा देखकर कैसे पहचान सकते हैं कि वह क्या है? उसके मन में क्या चल रहा है. इसे कैसे समझ सकते हैं ? समाज में तरह- तरह के लोग हैं. तरह-तरह के “नटवरलाल” हैं. कब किसको कहाँ ठग लेंगे कहना मुश्किल है. पर हम बैठने वाले नहीं हैं. सभी गड़बड़ियाँ दूर करेंगे. कोई दोषी नहीं बचेगा. हम बैठक करके शिक्षामंत्री और अफसरों को निर्देश दे रहे हैं. इस समस्या को गंभीरता से लेना होगा. प्रबुद्ध लोगों को इसपर सोचना होगा. समाज में इक्के –दुक्के लोग हीं ये गड़बड़ हैं. ऐसे लोगों को पकड़ना होगा”.

मुख्यमंत्री के संबोधन से लगा जैसे कोई अक्षम मुख्यमंत्री जिसे अपने पर पश्चाताप होना चाहिए, नहीं बल्कि किसी संत का मोहमाया की गर्त में डूबे अपने भक्तों को उद्बोधन है जिसमें यह संत कह रहा है “ ऐ बिहारवासियों, नैतिकपतन की गर्त से बच्चा राय नहीं, लालकेश्वर प्रसाद सिंह नहीं, उषा सिन्हा नहीं, कोई सत्ताधारी नहीं, कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं, बल्कि तुम गिरे हो और हमारे पूरे प्रयास की बाद भी तुम इतने गलीच हो कि इस गर्त से ऊपर आ हीं नहीं पा रहे हो”. दूसरा कुतर्क देखिये : काम कीजियेगा तो कोई संत मिलेगा तो कोई महाशैतान. नहीं मुख्यमंत्री जी, आपका “काम” हीं है शैतानों से अपने को हीं नहीं प्रदेश की जनता को बचना. कोई अहसान नहीं है “काम करना”. दरअसल शैतानों को पहचानते हुए , उन्हें ख़त्म करते हुए और संतों को तलाशते हुए हीं काम करने की शर्त है.

विश्वास नहीं होता कि सभ्यसमाज के ७० साल के प्रजातंत्र के बाद किसी राज्य का अपेक्षाकृत “शिक्षित”  मुखिया जो ११ साल से शासन कर रहा हो इतना भोंडा तर्क अपनी अक्षमता को समाज की नालायकी बताते हुए देगा. यह राजतंत्र नहीं है जिसमें राजा अपने “इल्हाम” से लोगों को नापता है कि कौन नैतिक है और किसको पद देने चाहिए या किसको नहीं. आधुनिक शासन-प्रक्रिया में सिस्टम काम करता है मुख्यमंत्री का “इल्हाम” नहीं. सिस्टम अच्छा हो तो “टांग मारने वाले” या “मौका मिलते अपना काम करने वाले” स्वतः हीं सड़े अंडे की तरह अपनी बदबू से पहचाने जाते हैं. उषा सिन्हा का शिक्षा प्रमाणपत्र, लालकेश्वर प्रसाद के घर रोज बैठने और “धंधा” करने वाले बच्चा राय और उसके साथियों का आना जाना चिल्ला-चिल्ला कर बता रहा था लेकिन “राजा” भाव रखने वाले मुख्यमंत्री और मंत्रियों तक ये आवाजें नहीं पहुँचती. राजनीतिक दल चलाने वाले लोगों का नैतिक दायित्व होता है कि वे समाज से फीडबैक लें. अगर यह फीडबैक दलालों के जरिये आयेगा तो लालकेश्वर और बच्चा पहचाने नहीं जायेंगे बल्कि वे दिन-दूना रात –चौगुना धन बल में बढ़ेंगे और एक दिन “राजा-भाव” के मुख्यमंत्री के साथ जन-मंच से फोटो भी खिंचवा कर अपने कुकर्मों को संस्थागतरूप से महिममंडित करवा लेंगे. क्या राज्य की विधायिका चलाने के लिए इन नेताओं को उषा सिन्हा और मनोरमा देवी के अलावा कोई और नहीं मिलता? क्या मनोरमा देवी के पति का सर्व-विदित आचरण जानकार भी टिकट देना अपरिहार्य था. मनोरमा देवी के बेटे ने हाल हीं में सड़क पर एक युवा को गोली मर कर हत्या कर दी थी. उस समय नीतीश का मीडिया को नाराज़ तर्क था “क्या बेटे की गलती के लिए किसी विधायिका मान को सजा दी  जाये? क्या उषा सिन्हा का शिक्षा प्रमाण पत्र जो २०१० के चुनाव में हलफनामे में दिया गया था देखने के बाद भी टिकट दिया जा सकता था? उनके कौन रिश्तेदार और पति कितने सालों से कैसे शिक्षा माफिया बच्चा राय के साथ रोज की जगजाहिर “नजदीकियां” रखते हैं इसे जानने के लिए ११ साल का अनुभव काफी नहीं है?

“पर हम बैठने वाले नहीं” जुमला बोल कर “सुशासन बाबू”  क्या यह बताना चाहते हैं कि ११ साल वह सोते रहे और प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था सड़ती रही. शायद उन्हें तो यह भी नहीं मालूम होगा कि किस तरह शिक्षकों की तन्खवाह भी नहीं रिलीज़ होती जब तक ब्लाक और जिले के शिक्षाधिकारी पैसे नहीं लेते. शायद उन्हें यह भी नहीं मालूम कि “उत्प्रेरक” योजना में सारे पैसे कागज़ पर हीं खर्च दिखाए जाते हैं और हेडमास्टर से लेकर पूरा का पूरा शिक्षा विभाग पैसों की बन्दर बाँट वर्षों से कर रहा है और शिक्षा केवल कागजों पर बढ़ रही है.

यह धोखा है उन युवा छात्रों और छात्राओं के साथ जो भ्रष्टाचार के बेदी पर दम तोड़ रही  घटिया शिक्षा के कारण राष्ट्रीय प्रतियोगिता में नहीं खड़े हो पा रहे हैं. संस्था “असर” की पिछले पांच साल की रिपोर्ट पर भी बिहार के मुख्यमंत्री अगर नज़र डाल लें तो हकीकत पता चल जायेगी कि कक्षा ५ का ६२ प्रतिशत छात्र कक्षा २ का ज्ञान भी नहीं रखता. सन २०१४ में जब बोर्ड परीक्षा में दस टापर्स में से सात, बच्चा राय के स्कूल के निकले तो एक “सतर्क” मुख्यमंत्री या शिक्षा मंत्री के कान खड़े हो जाने चाहिए थे. राज्य खुफिया विभाग से बोर्ड अध्यक्ष और इस कॉलेज के मालिक बच्चा राय के सम्बन्ध के बाद इस परीक्षा परिणाम के कारण समझने के लिए आइंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिए.

“संत” और “महाशैतान” पहचानने के लिए कोई अलग विद्या की ज़रुरत नहीं हैं. अगर जेल में रहते हुए भी कोई अपराधी शहाबुद्दीन इतनी ताकत रखता है कि किसी आवाज उठाने वाले पत्रकार को मरवा दे तो महाशैतान को “शक्ति” कौन दे रहा है एक बच्चा भी बता सकता है. और फिर जब इस सजायाफ्ता खतरनाक अपराधी को वह पार्टी अपने राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य बनाती है जिसके साथ चुनाव लड़कर सत्तानशीन हुआ गया है तो यह संत भाव क्या होता है यह जानना मुश्किल नहीं होता. “मौका मिलते हीं अपना काम करते हैं” का आरोप कहाँ सही चस्पा होगा यह कुछ घटनाओं को देखकर समझा जा सकता है.

lokmat