भाजपा व संघ के शीर्ष नेतृत्व को यह दूसरा
“वेक-अप” काल बहरा कर सकता है
बिहार चुनाव के दौरान एक मध्यम वर्ग के परिवार
में चार साल के बच्चे ने जैसे हीं अपने टी वी सेट पर देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र
मोदी का चेहरा देखा, उसकी भौहें तन गयी, मुट्ठी भींच गयी और बोला “भाइयों- बहनों”.
मार्केटिंग के सिद्धांत के अनुसार “प्रोडक्ट” का “ओवर-एक्सपोज़र” (ज्यादा प्रचार)
नहीं होना चाहिए वर्ना ग्राहकों का मन उससे उचट जाता है. मोदी ओवर-एक्सपोज़र के
शिकार हो गए हैं. यही वजह है कि २९ क्षेत्रों में ३० रैलियां करने के बाद भी १६
क्षेत्रों में उनका प्रत्याशी हार गया. अगर घर का बच्चा उस शैली में बोले तो शुरू
में वह “जन-स्वीकार्यता का घरेलूकरण” होता है पर अगर डेढ़ साल बाद भी वही नारे बोले
तो वह “कंज्यूमर फटीग” (ग्राहक का उबना) होता है. एक राज्य के चुनाव को खुद अपने
दम पर लड़ना ओवर एक्सपोज़र हीं नहीं था, आत्म-विश्वास का विद्रूप पक्ष भी था. शायद
रणनीतिकार भूल गए कि एक काल विशेष में “ब्लैक” में बिकने वाला प्रोडक्ट भी
कंज्यूमर फटीग का शिकार बनता है. फिर इन्हें क्यों लगता है कि इतनी पुरानी पार्टी
को टिटिहरी की तरह केवल एक हीं व्यक्ति गिरने से
बचा सकता है और उसे जनाभिमुख कर सकता है (याने अन्य कोई करेगा तो आसमान की
तरह पार्टी के गिरने का डर है).
बिहार चुनाव के नतीजों सेफोलोजी (चुनाव विज्ञान)
के लिए हीं नहीं समाजशास्त्र के लिए भी चुनौती बन गए हैं. लेकिन भारतीय जनता
पार्टी शायद इस दूसरे “वेकअप” काल (जगाने वाला अलार्म) को भी नहीं सुन पा रही है.
लिहाज़ा पार्टी के गुरूर का यह आलम था कि चैनलों पर बैठने वाले प्रवक्ताओं को हार
के दिन आदेश मिला कि कहो कि “यह चुनाव भाजपा या मोदी या एन डी ए के खिलाफ नहीं है
बल्कि नीतीश के गठबंधन को “सकारात्मक” जनमत है ताकि वह काम करें”. अगर २४३ सीटों
में भाजपा नेतृत्व वाली एन डी ए को ५८ सीटें हीं हासिल हो और जनता इतने घमासान
चुनावी युद्ध के मद्दे नज़र विपक्षी महागठबंधन को १७८ सीटें दे (याने लगभग
तीन-चौथाई) तो क्या इसे भी जनता का भाजपा दुत्कार देना नहीं कहेंगे? “दुत्कारना
इसलिए क्योंकि इस पार्टी को कुत्त्तों से बेहद प्यार है और अक्सर लोगों की तुलना
इस जानवर से करती है.
वैचारिक सांद्रता वाले दलों जैसे भाजपा या सी पी
आई और सी पी एम् के साथ एक बड़ी समस्या है कि वह सत्ता मिलने के बाद तत्काल अहंकारी
हो जाते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके विचार का अनुमोदन जनमत से हो चुका है
तो ये मीडिया , या विपक्ष कौन होता है आलोचना करने वाला. लिहाज़ा “वेक-अप काल भी
उसे “मैन्युफैक्चर्ड रिवोल्ट” (कृत्रिम विप्लव) लगता है. यही वजह है कि दिल्ली में
हारने के बावजूद इनका अहंकार बढ़ता गया. ऐसी पार्टियाँ जब अवसान की स्थिति में आती
हैं तो या तो मीडिया को “बिका हुआ” अथवा “दुराग्रही” बताती है या विपक्ष के लोगों में राष्ट्रद्रोही
और समाजविरोधी खोजने लगती हैं. पार्टी अध्यक्ष का प्रेस कांफ्रेंस में या चैनलों
को दिए गए इंटरव्यू में जवाब में वह गुरूर साफ़ दिखाई देता था. इस क्रम में भाजपा
की हार के कारणों पर जवाव था “उन्होंने जातिवादी राजनीति की जिसका हमें नुकसान
हुआ”. ऐसा लगा कि रामबिलास पासवान और जीतन मांझी पिछले कई जन्मों से समाजवादी या
राष्ट्रवादी रहे हों और जाति प्रथा के खिलाफ आन्दोलन कर रहे हों. स्वयं
प्रधानमंत्री ने जुलाई २५ और अक्टूबर १५ तक मोदी ने १२ रैलियां कीं और कहीं भी
अपनी जाति या “अति-पिछड़ा “ शब्द का प्रयोग नहीं किया लेकिन सरसंघचालक के आरक्षण
नीति पर पुनार्विचार करने के वक्तव्य के बाद की १८ रैलियों में उन्होंने अपनी
जाति, अपनी गरीब परिवार में को भाषण का मुख्य मुद्दा बनाया. क्या यह जातिवादी
राजनीति नहीं थी? यह अलग बात है कि सरसंघचालक का यह वक्तव्य चुनाव में भाजपा की
हार का एक बड़ा कारण बना और बैकवर्ड एकता मजबूत हुई.
भाजपा के प्रति
आक्रोश
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एन डी ए को कुल ३४ प्रतिशत वोट मिले जो पिछले
साल (जिसमें जीतन मांझी नहीं थे ) के लोक सभा चुनाव में मिले मत प्रष्ट से ५
प्रतिशत कम हैं. यह भी तब जब कि मतदान का प्रतिशत पिछले लोक सभा चुनाव के मुकाबले
अप्रत्याशित रूप से पांच प्रतिशत बढा है. याने लोगों में भाजपा को हराने की हद तक
गुस्सा था. लेकिन इसका एक पक्ष और है. जहाँ एन डी ए को पांच प्रतिशत कम मत मिले
वहीं महागठबंधन को भी तीन प्रतिशत (पिछले लोक सभा चुनाव के मुकाबले) कम मत मिले.
और इन सबका का कारण यह कि मतदाता न तो मोदी के “भाषण के विषय वस्तु” से खुश था न
हीं नीतीश-लालू गठजोड़ पर पूरी तरह मुतमईन. बल्कि असाधारण रूप से उभरे इस गुस्से की
वजह से मतदातों का २४ प्रतिशत मत “अन्य” के खाते में पडा. ये अन्य न तो जीतते हैं
न सरकार बनाते हैं बस वोट बेकार कराते हैं. भाजपा के खिलाफ गुस्से का एक और कारण
था –कैंडिडेट का गलत चुनाव. यही कारण था भाजपा सांसद और भारत सरकार के पूर्व
गृह-सचिव आर के सिंह के सार्वजनिक रूप से अपनी पार्टी के नेताओं पर आरोप लगाया कि
“टिकट बेंचा गया है”. गलत प्रत्याशी देने का नतीजा यह हुआ कि लोगों (हर चार में से
एक) ने “अन्य” को वोट दिया.
समाजशास्त्रीय चुनौती
: क्या बैकवर्ड एकता उभरी
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अगर भाजपा को दलितों का वोट नहीं मिला और पासवान
–माझी की पार्टियों को सवर्णों का तो ई बी सी (अति-पिछड़ा) भी मोदी से प्रभवित नहीं
रहा. यह अलग बात है कि समाजशास्त्रियों के लिए यह पहेली रहेगी कि पारस्परिक रूप से
द्वंदात्मक भाव रखने वाले यादव और कुर्मी-कोइरी या यादव और अति-पिछड़ा वर्ग कैसे नीतीश –लालू
गठबंधन को पचा पाए और उसे अपना मत दे सके. यादव एक दबंग जाति है जमीन पर कब्जा है
लिहाज़ा कमजोरों का शोषण यही जाति सबसे ज्यादा करती है. उसे सत्ता में लाने के लिए
शोषित लोग उसे वोट दें यह बात समाजशास्त्रीय सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है. तो क्या
यह बैकवर्ड एकता की दस्तक है? क्योंकि न तो लालू में न हीं नीतीश में इस तरह के
सर्व-समाहन वाले गुण अभी तक देखने को मिले. लेकिन टिकट बटवारे को लेकर जो
परिपक्वता दोनों नेताओं ने दिखाई या पूरे चुनाव प्रचार में नीतीश ने जिस गाम्भीर्य
का परिचय दिया वह मोदी के लिए भी एक सीख हो सकती है.
बिहार के मिजाज़ की समझ में
गलती
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बिहार का भी इतिहास कुछ और होता अगर “बाहरी”
मोदी इस राज्य के बारे में हीं नहीं देश के मिजाज़ के बारे में भी कुछ और तथ्य जान
गए होते. पहला यह कि आक्रामक हिन्दुत्त्व से यह मीलों दूर रहना चाहता है. यही वजह
है कि भारतीय जनता पार्टी (अगर पिछले चुनाव को छोड़ दें )तो सबसे अधिक वोट प्रतिशत
१९९९ में रहा है और उसके बाद लगातार गिरता रहा है. और १९९९ में भी हर छः
हिन्दू जिसे मताधिकार प्राप्त था, में से मात्र एक ने इसे वोट किया. शीर्ष-पुरुष
अटल बिहारी वाजपेयी का उदार चेहरा इसे भाता था लेकिन लाल कृष्ण आडवानी का
“कट्टरपंथी चेहरा” (जो गलती से आडवानी के व्यक्तित्व से चिपक गया था जबकि वह कभी
भी कट्टर नहीं रहे हैं) उसे डराता रहा है. जब जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या कोई
अतिवादी हिन्दू संगठन किसी पर कालिख पोतता है या पिच खोदता है या “वो बनाम हम “ का
राग अलापता है और उसे अमल में लेन के लिए दंगे करता है तो अधिकाँश हिंदू उससे चिढ
कर या तो किसी और दल की ओर हो जाता है या वापस अपने सदियों पुराने जाति की खोह में
चला जाता है. इसे समझने के लिए किसी आइंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिए कि अगर ९९९४ में
विश्व हिन्दू परिषद् राम मंदिर मुद्दे को परवान चढाता है तो उसी साल कांशी राम
बहुजन समाज पार्टी बनाते हैं अगले चार साल बाद कोई मुलायम सिंह यादव, कोई लालू
प्रसाद यादव या कोई नीतीश कुमार जातिवादी शक्तियों की पौध खडी करने लगता है. समाजशास्त्र
का प्रारंभिक अध्ययन से हीं पता चलता है कि राष्ट्रीय पार्टी बनने की शर्तें
बिलकुल अलग है और मूल शर्त है सर्व समाहन की नीतिगत क्षमता और नेता का अतिउदार और
व्यापक व्यक्तित्व.
मोदी की आक्रामक शैली
चिढाती है लालू की गुदगुदाती है
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मोदी की शक्ति लालू के संवाद धरातल पर आ कर
खेलने में नहीं थी. “भाइयों-बहनों, एक मेरे इस गाल में पांच चांटा मरता है तो
दूसरा उस गाल में ”या “भाइयों-बहनों, साठ हज़ार कि सत्तर हज़ार , कि आस्सी हज़ार , कि
एक लाख करोड ? “ कहीं सोच के स्तर पर छोटापन जाहिर करता है. बिहार के लोगों ने इसे
प्रधानमंत्री स्वर एक हल्का वक्तव्य माना.
लालू का “काला कबूतर” , धुएं में मिर्चा डाल कर “ एक शैली है जो सशक्तिकरण
का स्वाद लिए यादव और पिछड़े वर्ग को गुदगुदाता है.
बिहार के वोटरों में पिछले लोक सभा चुनाव के
मुकाबले इस चुनाव के दौरान जन संवाद के धरातल के नीचे जाने का क्षोभ इस कदर था कि
न केवल महागठबंधन का तीन प्रतिशत वोट कम हुआ बल्कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन
(एन डी ए) का पांच प्रतिशत जबकि मतदान का प्रतिशत पांच अंकों से बढा. याने गुस्सा
था कि जायेंगे, वोट देंगे लेकिन तुम्हें नहीं. यही कारण है नोटा (इनमें से कोई
नहीं) के खाने में भी इस बार दूने से ज्यादा मत पड़े जबकि बिहार में शिक्षा का स्तर
राष्ट्रीय औसत से १० प्रतिशत कम है. यही
कारण है कि “अन्य” के खाने में पिछले लोक सभा चुनाव के १७ प्रतिशत के मुकाबले २४
प्रतिशत वोट गए जबकि माना यह जाता था कि बिहार के चुनावी इतिहास में ऐसा “बहु-दलीय
द्विध्रुवीय चुनाव शायद पहले नहीं देखा गया था. अगर यह आठ प्रतिशत वोट जो बेकार गए
भाजपा को मिलते तो चुनाव की तस्वीर कुछ और हीं होती.
कहा
जाता है कि दुनिया का इतिहास आज कुछ और हीं होता अगर क्लियोपेट्रा की लम्बी नाक जो
उसकी बेपनाह खूबसूरती में चार चाँद लगाती थी, थोड़ी छोटी होती या नेपोलियन
बोनापार्ट को जून १८, १८१५ (ठीक दो सौ साल पहले) सबेरे दस्त न आने लगते जिसकी वजह
से सेना को कूच करने में दोपहर हो गयी और वेलिंगटन के ड्यूक की मदद के लिए
प्रूसिया का ब्लूचार भी पहुँच भी वॉटरलू गाँव (ब्रुसेल्स) पहुँच गया. बिहार देश के
सबसे कद्दावर नेता और प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी का “वॉटरलू” साबित हो सकता है.
मोदी बिहार का हीं नहीं देश का मिजाज़ नहीं समझ पा रहे हैं. बिहार में जबरदस्त
शिकस्त दूसरा वार्निंग सिंग्नल है पहला दिल्ली चुनाव में हार के साथ मिला था.
लार्ड ऐक्टन ने कहा था “पॉवर करप्ट्स” (सत्ता भ्रष्ट करती है) पर भारत में शायद
सत्ता अंधी भी करती है और सहज तथ्य भी नहीं दिखाई देते यह इस चुनाव में
प्रधानमंत्री मोदी , उनकी भारतीय जनता पार्टी, लालबुझक्कड़ अध्यक्ष अमित शाह और
मातृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चुनाव के समय की दो महीनों की गतिविधियों
से समझा जा सकता है.
साथ हीं यह देश व्यक्तित्व में किसी भी किस्म का
“हल्कापन” अपने नेता में बर्दाश्त नहीं करता. विदेशी मूल की कांग्रेस अध्यक्ष
सोनिया गांधी को दस साल सर-माथे पर रखा सिर्फ यह जानने के बाद की इस महिला में
“प्रधानमंत्री पद” के प्रति भी कोई मोह नहीं है. यह त्याग चाहता है, घंटे-दर-घंटे,
जलसा-दर-जलसा डिजाइनर कपडे पहनने वाला नेता नहीं.
shuklapaksha