Wednesday 6 September 2017

मेडिकल रिसर्च: अधकचरे ज्ञान की मार्केटिंग दुनिया के लिए ख़तरा



घी या मक्खन कम खाना दिल के लिए नुकसानदायक : नया अध्ययन 
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“दिल मजबूत रखना हो तो वसा का सेवन बढाएं, कार्ब कम करें”
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कौन देगा हिसाब ४० साल में दुनिया के करोड़ों लोगों की मौत का ?

पिछले महीने की २९ तारीख को प्रस्तुत एक अध्ययन ने चिकित्सा की दुनिया में खलबली मचा दी है. पिछले ४० साल से बनी अवधारणा जिसका पूरे विश्व के डॉक्टरों ने और समाज ने ध्रुव -सत्य समझ कर पालन किया वह गलत साबित हुई है. नये अध्ययन के मुताबिक कम वसा खाने से दिल की बीमारियों (सी वी डी) का ही नहीं कई अन्य बीमारियों का ख़तरा भी ज्यादा होता है साथ हीं ज्यादा कार्बोहाइड्रेट युक्त भोजन भी इस खतरे को बढ़ाता है. अब तक दुनिया के डॉक्टर यह बताते थे कि ज्यादा “फैट” (घी, मक्खन, तेल, सूखे मेवों आदि से मिलने वाले तीन प्रकार के वसा) के सेवन से दिल की बीमारियों का सीधा समानुपातिक रिश्ता है. गदक्षिण एशियाई देशों खासकर भारत के खानपान को लेकर हुए इस अध्ययन के भाग में माना गया है कि गरीब वर्ग जो उर्जा के लिए अधिक मात्र में अनाज का सहारा लेता है  और जो आर्थिक कारणों से घी-तेल का सेवन नहीं कर पाता वह दिल की बीमारियों के साथ-साथ अन्य बीमारियों को भी जन्म देता है.  

यह व्यापक अध्ययन पांच महाद्वीपों के उच्च, माध्यम और निम्न आय वाले १८ देशों के १३५३३५ लोगों पर कनाडा के हैमिलटन -स्थित म्क्मास्टर यूनिवर्सिटी के पापुलेशन हेल्थ रिसर्च इंस्टिट्यूट के शोधकर्ताओं की टीम ने “प्योर” ( प्रोस्पेक्टिव अर्बन-रूरल एपिड़ेमोलोजी) अध्ययन कार्यक्रम के तहत किया गया. इस रिपोर्ट को पिछले माह के अंतिम सप्ताह स्पेन के बार्सिलोना में हुए यूरोपियन सोसाइटी ऑफ़ कार्डियोलॉजी कांग्रेस में जब प्रस्तुत किया गया तो पूरे विश्व के चिकित्सा वर्ग में चर्चा का एक तूफान सा आ गया है. तमाम देशों से अपील की जा रही है कि वे भोजन के लेकर अपने गाइडलाइन्स को बदलें और डॉक्टरों से भी अपनी चार दशक पुरानी मान्यताओं को तिलांजलि देने को कहा जा रहा है.

चिकित्सा विज्ञानं के अनुसार व्यक्ति को ऊर्जा जिन तीन पदार्थों से मिलती है वे हैं --- कार्बोहायड्रेट, फैट और प्रोटीन. दुनिया के तमाम बड़े देशों ने अपने यहाँ कम वसा और ज्यादा “कार्ब” को प्रोत्साहित करने के लिए कानून बनाये थे. ब्रिटेन के नेशनल हेल्थ सर्विस (एन एच एस) के वेबसाइट पर दिएगये देशवाशियों के सन्देश में भी आज भी दिखाई देता है “वसा का सेवन किसी भी कीमत पर ३० प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए और उसकी जगह स्टार्च-युक्त कार्बोहाइड्रेट्स (अनाज) का अनुपात अधिक होना चाहिए”. 

उधर इस अध्ययन दल के अगुवा डॉ महशिद देहघन ने इस नए अध्ययन पर बोलते हुए  कहा “ शरीर के लिए आवश्यक ऊर्जा के लिए ६० प्रतिशत से अधिक कार्बोहायड्रेट का सेवन दिल हीं नहीं कैंसर व डिमेंशिया सरीखे कई घातक बीमारियों को बढ़ाता है. इसे १० प्रतिशत कम करने के साथ वसा के सेवन (जिसमें सैचुरेटेड वसा जैसे घी और मक्खन भी हैं) बढ़ाया जाना बेहतर विकल्प है”.

इसे भारतीय निम्न व मध्यम वर्गीय खान-पान के अनुरूप इस तरह समझा जा सकता है। आप तीन रोटी खाते है फिर चावल और दाल भी लेते है और फिर आपकी पत्नी या माँ एक रोटी और खाने का इसरार करती है। अब उन्हे यह कहना होगा कि रोटी एक हीं खाओ पर घी लगी और साथ में सब्ज़ियाँ, सलाद और सस्ते फल का सेवन बढ़ा दो।

नए अध्ययन के अनुसार दिल की बीमारियों के अलावा डीमेंशिया (भूलने की बीमारी,) कैंसर आदि भी पुरानी अवधारणा –जनित खान –पान से बढ़ने के संकेत मिले हैं.

ब्रिटेन के जाने –माने हृदय चिकित्सक प्रोफ जेरमी पीअरसन ने इस शोध पर प्रतिक्रिया में कहा कि ब्रिटेन के स्वास्थ्य विभाग को जनता के लिए दी गयी अपनी खाद्य सम्बंधित एडवाइजरी में अमूल-चूल परिवर्तन करना होगा. इस अध्ययन के बाद हमें अपने कार्बोहायड्रेट की मात्र पर न कि वसा की मात्र पर अंकुश लगाना  होगा”. लगभग यही विचार ब्रिटेन के हीं एक अन्य प्रसिद्द कार्डियोलॉजिस्ट असीम मल्होत्रा ने व्यक्त करते हुए कहा “यह सही वक्त है कि दुनिया अपनी अब तक की अपनी अवधारणा में यू-टर्न ले और जिस वसा को “अछूत” समझना बंद करे”.

डॉ देहघन के अनुसार हम यह मानते आये हैं कि कुल वसा और खासकर सैचुरेटेड फैटी एसिड (जो घी मक्खन से मिलता है) को कार्बोहायड्रेट और अनसैचुरेटेड फैट से विस्थापित करने से एलडीएल कोलेस्ट्रोल कम किया जा सकता है और जिससे दिल की बीमारियाँ कम होंगी. यह अवधारणा केवल यूरोपीय लोगों के खान पान को देख कर हीं बनाई गयी. लेकिन दक्षिण एशिया के लोग गरीबी के कारण एक अलग किस्म का भोजन करते हैं जिसमें वसा की मात्र कम होती है और यह कमी जानलेवा होती है. साथ हीं पुराने अध्ययन में यह बात शामिल नहीं कि अगर वसा एलडीएल कोलेस्ट्रोल बढ़ता है तो साथ हीं एच डी एल (अच्छा कोलेस्ट्रोल) भी बढ़ाता है नतीजतन दोनों का अनुपात समान रहता है.

डा देहघन की टीम के अनुसार एल डी एल कोलेस्ट्रोल (जो कि खान –पान नियमन का मूल आधार है) वसा का दिल की बीमारियों पर क्या प्रभाव होता है , जानने के लिए विश्वसनीय कारक नहीं है. इसकी जगह एपीओबी (अपोलिपोप्रोटीन बी) और एपीओए-१ (अपोलिपोप्रोटीन ए-१) के अनुपात को आधार माना  जाना चाहिए था.  

प्रश्न है रिसर्च की विश्वसनीयता क्यों नहीं ?
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यहाँ प्रश्न यह उठाता है कि अगर पुरानी अवधारणा गलत थी तो क्यों सैकड़ों गलत या अधकचरे निष्कर्षों की बुनियाद पर पूरी दुनिया के लोगों को चार दशकों से मौत के मुंह में झोंका जा रहा है. क्यों यूरोप के लोगों और उनके खान-पान पर किये गए अध्ययनों को मानने के लिए भारत सरीखे गरीब मुल्कों के लोगों को मजबूर किया जाता रहा है?  कौन देगा हिसाब उन करोड़ों मौतों का जो गलत अवधारणा के कारण विश्व समुदाय ने झेली हैं?      

क्या आज सही समय नहीं है कि या तो विश्व स्वास्थ्य संगठन के स्तर पर नियम बनाये जाएँ कि चिकित्सा शोध तभीं जन-प्रयोग में लाये जाएँ जब व्यापक नमूनों को जो विश्व के हर भाग, संस्कृति , आर्थिक वर्ग के आधार पर लिए गए हों और जिन पर दीर्घ काल तक प्रयोग करके के किसी वैश्विक मानक संगठन द्वारा सत्यापित किये गए हों.        

lokmat