Thursday 20 October 2016

तीन तलाक और उलेमाओं के एक वर्ग का पूर्वाग्रह




शायद हमने गलत समझ की वजह से पिछले ७० सालों में प्रजातंत्र को मजाक बना दिया है. या यूं कहें कि प्रजातंत्र मानसिक ऐय्यासी का अखाडा बन गया है जिसमें अभिजात्य वर्ग बौद्धिक जुगाली करते हुए देश की शांति, विकास और जीवन के गुणवत्ता को बाधित कर रहा है. समान नागरिक संहिता का विरोध,  भारत –विरोधी और पाकिस्तान-समर्थक नारे देश की छाती दिल्ली के जे एन यू में लगाने वालों में भी “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देखना”, एक साथ केंद्र और राज्य के चुनाव कराने की अवधारणा की कुछ क्षेत्रीय दलों द्वारा मुखालफत, आतंकवाद के खिलाफ प्रभावी कदम उठाने के लिए केंद्र को अधिक शक्ति देने के खिलाफ राज्यों का खड़ा होना, केंद्र के तमाम जन कल्याण के कार्यक्रमों के प्रति राज्य सरकारों का इस लिए उदासीन होना कि इसका श्रेय केंद्र की सरकार को मिलेगा कुछ उदाहरण है. गौर करें, भारत जिस किस्म का आतंकवाद पिछले ३० सालों से झेल रहा है उसका आयाम न केवल देश-व्यापी है बल्कि मूल रूप से वैश्विक है. आतंकवादी बाहरी मुल्कों से आते हैं, देश में भी पाकिस्तानी कुप्रयासों से उनकी पौध लगाई जाती है. हाल के दौर में पाकिस्तानी एजेंसियों ने बांग्लादेश और नेपाल को नर्सरी के रूप में विकसित किया है. लेकिन जैसे हीं केंद्र सरकार ने कुछ साल पहले कानून में बदलाव करके आतंकवाद –निरोधक राष्ट्रीय इकाई को राज्यों में स्थापित कर उन्हें राज्यों की पुलिस के समान अधिकार देने चाहे कई राज्य तन कर खड़े हो गए इस तर्क के साथ कि यह अर्ध-संघीय ढांचे के खिलाफ है और इससे उनकी स्वायत्तता बाधित होती है. अमरीका हमसे बड़ा संघीय संविधान है और जहाँ राज्यों को बेहद अधिक अधिकार हैं लेकिन जब ९/११ को वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हमला हुआ उसके एक साल में वहां केंद्र ने निर्बाध शक्तियां होमलैंड सिक्यूरिटी एक्ट के तहत अपने पास ले लीं. किसी राज्य ने चूं भी नहीं किया.

हमारे देश में ताज़ा चर्चा है समान नागरिक संहिता को लेकर. याने क्या देश में “तीन तलाक” , “निकाह हलाला” और बहु-विवाह प्रथा बनी रहनी चाहिए या संविधान के अनुच्छेद १४, १९ और २१ के अनुरूप हर नागरिक को चाहे वह किसी भी धर्म का हो या किसी भी लिंग का, समान अधिकार होने चाहिए? और यह बात देश की सर्वोच्च अदालत ने पूछी है किसी राजनीतिक पार्टी ने नहीं या किसी धार्मिक-सामाजिक संगठन ने नहीं. देश की लॉ कमीशन ने १६ सवाल बना कर जनता से उनकी राय जाननी चाही है. अचानक आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तन कर खडी हो जाती है तमाम उन बातों की दुहाई देते हुए जिनकी वजह से संविधान निर्माताओं को मजबूरी में कुछ प्रावधान करने पड़े (जैसे अनुच्छेद २५ में धर्म का प्रोपोगेशन”। लेकिन फिर इस दबाव को निष्क्रीय करने के लिए नीति निर्देशक तत्वों में फिर से एक बार समान नागरिक संहिता बनाना राज्य का कर्तव्य बताया. संविधान सभा की अल्प-संख्यक समिति के इसी दबाव की नतीजा था कि शिक्षा के लिए , संस्कृति के लिए और धर्म-आधारित व्यक्ति के सामूहिक अधिकार और धर्म-आधारित समूह के अधिकार का प्रावधान अनुच्छेद २६ से ३० तक में देखने को मिलता है. पाकिस्तान बनने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी, हर दूसरे दिन अल्प-संख्यक समिति अपने को अलग करने की धमकी देती थी. सत्ताधारी  दल उनका मान-मनौव्वल करता रहता था.

अब वर्तमान स्थिति पर. धर्म का मूल भाग और उस धर्म के अनुयाइयों द्वारा प्रयोग में लाये जाने वाली परम्परों में अंतर होता है. परम्पराएं धर्म का मूल भाग नहें होती. लिहाज़ा अनुच्छेद २५ में मिलने वाला मौलिक अधिकार परम्पराओं पर लागू नहीं होता. सर्वोच्च अदालत में दो माह पहले इसी मामले में दायर एक प्रति-हलफनामे में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने स्पष्ट रूप से कहा कि “तीन तलाक और बहु-विवाह अवांछित हैं”. अगर यह इस्लाम धर्म का मूल भाग होता तो अवांछित न होता. सर्वोच्च न्यायलय ने पहले भी कई फैसलों में यह स्पष्ट किया है.

फिर अगर पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित दुनिया के २२ देश जिसमें अधिकांस इस्लामिक राज्य हैं, इस शोषक और पुरुष-प्रधान कुप्रथा को छोड़ चुके हैं तो भारत में क्यों बनाये रखने पर मुसलमान उलेमाओं का एक वर्ग जोर दे रहा है? मधु किश्वर बनाम बिहार राज्य में इसी अदालत ने कहा था कि अगर कोई प्रथा या  कस्टम मौलिक अधिकारों को बाधित करता है तो गैर-कानूनी है. सबसे पहले मिस्र ने इस तीन तलाक की प्रथा से निजात पाई और वह भी आज से ८७ साल पहले सन १९२९ में कानून संख्या २५ बना कर. दरअसल इस्लाम के चार स्कूलों में से एक –हन्बली --के विद्वान् इब्न तैमियह ने १३ वीं सदी में पहली बार तीन तलाक़ के व्याख्या करते हुए कहा था कि एक बैठक में तीन बार तलाक कहना मुकम्मल नहीं माना जाएगा और इसे एक बार कहा हुआ तलाक समझा जाएगा. मिस्र ने यह बदलाव इसी के मद्दे नज़र किया था. लेकिन इसके बाद पूरी दुनिया के इस्लामिक देशों में इसे माना जाने लगा और तदनुरूप कानून बनाए गए. सूडान ने इसे १९३५ में लागू किया. कालान्तर में धुर इस्लामिक राष्ट्र जैसे इराक, जोर्डन , इंडोनेशिया , संयुक्त अमीरात और क़तर भी तैमियाह की व्याख्या के अनुरूप कानून लाये। 

                    टर्की और पाकिस्तान
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उधर एक अन्य धारा का प्रतिनिधित्व करते हुए मुस्तफा कमाल के शासन में टर्की में सन १९२६ में स्विस नागरिक संहिता को अंगीकार किया गया. यह संहिता पूरे यूरोप की सबसे प्रगतिशील संहिता मानी जाते थी. लेकिन किसी मुसलमान ने नहीं कहा कि यह इस्लाम के खिलाफ है. पाकिस्तान में १९५५ में तत्कालीन प्रधानमंत्री मुहम्मद अली बोगरा ने पहली पत्नी को तलाक दिए बगैर अपनी सेक्रेटरी से शादी कर ली। पूरे पाकिस्तान में गुस्से का सैलाब आ गया. महिला संगठनों ने प्रदर्शन शुरू किये. मजबूरन एक कमीशन बनाया गया जिसने १९५६ में व्यवस्था दी कि एक बैठक में तीन बार कहा गया तलाक एक बार माना जाएगा. और तब से सुधार शुरू हुआ.

आखिर क्या वजह है कि भारत के उलेमाओं का एक वर्ग इस्लाम को इतना कमज़ोर मानता है कि स्त्रियों को समान अधिकार देने की व्यवस्था में उसे खतरा नज़र आ रहा है ? दरअसल कमज़ोर भारतीय इस्लाम नहीं है बल्कि देश के उलेमा हैं जिन्हें अपनी संस्था के अस्तित्व पर खतरा नज़र आने लगा है.
पूरी दुनिया की न्याय व्यवस्था में माना जाता है कि जीने का अधिकार तब तक सम्पूर्ण नहीं हो सकता जब तक जीने का विश्वास और गरिमा के साथ जीना शामिल न हो. प्रश्न  यह भी नहीं है कि कितनी मुसलमान औरतें इस प्रथा की शिकार हैं. अगर एक भी है तो वह प्रथा सभी समाज पर दाग है.

आधुनिक धर्म-निरपेक्षता के सिद्धांत के जनक होल्याके ने नैतिकता की परिभाषा देते हुआ कहा “नैतिकता व्यक्ति के उन्नयन पर आधारित होती है और उसका किसी भगवान् या भविष्य की दुनिया के  वादे से कोई मतलब नहीं होता. लिहाज़ा इसे कभी भी भगवान और धर्म से परे रखना चाहिए. भारत एक धर्म-निरपेक्ष देश है जिसमें व्यक्ति स्वातंत्र्य सर्वोपरि है. इसे बनाये रखने में मुस्लिम उलेमाओं के सभी वर्ग मदद करे तो शायद यह इस्लाम की भी बड़ी सेवा होगी.

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