Saturday 13 January 2018

ये क्या हुआ “मी लॉर्ड्स” ????????


यह भारत की हीं नहीं, दुनिया की न्याय बिरादरी में एक भूकंप की मानिंद था. भारत में न्यायपालिका और खासकर सर्वोच्च न्यायालय एक ऐसी संस्था थी जिस पर समाज का अद्भुत भरोसा होता था खासकर तब जब वह हर संस्था से न्याय की उम्मीद छोड़ चुका होता था. शुक्रवार को इस न्यायालय के चार वरिष्ठ जजों द्वारा प्रेस कांफ्रेंस करके एक संयुक्त पत्र जारी करना जिसमें देश की सबसे बड़ी अदालत के मुख्य न्यायाधीश पर न्याय -सम्मत तरीके से कार्य न करने का आरोप लगाना और यह कहना कि अगर हम स्थिति के खिलाफ आज तन कर न खड़े होते तो आज से २० साल बाद समाज में से कुछ बुद्धिमान यह कहते कि हम चार जजों ने ‘अपनी आत्मा बेंच’ दी थी” ने ७० साल पुराने लोकतंत्र की जड़ें हिला दी. जजों ने आगे कहा “हम इस मामले में चीफ जस्टिस के पास गए थे लेकिन वहां से खाली हाथ लौटना पडा “. इस प्रेस कांफ्रेंस के पांच मिनट भी नहीं हुए थे कि दर्ज़नों वरिष्ठ वकीलों ने पक्ष -विपक्ष में मीडिया में तर्क देना शुरू कर दिया. अगर वकील प्रशांतभूषण ने मीडिया में आ कर बेसाख्ता मुख्यन्यायाधीश के “चहेते “ जजों का नाम और वे मामले जो उन्हें सौंपे गए बताना शुरू किया तो पूर्व न्यायाधीश जस्टिस सोधी ने इन चार वकीलों के कदम को न्यायलय की गरिमा गिराने वाला , हास्यास्पद और बचकाना बताया. बहरहाल कुल मिलकर आज एक और सबसे मकबूल और विश्वसनीय संस्था भी व्यक्तिगत अहंकार या वर्चस्व की भेंट चढ़ गयी. जब प्रेस कांफ्रेंस में जजों से पूछा गया कि क्या वह मुख्य न्यायाशीश के खिलाफ महा-अभियोग लाने के पक्षधर हैं तो उनका बेबाक जवाब था “यह समाज को तय करना है”. याने सुप्रीम कोर्ट के ये चार जज एक तरह से इससे इनकार नहीं कर रहे हैं. ध्यान रहे कि भारत में पांच सदस्य हो तो वह संविधान पीठ के रूप में कार्य करता है और उसके फैसले में कानून की ताकत होती है.
हमने अभी तक कभी -कभी कमजोर आवाज में केन्द्रीय बार कौंसिल और राज्य बार एसोसिएशनों द्वारा कभी कभी जजों के खिलाफ व्यक्तिगत मामलों में आरोप लगते हुए देखा था लेकिन पिछले ७० साल में एक बार भी ऐसा नहीं देखने में आया कि सर्वोच्च न्यायलय के हीं चार वरिष्ठ जज अपने मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ प्रेस कांफ्रेंस करें और वह भी केसों के आबंटन में तथाकथित पक्षपात को लेकर. उनका कहना था कि कौन केस किस बेंच के पास जाएगा यह मुख्य न्यायाधीश के अधिकार क्षेत्र में होता है लेकिन यह प्रक्रिया भी कुछ स्थापित परम्पराओं के अनुरूप चलायी जाती है जैसे सामान प्रकृति के मामले सामान बेंच को जाते हैं और यह निर्धारण मामलों की प्रकृति के आधार पर न कि केस के आधार पर होता है. इसके आगे बढ़ते हुआ प्रशांतभूषण ने उन केसों और जजों के नाम बताने शुरू किये. इन चार जजों का और वकीलों का जन धरातल पर यह सब कुछ करना हर हालत में अवमानना की श्रेणी में आता है.
आधुनिक न्यायशास्त्र का मूल सिद्धांत कहता है “आप चाहे जितने भी बड़े क्यों न हों, कानून आपसे बड़ा होता है”. अदालत की अवमानना कानून, १९७१ के सेक्शन २(सी) () के अनुसार ऐसा कोई बयान जो अदलत की गरिमा को गिराता है” अदालत की अवमानना है”. इस सेक्शन के उप-खंड () और () को एक साथ पढ़ें तो इन चार जजों का बयान अवमानना की श्रेणी में आता है. अगर किसी सामान्य पर्त्रकार ने या रिपोर्टर ने कहा होता कि जजों को केसों का आबंटन भेद-भाव के तहत किया जा रहा है तो इसे सीधा अवमानना मान कर अदालत उस मीडिया प्रतिष्ठान के चेयरमैन से लेकर चपरासी तक को तलब कर लेता. लेकिन आज भारत में पहली मर्तबा बार हीं नहीं बेंच भी बंटा हुआ है और यह विभेद एक दूसरे पर खुले-आम आरोप लगाने में देखा जा सकता है.
क्या कोई और विकल्प नहीं ?
सर्वोच्च न्यायलय हीं नहीं उच्चन्यायालय के पास भी दो तरह के कार्य होते हैं. पहला न्याय का निष्पादन करना और दूसरा न्याय प्रशासन देखना. यह दूसरा काम आम तौर पर मुख्य न्यायाधीश के हाथ में होता है. जजों के पास केवल फैसले का काम होता है. और कॉलेजियम की व्यवस्था के बाद से पांच सबसे सीनियर जज नए जजों की नियुक्ति में भी भाग लेते हैं. यह बात सही है कि सर्वोच्च न्यायालय हीं नहीं, हाई कोर्ट के जज भी भारत के संविधान द्वारा अभिरक्षित हैं और उन्हें मात्र महा -अभियोग लगा कर हीं हटाया जा सकता है.
कुछ जानकारों का मानना है कि अगर इन चार जजों को मुख्य न्यायाधीश की कार्य प्रणाली से ऐतराज था तो वे सभी जजों की बैठक में जो सवेरे होती है इस मुद्दे को लेकर जाते और एक आम सहमति का प्रयास किया जाता. एक अन्य राय के मुताबिक ये जज अपने फैसले में भी मुख्यन्यायाधीश के केस आबंटन प्रर्किया के खिलाफ “स्वयंसंज्ञान” लेते हुए फैसला दे सकते थे जो स्वतः सार्वजानिक होता और जिससे यह ध्वनि न निकलती कि सार्वजानिक तौर पर सामूहिकरूप से कुछ जज मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ सड़क पर आ गए हैं.
बहरहाल इस प्रेस कांफ्रेंस के बाद भारत की सबसे बड़ी पंचायत की जिस गारिम को क्षति पहुँची है उसकी अनुगूंज आने वाले कई दिनों तक हीं नहीं वर्षों तक सुनायी देगी.
शायर मीर इस दिन का भान करते हुए ताकी मीर ने कहा :
कहता है दिल कि आँख ने मुझको किया खराब
कहती है आँख यह कि मुझे दिल ने खो दिया
लगता नहीं पता कि सही कौन सी है बात
दोनों ने मिल के “मीर” हमें तो डुबो दिया “.

jagran  

Thursday 11 January 2018

आगामी बजट और भारतीय किसान की समस्या


आसन्न २०१८-१९ बजट, डेढ़ साल बाद आम-चुनाव और पिछले चार साल में शुरू के दो साल सूखा, तीसरे साल इंद्र भगवान मेहरबान लिहाज़ा रिकॉर्ड फसल उत्पादन लेकिन कृषि उत्पाद मूल्यों में व्यापक गिरावट की मार और अब वैज्ञानिकों की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक आधे भारत में फसल पर कीटों के हमले से २० प्रतिशत तक फसल को नुकसान का ख़तरा. मोदी सरकार के लिए यह सब एक नयी चुनौती बन गए हैं. लखनऊ में मुख्यमंत्री आवास के सामने टनों आलू फेंकना, महाराष्ट्र में खडी फसलों को जलाना, ग्रामीण गुजरात के चुनाव परिणाम, मध्य प्रदेश में आन्दोलनकारी किसानों पर पुलिस फायरिंग में छह किसानों का मरना यह सब व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना किसी भी ऐसी सरकार या उसके मुखिया के लिए, जो जन-स्वीकार्यता और जन-विश्वास के पैमाने पर शिखर पर हो, अपरिहार्य है. भारत का ताज़ा बजट इस बार शायद परम्परागत फॉर्मेट से अलग होगा.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विकास की समझ अप्रतिम है. उसके अनुरूप नीतियां भी बन रहीं हैं लेकिन जब देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश का कृषि मंत्री , मुख्यमंत्री आवास पर नाराज़ किसानों द्वारा आलू फेंकने पर अपनी प्रतिक्रया में यह कहता है कि “सड़े आलू फेंके हैं और पुलिस एफ आई आर लिख कर फेंकने वालों की तलाश कर रही है” तब लगता है कि राज्य की सरकारों को नयी जनहित योजनाओं को अमल में लाने की न तो संवेदनशीलता है न हीं अपेक्षित विवेक. यही वजह है कि देश भर में अबकी साल दलहन, गेंहूं और तमाम रबी की फसलों का रकबा भी घटा है और आशंका है कि जी डी पी विकास दर में आने वाली कमी, जिसके बारे में केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन ने दो दिन पहले अपनी रिपोर्ट दी है, में मुख्य भूमिका प्राथमिक क्षेत्र याने कृषि और सम्बंधित गतिविधियों की होगी. कीटों के हमले के अंदेशे की पुष्टि भारतीय अनुसन्धान परिषद् के एक प्रमुख इन्वेस्टिगेटर डॉक्टर पांडुरंग मोहिते ने और महाराष्ट्र के परभणी -स्थित वसंतराव नाइक मराठवाडा कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉक्टर बी वेंकटेश्वरलू ने की.
हालाँकि देश के १९ राज्यों में आज भारतीय जनता पार्टी या उसकी सहयोगी दलों की सरकारें हों फिर भी कृषि क्षेत्र को विकास के मानचित्र पर सूर्खरू करने में राज्य सरकारों अभी कोई गति नहीं दिखा पाई हैं. उदाहरण के लिए मोदी सरकार ने फसल बीमा योजना में व्यापक परिवर्तन करके एक क्रांतिकारी प्रयास किया लेकिन गैर-भाजपा राज्य सरकारें तो छोडिये, भारतीय जनता पार्टी की सरकारें इसे वह गति नहीं दे पायीं जो अपेक्षित था. यह बीमा योजना देश के किसानों का नगण्य बीमा राशि के अंशदान पर हर प्राकृतिक या अन्य खतरे से हुए फसल नुकसान से किसान को मुक्ति दिलाता है लेकिन असल में दो साल बाद भी देश भर में मात्र दो से पांच प्रतिशत सामान्य किसान हीं इसका लाभ ले सके. उत्तर प्रदेश और बिहार में भी यही स्थिति रही. इस आपराधिक विफलता का एक मात्र कारण राज्य सरकारों को विवेक-शून्यता और अकर्मण्यता रही.
जहाँ एक ओर फसल बीमा योजना को युद्ध स्तर पर अमल में लाने की ज़रुरत है वहीं कृषि विपणन के क्षेत्र में भी व्यापक परिवर्तन करना होगा. पिछले वर्ष किसानों की मेहरबानी से दलहन का रिकॉर्ड २३ मिलियन टन उत्पादन हुआ जो कि देश की जरूरत से एक मिलियन टन ज्यादा रहा लेकिन अफसरों की अदूरदर्शिता के कारण पांच मिलियन टन दाल क आयत किया गया. पिछले कई दशकों से दाल की समस्या-जनित ऊँची कीमतों से जूझ रहे लोगों को पहली बार राहत मिली लेकिन किसानों के हाथ खाली रहे क्योंकि खुले बाज़ार में कीमतें औसतन मात्र ४००० रुपये प्रति कुंतल के आसपास रही. सरकारी क्रय केन्द्रों पर भी उन्हें समर्थन मूल्य पर बेंचना सरकारी संवेदनहीनता के कारण संभव नहीं हो पाया. हालाँकि उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने जरूर गेंहू की खरीददारी पिछली सरकारों के मुकाबले काफी अधिक की. आलू और गन्ने के प्रति यही तत्परता नहीं दिखी. अन्य राज्यों जैसे महाराष्ट्र में दलहन, गुजरात में कपास और मध्य प्रदेश में प्याज को लेकर अपेक्षित तत्परता नहीं दिखाई.
किसानों पर फायरिंग के बाद शिवराज सरकार ने सक्रियता दिखाई और कीमतों को तय करने की “भावान्तर भुगतान योजना” के नाम से एक नयी व्यवस्था लागू की. इस योजना में समर्थन मूल्य और बाज़ार की कीमत के बीच अंतर राशि का बुगतान किसानों को क्या जाएगा. इसकी शर्त यह है कि किसान को पहले से हीं फसल का प्रकार और रकबा सरकार को बताना और प्रमाणित करना होगा. इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा सरकार खरीद, भण्डारण और वितरण के जद्दोजहद से बाख जायेगी. भारत सरकार इसी मॉडल से जिंसों की कीमत निर्धारित करने पर विचार कर रही है.
गो-वंश और किसान
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इस बीच पूरे उत्तर भारत के किसान एक नयी समस्या से जूझ रहे हैं. हाल हीं में इस अखबार ने एक रिपोर्ट छपी जिसके अनुसार कानपुर के इमिलिया गाँव के एक किसान ५८ वर्षीय झल्लन सिंह ने आत्महत्या की क्योंकि कमर तोड़ मेहनत से अपनी लहलहाती पांच बीघे की गेंहू की फसल देखने जब एक दिन कड़ाके की सर्दी में खेत पहुंचे तो पाया कि छुट्टा गाय-बैल-सांडों के झुण्ड ने पूरी फसल चर ली है और फसल के नाम पर ठूंठ इस गरीब किसान को मुंह चिढ़ा रहे हैं. तथाकथित गो-रक्षकों के उत्तर भारत में आक्रामक होने से गो-वंश की खरीद -बिक्री बंद हो गयी है और जो गायें दूध नहीं दे रहीं हैं उन्हें चारे के अभाव में रखना किसानों के लिए मुश्किल हो रहा है लिहाज़ा ये गाय और बछड़े छुट्टा घूम रहे हैं और भूख के कारण खडी फसलों पर रातों में हमला कर रहे हैं. प्रदेश के उन्नाव जिले की हिन्दूखेडा गाँव की ८४ वर्षीय चन्द्रावती का कहना है कि उनके जीवन में ऐसे हालात पहले कभी नहीं दिखाई दिए. “इक्का-दुक्का पशु कभी दिन में खेत में आते थे जो भगा दिये जाते थे”. उत्तर बिहार में इसी तरह गो-वंश हीं नहीं नीलगाय और जंगली सूअर का फसलों पर हमला एक नयी आपदा के रूप में खडा है लेकिन धार्मिक भावना के कारण गौवंश तो छोडिये नीलगायों को भी नहीं मारा जा रहा है. गोवंश को छुट्टा छोड़ने की संख्या में अचानक वृद्धि इसलिए भी है क्योंकि विशुद्ध आर्थिक कारणों से बछड़ों का (बैल के रूप में) कृषि में कर्षण (जोतने) में इस्तेमाल बंद हो गया है. फिर विदेश नस्लों के नर-गोवंश (कंधे पर पुट्ठा) न होने के कारण जोतने के लिए इस्तेमाल भी नहीं हो सकते. इसके अलावा देशी नस्ल की गायें चारे की किल्लत और मोटे अनाज की अनुपलब्धता के कारण जल्द हीं बाँझपन की शिकार हो रही हैं. देश के बड़े भाग में किसानों को इन्हें रखना दुष्कर हो गया है. बिहार और उत्तर प्रदेश के कई जिलों मे गावों के किसानों में आपस में फौजदारी की नौबत आ रही है. लाख टेक का सवाल यह है कि गोरक्षक की भावनात्मक दादागीरी में अखलाक (उत्तर प्रदेश) और पहलू खान (राजस्थान) तो मार दिए जा रहे हैं और नतीजतन पूरे उत्तर भारत में गाय तो छोडिये , विदेशी नस्ल के नर गोवंश का एक जगह से दूसरे जगह ले जाना बंद हो गया है लेकिन सरकार न तो आक्रामक हिंदुत्व को रोकने में सक्षम है न हीं इसका कोई रास्ता निकाल पा रही है. किसानों का आक्रोश एक घुटन के रूप में कभी भी लावा बन कर निकल सकता है.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश के अर्थशास्त्रियों के साथ किसानों की समस्याओं पर एक बजट पूर्व बैठक करने जा रहे हैं लेकिन शायद उन्हें एक और बैठक राज्य के मुख्य मंत्रियों के साथ और एक अन्य आक्रामक हिंदुत्व के पुरोधाओं के साथ भी करनी होगी.

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