Sunday 14 December 2014

संघ का भ्रम-द्वन्द और मोदी की परेशानी



छाती ५६ इंच फिर भी संसद के सदनों में घूम-घूम कर माफ़ी की गुहार. आखिर क्यों? डेढ़ साल पहले जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर आये तब हीं से जनता को लगा कि सड़ी-गली राजनीति का दौर ख़त्म होगा और राजनीतिक संवाद में “पैराडाइम शिफ्ट” होगा. लेकिन क्यों संसद के इस सत्र में   इतिहास में पहली बार दस दिन के अन्दर हीं प्रधानमंत्री को अलावा, सत्तारूढ़ पार्टी के दो (जिसमें एक मंत्री है) और विपक्ष के एक सदस्य को सदन में अपने वक्तव्य  के लिए माफी मांगनी पडी? क्यों संविधान के अभिरक्षण और परिरक्षण की शपथ लेने वाला राज्यपाल मंदिर बनाने की बात कह कर सर्वोच्च न्यायलय में चल रहे विवाद को प्रभावित करता है तो दूसरी तरफ “घर-वापसी” का रेट खोल दिया गया है? बड़ी उम्मीद थी ८७ करोड़ वोटरों को कि विकास होगा, भ्रष्टाचार कम होगा, नौकरी का माहौल पैदा होगा , ट्रेनें समय पर चलेंगी, सदन में बहस होगी तो विकास को लेकर.   लेकिन “आगरा धर्म परिवर्तन” , “रामजादे बनाम हरामजादे” “ताजमहल या तेजोमहालय (शिवमंदिर)” से ऊपर ना तो पार्टी बढ़ पा रही है न मोदी के नेतृत्व की सरकार. पिछले १९० दिनों के शासनकाल में हर तीसरे दिन प्रतीक की राजनीति का सबसे घिनौना चेहरा-- “साम्प्रदायिक वितंडावाद”-- देखने को मिल रहा है.  
यहाँ दो प्रश्न खड़े होते हैं. आखिर मोदी की मजबूरी क्या है? और दूसरा क्यों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनुषांगिक संगठन हिन्दुत्व की गरिमा को इतना नीचे धकेल रहे हैं? संघ एक विचारवान, वैचारिकरूप से प्रतिबद्ध, अनुशासित और बेहद व्यापक संगठन है. क्या यह अपने लोगों को रोक नहीं पा रहा है या इतनी जल्दी में है कि “युद्ध में सब कुछ जायज है” के भाव में आ गया है और नतीज़तन मोदी की विश्वसनीयता को हीं जाने-अनजाने में आघात पहुंचा रहा है? क्या उचित न होता कि अगले पांच बर्षों तक मोदी को सिर्फ देश के विकास में हीं संलग्न रखते और पूरे समाज को यह सन्देश देते कि “यह होता है सुशासन” और इससे सामाजिक समरसता बढा कर पारस्परिक दुराव से ग्रस्त कई खानों में बंटे हिन्दू समाज को हीं नहीं अल्पसंख्यकों को भी अपने साथ करते?
धर्म-परिवर्तन का हीं मुद्दा लें. इसमें संघ का भ्रम-द्वन्द साफ़ झलकता है. एक तरफ संघ तथाकथित धर्म-निरपेक्षता के जवाब में बताता रहा है कि दरअसल धर्म और पंथ अलग-अलग हैं. पूजा-पध्यती अलग हो सकती है पर चूंकि हिन्दू या सनातन धर्मं जीवन पध्यती है लिहाज़ा मुसलमान या ईसाई चाहे कोई पूजा-पध्यती रखे वे भी सनातन धर्म के वृहत छाते के हीं अन्दर हैं. सरसंघचालक मोहन भगवत ने हाल हीं में मुसलमानों को भी हिन्दू मान कर इस संघीय अवधारणा पर मुहर लगाई है. अब अगर मुसलमान भी हिन्दू है तो फिर किस की घर वापसी? वह तो घर हीं में हैं न? खाली उसने पूजा-पध्यती हीं तो अलग रखी है. फिर विवाद किस बात का. दूसरा संघ ऐसे सधे और रणनीतिकुशल विचारकों का इतना भौंडा प्रदर्शन कि धर्म-परिवर्तन के लिए चिट्ठी लिखी जाती है यह कहते हुए कि मुसलामन को हिन्दू बनाने में पांच लाख रुपये देने है और ईसाई को हिन्दू बनाने में दो लाख. और यह चिट्ठी भी मीडिया को लीक हो जाती है. संघ के पास अपनी इज्ज़त छिपाने के लिए एक चार-इंच का कपड़ा भी नहीं रह जाता.
फिर किसकी घर वापसी? जो लोग  छोड़ कर गए उसमें अधिकांश तो घर में भी रह कर सदियों तक अछूत हीं रहे था और तभी तो घर बदला था. क्या संघ ने वे कुरीतियाँ ख़त्म कर दी हैं? कितने आन्दोलन संघ द्वारा किये गए हैं हिन्दू धर्म में निचले तबके को  समान अधिकार दिलाने के? लगभग ८८ साल के अपने जीवन में संघ के शीर्ष नेतृत्व में (गुरु जी के काल में)  ने ना तो स्वतान्त्रता आन्दोलन में भाग लिया (हालांकि स्वयंसेवक छटपटाते रहे), न हीं दिल से समाज सुधार की दिशा में कोई सायास कदम उठाये. एकचालाकानुवर्ती (एक नेता द्वारा चालित)  ब्राह्मणवादी व्यवस्था से स्वयं जकडे संघ ने रज्जू भैया के कार्यकाल में “समरसता की कोशिश भी कि तो बेमन ढंग से. शीर्ष नेताओं ने बड़े आडम्बर और लाव-लश्कर के साथ बनारस (वाराणसी) के डोम राजा के घर खाना तो खाया लेकिन अन्य जगहों पर दलितों के यहाँ पानी न पीकर कार में रखी मिनरल वाटर की बोतल से पानी पीते रहे. समरसता का आन्दोलन दृढ- इच्छाशक्ति के अभाव में असफ़लत रहा. हिन्दू समाज के अन्य बुराइया जैसे बाल –विवाह, विधवा प्रताड़ना, दहेज़ परंपरा पर सरकारी कानून के अलावा संघ ने अपनी तरफ से शायद हीं कुछ सार्थक प्रयास किये हों.
ऐसा नहीं हैं कि संघ के पास अच्छे , उदारवादी विचारकों की फौज नहीं हैं पर लगता है कि उनपर वह वर्ग भारी पड़ रहा है जो मोदी की सत्ता की आंच में अपने को सेंकने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहा है. वर्ना ८९ साल के इस संगठन को क्या यह समझ में नही आ पाया कि भ्रष्टाचार एक सामाजिक व्याधि है और इसके खिलाफ जनमत बनाना भी इसका हीं काम था ना कि किसी अन्ना हजारे का. ना तो संघ अपना मूल कार्य --हिन्दू धर्म यानि अपने घर को बेहतर  करना ताकि परिवार के सभी सदस्यों को समान दर्ज़ा मिले कर सका --ना हीं भ्रष्टाचार ऐसे सामजिक व्याधि के खिलाफ में चरित्र –निर्माण का बीड़ा उठा पाया. नौ दशक के जीवन काल में संघ एक शाश्वत भाव लेकर चला और वह था “उनका और हमारा “ (अस वर्सेज देंम). आज जब सत्ता साथ में है तो संघ समर्थित एक वर्ग लम्पटवादिता की राह से या उश्रिंखलता के जरिये “घर-वापसी” अभियान चलाया जा रहा. अलीगढ के एक भाजपा सांसद का दावा है कि हजारों ईसाई दिसम्बर २५ को “घर-वापसी” करेंगे. क्या यह संघ से अपेक्षित नहीं था कि पहले वह अपना घर रहने लायक बना ले. घर वापसी की ललक तो सब में रहती है. इसके लिए कोई रेट तय करने की ज़रुरत नहीं होती. 
एक और पक्ष लें. मोदी इतने कमज़ोर रहते तो अपने मन का पार्टी अध्यक्ष ना बना पाते ना हीं पार्टी के दिग्गज नेताओं को हाशिये पर ला सकते. लिहाज़ा अगर उत्तर प्रदेश के उप-चुनाव में कोई गेरुआधारी आदित्यनाथ चुनाव का मुखिया बनाया जाता है तो मोदी के “विकासकर्ता” के स्वरुप पर शक होने लगता है. यह शक तब और भी पुख्ता हो जाता है जब एक कीर्तन करने वाली फर्स्ट-टाइमर सांसद साध्वी निरंजनज्योति इतने विशाल भारत की मंत्री बनाई जाती है और अगले सत्र में हीं वह सदन की गरिमा रसातल में पहुंचाते हुए कहती है कि “या ते रामजादों को वोट दें या हरामजादों को”. शायद कीर्तन सुनने वाले कुछ लोग इस पर ताली बजाते हो पर संसद शर्मसार हो गया.
विडम्बना यह कि मोदी ने उस मंत्री के कहे पर दोनों सदनों में माफ़ी तो मांगी लेकिन फिर वही प्रतीक और अलगाव की राजनीति ! शाम तक पार्टी के प्रवक्ता ने कहा “चूंकि साध्वी दलित वर्ग की हैं (हालाँकि वह अति-पिछड़े वर्ग की हैं) इसलिए विपक्ष उनको लक्षित कर रहा है. प्रधानमंत्री ने अगले दिन हीं इस सधिव को दिल्ली चुनाव प्रचार करने याने उसे अपनी भाषा में बोलने की इज़ाज़त दे दी.

मोदी और संघ को चुनना पडेगा अपना रास्ता. अगर यही रास्ता है तो वह अनैतिक, गैर-प्रजातान्त्रिक , घृणा फ़ैलाने वाला होगा और जनता निराश हो जायेगी क्योंकि मोदी पर उसने अपनी सारी बोली लगा दी थी. वैसे भी ताज़ा सरकारी रिपोर्ट के अनुसार कृषि उत्पादन पांच साल में सबसे कम होगा क्योंकि रबी का रकबा काफी कम हुआ है. इन सात महीनों के शासन काल में मोदी सरकार कम से कम किसानों को प्रोत्साहित कर सकती थी इस रकबे को बढाने के लिए जो नहीं हुआ. अच्छे दिन आयेंगे पर शायद फिर किसी और के लिए.   

prabhat khabar