Friday 14 August 2015

कांग्रेस को “न खुदा हीं मिला न विसाल-ए-सनम”


“न खुदा हीं मिला न विसाल-ए-सनम.
न इधर के रहे न उधर के रहे”

कोई १३० साल पुरानी कांग्रेस पार्टी में दूरदर्शिता की कमी साफ़ दिखाई देती है. संसद के मानसून सत्र को पूरी तरह बाधित रखना फिर अंतिम दो दिनों में अन्य विपक्षी दलों द्वारा साथ छोड़े जाने से मजबूर हो कर उसी मुद्दे पर बहस में शामिल होना और अंत में पूरी तैयारी को उन्हीं तथ्यों तक महदूद करना जो पहले से हीं मीडिया द्वारा दिए जा चुके थे, ने कांग्रेस को नुकसान हीं पहुँचाया है. आज जनता पूछ रही है कि यही करना था तो पहले दिन हीं क्यों नहीं ? क्यों पानी में बहाया जनता की गाढ़ी कमाई के करोड़ों रुपये ? वैसे भी भ्रष्टाचार के आरोप अगर तथ्यों से समर्थित न हों तो कई बार आरोपकर्ता के गले पड़ जाते है.
कौन सा मुद्दा जन-भावनाओं को उद्वेलित करता है और कौन ४८ घंटे में उबाऊ हो जाता है , इस बात की समझ राजनीति में जरूरी है. दूसरा इन मुद्दों को कैसे उठाया जाये और किस माध्यम का इस्तेमाल किया जाये इस बात की समझ भी होनी चाहिए. तीसरा समाज का तत्कालीन शिक्षा स्तर और  तर्क-शक्ति से उपजी जन -चेतना इस बात को सुनिश्चित करती है कि कौन सा मुद्दा किस खंड- व् काल-विशेष में कितना प्रभावित करता है. चौथा: अगर मुद्दे में चौंकाने वाला तत्व नहीं है याने “स्टनिंग वैल्यू” नहीं है और “घिसे-पिटे तथ्य” पर हीं आधारित है तो मुद्दा दूर तक जन-मानस में घर नहीं कर पाता. साथ हीं  कुछ विधेयकों खासकर जी एस टी के बारे में आम धारणा है कि इससे सुधार और विकास होगा. जब जनता को यह पता चलता है कि ये बिल विपक्ष की हठधर्मिता के कारण पारित नहीं हो रहे हैं तो विपक्ष को अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है यह बताने में कि उसका मुद्दा विकास से भारी है. कांग्रेस यह नहीं कर पाई. नतीज़तन कहीं यह सन्देश भी गया कि सोनिया-राहुल की पार्टी विकास –विरोधी है और मोदी सरकार के विकास के कार्यों को रोकना चाहती है. विकास को लेकर वैसे भी कांग्रेस का ट्रैक रिकॉर्ड जन – अभिमत में अच्छा नहीं रहा है.      
कांग्रेस के रणनीतिकार इस बात में फर्क नहीं कर पाए कि क्रूड (स्थूल) भ्रष्टाचार और नैतिकता के प्रश्न में अंतर होता है. लिहाज़ा २-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कोयला घोटाला या बोफोर्स घोटाला उसी पायदान पर नहीं रखे जा सकते जिस पर नैतिक आचरण के मुद्दे. इस का कारण यह है कि पहले किस्म के भ्रष्टाचार कम पढी –लिखी जनता को भी तत्काल समझ आ जाते है क्योंकि उनको परिमाणात्मक तराजू पर देखा जा सकता है जैसे २-जी घोटाले में जनता का १.७६ लाख करोड़ का नुकसान. “यह इतना पैसा है कि देश की अति-गरीब जनता को पांच साल तक मुफ्त राशन दिया जा सकता है” विपक्ष यह कह कर जन-भावनाओं को उभार सकता है. बोफोर्स के मामले ने जनाक्रोश के कारण कांग्रेस सरकार हारी क्योंकि मामला सेना की तोपों का था, क्वात्रोकी इटली का और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की पत्नी सोनिया भी वहीं की थीं. आजादी के चंद महीने बाद सन १९४८ में  तत्कालीन भारतीय उच्चायुक्त वी के कृष्णामेनन ने सारे नियमों की धज्जी उड़ाते हुए एक ब्रितानी कंपनी से भारतीय सेना के लिए ८० लाख रुपये का नकद भुगतान करते हुए २०० जीपें खरीदी. इनमें भारत पहुँची १५५ और वे भी चलने लायक नहीं. लेकिन तब देश आजादी के जश्न में डूबा था नेहरू जनता के दुलारे (डार्लिंग ऑफ़ इंडियन मासेज) थे लिहाज़ा संसद में जब अयंगर  समिति ने मेनन के खिलाफ मुकदमा चलाने की सिफारिश की तो प्रधानमंत्री नेहरु ने उसे ख़ारिज हीं नहीं किया बल्कि मेनन को भारत बुला कर रक्षा-मंत्री बना दिया. उस समय मीडिया सिर्फ प्रिंट तक हीं सीमित थी, साक्षरता ३० प्रतिशत थी.
सुषमा स्वराज को लेकर जो मुद्दा उठा वह नैतिक पैरामीटर्स पर तौलने वाला था आर्थिक लाभ का मामला कभी भी नहीं बन पाया. उसके बरअक्स किसी कैंसर –पीडिता के पति को इलाज के लिए यात्रा दस्तावेज दिलाने के लिए विदेश के राजदूत से फोन पर बात करना आचार के पैमाने पर आता है. “आदान-प्रदान (क्विड- प्रो- को) का आरोप जो कांग्रेस ने लगाया वह इतना हल्का था कि जन-मानस ने इस आधार पर ख़ारिज किया कि कोई किसी का जूनियर वकील हो कर कितना कमा लेगा.  फिर अगर कांग्रेस प्रतीक भाव से एक या दो दिन का व्यवधान करती तो जनता के लिए यह उबाऊ न होता या फिर हर रोज इस मुद्दे पर नए तथ्य लाती जो जन मानस को झकझोरते तो भी समझ में आता. पर मीडिया द्वारा पहले से हीं दिए तथ्यों पर हफ्ते-दर-हफ्ते संसद रोकना बेहद बचकाना लगा.
सबसे बड़ी गलती कांग्रेस के यह थी कि इस मुद्दे पर खुद भी कटघरे में थी. भ्रष्टाचार के आरोप के जन मुद्दे के रूप में विकसित होने की पहली शर्त है कि आरोपकर्ता कम से कम उसी आरोप में शामिल न दिखाई दे. ललित मोदी के खिलाफ बी सी सी आई ने २०१० में हीं संस्था से धोखेबाजी का मुकदमा चेन्नई के एक थाने में दायर किया था. ऍफ़ आई आर पढ़ने के बाद एक बच्चा भी कह सकता है कि यह मात्र कर अपवंचना का मामला नहीं बल्कि मॉरिशस के रास्ते धन विदेश ले जाने का (मनी लान्ड़रिंग) का केस है. आखिर कांग्रेस के नेतृत्व वाली यू पी ए -२ की सरकार ने क्यों चार साल तक मनी लान्ड़रिंग का आपराधिक मामला दर्ज कर अपने अधिकार के तहत ब्रिटेन भाग गए मोदी को वापस बुलाने का प्रयास नहीं किया. चर्चा के दौरान न तो राहुल गाँधी ने न हीं पार्टी के किसी अन्य नेता ने इस आरोप का जबाव दिया.
व्यवधान के दौरान कांग्रेस लगातार घिसे -पिटे रिकॉर्ड की तरह बजती रही उन्हीं तथ्यों को लेकर जिन्हें मीडिया दे चुका था और जिनमें कोई “स्टनिंग वैल्यू) नहीं थी. “हमला करो और भाग जाओ” की हल्की रणनीति अपनाई गयी, फ्लोर कोआर्डिनेशन गायब था. राहुल तथ्यों से खाली थे तो सदन के नेता मल्लिकार्जुन खड्गे अभिव्यक्ति के लिए प्रवाहपूर्ण - भाषा से.
साथ हीं राहुल का यह कहना कि सुषमा जी ने एक दिन मुझे रोक कर मेरा हाथ पकड़ कर कहा “बेटा, क्यों नाराज़ हो मुझसे”. मैंने उनकी आँखों में आँखें डाल कर देखा तो उनकी नज़रें झुक गयी” . राहुल का सदन में इस किस्से को बयां करना नैतिक रूप से गलत था क्योंकि वह एक अनौपचारिक बातचीत थी साथ हीं “नज़रें झुक गयी “ खोखला, अतार्किक और निहायत व्यक्तिगत अहसास था जिसे सत्य की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. इस तरह का वितंडावाद तब किया जाता है जब आरोपकर्ता में अपने तर्क-शक्ति की कमी होती है.              
राहुल गाँधी अक्सर बाँझ –उत्साह के शिकार हो जाते हैं. सदन में उनकी एक अन्य टिपण्णी लीजिये. आर एस पी के सदस्य प्रेमचंद्रन ने संविधान के अनुच्छेद ७५ (३) और तत्संबंधित अनुसूची ३ में मंत्री के शपथ “बिना पक्षपात” के का जिक्र किया और शपथ भंग करने का आरोप लगाते हुए इस्तीफे की मांग की. अब जरा भारतीय जनता पार्टी के नेताओं का कौशल्य और क्षमता देखिये. अगले हीं क्षण सुषमा स्वराज ने वह पत्र पढ़ना शुरू कर दिया जिसमें इसी सांसद ने विदेश मंत्री से एक अपराधी माधवन पिल्लई जो ओमान के जेल में कैद है को बीमार माँ को देखने के लिए आने और सजा कम करने के लिए ओमान सरकार को पत्र लिखने का आग्रह किया था. प्रेमचंद्रन इस हमले के लिए तैयार नहीं थे. इस झटके के बाद भी राहुल गाँधी नहीं सतर्क हो पाए और अति-उत्साह सुषमा स्वराज से पूछा  “तो इस मामले में क्या किया सरकार ने”. सुषमा ने नहीं लेकिन वित्त मंत्री ने इसका जवाब दिया “जी हाँ, उस पर भी विदेश मंत्रालय ने ओमान सरकार को लिखा”. प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी को भी “गट्स” (साहस) नहीं है “ जैसे आरोप लगाना हल्का लगा. शायद जनता के बीच मोदी के खिलाफ यह आरोप तो नहीं हीं चल सकता.  
किसी भी संसद के चार कार्य होते हैं—कानून बनाना, सरकार को खर्च करने की अनुमति देना, सरकार के कार्यों की समीक्षा करना और राष्ट्रीय मुद्दों पर बहस करना. इन चार कार्यों में से एक भी यह इजाज़त नहीं देता  कि अगर मुद्दा गंभीर हो तो संसद की कार्यवाही भी रोकी जा सकती है.
कुल मिलकर कांग्रेस के लिए यह  “....... भी और प्याज भी खाने “ की तरह रहा.